Thursday, December 27, 2018

पधारो म्हारा देश या?


आखिर हमारे छोटे शहर सैलानियों का बढ़ता आवागमन क्यों नहीं झेल पाते हैं? अब आप मेरे शहर उदयपुर को ही ले लीजिए, शहर में बीचों-बीच झीलें हैं तो झीलों से सटी पहाड़ियों पर भी बसावट है। पुराने शहर में सड़के संकरी भी हैं और पार्किंग की जगह ही नहीं है। उदयपुर के पैलेस तक जाना हो तो शहर के संकरे से रास्ते से गुजरना पड़ता है, झील तक जाने के लिये भी रास्ते संकरे ही हैं, ऐसे में सैलानियों की एक ही बस रास्ता जाम करने में काफी है। अभी दीवाली पर मैंने जैसलमेर के बारे में लिखा था कि वहाँ किले तक पहुँचना हमारे लिये नामुमकिन हो गया था और ऐसा ही नजारा उदयपुर का हो गया है। कल पैदल चलते हुए फतेहसागर जा पहुँचे, वहाँ फूलों की प्रदर्शनी लगी थी तो उसे भी देख लिया लेकिन अब लगा कि वापसी भी पैदल नहीं की जा सकती है तो उबर की सेवा लेने के लिये केब बुक की लेकिन भीड़ और शिल्पग्राम जाती गाड़ियों के कारण टेक्सी को आने में 45 मिनट लग गये। उदयपुर के लिये यह सैलानियों का मौसम है, दीवाली पर भी था और शायद फरवरी तक तो रहेगा ही। सारे रास्ते गाड़ियों, बसों से जाम रहेंगे, होटल की कीमते आसमान छूने लगेगी, दुकानदार भी आपको घास नहीं डालेंगे। यदि एक किलोमीटर के रास्ते को पार करने में आपको आधा घण्टा लगने लगे तो समझ सकते हैं कि रोजर्मरा के काम करने में कितनी कठिनाई का सामना करना पड़ता होगा।
मेरे जैसे ना जाने कितने लोग अब गाड़ी नहीं चला पाते, क्योंकि एक तो भीड़ और फिर पार्किंग की समस्या। केब लो और चल दो, लेकिन जब केब मिलना भी मुश्किल हो जाए तो खीज होने लगती है। झील के चारों तरफ बढ़ते जा रहे ठेले, फूड-ट्रक आदि भी पार्किंग की समस्या को बढ़ा रहे हैं। पैदल चलने वाले, घूमने वालों के लिये कोई पगडण्डी भी सुरक्षित नहीं है। या तो वहाँ कोई भुट्टे वाला आकर बैठ गया है या फिर किसी ने अपनी गाड़ी ही खड़ी कर दी है। सैलानी बढ़ रहे हैं लेकिन शहर का वासी घरों में कैद होकर रह गया है। प्रशासन भी सड़कों को विस्तार नहीं दे सकता है, क्योंकि जगह ही उतनी है। शहर के कुछ होटल बहुत प्रसिद्ध हैं, उनके रूफ-टॉप रेस्ट्रा से पिछोला झील का नजारा बेदह खूबसूरत होता है, लेकिन वहाँ तक पहुंचने के लिये 10 फीट की संकरी गली को पार करना होता है। इसका कोई इलाज प्रशासन के पास नहीं है, सिवाय इसके की पैदल जाओ और मस्त रहो। सैलानी तो पैदल चले जाएगा लेकिन जो बाशिन्दे उन गलियों में रह रहे हैं, उनके लिये तो मुसीबत आ जाती है। हम शहर के बाहर रहते हैं लेकिन हमारे चारों तरफ फाइव स्टार होटलों का जमावड़ा है, ऐसे में सारे रास्ते गाड़ियों और बसों की आवाजाही से जाम रहते हैं। सड़क पार करना तो भारी मशक्कत का काम है।
जहाँ भी कुछ चौड़े रास्ते हैं, वहाँ घरों के बाहर लोगों ने 6-6 फीट घेरकर रोक रखा है, इसे देखने वाला कोई नहीं है। यहाँ तक की फाइव स्टार होटलों तक ने पूरे रास्ते घेर रखे हैं। हमारे पास के एक होटल ने तो सड़क को आधी कर दिया है। चालीस फीट से चली सड़क, होटल आते-आते बीस फीट से भी कम रह गयी है। सैलानी भी परेशान होते हैं और शहर के बाशिंदे भी। सैलानी रोज बढ़ रहे हैं लेकिन शहर तो अपनी सीमा में ही रहेगा, इसलिये कम से कम गैरकानूनी कब्जों पर तो प्रशासन को अनदेखी नहीं करनी चाहिये। सारा व्यवसाय सड़क पर करने की छूट तो नहीं मिलनी चाहिये। एक दिन ऐसा आएगा जब शहर ही बदरंग होने लगेगा और फिर रात-दिन बढ़ते होटल खाली रहने पर मजबूर हो जाएंगे। कम से कम बसों को शहर में दौड़ने पर पाबन्दी तो लगानी ही होगी, उसके लिये वैकल्पिक व्यवस्था करनी होगी। उदयपुर जैसे शहरों को बचाना तो होगा ही नहीं तो पधारो म्हारा देश कहने की जगह पर कहना पड़ेगा कि मत पधारों म्हारा देश।   

