Wednesday, October 26, 2016

परशुराम को डिगा दे उसे मन की चाहतें कहते हैं।

मन को परत दर परत खोल दो, पता लगेगा कि न जाने कितनी ख्वाइशें यहाँ सोई पड़ी हैं, जिन ख्वाइशों को हम समझे थे कि ये हमारे मन का हिस्सा ही नहीं हैं, वे तो अंदर ही अंदर अपना अस्तित्व बनाने में जुटी हैं बस जैसे ही किसी ने उन्हें थपकी देकर जगाया वे सर उठाकर बाहर झांकने लगी। अपने अन्दर झांकिये तो सही, दुनिया भर की ख्वाइशों का यहाँ बसेरा मिलेगा। सभी कुछ चाहिये इस तन को और मन को भी। बस बचपन से ही हमने इन्हें खाद-पानी नहीं दिया तो समझ बैठे कि ये अब हमारे अन्दर विद्यमान ही नहीं है, लेकिन ऐसा नहीं है, जैसे ही हम इनके नजदीक जाते हैं ये हमे सुहाने लगती हैं।
बचपन में पिताजी का बहुत सख्त पहरा था, शौक के लिये स्थान नहीं था। बस जीवन एक रस से ही चले जा रहा था। जिन्दगी में छः रस भी होते हैं जीभ को पता ही नहीं लगा, लेकिन जीभ किसी भी रस को भूलती नहीं हैं, उसे सभी का भान है। सारी जिन्दगी मधुर रस को जीभ पर मत रखिये लेकिन जिस दिन भी रखेंगे, वह तत्काल बता देगी कि यह मधुर रस है। जिन्दगी की सारी ही चाहते इस मन को पता हैं, आप कितनी ही दूरी बना लें लेकिन मन जानता है इन चाहतों की दरकार को।
मेहंदी हाथों में जब भी लगी तब चोरी-छिपे ही लगी या कभी कभार शादी-ब्याह के अवसर पर, मन ने मान लिया कि मेहँदी की चाहत रंग नहीं लाती इसलिये गाहे-बगाहे कह भी दिया कि नहीं, मेहँदी लगाने में रुचि नहीं है तो लोगों ने भी मान लिया कि इन्हें मेहँदी की चाहत नहीं। मन की कसक का पता तब लगा जब ससुराल गये और वहाँ यह कहकर हमें मेहँदी वाले हाथों के बिना ही पीहर भेज दिया गया कि इन्हें शौक नहीं है। अरे ऐसा कैसे हुआ, मन ने आखिर पूछ ही लिया और तब जाकर पता चला कि ख्वाइशें मन में अपनी जगह बनाकर रहती ही हैं।
यह सभी मानते हैं कि हमारे पिताजी कठोर स्वभाव के थे, लेकिन प्रेम और सम्मान उन्हें भी हिला ही देता था। हमारा एक चचेरा भतीजा था, वह उनसे कभी कभार पैसे ले जाता था। यह बात किस बेटे-बहु को सुहाती है जो हमारे यहाँ सुहाती। मेरे पास जब बात आयी तो मैंने पिताजी से पूछा कि आप उसे पैसे क्यों देते हैं? तो वे बोले कि वह सम्मान के साथ बाबा-बाबा कहकर बुलाता है। अब बताये कि जो परशुराम को डिगा दे उसे मन की चाहतें ही कहते हैं।

ये चाहते अपना बसेरा तो बना कर रखती ही हैं लेकिन जब खाद-पानी नहीं मिलता है तब धीरे-धीरे रिसती भी हैं और यह रिसाव एकत्र हो जाता है, आँखों के पास। जब भी कहीं ऐसी ही संवेदना सुनायी या दिखायी पड़ती हैं. यह रिसाव अँखों से होने लगता है। जैसे-जैसे उम्र का तकाजा होने लगता है, यह रिसाव छलकने लगता है। रिसाव छलके तो समझो कि चाहतें अन्दर कुलबुला रही हैं और इन्हें धूप देने की जरूरत आन पड़ी है। बे झिझक इन्हें बाहर निकालो, अपनी चाहतों को पूरा करों और सच में सुखी होने का अहसास करो। ढूंढ लो इन्हें, ये चाहे किसी भी कोने में दुबकी क्यों ना हो. आपको ये ही सुखी करेंगी और तभी पता लगेगा कि आपके मन का असली सुख क्या है?
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