कल अपनी एक मित्र से फोन पर बात हो रही थी, वे
बोली की दुनिया की इन्हीं बातों के कारण
मुझे वैराग्य हो गया है। पता नहीं क्यों यह शब्द मुझे कई पलों तक झकझोरता रहा और आखिर किसी दूसरी बात
में लपेटकर मैंने कहा कि मैं तो राग की बात करती हूँ, आज राग ही नहीं है तो
वैराग्य कहाँ से आएगा! जब हमारे मन में किसी दूसरे के प्रति राग उत्पन्न होता है तब अपने से वैराग्य
आता है। माँ संतान के जन्म देती है, संसार के सबसे बड़े राग को अपने अन्दर धारण
करती है लेकिन इस राग के कारण स्वयं के सुख-दुख से वैराग्य धारण कर लेती है। एक
सैनिक जमाव बिन्दु से 40 डिग्री नीचे के तापमान में अपने देश की सीमाओं की सुरक्षा
करता है, वह देश से राग करता है और बदले में अपने सारे शारीरिक कष्टों के प्रति
वैरागी हो जाता है। विवेकानन्द जैसा सामाजिक उद्धारक अपनी संस्कृति से राग करता है
तब परिव्राजक बनकर अपने सारे ही सुखों से वैराग्य ले लेता है। आज हम केवल स्वयं से
राग करते हैं, अपने अहंकार से चिपटे हुए हैं। बस परिवार में, समाज में और हो सके
तो दुनिया में मेरी ही बात मानी जाए या मेरी ही सत्ता स्थापित हो जाए। आज सारी दुनिया आतंक के साये में क्यों
जी रही है? कारण है अपनी मान्यताओं के
प्रति राग। हम सारी दुनिया को एक ही रंग में रंगना चाहते हैं। आज जितने भी
मत-मतान्तर हैं, वे सारे ही विस्तार की चाह रखते हैं। विवेकानन्द ने कहा था कि मैं
दुनिया को अपनी संस्कृति के बारे में बताने आया
हूँ ना कि धर्मपरिवर्तन करने।
जब हम दूसरों से राग करते हैं या प्रेम करते
हैं तब उसके प्रति झुकते हैं, अपने अहंकार का दमन करते हैं और जब हमारे अहंकार का नाश
होता है तभी वैराग्य आता है। संन्यासी अक्सर गृहस्थों को कहते हैं कि त्याग करो और
भोजन में कोई भी वस्तु त्याग दो। हम हमारी अप्रिय वस्तु छोड़ देते हैं। संन्यासी कभी
नहीं कहते कि तुम संग्रह छोड़ दो या गलत तरीके से अर्जित धन का त्याग कर दो, इसके
विपरीत वे ऐसी सम्पत्ति से खुद को बांध लेते हैं। बड़े-बड़े धार्मिक स्थान इस बात
की गवाही दे रहे हैं। इसलिये मैं कहती हूँ कि अपनों के प्रति राग करो, अपने समाज
के प्रति राग से भर जाओ, अपने देश के प्रति राग में डूब जाओ। अपने देश, समाज या
अपनों के प्रति राग करने से अपने मन को समर्पित करना पड़ता है, तन के कष्ट उठाने
पड़ते हैं और धन का दान करना पड़ता है, याने अपने से वैराग्य पैदा करना पड़ता है।
इसलिये वैराग्य के आडम्बर में मत उलझो, राग के पाश में बंधने का प्रयास करो।
जैसे ही राग आएगा वैराग्य तो स्वयं ही आ जाएगा।
यहाँ मैंने आप सभी से राग में बंधकर अपनी बात
कही है, आपके विचार भिन्न होंगे ही, लेकिन यह मेरे विचार हैं। आप अपने विचार भी
खुलकर रख सकते हैं।
4 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (07-05-2017) को
"आहत मन" (चर्चा अंक-2628)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
आभार शास्त्रीजी।
सही कहा आपने
बहुत सुन्दर रचना..... आभार
मेरे ब्लॉग की नई रचना पर आपके विचारों का इन्तजार।
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