Saturday, December 22, 2018

रूमाल ढूंढना सीख लो


न जाने कितनी फिल्मों में, सीरियल्स में, पड़ोस की ताकाझांकी में और अपने घर में तो रोज ही सुन रही हूँ, सुबह का राग! पतियों को रूमाल नहीं मिलता, चश्मा नहीं मिलता, घड़ी नहीं मिलती, बनियान भी नहीं मिलता, बस आँखों को भी इधर-उधर घुमाया तक नहीं कि आवाज लगा दी कि मेरा रूमाल कहाँ है, मोजा कहा है? 50 के दशक में पैदा हुए न जाने कितने पुरुषों की यही कहानी है। पत्नी हाथ में चमचा लिये रसोई में बनते नाश्ते को हिला रही है और उधर पति घर को हिलाने लगता है। पत्नी दौड़कर जाती है और सामने रखे रूमाल को हाथ पर धर देती है, सामने ही रखा है, दिखता नहीं है! जिस पुरुष ने सूरज से लेकर धऱती के गर्भ के अनगिनत रहस्य खोज लिये, दूसरी तरफ उसी के भाई से अपना रूमाल भी नहीं खोजा जा रहा। ऐसे पुरुष की सारी खोज बन्द हो गयी और दीमाग में जंग लग गयी। पहले उसने कामचोरी की फिर दीमाग ने कामचोरी शुरू कर दी। पहले रूमाल भूला अब वह खुद को भी भूलने लगा। कभी कहते थे कि पेड़ के सहारे बेल चलती है लेकिन अब बेल पेड़ को खड़े रहने में सहायता कर रही है।
सुबह-सुबह चुगली नहीं खा रही, आप बीती सुना रही हूँ। घोड़ा भी जब तक लौट-पोट नहीं कर लेता, उसमें दौड़ने का माद्दा पैदा नहीं होता, पेट की आंतों को जब तक गतिशील नहीं कर लेंगे अपने अन्दर के मलबे को नीचे धकेलती नहीं। लेकिन पति नामक प्राणी लगा पड़ा है अपने दीमाग को कुंद करने में। पत्नी को नाच नचाने के चक्कर में अपने दीमाग को नचाना भूलता जा रहा है और बुढ़ापा आते-आते दीमाग रूठकर बैठ जाता है, जाओ मुझे कुछ याद नहीं। पहले पत्नी का गुप्त खजाना आसानी से ढूंढ लिया जाता था लेकिन अब दीमाग पर जोर मारने पर भी खुद का खजाना भूल बैठे हैं! न जाने कितनी बार पत्नी के पर्स की तलाशी ली गयी होगी कि कहीं इसमें कोई प्रेम पत्र तो नहीं है लेकिन अब अपना पर्स ही नहीं मिलता! मैं अक्सर कहती हूँ कि खोयी चीज केवल आँखों से नहीं ढूंढी जाती उसके लिये दीमाग को काम लेना होता है और दीमाग का काम लेने की लिये उसे रोज रियाज कराया जाता है। कभी पहेलियां बूझते हैं तो कभी-कभी हाथ में गेम पकड़ा दिया जाता है कि इसे तोड़ों फिर जोड़ो। सारे दिन की अपनी रामायण को हम कभी भाई-बहनों को सुनाते हैं तो कभी दोस्तों-सखियों को। महिलाएं रोज नये-नये पकवान बनाती हैं और पुराने में नया छौंक लगाती हैं। पुरुष कभी अपनी बाइक के कलपुर्जे के साथ खिलवाड़ करता है तो कभी रेडियो को ही खोलकर बैठ जाता है। बस एक ही धुन रहती है कि दीमाग चलना चाहिये।
शिक्षा के कुछ विषय ऐसे होते हैं, जिनमें केवल रटना ही होता है, बस सारी गड़बड़ यहीं होती है, जो भी रटकर पास होते हैं, वे दीमाग को कुंद करने लगते हैं। लेकिन जहाँ दीमाग को समझ-समझकर समझाते हैं, वे दीमाग की धार लगाते रहते हैं। बाते करना, गप्प ठोकना, अपनी अभिव्यक्ति को लेखन के माध्यम से उजागर करना ये सारे ही प्रकार दीमाग की रियाज के लिये हैं, लेकिन जो लोग मौन धारण करने को ही पुरुषोचित बात मान लेते हैं वे अपने दीमाग के साथ छल करने लगते हैं और फिर दीमाग उनसे रूठ जाता है, अब बैठे रहो शान्ति से। मेरी एक मित्र थी, जीवन का उल्लास भरा था उसके अन्दर, सारा दिन बतियाना लेकिन पति महाराज मौनी बाबा। मैं समझ नहीं पाती थी कि कैसा है इनका जीवन लेकिन अब समझने लगी हूँ कि घर-घर में ऐसे स्वनाम धन्य पुरुषों की श्रृंखला खड़ी है। वे मौन रहकर ही खुद को बड़ा मान रहे हैं, रूमाल नहीं ढूंढ पाने को पति मान रहे हैं, उन्हें यह पता नहीं कि यही आदत उन्हें लाचार बना देगी। वे खुद को भी भूल जाएंगे। इसलिये खुद को याद रखना है तो बतियाओ, दीमाग को सतत खोज में लगाकर रखो। दीमाग के सारे न्यूरोन्स को सोने मत दो, बस घाणी के बैल की तरह जोत दो। बुढ़ापा आराम से कटेगा नहीं तो पूछते रह जाएंगे कि कौन आया है! मैंने तुम्हें पहचाना नहीं! चाय पीने के बाद भी पूछते रहेंगे कि मैंने चाय पी ली क्या! सावधान हो जाओ, दीमाग को भी सावधान कर दो और जीवन को जीने योग्य बना लो। जीवन दूसरों पर हुकुमत करने का नाम नहीं है, जीवन खुद पर हुकुमत करने का नाम है। इसलिये एक बार नहीं, बार-बार कहती हूँ कि खुद को साध लो, सारी दुनिया सध जाएगी। दीमाग को गतिशील रखो और खुद का रूमाल ही नहीं पत्नी का रूमाल भी ढूंढना सीख लो।

Friday, December 21, 2018

दरबार में कितने रत्न?


