Thursday, November 15, 2018

कहाँ सरक गया रेगिस्तान!


बचपन में रेत के टीले हमारे खेल के मैदान हुआ करते थे, चारों तरफ रेत ही रेत थी जीवन में। हम सोते भी थे तो सुबह रेत हमें जगा रही होती थी, खाते भी थे तो रेत अपना वजूद बता देती थी, पैर में छाले ना  पड़ जाएं तो दौड़ाती भी थी और रात को ठण्डी चादर की तरह सहलाती भी थी। लेकिन समय बीतता रहा और रेत हमारे जीवन से खिसक गयी, हमने मुठ्ठी में बांधकर रखी थी कुछ रेत लेकिन वह ना जाने कब हथेली को रिक्त कर चले गयी। लेकिन हमें ललचाती जरूर रही और जब भी बालू-रेत के टीले निमंत्रण देते, हम दौड़कर चले जाते। इस बार टीलों ने हमारे जन्मदिन पर निमंत्रण दिया, लगा की बचपन को साकार कर लेंगे और दौड़ पड़े हम परिवार सहित जैसलमेर के धौरों के निमंत्रण पर। काली चमचमाती सड़क पर हमारी गाड़ी दौड़ रही थी लेकिन हम सड़क के बाजुओं में टीलों को खोज रहे थे जो कभी हठीले से बनकर सड़क पर आ धमकते थे। निगाहें बराबर टिकी थी लेकिन रेत ने सड़क को हथियाया नहीं। हम आगे बढ़े और जैसलमेर के सम तक जा पहुंचे, फटाफट अपने टेण्ट में सामान रखा और एक खुली जीप में ऊंट सी चाल में टीलों के बीच जा पहुंचे। बच्चे लोग ऊंट का आनन्द लेकर पहुंचे। जीप वाला बोला कि लो आ गया सम, याने जैसलमेर का जहाँ रेगिस्तान है। हैं! हमें आश्चर्य ने घेर लिया! तीस साल पहले आए थे तो रेत का समुद्र हुआ करता था और आज तो तालाब सा भी नहीं है! हम बावले से  हो गये, हर आदमी से पूछने लगे कि कहाँ गया रेगिस्तान! होटल का वेटर बोला की यही तो है रेगिस्तान! अरे नहीं, हम तीस साल पहले आए थे तब दूर-दूर तक बस वही था। वह  हँस दिया और बोला कि मेरी उम्र भी इतनी नहीं है तो मैं कैसे बताऊं कि तब क्या था! हम पूछे जा रहे थे और लोग टुकड़े-टुकड़ों में बता रहे थे कि नहर आ गयी, बरसात आ गयी और रेत माफिया सक्रीय हो गये। रेत के टीले अब खेत में बदल गये, हरियाली छा गयी और रेगिस्तान 100 किमी. दूर जा पहुंचा। हमारा मन उचट गया, कहाँ समुद्र देखने का ख्वाब पाले थे और कहाँ तालाब के किनारे ही बैठकर खुश होने का स्वांग कर रहे हैं। कभी धोरों पर गायकी होती थी और अब रिसोर्ट पर होने लगी है। कुदरत की जगह कृत्रिम सा वातावरण बना दिया गया है। सुन्दर से टैण्ट आ गये हैं, रेत के धोरों वाला नरम बिस्तरा नहीं है, टीलों पर चढ़ना और फिसलना नहीं है, बस एक परिधि है उसमें ही सारे आनन्द लेने हैं। रात को नींद तो आयी लेकिन सुबह फिर तारों भरे आकाश को देखने के लिये नींद विदा हो गयी। तारे चमचमा रहे थे और  हमें सुकून दे रहे थे, मैं वहीं कुर्सी डालकर  बैठ गयी कि इन तारों के सहारे ही रेगिस्तान तक संदेश पहुंचा देती हूँ कि तुम बहुत प्यारे थे। दूर जा  बैठे हो, अब क्या पता जब कभी आना हो तो तुम हमारे देश की सीमा में भी रहो या नहीं।  