Friday, June 29, 2018

विश्वास बड़ी चीज है


विश्वास बड़ी चीज होती है, लेकिन यह बनता-बिगड़ता कैसे है, इसका किसी को पता नहीं। शतरंज का खेल सभी ने थोड़ा बहुत खेला होगा, खेला नहीं भी हो तो देखा होगा, इसमें राजा होता है, रानी होती है, हाथी होता है घोड़ा होता है, ऊँट है तो पैदल भी  हैं। सभी की चाल निश्चित है, खिलाड़ी इन निश्चित चालों के हिसाब से ही अपनी चाल चलता है। उसे घोड़ा मारना है तो अपनी रणनीति तदनुरूप बनाता है और हाथी मारना है तो उसी के अनुसार। राजनीति भी एक शतरंज के खेल समान है, दोनों तरफ सेनाएं सजी हैं और दोनों ही सेनाएं अपनी-अपनी योजना से खेल को खेल रही हैं। खिलाड़ी को पता है कि मुझे क्या चाल चलनी है लेकिन दर्शक को पता नहीं है कि इस चाल का अर्थ क्या है! आज की राजनीति में दर्शक के साथ फेसबुकिये भी आ जुटे हैं, वे अपने ही खिलाड़ी को किसी भी चाल पर बदनाम कर सकते हैं। इस बेवजह की टोका-टोकी से जीतता हुआ खिलाड़ी भी हार जाता है। शतरंज का खिलाड़ी अपनी मेहनत से बनता है और इस मुकाम तक पहुँचता है कि वह राष्ट्रीय या अन्तरराष्ट्रीय मुकाबलों में भागीदार बने, उसे  बनाने में किसी की  भूमिका नहीं होती है, बस उसकी लगन और उसकी बुद्धि ही उसे चोटी का खिलाड़ी बनाती है। राजनीति में भी लगन और बुद्धि ही आगे ले जाती है। एक राजनीतिज्ञ सोच-समझकर अपने कदम रख रहा होता है कि चारों ओर से शोर मच जाता है कि तुम्हारी चाल गलत है। याने दर्शकों को अपने खिलाड़ी पर विश्वास ही नहीं है। चतुर दर्शक खिलाड़ी के खेल को आश्चर्य से देखते है कि देखों हमारे खिलाड़ी ने यह अनोखी चाल चली है तो कैसे सामने वाला वार करता है लेकिन कमअक्ल दर्शक चिल्लाने लगते हैं कि चाल गलत चल दी है।
जब हम खुद कमजोर होते हैं तब हमारा विश्वास भी हर घड़ी डगमगाता रहता है, हम अपने व्यक्ति पर विश्वास रख ही नहीं पाते। परिवार में भी यही देखने को मिलता है कि जो रात-दिन आपकी सेवा कर रहा है, उसके प्रति भी किसी बाहरी व्यक्ति के कहे अनर्गल शब्द विश्वास डगमगा देते हैं। यह उस व्यक्ति का दोष सिद्ध नहीं करते अपितु आपको अपरिपक्व सिद्ध करते हैं। लेकिन आपकी अपरिपक्वता कभी परिवार को तो कभी देश को ले डूबती है। परिवार वाले मेला देखने गये हैं, बच्चा जाते ही जिद पकड़ लेता है कि खिलौना दिलाओ। माता-पिता कहते हैं कि दिला देंगे, लेकिन बच्चा बीच रास्ते पसर जाता है, तमाशा खड़ा कर देता है और झक मारकर माता-पिता बच्चे को खिलौना दिला देते हैं। थोड़ी देर में वही खिलौना बच्चे के लिये भार बन जाता है, तब माता-पिता कहते हैं कि हमने इसलिये ही कहा था कि जाते समय दिला  देंगे। बच्चे को हर चीज देखते ही चाहिये, माता-पिता को पता है कि कब दिलानी है और कहाँ से लेनी है, लेकिन बच्चा मानता नहीं। राजनीति में भी यही हो रहा है, हमें आज की आज यह चाहिये। राजनैतिक परिस्थितियाँ चाहे कुछ भी हो, लेकिन उन्हें आज की आज चाहिये। बच्चा रो रहा है कि आप मुझे कुछ नहीं दिलाते हो, मेरे लिये आपने किया ही क्या है, हम भी रो रहे हैं कि हमारे नेताओं ने हमारे लिये किया ही क्या है?
