Thursday, September 13, 2018

जहरीला धुआँ फैल रहा है


कंटीले तारों से बनी सीमा, इस पार सैनिक तो दूसरी पार महिलाएं। महिलाएं हाथों में किसी पुरुष की फोटो लिये हैं और वे मौन फरियाद कर रही हैं सैनिकों से कि हमारे घर का यह शख्स कहीं खो गया है, आपने देखा है क्या? सैनिक फोटो हाथ में लेते हैं और ना मैं सर हिला देते हैं। महिलाओं की आशा रोज ही बंध जाती है और सड़क की उस पार कंटीले तारों की बाड़े बन्दी तक उनको ले जाती है। यह उस जन्नत के एक गाँव की कहानी है, जिसे कवि ने बड़े गर्व से कहा था कि दुनिया में कहीं जन्नत है तो यहीं है। उजड़े मकान, घर-घर में केवल महिलाएं, मैदान में आवारा से खेलते बच्चे, पूरे गाँव में सैना की उपस्थिति। यह एक फिल्म का दृश्य है, जो कल टीवी पर दिखायी जा रही थी। यह गाँव कश्मीर का नहीं लग रहा था अपितु सीरिया या मौसुल का लग रहा था। एक व्यापारी है, जो लोगों की आम जरूरतों की चीजों को खच्चर और गधों पर लादकर एक गाँव से दूसरे गाँव पहुँचा रहा है। नदी बह रही है और उस नदी पर बर्फ जम रही है, पहाड़ों पर भी बर्फ जमा है, घने जंगल हैं और इन जंगलों में आतंकवादी छिपे हैं। युवा आतंकवादी, किशोर आतंकवादी और उन्हें तलाश है बालकों की जिनकी मासूमियत के सहारे वे आतंक को अंजाम दे सकें। मैदान में बच्चे गोलीबारी का खेल खेल रहे हैं और आतंकवादी उन्हें चुन रहे हैं।
एक कवि जब जन्नत की कल्पना करता है तो उसके मन के अन्दर भी जन्नत होती है, जन्नत जितनी ही पवित्रता होती है, तभी वह जन्नत की कल्पना को शब्द दे पाता है लेकिन आतंकवादी ने कैसी जन्नत बनायी है, इस फिल्म में दिखायी देती है। "यह पहाड़, यह नदी, यह जंगल, बताओ किसके हैं" यह प्रश्न फिल्म में कई बार पूछा गया। वहाँ का बाशिन्दा कहता है कि ऊपर वाले का है, ये पहाड़ हजारों साल से यहीं खड़े हैं, नदी यूं ही बह रही है। आतंकवादी कहता है कि यह पहाड़ तुम्हारा है, इसे तुम्हें लेना है। गरीबी से लड़ती महिलाएं, मनमानी करता साहूकार, शिक्षा से वंचित बचपन सब ऐसे ही दौड़ रहे हैं। मन बार-बार सवाल कर रहा था कि क्या यही कवि की जन्नत है? इसी जन्नत को देखने सैलानी दौड़े जा रहे हैं? क्या हम सैना के बलबूते सीमा पार के इस आतंक से लोगों को राहत दे पाएंगे? विचारों की इस जहरीली हवा को रोक पाएंगे? जो बच्चे आतंक का खेल खेल रहे हों, क्या उन्हें आतंक से दूर रख पाएंगे? सवाल ढेर सारे हैं लेकिन उत्तर कहीं नहीं है! समस्या एक क्षेत्र की भी नहीं है, इस समस्या का जहर हवाओं में घुल रहा है और भारत के सारे आकाश को अपनी आगोश में ले रहा है। क्या सबसे प्राचीन सभ्यता भारत इस जहरीले धुएं के नीचे दम तोड़ देगी? कश्मीर के इस गाँव की कहानी, क्या भारत के हर गाँव की कहानी बन जाएगी? फिल्म के बालक को पता ही नहीं कि उसके हाथ में जो बम्म रखा है, वह कितना घातक है, उसे छोटे से लालच ने फंसा लिया है। फिल्म के बालक को तो समझ आ गया था कि यह शायद घातक है, लेकिन हम किस-किस बच्चे को समझा पाएंगे कि तुम्हारे हाथ में बम्म रख दिया गया है। जो बच्चे बंदूक हाथ में लेकर गोलीबारी का खेल खेल रहे हैं, उन्हें कौन सभ्य नागरिक बनाएंगा? वे तो आतंक की ही खेती हैं ना! जितने भी बच्चे, अकेले अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे हैं, वे अपराध की शरण में जाने को मजबूर कर दिये जाते हैं। जिन कच्ची बस्तियों में, जिन गाँवों में, जिन कस्बों में ऐसे बच्चे घूम रहे हों, उनकी सुध समाज को लेनी चाहिये नहीं तो सीमा पार से किसी आतंकवादी को आने की जरूरत नहीं होगी, उनके लिये यहीं उपलब्धता रहेगी। फिल्में तो आपको इशारा कर रही हैं, सम्भल जाओ, अभी भी समय है, नहीं तो हर शहर सीरिया में तब्दील हो जाएगा। तुम मोदी-मोदी खेलते रह जाओगे और वे तुम्हें अपना शिकार बना लेंगे।
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2 comments:

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर = RAJA Kumarendra Singh Sengar said...

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन अमर शहीद जतीन्द्रनाथ दास की पुण्यतिथि पर नमन : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

अजित गुप्ता का कोना said...

आभार सेंगर जी