आजकल टीवी के लिये फिल्म बनाने की कवायद जोर-शोर से चल रही है इनमें से अधिकतर फिल्म आधुनिक सोच को लिये होती है। वे युवा मानसिकता को हवा देती हैं और एक सुगम और सरस मार्ग दिखाती हैं। हर कोई इनसे प्रभावित होता है। क्यों प्रभावित होता है? क्योंकि ऐसे जीवन में अनुशासन नहीं होता, पूर्ण स्वतंत्रता की मानसिकता को दर्शाने का प्रयास रहता है और जहाँ कोई भी अनुशासन नहीं हो भला वह सोच किसे नहीं पसन्द होगी! मैं नवीन पीढ़ी की सोच से रूबरू होना चाहती हूँ इसलिये जब भी मौका मिलता है इन फिल्मों को टीवी पर देख लेती हूँ। मेरी संतान के मन में भी क्या चल रहा है, मुझे भान हो जाता है और मैं सतर्क हो जाती हूँ। एक बात मैंने नोटिस की है, शायद यह पहले से ही होती रही हो लेकिन जब से जेएनयू का नाम रोशन हुआ है तब से मैंने नोटिस किया कि फिल्मों में जेएनयू का नाम खुलकर लिया जाता है और फिल्म का कोई भी करेक्टर यह जरूर कहता है कि मैं जेएनयू में पढ़ा हूँ। खैर बाते तो बहुत हैं लेकिन कल की ही बात करती हूँ, कल टीवी पर एक फिल्म आ रही थी, आधी-अधूरी ही देखी गयी, उसे दोबारा अवश्य देखूंगी। एक माँ है और उसकी एक युवा बेटी है, दोनो आधुनिक तरीके से रहती हैं। एक दिन माँ बेटी से कहती है कि मैं जेएनयू मैं पढ़ती थी और मुझे एक लड़के से प्यार हो गया और मैं उसके साथ भाग गयी। बेटी उसे प्रश्नचिह्न लगाकर देखती है लेकिन माँ आगे बोलती है कि तुम्हारे जो पापा है वे दूसरे हैं। मेरे भागने के दो साल बाद मुझे ये मिले और मुझे इतने पसन्द आये कि मैं फिर भाग गयी। बेटी एक क्षण के लिये ठिठकती है लेकिन अगले ही क्षण ठहाका मारकर हँस देती है कि वाह माँ। कहानी सोशल मीडिया पर आधारित है, कैसे लोग लिख रहे हैं और विचार को वायरल कर रहे हैं। कह रहे हैं कि हमारा नाम कहीं नहीं आता लेकिन हमारे विचार तो वायरल होते हैं, यही सुख देता है।
एक प्यारी नज्म है लेकिन सोशल मीडिया ने उसे तोड़-मरोडकर चुटकुला बना दिया है, नज्म लिखने वाले को पहले गुस्सा आता है लेकिन फिर वह देखता है कि लोग आनन्द ले रहे हैं तो मान जाता है। फिल्म में कहा जाता है कि सभी कुछ परिवर्तनशील है, जिसमें लोग आनन्द लें वही अच्छा है। नया जमाना है, जहाँ और जिससे सुख मिले बस वही करो। खुलकर अपनी बात कहो, कोई दुराव नहीं कोई छिपाव नहीं। सब कुछ सुन्दर हो, सजा-धजा हो जरूरी नहीं। मन को पसन्द है तो साथी अच्छा है। कई प्रयोग करने में भी कोई बुराई नहीं। माँ अपनी बात खुलकर कह रही है और साहस के साथ कह रही है, बेटी अपने मन की कर रही है, कोई रोक-टोक नहीं है। सोशल मीडिया के द्वारा जीवन को बदला जा रहा है। ये लोग किसी अनुशासन को नहीं मानते, संविधान को नहीं मानते। इनका संविधान है इनका मन। जो मन करे वह करो। ऐसी फिल्में गुडी-गुडी होती है मतलब अच्छी-अच्छी। कोई कठिनाई नहीं, कोई लड़ाई नहीं। जेएनयू के लिये बनी इन फिल्मों का सार है कि केवल अपने मन का सुख।