दो दिन से पुरी के मन्दिर का प्रकरण आ रहा है, मैं भी दो-तीन बार पुरी गयी हूँ, वहाँ के जो हाल हैं वह अकथनीय हैं। पण्डे सरे आम लकड़ी मारते हैं, गाली देते हैं, धक्का देते हैं। आदत पड़ गयी है तो राष्ट्रपति की पत्नी को भी धक्का मार दिया। लेकिन क्या इसके लिये सरकार दोषी है? अपने गिरेहबान में झांक कर देखिये जो रात-दिन हिन्दुत्व का रोना रोते हैं वे खुद क्या कर रहे हैं! पुरी हो या बनारस, सभी जगह पण्डों के हाल बुरे हैं। अभी पिछले साल  ही गंगा सागर जाना हुआ, जहाज में बैठने के लिये इतनी धक्कामुक्की की कुछ भी हो जाए! क्या हिन्दुत्व वादी संगठनों की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती! हम वृन्दावन गये, इतनी दुर्दशा कि रोना आ जाए, लेकिन कोई संगठन वहाँ दिखायी नहीं देता। देश के सारे ही धार्मिक पर्यटक स्थलों पर जा आइए, दुर्दशा के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलेगा। सारे भिखारी वहीं मिलेंगे, सारे लुटेरे वहीं होंगे, लेकिन हिन्दुत्व के लिये गरियाने वाले संगठन कहीं नहीं होंगे। अब आप कहेंगे कि हम क्या करें! आप अपने अन्दर झांकिये कि आपने आजतक हिन्दुत्व के लिये क्या किया? एक उदाहरण देकर अपनी बात समाप्त करूंगी, हमारे शहर में एक अमरूद का ठेका लेने वाले की मृत्यु हो गयी, सम्प्रदाय विशेष ने धार्मिक रंग देकर उसे बाबा बना दिया। हिन्दुओं ने जुलूस निकाला और जिलाधीश के पास गये। जिलाधीश ने  मेरे सामने कहा कि वे पचास हजार थे और आप पाँच हजार भी नहीं हैं, अपितु पाँच सौ हैं, तो अब कैसे हम आपके अधिकारों की रक्षा करें।  इसलिये अपने नेता पर विश्वास करना सीखिये, यदि आप में दमखम होता तो आप नेता होते। घड़ी-घड़ी कटघरे में खड़ा करने की आदत आपको ही महंगी पड़ जाएगी। कल एयरलिफ्ट फिल्म देख रही थी तो उस दिन की घटना को अभी यमन की घटना के संदर्भ में देखा तो सुषमाजी के लिये मैं नतमस्तक हो गयी। करना सीखिये, विश्वास भी अपने आप आ जाएगा, अभी तक आपने कुछ नहीं किया है, बस कॉपी-पेस्ट करके हवा में तूफान खड़ा किया है, इसलिये विश्वास नाम की चीज आपके खून से रिसती जा रही है। जिस दिन कुछ करने लगेंगे उस दिन काम कैसे होता है जान जाएंगे और स्वत: ही अपने नेताओं पर विश्वास बन जाएगा।
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Tuesday, June 26, 2018