बिना घुमावदार घाटियों पर घुमाए अपनी  बात को सीधे ही कहती हूँ, एक टीवी सीरीयल आ रहा है – चन्द्रगुप्त मौर्य, उसमें चाणक्य है, धनानन्द है और हैं चन्द्रगुप्त। इतिहास की दृष्टि से विवादित है लेकिन एक बात जिसने मेरा ध्यान खेंचा और लिखने पर मजबूर किया वह है – चन्द्रगुप्त 15 वर्षीय युवक है, चपल, तीक्ष्ण बुद्धिवान, साहसी आदि सारे गुण उसमें है। चाणक्य की खोज है वह, मगध के सिंहासन के लिये। धनानन्द भी चन्द्रगुप्त को अपने महल में सेवक बना देता है इसपर प्रश्न उठता है कि इस उदण्ड बालक को इतना महत्व क्यों? धनानन्द का उत्तर सुनने और समझने लायक है, धनानन्द कहता है कि मेरे पास दो विकल्प थे, एक इसे मृत्युदण्ड देना और दूसरा अपने समीप रखना। मृत्युदण्ड देता तो मैं देश से प्रतिभा को नष्ट करने का दोषी बनता इसलिये मैंने इसे अपने साथ रखने का मार्ग चुना। क्यों चुना यह मार्ग? क्योंकि यह प्रतिभा सम्पन्न है, यह हीरा है, यदि मैं अपने पास रखूंगा तो यह मेरे लिये कार्य करेगा और यदि नहीं रखूगा तो मेरे शत्रु के लिये कार्य करेगा। क्योंकि इसकी प्रतिभा को तो कोई ना कोई उपयोग में लेगा ही। राजनीति का यह सबसे बड़ा चिन्तन है। प्रबुद्ध लोगों को अपने लिये उपयोगी बनाना और अपने पास सम्मान सहित रखना। यह आप पर निर्भर करता है कि आप उसकी प्रतिभा को अपने लिये उपयोगी बनाते हैं या फिर उसका सम्मान ना करते हुए उसे शत्रु के लिये सौंप देते हैं।
देश की राजनीति में यही होता आया है, अक्सर धनानन्द जैसे क्रूर शासक ऐसे रत्नों को अपने पास येन-केन-प्रकारेण रख लेते हैं और अमात्य राक्षस की सहायता से सफलतापूर्वक  शासन करते हैं। अकबर के पास नौ रत्न थे, वह भी महान बन गया था। मेरे कहने से पूर्व ही आप समझ गये हैं कि मेरा इशारा किस ओर  है? भारतीय राजनीति का एक दल है जिसके पास 90 प्रतिशत ऐसे प्रबुद्ध लोग  हैं और दूसरे दल के पास मात्र 10 प्रतिशत। लोग आपके कार्य से प्रभावित होते हैं और आपके पास आते हैं लेकिन आप उन्हें सम्मान नहीं देते और ना ही उन्हें कोई उचित कार्य दे पाते हैं। व्यक्ति का हाल यह होता है कि वह मन से तो देश का कार्य करने के लिये सज्ज हो गया लेकिन उसे कोई घास ही नहीं डाल रहा, यदि घास डाल भी दे तो काम नहीं और काम भी दे दें तो सम्मान नहीं। एक बार हमने जनजातीय क्षेत्र में कुछ काम खड़ा किया, अनेक युवक व युवतियाँ निकलकर बाहर आयीं लेकिन अचानक ही काम बन्द करवा दिया गया। देखते क्या हैं कि वे सारे ही युवा मिशनरीज के साथ जुड़ गये। भँवरे ने खिलाया फूल, फूल को ले गया राजकुँवर। मेरे पास ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जब केवल शिक्षित करके हमने नौजवान पीढ़ी को उसके हाल पर छोड़ दिया। शिक्षित हम करते हैं और उसका उपयोग हमारे शत्रु करते हैं। इसलिये प्रबुद्ध वर्ग की आजीवन देखरेख करनी पड़ती है, उसकी बुद्धि का उपयोग अपने लिये करते रहना पड़ता है। ढील दी नहीं कि पतंग दूसरे ने काट डाली। आज जो हाहाकार मचा है, वह प्रबुद्ध लोगों की अनदेखी के कारण ही मचा है। मैंने देखें हैं कि लोग हाथ जोड़कर आपके दर पर महिनों तक पड़े हैं लेकिन आपने कहा कि हम ऐसे प्रबुद्ध लोगों को सम्भाल नहीं सकते। धीरे-धीरे सारे ही कमअक्ल लोग आपकी झोली में आ गये और दूसरे की झोली भर गयी। अभी फिर समय आया है, सोशलमीडिया के माध्यम से, जब अनेक प्रबुद्ध व्यक्ति आपके साथ जुड़ना चाहते हैं, तो लपक लीजिये उनको। कहीं ऐसा ना हो कि देर हो जाए और आप संघर्ष ही करते रह जाएं। देश प्रेम की भावना भर देने मात्र से ही कोई व्यक्ति केवल देश के लिये नहीं सोचता है, व्यक्ति पहले अपने सम्मान और उपयोग के लिये सोचता है। यदि ऐसा नहीं होता तो लाखों-करोड़ों लोग विदेश जाकर सम्मानित जिन्दगी का चयन नहीं करते? हम तो आपको सुझाव दे सकते हैं क्योंकि अब केवल सुझाव देने के ही दिन शेष हैं। जो हमारे सुझाव मान लेगा वह चन्द्रगुप्त सरीखे हीरों को अपने पास रख लेगा और उनके प्रकाश से खुद को भी प्रकाशित करता रहेगा और राजनीति को भी। कांग्रेस के लिये गाँधी परिवार केवल एक साधन है, प्रबुद्ध लोग उस परिवार के माध्यम से शासन को चुनते हैं लेकिन भाजपा के लिये मोदी ही एकमात्र सहारा है। मोदी नहीं तो कुछ भी नहीं। इसलिये भाजपा को तय करना है कि उसके दरबार में भी रत्नों का ढेर हो या नहीं? देश के उच्च पदों के लिये हम ऐसे ही खोज जारी रखेंगे या अपनी झोली से हीरे निकालकर देश को देंगे? आज लड़ाई राजनैतिक दल नहीं अपितु प्रबुद्ध वर्ग लड़ रहा है, वह अपने सम्मान का नमक अदा कर रहा है।

Wednesday, December 19, 2018

काश हम एक नहीं अनेक होते

रोज सुनाई पड़ता है कि यदि एक सम्प्रदाय की संख्या इसी गति से बढ़ती रही तो देश का बहुसंख्यक समाज कहाँ जाएगा? उसे केवल डूबने के लिये हिन्द महासागर ही मिलेगा। फिर तो हिन्द महासागर का नाम भी बदल जाएगा। ऐसे में मुझे इतिहास की एक बड़ी भूल का अहसास हुआ। जब भारत स्वतंत्र हो रहा था तब अंग्रेजों ने देश की 565 रियासतों के राजा-रजवाड़ों को बुलाकर कहा था कि आज से आप स्वतंत्र हैं, आप चाहें तो स्वतंत्र राष्ट्र बन सकते हैं और चाहें तो हिन्दुस्थान या पाकिस्तान के साथ मिल सकते हैं। कल क्या हुआ था यह मत सोचिये, यह सोचिये कि यदि जो हुआ था वह नहीं होता तो क्या होता? 565 रियासतों में से बहुत सारी ऐसी होती जो स्वतंत्रता के पक्ष में होती और भारत एक ना होकर अनेक भारत में विभक्त हो जाता। छोटी-छोटी रियासते हो सकता है कि अपनी नजदीकी रियासत के साथ मिल जाती, जिसकी सम्भावना न के बराबर है। अब देश में ही कितने देश होते? 100? 200? 300? 400? 500? या इससे भी ज्यादा। पाकिस्तान की तर्ज पर कुछ मुस्लिम देश और होते लेकिन कोई तमिल होता तो कोई मलयाली, कोई उड़िया तो कोई बंगाली, कोई राजस्थानी, कोई पंजाबी तो कोई गुजराती। कहीं ब्राह्मण प्रमुख होते तो कहीं वैश्य और कहीं क्षत्रीय। कहीं जाट तो कहीं गुर्जर तो कहीं शूद्र। सभी को अपना देश मिल जाता। किसी देश में लोकतंत्र होता तो किसी देश में राजतंत्र। धर्मनिरपेक्षता का नाम भी होता या नहीं, कह नहीं सकते। ऐसे में मुस्लिम विस्तार की बात बामुश्किल होती और यदि होती भी तो जनता को अनेक हिन्दू राष्ट्र में शरण लेने की जगह होती। 
अभी क्या देखते हैं कि एक सम्प्रदाय विशेष को ही आजादी के बाद से सारे सुख मिले हैं, अन्य सम्प्रदाय के विद्वानों को वह स्थान नहीं मिला जो मिलना चाहिये था। आरक्षण के कारण भी बहुत दमन हुआ। हो सकता है तब आरक्षण की आवश्यकता ही नहीं पड़ती और समाज में वैसे ही समानता आ जाती। किसी भी जाति वर्ग के विद्वान को यदि अपने देश में सम्मान नहीं मिलता तो दूसरे देश में मिल जाता। देश भी पास-पास होते तो परिवार भी टूटने के खतरे से बच जाते। इतने बड़े देश में आज केवल धर्मनिरपेक्षता से काम नहीं चल सकता। आज जो हो रहा है, वह एक सम्प्रदाय की खेती को तेजी से बढ़ाने का काम हो रहा है। हर वर्ग में असंतोष बढ़ता जा रहा है, वे जायज भी हैं और एक देश की दृष्टि से देखें तो नाजायज भी हैं। लेकिन हम एक देश नहीं होते तो यह समस्या नहीं होती। कोई भी जाति या सम्प्रदाय इस प्रकार सर नहीं उठाते। हम आपस में मित्र राष्ट्र होते और एक दूसरे को सम्मान देते। अब तो देख रहे हैं कि 20 करोड़ की जनसंख्या भी अल्पसंख्यक कहलाती है और बहुसंख्यक के सारे अधिकार छीन रही है। ब्राह्मण से लेकर दलित तक सभी आन्दोलित हैं, सभी को विशेष दर्जा चाहिये।
सरकारें भी पेशोपेश में हैं कि किसे खुश करें और किसे नाराज! यही कारण है कि हर रोज सरकारें बदलती हैं, वादे बदलते हैं और खुश करने का तरीका बदल जाता है। नेता कभी इधर तो कभी उधर का खेल खेलते हैं और जनता भी कभी इसका पलड़ा तो कभी उसका पलड़ा भारी करती रहती है। इन सबके बीच यदि नुक्सान हो रहा है तो सनातन धर्म का हो रहा है। हमारे सनातन मूल्यों का नुक्सान हो रहा है। हमारी संस्कृत भाषा और हमारी संस्कृति का हो रहा है। सर्वकल्याणकारी संस्कृति का विनाश ऐसा ही है जैसे सम्पूर्ण मानवता का विनाश। क्या हम आसुरी काल में प्रवेश करेंगे? क्या राम और कृष्ण मय धरती इनसे विहीन हो जाएगी? प्रश्न बहुतेरे हैं, लेकिन उत्तर कहीं नहीं हैं! हम सब एक-दूसरे को समाप्त करने में लगे हैं लेकिन इसका अन्त कहाँ जाकर होगा, यह कोई नहीं जानता। इसलिये मन में आया कि काश हम एक ही नहीं होते तो कम से कम सुरक्षित तो रहने की सम्भावनएं बनी रहती। अभी भी कुछ टुकड़े हो जाएं तो बचाव का मार्ग बचा रह सकता है नहीं तो सारा हिन्दुस्थान नाम लेने को भी नहीं बचेगा। फिर तो यहूदियों जैसा हाल होगा कि ओने-कोने में बचे हिन्दू एकत्र होंगे और फिर इजरायल की तरह अपना देश हिन्दुस्थान बसाएंगे। वही हिन्दुस्थान शायद अजेय होगा।

