रोज खबरें आती है कि फलाना चल बसा और ढिकाना चल
बसा, कम
आयु का भी चल बसा और ज्यादा आयु वाले को तो जाना ही था! हमें भी एक दिन फुर्र होना
ही है। लेकिन हम जो यहाँ फेसबुक पर दाने डाल रहे हैं, अपनी वेबसाइट
पर बगीचा उगा रहे हैं और ब्लाग पर खेत लगा रहे हैं, उस बगीचे और उस फसल का मालिक कौन
होगा? हम तो
आग को समर्पित हो जाएंगे लेकिन यह जो हमारी धरोहर है उसका कौन मालिक होगा या फिर
यह भी स्विस अकाउण्ट की तरह गुमनामी में रहकर किसी लोकर जैसे ही दफन हो जाएगी। अभी
तो हम इसमें से एक फूल नहीं तोड़ने देते, कोई तोड़ लेता है तो हम गुर्राने लगते हैं कि हमारा
फूल कैसे तोड़ा? फिर
क्या होगा? या तो
कोई समूचा बगीचा ही हथिया लेगा या फिर उसे अंधेरे में उजड़ने को छोड़ देगा! मिश्र
के पिरामिड जैसी हो जाएंगी हमारी वेबसाइट, रात के अंधेरे में चोर घुसेंगे और सोना-चाँदी
लूटकर ले जाएंगे। अब आप कहेंगे कि खाक सोना-चाँदी होगा, गोबर भरा होगा, लेकिन इस गोबर
की भी तो खाद बन जाएगी ना! एक विज्ञापन
में तो यही आ रहा है कि खाद ही सोना है, तो वैसा सोना नहीं तो ऐसा सोना तो होगा ही ना!
अभी हमारा खजाना सभी के लिये खुला है, शायद ही कोई
चोरी करता हो लेकिन जैसे ही हम बन्द करेंगे तो शायद लालच बढ़ने की सम्भावना जागृत
हो जाए! हम सरलता से सबके लिये उपलब्ध हैं तो हमारी कीमत कोई नहीं लगाता सब घर की
मुर्गी दाल बराबर मानता है लेकिन यदि हम भी चारों तरफ तालों में बन्द होकर अपना
विज्ञापन करने लगें कि हमारे पास कस्तूरी है तो कुछ ना कुछ लालच तो हम चोरों के
लिये छोड़ ही सकते हैं! लेकिन अपना विज्ञापन करना बड़ा कठिन काम है, हम जैसे लोग
तो इस काम में नौसिखिया भी नहीं है। एक कहानी याद आ रही है, एक साहित्यकार
था, शिमला गया और
एक होटल में जाकर ठहर गया। देखता क्या है कि उसके नाम के इश्तहार तो पहले से ही
वहाँ लगे हैं। उसे उत्सुकता हुई सत्य जानने की। उसने देखा कि एक आदमी उसी के नाम से
होटल में ठहरा है और भीड़ से घिरा है। उसकी रचनाओं का पाठ करके वाह-वाही लूट रहा
है और ठाठ से रह रहा है। उसने नकली व्यक्ति से मिलने की ठान ली, वह मिला और
अपना परिचय दिया। नकली व्यक्ति भी उससे मिलकर खुश हुआ और बोला कि देखिये आप तो
अपना प्रचार करते नहीं, लेकिन
मैं आपका ही प्रचार कर रहा हूँ, बस चेहरा ही तो अलग है, प्रचार तो
आपका ही हो रहा है। फिर बोला कि मुझे इसमें कितना खर्चा करना पड़ता है, आप नहीं जानते
इसलिये मुझे कुछ पैसे दीजिये। उस साहित्यकार को वह भ्रमित कर चुका था और उसकी जेब
से पैसे भी निकलवा चुका था। अब वे दोनों उस होटल में रह रहे थे। असली चुप था और
नकली फसल काट रहा था। लेकिन असली भी खुश था कि उसी के नाम की फसल कट रही है। फसल
के पैसे नकली ले रहा था और असली, बीज के पैसे भी जेब से भर रहा था।
तो बहनों और भाइयों, इस समस्या का
हल है किसी के पास? हमारे
बैंक को कोई गोद लेने की सोच रखता है क्या? या हमारा वारिस ही कोई बन जाए। कारू का खजाना ना
मिलेगा लेकिन टूटे-फूटे बर्तनों में भी इतिहास तो मिल ही जाएगा। लोग कहते हैं कि
खानदानी धंधा ही करना चाहिये, जिससे आपके धंधे को आगे ले जाने वाले हमेशा बने
रहते हैं लेकिन हमने तो ऐसा काम किया कि हमारी ना तो पिछली पुश्तों में और ना आगे
की पुश्तों में कोई धोले पर काला करता है। इसलिये इस लिखे हुए का कोई मौल भी नहीं
जानता, उनके
लिये तो यह ऐसा कचरा है जिसकी खाद भी नहीं बनती। कोई मुझे बताए कि कभी किसी मन की
कीमत लगायी गयी है? कीमत तो
शरीर की ही लगी है। लेखन तो मन है, यदि यह किसी सुन्दर शरीर में रहता है तो फिर भी
कीमत लग जाती है नहीं तो तिजौरी में पड़ा रहता है। लेखन की तिजौरी अब वेबसाइट हो
गयी है, इसका
भी गोपनीय पासवर्ड है, यदि
किसी ने पासवर्ड को जान लिया तो सरेआम हो जाएगी नहीं तो किसी गुमनाम जंगल के किसी
कोने में पड़ी रहेगी। न जाने कितना समय बीतेगा, कभी तिजौरी पर ध्यान जाएगा तब शायद कोई कहे कि
इसमें भी कुछ है और फिर मिश्र के पिरामिड की तरह परते उखाड़ी जाएंगी। हमारे पिरामिड में भी शायद कुछ मिल जाए और हम भी
इतिहास की चीज बन जाए। तथास्तु।
5 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (04-09-2018) को "काश आज तुम होते कृष्ण" (चर्चा अंक-3084) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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श्री कृष्ण जन्माष्टमी की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन श्री कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक बधाई - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
शास्त्रीजी और हर्षवर्द्धन का आभार।
जी ऐसा तो नहीं है। आपके विचार इधर रहेंगे। जब तक blogger है तब तक तो रहेंगे ही और हम जैसे पाठक इससे लाभान्वित होते रहेंगे। फिर क्या पता आने वाली पीढ़ी में ही कोई आपका वारिस भी मिल जाए। कब क्या हो जाये? किसने देखा है। शब्द कब किसको अपनी तरफ मोहित कर दें क्या पता चलता है।
अच्छी पोस्ट है। आभार।
विकास जी आशा बंधाते है आपके विचार।
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