रानी की खीर में लाल चावल


एक लघु कथा याद आ रही है, आपको भी सुनाए देती हूँ – एक महारानी थी, उसे देश के विद्वानों का सम्मान करने और उन्हें भोजन पर आमंत्रित करने का शौक था। उनके राज्य में एक दिन अपने ही मायके के एक विद्वान आए, उन्होंने अपनी आदत के अनुसार उन्हें भोजन पर आमंत्रित किया और सुस्वादु भोजन के रूप में खीर परोसी। खीर में बड़ी मात्रा में सूखे मेवे पड़े थे और मलाई के साथ मिलकर उनकी एक मोटी परता खीर पर जम गयी थी। विद्वान ने सबसे पहले मेवे युक्त मलाई की परत को हाथ से निकाला और बाहर रख दिया। फिर तेजी से हाथ की अंगुली को खीर के अन्दर डाला और एक लाल चावल उसमें से निकाला और रानी को दिखाया! रानी हतप्रभ थी, उसने हाथ जोड़कर पूछा की प्रभु! आपका परिचय क्या है? उत्तर आया कि मैं  प्रसिद्ध आलोचक हूँ।
आलोचक स्वयं को सिद्ध करने के लिये अपने अहंकार को पुष्ट करता है, चाहे वह राजनीति में हो या साहित्य में। जबकि राजनेता या लेखक समाज की अनुभूति के साथ खड़ा रहता है, वह समाज की नब्ज देखकर ही कार्य करता है या लिखता है। आज राजनीति की ही बात कर लें क्योंकि दो-तीन दिन से अलग प्रकार की राजनीति देखने में आ रही है, कोई अपनी ही नेता के खिलाफ अपशब्दों का प्रयोग कर रहा है तो कोई ताल ठोक कर विरोध में नया दल  बना बैठा है। मैं राजनीति शून्य हूँ, मेरा कोई अनुभव भी नहीं हैं लेकिन लेखक होने के नाते समाजनीति का पूरा अनुभव है। लेखक हूँ तो आलोचक नहीं हूँ, आलोचक नहीं हूँ तो स्वयं के अहंकार को पुष्ट करने का प्रयास नहीं करती। बस जो समाज चाहता है, उसे ही पढ़ने का प्रयास रात-दिन रहता है। मुझे आज लग रहा है कि एक रानी जो विद्वान का सम्मान कर रही है, लेकिन विद्वान लाल चावल का दाना निकालकर उसकी कमियां निकाल रहे हैं। यदि आप समाज के मध्य जाते तो अच्छे राजनेता या लेखक बनते लेकिन स्वयं के अहंकार में डूबकर आप केवल कमियां ढूंढने वाले आलोचक बन गये हैं। जब-जब भी किसी व्यक्ति के अहंकार ने ताल ठोकी है वह औंधे मुँह गिरा है क्योंकि समाज कभी भी निरर्थक आलोचना पसन्द नहीं करता, वह काम चाहता है। कोई भी व्यक्ति या संगठन केवल कमियाँ ही निकालता रहेगा तो समाज का दिल नहीं जीत सकता, उसे समाज के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करना ही पड़ेगा। उदाहरण देखिये – अन्ना हजारे का सम्मान समाज करता था लेकिन वे कमियाँ निकालने चल पड़े और लोगों ने उन्हें नकार दिया। देश की वर्तमान राजनीति में ऐसे कई नाम हैं जो खुद को बड़े पद पर आसीन करना चाहते हैं लेकिन आलोचना के अतिरिक्त कुछ करते नहीं, समाज उनकी बातों का आनन्द तो लेता है, उन्हें उकसा भी देता है लेकिन पसन्द नहीं करता।
मोदी में और अन्य नेताओं में क्या अन्तर है? मोदी काम करता है, देश के विकास को अपनी कलम से लिखता है। इसलिये वह लेखक की भूमिका में हैं और जो स्वयं के अहंकार को पुष्ट करने के लिये उनकी आलोचना करते हैं, वे केवल आलोचक बनकर रह गये हैं। आप कितनी नकारात्मक शक्तियों को एकत्र कर सकते हैं, इससे राजनीति चल ही नहीं सकती, हाँ आप विध्वंश जरूर कर सकते हैं। यह देश स्वार्थपरक राजनिति के कारण सदियों से विध्वंश का शिकार होता आया है और पुन: भी हो जाएगा, इससे ना आलोचकों को कुछ प्राप्त होगा और ना ही सृजन करने वालों को, बस विनाश ही निश्चित है। भारतीय इतिहास के जितने भी पृष्ठ खोलेंगे अधिकतर पृष्ठ ऐसे नकारात्मक – अहंकारी व्यक्तियों से भरे होंगे और यही कारण है कि आज भारत रात-दिन के संघर्ष में घिरा हुआ है। आप लोगों को यदि राजनीति की समझ है तो राजनीति कीजिए लेकिन समझ नहीं हैं तो अपने अहंकार को पुष्ट करने के लिये ही केवल आलोचक मत बनिये। एक तरफ ऐसी कौम है जो अपने सम्प्रदाय के लिये खुद को बारूद से बांधकर उड़ा दे रही है और दूसरी तरफ हम है जो अपने अहंकार के नीचे दबे होकर अपने समाज के लिये थोड़ा सा त्याग नहीं कर सकते। यदि आपके साथ अन्याय हुआ है तो आप पर्दे के पीछे जाकर समाज का काम करें लेकिन विध्वंश की राजनीति करने से विनाश के अतिरिक्त कुछ हासिल नहीं होगा। अपनी विद्वता सिद्ध करने के लिये रानी की खीर से लाल चावल निकालते रहिये और समाज को बताते रहिये कि विद्वानों का सत्कार करने पर ऐसी ही आलोचना का शिकार होना पड़ेगा।
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Saturday, June 23, 2018