Monday, December 17, 2018

शेष 20 प्रतिशत पर ध्यान दें

40 प्रतिशत इधर और 40 प्रतिशत उधर, शेष 20 प्रतिशत या तो नदारद या फिर कभी इधर और कभी उधर। सत्ता का फैसला भी ये ही 20 प्रतिशत करते हैं, ये सत्ता की मौज लेते रहते हैं। सत्ताधीशों को अपने 40 प्रतिशत को तो साधे रखना ही होता है लेकिन साथ में इन 20 प्रतिशत को भी साधना होता है। कांग्रेस कहती है कि भाजपा ने अपना वोट बैंक मजबूत कर रखा है और भाजपा कहती है कि कांग्रेस ने मजबूत कर रखा है। सम्राट तो अकबर ही था लेकिन उसने नौ रत्न दरबारी के रूप में रख लिये अब आजतक भी अकबर के साथ उन नौ रत्नों का जिक्र होता है। सम्मानित दरबारी नौ ही थे लेकिन हजारों इसी आशा में रहते थे कि कभी हमारा भी नम्बर आ ही जाएगा। सत्ता के साथ यही होता रहा है, आज भी यही हो रहा है। कुछ ऐसे हैं जो जानते हैं कि अपनी योग्यता के बल पर कभी भी सत्ता के लाभ नहीं ले सकते अंत: वे सत्ताधीषों के दरबारी बने रहते हैं कि उनकी झूठन ही सही, कुछ तो मिलेगा। लेकिन कुछ ऐसे होते हैं कि उन्हें अपनी योग्यता पर गुरूर होता है, वे कहते हैं कि हम सर्वाधिक योग्य हैं इसलिये हमारा हक बनता है। चुनावों में बागी उम्मीदवार ऐसी ही सोच रखते हैं, कुछ जीत जाते हैं तो कुछ जमानत भी बचा नहीं पाते। जो जीत जाते हैं वे उदाहरण बन जाते हैं और लोग फिर अपनी योग्यता पर दांव लगाने लगते हैं। 
चुनाव के अतिरिक्त ऐसे ढेर सारे बुद्धिजीवी भी होते हैं, इनमें पत्रकार प्रमुख हैं। ये सत्ताओं को हमेशा धमकाते रहते हैं, ये सत्ता के सारे लाभ लेना चाहते हैं। सत्ता इन्हें लाभ देती भी है लेकिन सभी को लाभ मिले यह सम्भव नहीं और जब सम्भव नहीं तो इनका विरोध झेलना ही पड़ता है। वर्तमान में स्थिति यह है कि भाजपा ने इनके लाभ की प्रतिशत में कटौती कर दी तो असंतुष्टों का प्रतिशत भी बढ़ गया। एक और वर्ग जिसे सोशल मीडिया के नाम से जाना गया, वह भी इस भीड़ में शामिल हो गया। पत्रकार हो या सोशल मीडिया का लेखक पहले किसी दल के पक्ष में लिखता है, उसके करीब आता रहता है, पाठक भी उसे उसी दल का समर्थक मान लेता है और उसके लेखन को पढ़ते-पढ़ते उसके मुरीद बन जाते हैं। जब अच्छी खासी संख्याबल एकत्र हो जाता है तब वह आँख दिखाना शुरू करता है, सत्ता के अपना हिस्सा मांगने लगता है। यदि सत्ता ने ध्यान नहीं दिया तो नुक्सान की धमकी देता है। कितना नुक्सान कर पाते हैं या नहीं यह तो पता नहीं चलता लेकिन समाज में असंतोष फैल जाता है। कुछ लोग कहते हैं कि इनके कारण हार हुई है, कुछ लोग कहते हैं कि इनका असंतोष का काबू में रखना चाहिये और इन्हें भी सत्ता के लाभ देने चाहियें। इस चुनाव में भी यही हुआ, क्या पत्रकार और क्या सोशलमीडिया का लेखक दोनों ने ही अपनी दावेदारी दिखायी। अनेक समाचार पत्र जिन्हें भाजपा अपनी ही मानती रही थी, उन्होंने जमकर आँख दिखायी, ऐसे ही सोशलमीडिया के लेखक ने भी जमकर आँख दिखायी।
मेरा कहना यह है कि जो भी आँख दिखा रहा है, उसे अपने चालीस प्रतिशत में शामिल मत करिये, वे उन 20 प्रतिशत में हैं जो आपको कभी भी पटकनी दे सकता है। इनसे खतरा दोनों ही दलों को बराबर है। इनपर अपनी ऊर्जा व्यय करने से अच्छा है अपने ही बुद्धीजीवी को सम्मान देना प्रारम्भ करें। यदि दो चार को भी सम्मानित कर दिया तो असंतोष का रास्ता बन्द हो जाएगा। बस हर मोर्चे पर ऐसे लोगों की पहचान जरूर करें, चाहे वे नेता हो, कार्यकर्ता हों, पत्रकार हों या फिर सोशल मीडिया का लेखक। क्योंकि जब लालच उपजने लगता है तब उसकी सीमा नहीं होती, इसलिये लालच को बढ़ावा देने से अच्छा है, उसके सामने दूसरा श्रेष्ठ विकल्प खड़ा कर दें। संघ में बहुत विचारक हैं, उन्हें लामबन्द करना चाहिये और इस क्षेत्र में उतारना चाहिये। आज की आवश्यकता है छोटा और सार्थक लेखन, जिसे आसानी से आमजन पढ़ सके। सनसनी फैलाना या किसी के लिये अपशब्दों का प्रयोग करने से बचना होगा क्योंकि इससे विश्वसनीयता समाप्त होती है। हमें सोशल मीडिया पर ऐसे कोई भी समूह दिखायी नहीं देते जो सारगर्भित लेखन कर रहे हों, या किसी के लेख को समूह रूप में स्वीकार कर रहे हों। बस दोनों तरफ से झूठ और गाली-गलौच का सामान तैयार है, सभी को खुली छूट मिली है कि वह कुछ भी लिखे और कुछ भी कॉपी-पेस्ट करे। संगठन को अपनी जिम्मेदारी लेनी चाहिये कि ऐसी किसी पोस्ट पर एक्शन ले। संगठन की जवाबदेही ही बहुत सारे लोगों को सही मार्ग पर ला सकती है ना कि उनका मौन। यदि संगठन ने अपनी जिम्मेदारी नहीं समझी और केवल मौन को ही अंगीकार किया तब उनके कार्य पर भी प्रश्नचिह्न लगेगा। 