लेकिन इस संसार में केवल अपने मन की कब चली है? किसी भी प्राणी की ऐसी स्थिति नहीं है कि वह अपना मनमाना करे। सभी के कुछ ना कुछ अनुशासन है, मेरे घर की मुंडेर पर बैठे कबूतर को जोड़े को जब चोंच मिलाते देखती हूँ तब यह नहीं सोच लेती हूँ कि यह हर किसी कबूतर या कबूतरी से चोंच मिलाने को स्वतंत्र है। लेकिन कुछ लोग सोच लेते हैं कि सारी प्रकृति स्वतंत्र है तो हम भी स्वतंत्र हैं। स्वतंत्रता किसे अच्छी नहीं लगती, मुझे भी लगती है और आप सभी को भी लगती होगी लेकिन जब कभी इस स्वतंत्रता को खुली आँखों से देखने का प्रयास करती हूँ तो ताकतवर का कमजोर के प्रति शोषण ही दिखायी देता है। शायद मकसद भी यही हो कि हम स्वतंत्रता का खेल दिखाकर लोगों को घर-समाज और देश के अनुशासन से बाहर निकाल दें और फिर बाज की तरह इनपर टूट पड़ें। दुनिया में बढ़ रहे महिलाओं के प्रति अपराध इस ओर ही इंगित करते हैं। पहले क्लब के बहाने महिलाओं को पाने का प्रयास किया गया और अब जेएनयू की सभ्यता दिखाकर की सभी साथ रह रहे हैं, साथ सो रहे हैं। पहले रजामंदी से फिर जोर-जबरदस्ती से शोषण होगा। शोषण में पुरुष और स्त्री दोनों ही शामिल हैं। बस जो कमजोर है वह शोषित होगा। ये फिल्में बनती रहेंगी, हमें लुभाती रहेंगी और हमारा जीवन बदलती रहेंगी। क्योंकि हम कहते रहेंगे कि जीवन परिवर्तनशील है, सुन्दर हो, सजा-धजा हो यह आवश्यक नहीं, बस सुख देने वाला हो। भाषा बदल जाएगी, वेशभूषा बदल जाएगी, जिस सभ्यता को हमने संस्कृति के सहारे उच्च स्थान दिया था हम उसे प्रकृति के नाम पर विकृति की ओर ले जाते रहेंगे, शायद यही परिवर्तन है।
लेकिन इस संसार में केवल अपने मन की कब चली है? किसी भी प्राणी की ऐसी स्थिति नहीं है कि वह अपना मनमाना करे। सभी के कुछ ना कुछ अनुशासन है, मेरे घर की मुंडेर पर बैठे कबूतर को जोड़े को जब चोंच मिलाते देखती हूँ तब यह नहीं सोच लेती हूँ कि यह हर किसी कबूतर या कबूतरी से चोंच मिलाने को स्वतंत्र है। लेकिन कुछ लोग सोच लेते हैं कि सारी प्रकृति स्वतंत्र है तो हम भी स्वतंत्र हैं। स्वतंत्रता किसे अच्छी नहीं लगती, मुझे भी लगती है और आप सभी को भी लगती होगी लेकिन जब कभी इस स्वतंत्रता को खुली आँखों से देखने का प्रयास करती हूँ तो ताकतवर का कमजोर के प्रति शोषण ही दिखायी देता है। शायद मकसद भी यही हो कि हम स्वतंत्रता का खेल दिखाकर लोगों को घर-समाज और देश के अनुशासन से बाहर निकाल दें और फिर बाज की तरह इनपर टूट पड़ें। दुनिया में बढ़ रहे महिलाओं के प्रति अपराध इस ओर ही इंगित करते हैं। पहले क्लब के बहाने महिलाओं को पाने का प्रयास किया गया और अब जेएनयू की सभ्यता दिखाकर की सभी साथ रह रहे हैं, साथ सो रहे हैं। पहले रजामंदी से फिर जोर-जबरदस्ती से शोषण होगा। शोषण में पुरुष और स्त्री दोनों ही शामिल हैं। बस जो कमजोर है वह शोषित होगा। ये फिल्में बनती रहेंगी, हमें लुभाती रहेंगी और हमारा जीवन बदलती रहेंगी। क्योंकि हम कहते रहेंगे कि जीवन परिवर्तनशील है, सुन्दर हो, सजा-धजा हो यह आवश्यक नहीं, बस सुख देने वाला हो। भाषा बदल जाएगी, वेशभूषा बदल जाएगी, जिस सभ्यता को हमने संस्कृति के सहारे उच्च स्थान दिया था हम उसे प्रकृति के नाम पर विकृति की ओर ले जाते रहेंगे, शायद यही परिवर्तन है।
2 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (03-09-2018) को "योगिराज का जन्मदिन" (चर्चा अंक- 3083) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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श्री कृष्ण जन्मोत्सव की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
राधा तिवारी जी आभार।
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