हिन्दुस्थान फिर गुलाम होने लगता है


ईसा से 350 साल पहले एलेक्जेन्डर पूछ रहा था कि हिन्दुस्थान क्या है? यहाँ के लोग क्या हैं? लेकिन नहीं समझ पाया! बाबर से लेकर औरंगजेब तक कोई भी हिन्दुस्थान को समझ नहीं पाए और अंग्रेज भी समझने में नाकामयाब रहे। शायद हम खुद भी नहीं समझ पा रहे हैं कि हमारे अन्दर क्या-क्या है! आप विदेश में चन्द दिन रहकर आइए, आपको वहाँ की मानसिकता समझ आ जाएगी – सीधी सी सोच है,  वे खुद के लिये जीते हैं। प्रकृति जिस धारा में बह रही है, वे भी उसी धारा में बह रहे हैं। खुद को सुखी करने के प्रयास दिन-रात करते हैं। दूसरों को उतना ही अधिकार देते हैं, जितना जरूरी है, जब उनके खुद के अस्तित्व पर बात आती है तो सारे अधिकार उनके खुद के हो जाते हैं। माँ और ममता दोनों ही सीमित दायरे में रहते हैं, बस स्त्री और पुरुष को युगल का महत्व है। इसके विपरीत हिन्दुस्थान में हजारों सालों का चिन्तन, हजार प्रकार से आया है, हमारे अन्दर संस्काररूप में थोड़ा-थोड़ा सभी कुछ है। हम धारा के साथ नहीं धारा के विपरीत बहने का प्रयास करते हैं और इसी को संस्कृति भी कहते हैं। धारा के विपरीत बहने से हर पल संघर्ष करना पड़ता है, अपने मन से, अपने परिवेश से। जब मन में ज्ञान की बाढ़ आ रही हो तब स्वाभाविकता दब जाती है लेकिन जैसे ही बाढ़ थमती है और स्वाभाविक परिस्थिति उत्पन्न होती है, हमारे अन्दर का ज्वालामुखी फट पड़ता है और ज्ञान की बाढ़, विषाक्त लावे में बदल जाती है। इसलिये दुनिया हमें समझ नहीं पाती कि ये ज्ञान का मीठा झरना हैं या विष का ज्वालामुखी!
हम कहते हैं कि हमारी संस्कृति का आधार है, बड़ों का सम्मान और खासकर के महिला व माँ का सम्मान। माँ कभी गलत नहीं होती, यदि आपको लगता भी है कि गलती हुई है तो धैर्य रखिये, यह केवल आपका भ्रम ही सिद्ध होगा। विदेश में कोई दुर्गा नहीं हुई लेकिन हमारे यहाँ दुर्गा का रूप हर युग में उत्पन्न हुआ। जिस संस्कृति में माँ को पूजनीय कहा उसी संस्कृति में हर युग में दुर्गा ने जन्म लिया। यही उलझन हर व्यक्ति को सोचने पर मजबूर कर देती है कि आखिर हिन्दुस्थान है क्या! हमारे यहाँ माँ घर के किसी कोने में पड़ी मिलती है या फिर वृन्दावन की गलियों में, लेकिन जब दुर्गा बन जाती है तब इतिहास के पन्नों में प्रमुखता मिलती है। सारे अत्याचार महिला पर आधारित हैं, सारी गाली महिला  पर आधारित हैं, युद्ध में हारने पर लुटती महिला ही है। पुरुष से गलती होने पर खामोशी छा जाती है और लोग बचाव की मुद्रा में आ जाते हैं लेकिन महिला का कदम भी सहन नहीं होता और चारों ओर से बवाल मचा दिया जाता है। ऐसा लगता है जैसे हमारे अन्दर महिला के प्रति तीव्र आकर्षण विद्यमान है, हम महिला को अपनी दासी के रूप में ही देखना चाहते हैं, जिससे उसके आकर्षण को नकार सकें। विदेशी और हिन्दुस्थानी पुरुष में यही अन्तर है कि विदेशी पुरुष, महिला को मित्र मानता है और हार-जीत से परे रहता है, अनेक प्रयोग भी कर लेता है लेकिन कुण्ठाओं को मन में ठहरने नहीं देता। जबकि हिन्दुस्थानी, महिला को मित्र के स्थान पर दासी की कल्पना करते हैं और माँ के नाम पर पत्नी को मुठ्ठी में रखने की चाह रखते हैं। सारी जिन्दगी उनकी इसी कुण्ठा में निकलती है और जब भी किसी महिला पर प्रश्न खड़े होते हैं, सारे ही एक साथ कूदकर, विष-वमन करते हुए अपनी कुण्ठा को निकालते हैं। भूल जाते हैं कि ये हमारी माँ समान आयु की है, कल तक हमने इसके पैर पूजे थे, हमारी संस्कृति में माँ को पूजनीय कहा है, सब कुछ भूल जाते हैं, बस अपनी कुण्ठा याद रखते हैं और ज्वालामुखी को लावा फूट निकलता है। इसी मानसिकता को दुनिया समझ नहीं पाती है और जो समझ लेते हैं, वे खुलकर हिन्दुस्थान को लूटते हैं। वे समझ जाते हैं कि वार कहाँ करना है, कैसे इन्हें खुद के विरोध में ही खड़ा किया जा सकता है, वे सब समझ जाते हैं और हिन्दुस्थान फिर गुलाम होने लगता है।
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Friday, June 15, 2018