Thursday, December 13, 2018

भिखारी परायों के दर पर

www.sahityakar.com
आर्कमिडीज टब में नहा रहा था, अचानक वह यूरेका-यूरेका बोलता हुआ नंगा ही बाहर भाग आया, वह नाच रहा था क्योंकि उसने पानी और वस्तु के भार के सिद्धान्त को समझ लिया था, न्यूटन सेव के पेड़ के नीचे बैठा था, सेव आकर धरती पर गिरा और उसने गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त को समझ लिया था। छोटी-छोटी घटनाओं से वैज्ञानिक प्रकृति के रहस्यों को समझ लेते हैं, ऐसे ही समाज-शास्त्री भी छोटी घटनाओं से मनुष्य की मानसिकता को समझते हैं और तदनुरूप ही अपने समाज को ढालते हैं। सारे राजनैतिक घटनाक्रम के चलते कल एक घटना ने मेरी भी सोच को केन्द्रित किया और हमारे समाज की मानसिकता समझने का प्रयास हुआ। कल मेरी नौकरानी का फोन आया कि वह आज नहीं आएगी, पड़ोस की नौकरानी भी नहीं आयी। दोनों ही आदिवासी थी लेकिन मेरी दूसरी नौकरानी आदिवासी नहीं थी, वह आयी। मैंने ध्यान नहीं दिया कि क्यों नहीं आयी, लेकिन बातों ही बातों में पता लगा कि वह दूसरे शहर की किसी दरगाह पर गयी हैं। मुझे आश्चर्य हुआ कि दरगाह  पर क्यों! पता लगा कि हर साल जाते हैं। हमारे देश का तथाकथित हिन्दू समाज भीख मांगने का कोई भी मौका नहीं छोड़ता फिर वह भीख अपनों से मांगने की बात हो या दूसरों से। उसे  पता लगना चाहिये की यहाँ मन्नत मांगने से कुछ मिल जाता है, फिर वह शर्म नहीं करता। अजमेर दरगाह तो इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। आज हम दूसरों के सामने हाथ पसार रहे हैं, कल उनकी बात मानने लगते हैं और फिर कब स्वयं को बदल लेते हैं पता ही नहीं चलता। यदि बदलते भी नहीं हैं तो उनकी ओर से आ रहे खतरे को तो नजर-अंदाज कर ही देते हैं। हमारे छोटे-छोटे लालच हमें अपने समाज से दूर ले जाते हैं और शनै:-शनै: समाज की शक्ति कम होने लगती है। हम समझ ही नहीं पाते कि राजा कौन हो, इस बात से कोई अन्तर पड़ता है। वे तो स्वयं को भिखारी की श्रेणी में रखते हैं तो कौन राजा हो इससे क्या अन्तर!
इसके विपरीत किसी भी अल्पसंख्यक समाज को किसी दूसरे सम्प्रदाय के दर पर दस्तक देते कभी नहीं देखा गया। क्या गरीबी वहाँ नहीं है? मुस्लिम और ईसाई तो बहुत गरीब हैं, लेकिन क्या मजाल कभी किसी हनुमानजी.या देवी के मन्दिर में दिखायी दिये हों! वे भी तो मन्नत मांगते ही होंगे! लेकिन वे अपनों से ही मन्नत मांगते हैं इसलिये कभी दूसरों से प्रभावित नहीं होते। उनका लक्ष्य, उनके समाज ने निर्धारित कर दिया है, केवल अपना विस्तार। जबकि हमारे समाज ने हमारा कोई लक्ष्य निर्धारित ही नहीं किया है, सभी ने लंगर लगाकर और मन्नत का धागा बांधना तो सिखा दिया लेकिन स्वाभिमान नहीं सिखाया। तुम्हारे हाथ में ही सारी सम्पत्ती है, यह नहीं सिखाया। हाथ कर्म करने के लिये होते हैं, भीख मांगने के लिये नहीं, यह नहीं सिखाया। भीख भी मांगनी पड़े तो अपनों से मांगों, परायों से नहीं, यह नहीं सिखाया। यही कारण है कि चुनावों में एक पव्वा भारी पड़ जाता है, रसोई गैस-बैंक में खाता-घर-भामाशाह कार्ड के सामने। जैसे लोगों को मूल से अधिक सूद प्यारा होता है वैसे ही स्थायी धन से भीख प्यारी हो जाती है।
ईसा पूर्व का उदाहरण उठाकर देख लें या बाद के, अनगिनत बार ऐसा हुआ है कि दूसरे देश की सेनाएं बिना लड़े ही युद्ध जीत गयी! क्योंकि हम परायों और अपनों में भेद ही नहीं कर पाए। एक छोटा सा लालच हमें अपनी सेना के विरोध में खड़ा कर देता है और फिर सर धड़ से अलग हो जाता है यह जानते हुए भी लालच नहीं छूटता। यही है हमारे समाज की मानसिकता। इसी मानसिकता का लाभ दुनिया उठा रही है, लेकिन हम इस मानसिकता को समझकर भी नहीं समझना चाहते क्योंकि हम भी काम करना नहीं चाहते। समाजों के नाम पर, हिन्दुत्व के नाम पर अनेक संगठन बन गये लेकिन वे अपने नाक के नीचे हो रहे इस मतान्तरण को देख ही नहीं पा रहे हैं, देख भी रहे हैं तो कुछ करते नहीं बस राजनैतिक दाव-पेंच में ही उलझे रहना चाहते हैं कि कौन मुख्यमंत्री हो, जो हमारे कहने से चले। पाँच साल से अभी और पांच साल पहले नजदीक से देखा है एक समर्थ मुख्यमंत्री को इन्हीं ताकतों ने कैसे-कैसे बदनाम किया और उसे हराकर ही दम लिया। जनता तो भीख पर पल रही है, उसे देश के खतरे से लेना-देना नहीं, लेकिन जो देश के खतरे को बता-बताकर लोगों को डराते रहते हैं, वे अपनी मुठ्ठी का व्यक्ति ढूंढते हैं। राजस्थान में तो हँसी आती है, कुछ लोग ऐसे व्यक्ति को मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे जिसे कभी संघ ने ही तड़ी पार किया था और ऐसी मुख्यमंत्री को हटाना चाहते थे जो जनता के दिलों में बसती थी। एक ने भीख का लालच देकर सत्ता हथिया ली और दूसरे ने अपनों पर ही वार करके सत्ता खो दी। मुझे पोरवराज को हराना है, इसलिये मैं एलेक्जेण्डर से संधि करूंगा, इसी विद्वेष और लालच की मानसिकता को समझने की जरूरत है। भिखारी मानसिकता को अपने दरवाजे तक सीमित रखने के प्रयास की जरूरत है।

