हमारे पिता बड़े गर्व से कहते थे कि मेरी बेटियाँ
नहीं हैं, बेटे ही हैं। हमारा लालन-पालन बेटों की ही तरह हुआ, ना हाथ में मेहँदी लगाने
की छूट, ना घर के आंगन में रंगोली बनाने की छूट, ना सिलाई और ना ही कढ़ाई, बस केवल
पढ़ाई। हम सारा दिन लड़कों की तरह खेलते-कूदते, क्रिकेट से लेकर कंचे तक खेलते और पढ़ाई
करते। रसोई में घुसने का आग्रह भी नहीं था, बस खाना बनाना आना चाहिये, इतना भर ही
था। मुझ से कहते कि तर्क में प्रवीण बनो, हम बन गये लेकिन हमारे अन्दर जो महिला
बैठी थी उसका दम निकल गया। पिताजी ने नाम भी रख दिया था "अजित" लेकिन
साथ में एक पुछल्ला भी जोड़ दिया था – दुलारी। मेरे बड़े भाई मुझे रोज उकसाते कि
केवल अजित ही ठीक लगता है और एक दिन स्कूल बदलते समय मैंने पुछल्ला अपने नाम से
हटा ही दिया। अपने अन्दर की महिला को दूर कर, मेरे कार्य पुरुषों से होने लगे।
अपने निर्णय खुद लेना, स्वतंत्र होकर रहना अच्छा लगने लगा। लेकिन जिस महिला को
पिताजी ने दूर किया था और हमने जिसे अंगीकार किया था, वही महिला रोज हमारे सामने
आकर खड़ी हो जाती। जीवन संघर्षमय हो गया। हम पुरुषों के बीच धड़ल्ले से घुस जाते
लेकिन थोड़ी देर में ही आभास होने लगता कि हम कुछ और हैं! लेकिन हम हार नहीं
मानते। विवाह हुआ और गम्भीर समस्या में फंस गये, पत्नी रूप में महिला ने चुनौती दे
डाली कि अब दूर करो मुझको। सबकुछ कर डाला, सारी जिम्मेदारी निभा डाली लेकिन महिला
बनकर, सर झुकाकर नहीं रहना, सारी अच्छाइयों पर पानी फेर देता। महिला को क्या करना
होता है, समझ ही नहीं आता रहा। कैसे साधारण पुरुष को महान माना जाता है, यह समझ ही
नहीं आया। जिन्दगी का बहुत बड़ा पड़ाव पार कर लिया, सामाजिक क्षेत्र हो या साहित्य
क्षेत्र, सभी में पिताजी के अनुरूप खुद को सिद्ध भी कर डाला लेकिन एक दिन एक जज ने
फरमान सुना डाला, महिला को महिला की तरह, पुरुष की अनुगामिनी बनकर ही रहना होगा।
तब समझ आया कि हमने क्या खो दिया था। जिस मरीचिका के पीछे पिताजी ने भगा दिया था
और अपना स्वरूप भी भूल बैठे थे वह तो केवल मरीचिका ही है। तब खोजना शुरू हुआ खुद
को, महिला के सुख को।
मैंने महिला पर नजर डालनी शुरू की, उसे उन्मुक्त
होकर हँसते देखा, उसे निडर होकर सजते देखा, उसे बिना छिपे रोते देखा, फिर खुद पर
नजर डाली। मैं ना हँस पा रही थी ना सज पा रही थी और ना ही रो पा रही थी। मैंने अपने
अन्दर की महिला को आवाज दी, उसे बाहर निकालने का प्रयास किया, वह डरी हुई थी, सहमी
हुई थी, झिझकी हुई थी। मैंने कहा कि डर मत, सहम मत, झिझक मत, खुलकर हँस, खुलकर सज
और खुलकर रो। लेकिन महिला हारती रही, मैं प्रतिपल प्रयास करती हूँ, महिला को पाने
का इंतजाम करती हूँ लेकिन फिर हार जाती हूँ। क्यों हार जाती हूँ? क्योंकि दोहरी
जिन्दगी हमें हरा देती है, हम महिला होने का सुख और उसकी सुख पाने की जद्दोजेहद से
खुद को जोड़ ही नहीं पाते। लेकिन आज महिला दिवस पर सच में मैं महिला होना चाहती
हूँ। अपने को कमजोर बताकर रोना चाहती हूँ, अपने वैभव के लालच को बताकर साड़ी-जेवर
में सिमटना चाहती हूँ, मैं कुछ नहीं हूँ कहकर केवल जीना चाहती हूँ। सच में, मैं
महिला होने का सुख पाना चाहती हूँ। अपने पिताजी की इच्छा से परे केवल महिला होना
चाहती हूँ। अपने चारों ओर फैल गये पुरुषों के साम्राज्य को धकेलना चाहती हूँ, महिलाओं
के रनिवास में पैर रखना चाहती हूँ। मैं नासमझ बनना चाहती हूँ, जिससे कोई भी पुरुष
आहत ना हो पाए। मुझे नहीं चाहिये निर्णय का अधिकार, बस जीने और रोने के अधिकार से
ही खुश रहना चाहती हूँ। मैं बस महिला बनना चाहती हूँ।
7 comments:
हम जब भी कभी सशक्त महिला को देखते हैं तो न जाने क्यों यह उम्मीद करते हैं कि वो पुरुष जैसी होगी। हमने नारीत्व को न जाने क्यों कमजोरी से जोड़ा हुआ है। यही से सारी जद्दोजहद शुरू होती है। सुन्दर लेख। अपने भुलाकर नहीं अपने को जानकर और अपने अस्तित्व से जब हम सहज होते हैं तभी जाकर हम सही मायने में सशक्त हो सकते हैं। आभार।
विकास जी आभार।
आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति उस्ताद जाकिर हुसैन और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। एक बार आकर हमारा मान जरूर बढ़ाएँ। सादर ... अभिनन्दन।।
दिल को छूने वाला लेख..महिला होने के कितने फायदे हैं यह समझ में आ जाये तो कोई बेटी, बेटा कहकर पुकारे जाने पर खुश नहीं होगी..वह जो है वही बनना चाहेगी
आभार अनिता जी
महिला बनने में खुशी मिलती है। जी बहुत बढ़िया, सादर।
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