जय कन्फ्यूज्ड देवा


जय कन्फ्यूज्ड देवा

हम भारतीयों की एक आदत है और अमूमन सब की ही है। आप पूछेंगे क्या! अजी बताते हैं। किसी भी  बात में अपना थूथन घुसाना और कैसी भी गैर जिम्मेदाराना अपनी राय देना। राय देते-देते दूसरे पर हावी हो जाना और हाथापाई तक पर उतर जाना। मीडिया पर यह खेल रोज ही खेला जाता है और बरसों से खेला जा रहा है। अब तो यह सब देखकर उबकाई सी आने लगी है। लेकिन यह बे-फालतू सा राय-मशविरा कल एक चैनल पर और दिखायी दे गया। नया सीरियल था, कुछ देखने को नहीं था तो सोचा इस दोराहे पर खड़े व्यक्ति ने जो अनावश्यक बहस और समाधान देने की पहल की है, उसे ही देख लिया जाए। देखकर हैरान हूँ कि लोगों की समझ की खिड़की बहुत झीनी सी ही खुली है, कोई भी जिम्मेदारी से बोलता नहीं दिखायी दिया, बस थोथी सी बातें और थोथे से तर्क। कुछ लोग अपनी  बात कहने के स्थान पर दूसरों की बात ही काटते नजर आए जैसे मिडिया की बहस में होता है। बहुत प्रभाव पड़ रहा है देश के लोगों पर, इन फिजूल सी बहसों का। शान्ति से अपनी  बात कहना और सारे ही दृष्टिकोण पर निगाहे डालना लोग भूल गये हैं। शायद यही कारण है कि देश भी ऐसी ही सोच के साथ आगे बढ़ रहा है। समग्र चिंतन का तो नितान्त अभाव दिखायी देता है।