Sunday, December 9, 2018

खाई को कम करिये


लो जी चुनाव निपट गये, एक्जिट पोल भी आने लगे हैं। भाजपा के कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवीयों की नाराजगी फिर से उभरने लगी है। लोग कहने लगे हैं कि इतना काम करने के बाद भी चुनाव में हार क्यों हो जाती है? चुनाव में हार या जीत जनता से अधिक कार्यकर्ता या दल के समर्थक दिलाते हैं। इस मामले में कांग्रेस की प्रशंसा करूंगी कि उन्होंने ऐसी व्यवस्था खड़ी की कि कार्यकर्ता-समर्थक और नेता के बीच में खाई ना बने। नेता को यदि सत्ता के कारण सम्मान मिलता है तो बुद्धिजीवी को भी विषय-विशेष के लिये समाज में सम्मान भी मिले और स्थान  भी मिले, तभी यह खाई पट सकेगी। बस भाजपा और उनके प्रमुख संगठन संघ की यही बड़ी चूक है कि वह कार्यकर्ता को सम्मान नहीं दे पाती। दो मित्र एक साथ राजनैतिक क्षेत्र में आते हैं, एक नेता बन जाता है और दूसरा कार्यकर्ता रह जाता है। नेता बना मित्र, अपने ही मित्र से आशा रखता है कि वह उसके दरबार में आए और उसके कदम चूमे। बस यही प्रबुद्ध कार्यकर्ता का सम्मान आहत हो जाता है और वह ना देश देखता है, ना समाज देखता है, बस उसे यही दिखता है कि मैं सबसे पहले इसे गद्दी से कैसे उतारूं! फेसबुक पर सैकड़ों ऐसे लोग थे जिनका सम्मान आहत हुआ था, वे भी कांग्रेस के कार्यकर्ता की तरह समाज में अपना स्थान चाहते थे लेकिन उन्हें नहीं मिला और वे अपमानित सा अनुभव करते हुए, विरोध में आकर खड़े हो गये।
कांग्रेस जब से सत्ता में आयी है, तभी से उसने कार्यकर्ता और प्रबुद्ध लोगों को समाज में स्थापित करने के लिये देश भर में लाखों पद सृजित किये और हजारों पुरस्कार व सम्मानों का सृजन किया। एक पर्यावरणविद, समाज शास्त्री, साहित्यकार आदि का नाम शहर में सम्मान से लिया जाता है, उन्हें हर बड़े समारोह में विशिष्ट स्थान पर बैठाया जाता है। मंच पर राजनेता होता है और अग्रिम पंक्ति में सम्मानित अतिथि। दोनों के सम्मान में समाज झुकता है, बस एक समर्थक को और क्या चाहिये! मैंने संघ के निकटस्थ ऐसे प्रबुद्ध नागरिक भी देखें हैं, जिनने अद्भुत कार्य किया लेकिन उन्हें सीढ़ी दर सीढ़ी उतारकर जमीन पर पटक दिया गया। ऐसे ही हजारों नहीं लाखों कार्यकर्ताओं और समर्थकों की कहानी है। व्यक्ति देश की उन्नति के लिये आकर जुड़ता है लेकिन जब उसे लगता है कि उसे सम्मान नहीं मिल रहा अपितु ऐसी जाजम पर बैठना पड़ रहा है, जहाँ उसके साथ उसी के विभाग का चतुर्थ श्रेणी योग्यता के लिये नहीं अपितु उस विभाग में है, के कारण बैठा है। तब उसे कोफ्त होती है, वह नाराज होता है और अपमानित होकर घर बैठ जाता है। कुछ विरोध में खड़े हो जाते हैं और कुछ मौन हो जाते हैं।
यहाँ सोशल मीडिया पर इन चुनावों को लेकर बहुत रायता फैलाया गया था। सभी चाह रहे थे कि मुख्यमंत्री बदलें, क्योंकि उनका सम्मान अधिक था लेकिन कार्यकर्ता को सम्मान नहीं था। वे कांग्रेस की तरह स्लीपर सेल जैसी व्यवस्था चाहे ना चाहते हों लेकिन सम्मान अवश्य चाहते थे। एक्जिट पोल नतीजे नहीं हैं और मुझे अभी  भी लगता है कि जनता खुश थी, नाराजी थी तो कार्यकर्ताओं की ही थी इसलिये चुनाव में जीत होगी, परन्तु जहाँ भी हार होगी वहाँ केवल कार्यकर्ताओं के कारण होगी। 70 प्रतिशत से ज्यादा पोलिंग भाजपा के पक्ष में है लेकिन इससे कम इनके विरोध में है। एक प्रतिशत का अन्तर ही भाजपा को डुबा सकता है और यह एक प्रतिशत कार्यकर्ताओं का रौष ही है।
लेकिन यदि जीत जाते हैं तो संगठन को सम्मान के इस मार्ग को भाजपा के लिये भी तैयार करना होगा। लोगों को उनकी पहचान देनी होगी, तभी वे सम्मानित महसूस करेंगे और आपके साथ जुड़े रहेगे। बिना सम्मान गुलामी में जीने के समान है और समर्थक ऐसे में परायों की गुलामी स्वीकार कर लेते हैं, अपनों के खिलाफ। इसलिये संघ जैसे संगठनों को चाहिये कि कार्यकर्ता और समर्थकों की प्रबुद्धता को सम्मान दे और उनकी और नेता की दूरी को कम करे। जितनी खाई बढ़ेगी उतनी ही दिक्कतें बढ़ेंगी। यदि इस बार जीत भी गये तो क्या, अगली बार यही समस्या विकराल रूप धारण कर लेगी। हर विषय-विशेषज्ञ की सूची होनी चाहिये और उन्हें उसी के अनुरूप सम्मान मिलना चाहिये। सूची में गधे और घोड़ों को एक करने की प्रथा को समाप्त करना होगा नहीं तो गधे ही चरते रह जाएंगे और घोड़े आपकी तरफ झांकेंगे भी नहीं।
www.sahityakar.com