लेकिन खैर, तुम दूर चले गये हो, कोई बात नहीं, यहाँ के लोग खुश हैं। जिन बच्चों के कभी बरसात के मतलब बताने में पसीने छूटते थे अब वे हर साल आती बरसात से परिचित हैं। केर-सांगरी का खाना अब फैशन बन गया है, अब तो ढेर सारी हरी सब्जियां उपलब्ध है। रेगिस्तान दूर जा बैठा लेकिन पर्यटक बाढ़ की तरह बढ़े जा रहे हैं। कहीं तिल धरने को भी जगह नहीं। जैसलमेर के किले पर जाना असम्भव हो गया आखिर हारकर बेटी-दामाद से कहा कि तुम ऑटो लेकर किले पर जाओ। वे भी जैसे-तैसे भीड़ को चीरते हुए आधा-अधूरा सा किला देखकर आए और मन की प्यास अधूरी ही छोड़ आए। शहर में हमारी गाडी घूमती रही लेकिन कहीं जाने का मार्ग उपलब्ध नहीं, रेस्ट्रा भी सारे भीड़ से पटे हुए, आखिर वापस होटल की शऱण ली और वहीं खाने का ऑर्डर किया। हमने तो रेगिस्तान को मुठ्ठी भर रेत में तब्दील होते देखा, किले की विशालता को दूर से ही नमन कर लिया और पटुओं की हवेली तो पुरानी यादों से निकालकर ताजा कर लिया।
लेकिन एक गांव देखा – कुलधरा गाँव। उजड़ा हुआ लेकिन अपने में इतिहास समेटे हुए। पालीवाल ब्राह्मणों का गाँव जो रातों-रात उजड़ गया। कोई कहता है कि एक मुस्लिम मंत्री के कारण रातों-रात पलायन हो गया, कोई कहता है कि भूकम्प आ गया। लेकिन अब लोग भूत-प्रेत तलाश रहे हैं। राजस्थान सरकार ने पर्यटन स्थल का दर्जा देने के कारण यहाँ पर्यटक बड़ी संख्या में आने लगे हैं। लेकिन लग रहा था कि लोग इतिहास को जानने नहीं बस भूत देखने आ रहे थे!
जैसलमेर में एक अद्भुत और रोमांचित करने वाला वार-म्यूजियम भी है और इसी के साथ रात को होने वाला प्रकाश और ध्वनि कार्यक्रम भी अनूठा है। लोंगेवाला का युद्ध साकार हो उठता है और हमारे वीर सैनिक, बोर्डर फिल्म की कहानी के पात्रों के माध्यम से जीवित हो उठते हैं। पर्यटकों को इसे अवश्य देखना चाहिये। जैसलमेर की कहानी लम्बी है लेकिन अभी यही विराम।
www.sahityakar.com

6 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (16-11-2018) को "भारत विभाजन का उद्देश्य क्या था" (चर्चा अंक-3157) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

शिवम् मिश्रा said...

ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 15/11/2018 की बुलेटिन, " इंक्रेडिबल इंडिया के इंक्रेडिबल इंडियंस - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

Anita said...

रेगिस्तान दूर खिसक गया एक तरह से यह तो अच्छा ही है..रोचक यात्रा विवरण..हम भी लगभग बीस वर्ष पहले गये थे..रेत के टीलों पर बैठकर सूर्यास्त देखा था..

अजित गुप्ता का कोना said...

शास्त्रीजी आभार।

अजित गुप्ता का कोना said...

शिवम् मिश्रा जी आभार।

अजित गुप्ता का कोना said...

अनीता जी आभार। रेगिस्तान दूर सरक जाए तो अच्छा ही है, लेकिन जब हम उसे देखने जाएं तो अपने स्थान पर नहीं मिलने पर निराशा होती है। कभी लगता है कि हम प्रकृति को नष्ट तो नहीं कर रहे हैं!