देश के बारे में भी कोई समग्रता से बात करता दिखायी नहीं देता, बस सभी अपनी ढपली और अपना राग गा-बजा रहा है। कन्फ्यूज्ड सोच के साथ देश आगे चल रहा है। देश को क्लब की तरह चलाने की सोच हावी होती जा रही है, एक बार तू चला और एक बार तू। लोग समझ नहीं रहे हैं कि यह देश है क्लब नहीं। सभी को खुद को भी बनाए रखना है और अपनी जिद भी पूरी करनी है। देश में परिस्थितां क्या है, यह सत्य समझने को कोई तैयार नहीं है। हर व्यक्ति जितना मूर्ख है उतना ही मुखर है और प्रबुद्ध लोगों को भी हड़काने में देर नहीं करता। जिस प्रकार की सलाह देश के  बारे में दी जाती है, शायद किसी भी घर में कोई छोटा सा बच्चा भी ऐसी सलाह नहीं देता होगा, लेकिन यहाँ के ये मुखर लोग हर पल सलाह देते हैं। कोई कह रहा है कि सेकुलरवाद ही देश की जरूरत है तो कोई कह रहा है कि हिन्दुत्व ही विकल्प है! किसी को धारा 370 नहीं चाहिये और किसी को राम-मन्दिर चाहिये। किसी को नोट, बैंक की जगह जेब में चाहिये और 15 लाख रूपया भी। कांग्रेस के स्लीपर-सेल से सबको नफरत है लेकिन खुद के लिये ऐसी ही भूमिका चाहते भी हैं। कभी परिवार की तरफ हो जाते हैं तो कभी केरियरवाद की ओर। कभी विवाह संस्था को मानने लगते हैं तो कभी लिविंग टूगेदर को। कभी शिक्षा जरूरी तो कभी केवल ज्ञान की वकालात। लाखों मुद्दे और लाखों ही तर्क। लेकिन समग्र चिंतन की आवश्यकता किसी को भी नहीं। इतिहास के आधे-अधूरे से भाग को खोद-खोदकर वर्तमान बनाने की जिद है, कबूतर को बिल्ली ताक रही है और कबूतर आँख बन्द कर खुश है कि जब मैं बिल्ली को नहीं देख रहा तो बिल्ली भी मुझे नहीं देख पाएगी। मुझे लगता है कि जब हमारे पास पौराणिक कथाएं थी तब हमारा दृष्टिकोण स्पष्ट था, हम राम को नायक ही कहते थे और रावण को खलनायक। लेकिन अब तो हर आदमी को उलझाने की प्रक्रिया प्रारम्भ है, राम और रावण में मूल अंतर क्या है, बेचारा आदमी शिक्षा के इस माहौल में समझ ही नहीं पा रहा है। अब अच्छा और बुरा दोनों ही गड़मड़ हो गये हैं। नयी पीढ़ी की सोच भी गड़मड़ हो गयी है इसलिये ऐसी बहसों के समय उसे समझ ही नहीं आता कि मुझे बोलना क्या है! लेकिन फिर भी अंत में वह अच्छाई के साथ खड़ा हो जाता है लेकिन यदि ऐसा ही चलता रहा तो अंत में लोग बुराई के साथ खड़े हो जांएगे। वैसे इसकी शुरुआत हो चुकी है क्योंकि अच्छाई और बुराई दोनों का गड़मड़ कर दिया गया है। लोग गर्म गुलाब-जामुन के साथ ठण्डी आइसक्रीम खा रहे हैं, कॉकटेल पसन्द कर रहे हैं, हिंगलिश हावी होती जा रही है। अमेरिका में बसे देसियों को एबीसीडी कहा जाता है तो अब भारतीय को भी कन्फ्यूज्ड भारतीय कहा जाएगा। ऐसे ही कन्फ्यूजन में हम पहले भी गुलाम बन गये थे और शायद दोबारा भी इसी ओर जाने की तैयारी चल रही है। लोग कह रहे हैं कि हम रजाई ओढ़कर सोते हैं, जब गुलामी की सूचना आ जाए तो बता देना। हम तो हर हाल में तैयार हैं बस अपने लोगों का शासन कुछ अखरता है, तो इनके स्थान पर गुलामी ही अच्छी है। अपने व्यक्ति को रसगुल्ला खाते देखा जाता नहीं, दूसरे के जूते हम खुशी-खुशी खाने को तैयार हैं। जय कन्फ्यूज्ड देवा!
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Tuesday, June 5, 2018