Monday, November 26, 2018

कालपात्र की तरह खानदान को उखाड़ने का समय


फिल्म 102 नॉट ऑउट का एक डायलॉग – चन्द्रिका को तो एलजाइमर था इसलिये वह सारे परिवार को भूल गयी लेकिन उसका बेटा अमोल बिना अलजाइमर के ही सभी को भूल गया!
मोदी को अलजाइमर नहीं है, वे अपने नाम के साथ अपने पिता का नाम भी लगाते हैं, राजीव गांधी को भी अलजाइमर नहीं था, फिर वे अपने पिता का नाम अपने साथ क्यों नहीं लगाते थे? राहुल गाँधी अपनी दादी का नाम खूब भुनाते हैं लेकिन दादा का नाम कभी भूले से भी नहीं लेते!
यह देश लोकतंत्र की ओर जैसे ही बढ़ने लगता है, वैसे ही इसे राजतंत्र की ओर मोड़ने का प्रयास किया जाता है। बाप-दादों के नाम का हवाला दिया जाता है, देख मेरे बाप का नाम यह था, बता तेरे बाप का नाम क्या था? ऐसे प्रश्न किये जाते हैं। लेकिन प्रश्न करने वाले कभी खुद ही उलझ जाते हैं, बाप का नाम तो है, नाम प्रसिद्ध भी है लेकिन लेने पर खानदान की पोल खुलती है तो नहीं लेते। कहावत है ना कि दूसरों की तरफ एक अंगुली करने पर चार अपनी तरफ ही उठ जाती हैं। तुम्हारा नामधारी बाप भी तुम्हें चुप रहने पर मजबूर करता है और किसी का अनजाना सा बाप का नाम भी गौरव बढ़ा देता है कि देखो इस बाप ने कैसे संस्कार दिये कि बेटा कहाँ से कहाँ पहुंच गया! जिस बेटे को अपने बाप का नाम बताने में डर सताने लगे, जिसे उधार का उपनाम लेना पड़े, समझो वह लोगों की आँखों में धूल झोंक रहा है। जिस दिन इस खानदान का मकसद पूरा होगा, उस दिन ये सारे ही खानदान के नामों और उपनामों के साथ खड़े होंगे।
इन्दिराजी ने आपातकाल में एक काल-पात्र जमीन में गाड़ा था, मंशा यह थी कि जब कभी इतिहास को जमीन के नीचे से खोदा जाएगा तब हमारे खानदान को स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा। लेकिन उनकी यह मंशा पूरी नहीं हुई और कालपात्र को जमीन से निकाल लिया गया। ऐसे ही इस खानदान की यह मंशा भी पूरी नहीं होगी कि आज तो नाम राहुल गाँधी है लेकिन जब हिन्दुस्थान को पाकिस्तान में तब्दील करने में सफल होंगे तब नाम कुछ और हो जाएगा। तब गाँधी नहीं रहेगा, तब राहुल भी नहीं रहेगा। तब इन्दिरा का परिवर्तित नाम फिरोज खान के साथ शान से लिया जाएगा।
यह बाप के नाम का खेल एक सम्प्रदाय विशेष को बताने के लिये ही है कि हमारा नेता तुम्हारे खानदान से ही है, इसलिये हम कैसा भी स्वांग भरेंगे लेकिन वास्तव में हम तुम्हीं में से हैं, यह भूलना नहीं। हमें कभी भी एलजाइमर नहीं होगा। हम उसी बेटे की तरह हैं जो अपने स्वार्थ के लिये बिना एलजाइमर के भी पूरे परिवार को भूल जाता है लेकिन अपना स्वार्थ नहीं भूलता है। इसलिये उस फिल्म की तरह ही अपने बेटों को सिखाओ की जो अपने खानदान को भूल जाए, उसे लात मारना ही अच्छा है, ऐसी आशा से निराशा ही अच्छी है। वे खुद को खानदानी बताना चाह रहे हैं और दूसरों को बे-खानदानी। इसी खानदान में वे अपना भविष्य ढूंढ रहे हैं। सावधान रहना देश वालों, ये हमारे ही लोगों के हाथों में खानदान की तलवार देकर हमें ही मारना चाहते हैं। देश लोकतंत्र को मजबूत करने में लगा है और ये राजतंत्र का पाठ पढ़ा रहे हैं, इनकी बातों के रहस्य को समझ लेना और अपने देश के लोकतंत्र की रक्षा करना। इन्दिरा जी का कालपात्र तो जनता सरकार ने खोदकर बाहर फेंक दिया था लेकिन इनके खानदानी कालपात्र को भी नेस्तनाबूद करने का समय है।
www.sahityakar.com

Friday, November 23, 2018

सावधान पार्थ! सर संधान करो


ऐसी कई कहावतें हैं जिनके प्रयोग पर मुझे हमेशा से आपत्ति रही है, उनमें से एक है – निन्दक नियरे राखिये, आंगन कुटी छवाय। बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय। विद्वान कहने लगे हैं कि अपने निन्दक को अपने पास रखो, उसके लिये आंगन में कुटी बना दो। लेकिन मैं कहती हूँ कि अपने निन्दक को नहीं जो अपने दुश्मन की निंदा कर सके, उसे अपने पास रखो। एक गाँव में एक संन्यासी बहुत अच्छा काम कर रहा था, उस गाँव के जमींदार का बड़ा नुक्सान हो रहा था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि इस संन्यासी का तोड़ क्या निकालूं, तभी उसे यह कहावत याद आयी और उसने तत्काल गाँव के सबसे खतरनाक निन्दक को बुलाया। निन्दक ने एक उपाय बताया और दूसरे दिन ही आश्चर्य हो गया, गाँव वाले संन्यासी पर पत्थर फेंक रहे थे। निन्दक ने कुछ नहीं किया बस रात को एक महिला को संन्यासी की कुटिया के पास से निकाल दिया और गाँव वालों को चतुरता से दिखा दिया। चुनाव हो रहे हैं, अब निन्दक की भरपूर मांग रहेगी, सारे ही सज्ज हो जाओ। ताश के बावन पत्ते से तो नेताजी खेल खेलेंगे लेकिन आपको पपलू से विरोधी को मात देनी है।
कांग्रेसी इस कहावत को समझे बैठे हैं लेकिन अभी तक गदाधारी भीम रूपी भाजपा को यह थ्योरी समझ नहीं आती है, हमारे उदयपुर में गुलाब जी भाईसाहब सीधी कार्यवाही में विश्वास रखते हैं जबकि गिरिजा जी की तरफ से निन्दा के बाण पहले दिन ही चल गये। अब तो सीपी जोशी ने भी खुद को केन्द्र का प्रतिनिधि मानते हुए केन्द्र पर बाण छोड़ दिया है। गिरिजा जी मानसिक चिकित्सा की सलाह दे रही हैं तो सीपी जोशी छोटी जात और बड़ी जात का प्रश्न उठाकर खुद को सर्वोच्च जाति का बताने में देर नहीं कर रहे हैं। इन दोनों के बाण कहाँ जाकर लगें हैं इसका अभी पता नहीं चला है लेकिन दूसरी तरफ से उछल-कूद हो रही है कि हम शिकायत करेंगे। कह रहे थे कि निन्दक को पास रखो, तब तो सुनी नहीं, अब शिकायत से क्या होगा? हम तो अब भी कह रहे हैं कि देर नहीं हुई है, अपने लोगों को ही मना लो। ये अभी तक तुम्हारी ही लपेटने में लगे थे, कुछ अण्टी ढीली करो और उन्हें अपने आंगन में जगह दे दो। कई अचूक बाणबाज हैं तुम्हारे आसपास भी, उन्हें जरा सम्मान दो और फिर देखों उनके तरकस से कैसे तीर निकलते हैं? हम भी आप लोगों की मदद कर सकते थे लेकिन हम तो फेसबुक के आंगन में कुटिया छानकर बैठ गये हैं। संजय की भूमिका में आ गये हैं।
तुम देखते रहियो, गिरिजाजी मुख्यमंत्री बनेंगी, आखिर इतने दिन उदयपुर की जगह दिल्ली में डेरा डाले ऐसे ही पड़ी थीं! तुम लोग महिलाओं को हमेशा कम आंकते हो, तुमने प्रतिभा पाटिल को भी कम आंका था। राजस्थान की राज्यपाल थी और तुम उनकी परवाह नहीं करते थे, वे एक ही झटके में राष्ट्रपति बन गयी। लो कर लो बात। देखना गिरिजा जी भी मुख्यमंत्री बनेंगी। जोशीजी की उच्च जाति का बयान उन्हें ही घेर लेगा, गहलोत को तो पायलेट ने चक्करघन्नी पहले ही बना रखा है। पायलेट को तो बाहरी आसानी से बता देंगे, मैदान गिरिजाजी के लिये खाली है ना! चेत जाओ, गुलाबजी! कहीं ऐसा ना हो कि बूढ़ी शेरनी आपको मात दे जाए? आपके लोगों को आगाह करो कि निकलो अपनी मांद से और अपनी मुख्यमंत्री को नहीं दूसरे दल की मुख्यमंत्री के लिये शब्द-बाण चलाएं। अपनी को तो बाद में भी देख लेना, अभी तो दूसरी का मामला है। सावधान पार्थ! सर संधान करो।
www.sahityakar.com