दस का दम


कल दस का दम सीरियल देखा, सलमान खान इसे होस्ट कर रहे हैं। बड़ी निराशा हुई सीरियल देखकर, सलमान की ऊर्जा जैसे छूमंतर हो गयी हो! नकली हँसी, दबी सी आवाज, दण्ड के नीचे दबे से लगे सलमान! लेकिन सलमान के परे इस सीरियल पर मेरी दृष्टि में बात करना बनता है। सीरियल में पूछे गए प्रश्न, अनुमान पर आधारित हैं और यह अनुमान है भारतीय जनता की मानसिकता का। छोटे-छोटे प्रश्न हैं, जो हमारी आम जिन्दगी से ताल्लुक रखते हैं लेकिन क्या हम इनका अनुमान लगा पाते हैं? हम भारत को समझने का दम भरते हैं लेकिन इन प्रश्नों के आगे लड़खड़ा जाते हैं और जब सवाल के बाद जवाब आता है तो आश्चर्यचकित होना पड़ता है। तब लगता है कि हम भारत को कितना समझ पाए हैं! प्रश्न की बानगी देखिये – कितने प्रतिशत भारतीय जेवर गिरवी रखते हैं? भारत जैसे देश में जहाँ हर कहानी में साहूकार है और जेवर गिरवी रखता आम नागरिक है, तब यही सोच हावी होने लगती है कि यह प्रतिशत 70 से अधिक होगा। लेकिन उत्तर जब आया तब लगा कि यह प्रतिशत तो 21 ही है। साहूकार और कामदार की कहानी जो रोज दोहरायी जा रही है, उस पर प्रश्न चिह्न लगना स्वाभाविक है।
हम मानते हैं कि भारतीय पुरातनपंथी हैं और अक्सर यह कहते सुना जाता है कि एक लड़का और एक लड़की दोस्त नहीं हो सकते। हमें लग रहा था कि उत्तर अधिक प्रतिशत लेकर आएगा लेकिन उत्तर था – 25 प्रतिशत। ऐसे ही एक अन्य प्रश्न था – कितने लोगों को हिन्दी वर्णमाला पूरी याद है? सोचा था कि यह प्रतिशत भी कम होगी लेकिन 60 प्रतिशत उत्तर था। उत्तर एक सर्वे के आधार पर थे और हो सकता है यह सर्वे भी चुनाव जैसे ही हों! लेकिन मानसिकता की ओर संकेत तो करते ही हैं। सारे ही प्रश्नों को देखकर लग रहा था कि हमारा अनुमान लगभग गलत है और यह अनुमान जो हमारे दिल-दीमाग पर छाया हुआ है, उसका आधार फिल्में या साहित्य है। अब हिन्दी भाषा की ही बात कर लें, देश में वातावरण ऐसा बनाया  हुआ है कि हिन्दी भाषा की कोई कद्र ही नहीं है लेकिन यहाँ सर्वे कह रहा है कि 60 प्रतिशत लोगों को वर्णमाला याद है! एक प्रश्न था कि कितने प्रतिशत भारतीयों के घर में रोज मांसाहर  पकता है? अब उत्तर था 12 प्रतिशत। माहौल यह बनाया जा रहा है कि सारा देश मांसाहारी हो गया है और प्रोटीन की कमी तो केवल मांसाहार ही पूरी करता है इसलिये रोज मांसाहार करो और घर में भी पकाओ। सवाल देने वाली महिला मुस्लिम थी और कह रही थी कि हमारे घर की लड़कियाँ मांसाहार नहीं करती, उसके मन में भी जिज्ञासा थी की भारत में कौन रोज खाता होगा! लेकिन फिल्में देखें, विज्ञापन देखें, लगता है कि भारतीयों का मुख्य भोजन मांसाहार ही है।
सीरियल कैसा बना है, मेरी चर्चा का विषय यह नहीं है, मैं तो इस बात पर चर्चा करना चाह रही हूँ कि वह कौन सा भारत  है जिसे फिल्मों में और साहित्य में हमारे सामने परोसा जाता है? प्रश्नों के उत्तर से तो लग रहा था कि जिस भारत को हमपर थोपा जा रहा है, हमारा भारत उससे अलग है! यही कारण है कि चुनावों में नतीजे हमारी सोच से अलग आते हैं। कोई भी राजनैतिक और सामाजिक संगठन भारत की मानसिकता को समझ ही नहीं पा रहे हैं बस फिल्म और साहित्य पढ़कर अनुमान लगाते हैं और वैसे ही व्यवहार करते हैं। जबकि सच इससे परे हैं। मैं साहित्यकारों से हर बार कहती हूँ कि पढ़ने से अधिक समाज के बीच जाकर साहित्य लिखो, जबकि वे चीख-चीखकर यही दोहरा रहे हैं कि जितना  पढ़ोंगे उतना ही अच्छा लिखोंगे लेकिन मेरा मन इस बात को मानता नहीं और मैं उनसे विपरीत मत के कारण अस्पर्श्य घोषित हो जाती हूं। साहित्य पढ़ने का केवल एक फायदा है कि हम विधा की जानकारी पा लेते हैं बस। इसलिये साहित्य और फिल्मों से परे भारत को समझो, उसकी आत्मा में झांककर देखो, एक नया भारत दिखायी देगा। घिसीपिटी बाते के बहकावे में मत आओ और भारत के बारे में अपनी राय मत बनाओ, बस खुले दिल से भारत को जानो। अपने पूर्वाग्रह से मुक्त होकर जीना सीखो, नया जीवन मिलेगा। दस का दम सीरियल में कितना दम है यह तो पता आगे चलकर लगेगा लेकिन भारत की कहानी में बहुत दम है, यह सिद्ध हो रहा है।

Monday, June 4, 2018

जैसा देव वैसा पुजारी


कहावत है – जैसा देव वैसा पुजारी। काली माता का विभत्स रूप, तो पुजारी भी शराब का चढ़ावा चढ़ाते हैं, बकरा काटते हैं। डाकू गिरोह में डाकू ही शामिल होते हैं और साधु-संन्यासियों के झुण्ड में साधु-संन्यासी। डाकुओं का सरगना मन्दिर में जाकर भजन नहीं गाता और साधु कभी डाका नहीं डालता। जिस दिन डाकू सरदार ने भजन गाना शुरू कर दिया समझो उसके साथी डाकू उसका साथ छोड़ देंगे। जितने डाके उतना ही सम्मान। कुछ लोगों ने बड़ा शोर मचा रखा है कि नेताजी ने सरकारी सम्पत्ति पर कब्जा किया और जब न्यायालय ने खाली करने को कहा तो बंगले को ही लूटकर-तोड़कर चलते बने। नेताजी ने गलत किया यह तुम कह रहे हो, लेकिन उनके पुजारियों से पूछो कि उनके देव ने सही किया या गलत! नेताजी ने वही किया जिस सिद्धान्त पर उनने अपने दल की नींव रखी थी। देव को हर  पल सतर्क रहना पड़ता है, कहीं उसके पुजारी उसे गलत ना समझ लें! बंगले में लूट-खसोट कर सामान ले लिया मतलब हम अपनी ताकत बनाए हुए हैं, हमारे पुजारियों निश्चिंत रहो, तुम्हारा देव जैसा था वैसा ही है, वह तुम्हें निराश नहीं होने देगा! पुजारी खुश हैं कि हमारे देव वैसे ही हैं और सत्ता में आने पर हमें ऐसे ही लूट का मौका देंगे। भेड़िये के अभी दांत शेष हैं।
एक और हल्ला आये दिन मचता है, वो मरा तो तुमने शोर मचाया लेकिन यह मरा तो तुम खामोश रहे। जिसका मरेगा वही तो शोर मचाएगा, तुम्हारा मरा तो तुम शोर मचाओ। उन्हें शोर मचाना आता है तो तुम भी सीखो नहीं तो पीछे रह जाओगे। किसके जनाजे में कितने लोग गिनने से काम नहीं चलेगा, अपना दायरा बढ़ाओ फिर तुम्हारे जनाजे में भी भीड़ उमड़ेगी। वे अपने लोगों को महान बना देते हैं तो तुम भी महान बनाना सीखो, फिर देखो खेल। चमत्कारी भगवान के मन्दिर के बारे में तो सुना ही होगा, छोटा सा मन्दिर लेकिन चमत्कार के कारण भक्तों की लम्बी लाइन और दूसरी तरफ बड़ा विशाल मन्दिर और भक्त मुठ्ठी भर। इसलिये अपने देव को भी और अपने पुजारी को भी महान बनाना पड़ता है जब जाकर शोर मचता है। अपने व्यक्ति की रक्षा भी करनी पड़ती है और सुरक्षा के लिये कभी कभार आक्रमण भी करना पड़ता है। तब जाकर देव के पुजारी जुटते हैं। देव अगर कुछ उपहार ना दे, मन्नत पूरी ना करे तो उस देव को कौन पुजारी पूजेगा! देव वही जो अपने पुजारियों की चाहत पर खऱा उतरे। हम बंगला लूटने की ताकत रखते हैं, किसी को फांसी पर लटकाने का दम रखते हैं तो हमारे पुजारी हमें छोड़कर कहीं नहीं जाते। इसलिये जैसा देव वैसा ही पुजारी होता है। खाली-पीली शोर मत मचाओ, दम है तो कुछ करके दिखाओ। तुमने संन्यासियों का दल बनाया है तो तुम्हारे पुजारी बात-बात में सच का रास्ता दिखाते हैं, तुम लाख अच्छा करो लेकिन पुजारी तो केवल वही चाहता है, बस उसी की बात मानो। हम तो कायल हो गये इन लुटेरों के, जो हर पल अपने पुजारियों का ध्यान रखते हैं, उन्हें निराश नहीं करते। इनके देव बड़े महलों में रहते हैं और इनके पुजारी झोपड़े में, फिर भी पुजारी खुश हैं कि देखो हमारे देव कितने बड़े मन्दिर में रहते हैं। भगवान का मन्दिर विशाल होना चाहिये, पुजारी इसमें ही खुश रहता है, आधुनिक देव यह मनोविज्ञान जानते हैं, तभी तो बंगले की लूटपाट करते हैं और वाहवाही पाते हैं। धन्य हो गए इनके पुजारी, ऐसे देवों को पाकर। जब वे धन्य हो गये तो तुम क्यों हलकान हुए जाते हो!