Wednesday, November 21, 2018

इस पाले की – उस पाले की या नोटा की भेड़ें


चुनाव भी क्या तमाशा है, अपनी-अपनी भेड़ों को हांकने का त्योहार लगता है। एक खेत में कई लोग डण्डा गाड़कर बैठ जाते हैं और भेड़ों को अपनी-अपनी तरफ हांकने लगते हैं। भेड़ें भी जानती हैं कि उन्हें किधर मुँह करके बैठना है। आजकल कुछ भेड़ें कहने लगी है कि मैं किसी मालिक को नहीं मानती, मैं किसी के पाले में जाकर नहीं बैठूंगी। एक बार एक बड़ा सा भेड़ों का झुण्ड रात को एक खेत में बसेरा किये बैठा था, मैंने खेत के मालिक से पूछ लिया कि तुम्हारें खेत में ये भेड़ें बैठी हैं तो तुम्हारे खेत का तो बहुत नुक्सान होता होगा? खेत मालिक बोला कि नहीं, इन भेड़ों से तो हमें बहुत फायदा है, रात भर में जितनी मेंगनी करती हैं, वो हमारे खेत के लिये भरपूर खाद हो जाता है, हम इसकी भारी कीमत भेड़ के मालिक को चुकाते हैं। भेड़ की मेंगनी से लाखों के वारे-न्यारे होते हैं तो भला ऊन से तो कितनी कमायी होती होगी? इसलिये भेड़ों को अपनी तरफ किया जाता है। अब जो भेड़ें किसी भी खेत में बैठने को तैयार नहीं, वे कहीं तो मेंगनी करेंगी ही ना! वे समझ रही हैं कि हमारी मेंगनी का फायदा किसी को नहीं होना चाहिये लेकिन कोई ना कोई तो फायदा उठा ही रहा है! आज चुनाव के माध्यम से मेंगनियों का व्यापार हो रहा है। भेड़ों को समझाया जा रहा है कि तुम स्वतंत्र रहो, किसी के खेत पर मेंगनी करने की जरूरत नहीं। भेड़ें तो भेड़े ही रहने वाली हैं, वे सोच रही हैं कि हम अपनी मर्जी के मालिक बन गये लेकिन उन्हें पता नहीं कि वे सदा से भेड़ थी और भेड़ ही रहेंगी। उनको बेमौल कोई ना कोई मूंड ही रहा है।
भेड़ की ऊन का कोट कौन पहनेगा, बस सवाल इतना सा है। कुछ लोगों को मेंगनी भी चाहिये, ऊन भी चाहिये और भेड़ की खाल भी चाहिये। कुछ कहते हैं कि हमें केवल मेंगनी और ऊन ही चाहिये। भेड़ें तय नहीं कर पाती कि हमारी खाल खेंचने वाले के पाले में जाएं तो क्योंकर जाएं लेकिन जाती हैं! एक भेड़ ने पूछ भी लिया कि मेरी खाल तो नहीं उतारोगे? मालिक बोला कि पगला गयी है क्या? तुझे पता नहीं तू कुर्बानी की भेड़ है, तेरी किस्मत कितनी बड़ी है कि तू कुर्बान होगी और फिर भेड़ हंसती-हंसती पाले में चले जाती है। दूसरे पाले वाला चिल्लाता रहता है कि देख मैं तेरी खाल नहीं खेचूंगा लेकिन भेड़ को समझ आ चुका है कि वह भी कुर्बान हो सकती है। चुनाव में जिधर देखो उधर ऐसे ही मजमा लगा है। भेड़ें भी मिमिया रही हैं, गले में घण्टी बंध गयी है, रंग-रोगन भी हो गया है। जिसके पाले में ज्यादा भेड़ें होंगी वे ही सारी भेड़ों का मालिक बन जाएगा फिर किसी भी खेत में ना बैठने वाली भेड़ें भी उसी मालिक से मूंड़ी जाएंगी। तेरी भेड़ और मेरी भेड़ अलग-अलग दिखती हैं लेकिन ऊन और मेंगनी सभी ने देनी है, मालिक के लिये सभी बराबर है। लेकिन चुनाव के समय देख तू भेड़ा है और तू भेड़ है, तू इस प्रदेश की भेड़ है और तू इस प्रदेश की है, तू श्रेष्ठ है और तू निकृष्ठ है का भाव बता दिया जाता है। ब्राह्मण भेड़ दलित भेड़ से भिड़ जाती है, दलित महा दलित से भिड़ जाती है, गुत्थम-गुत्था हो रही है और मालिक खुश है कि अलग हो-होकर सारी हमारे पास आ रही हैं। यह खेल चलता ही रहता है, भेड़ें भी खुश रहती हैं कि उनकी मेंगनी के भी दाम लग रहे हैं और मालिक भी खुश रहता है और जिसके खेत में बैठती हैं वह भी खुश रहता है। चारों तरफ खुशी ही खुशी छायी रहती है, लगता है कि वसन्त खिल गया है। कहीं से घण्टियों का शोर सुनायी देता है तो कहीं से में-में की आवाजें दिल को सुकून देती हैं, कि भेड़ें आ रही हैं। कोई सीधे चलकर पाले में बैठ रही हैं और कोई टेड़ी चाल से बाद में आकर बैठेंगी, बैठेंगी दोनों ही। चुनाव के बाद बड़ी मात्रा में ऊन एकत्र होगी, इधर के पाले की भी और उधर के पाले की भी और नोटा वाले की भी। फिर सब केवल भेड़े रह जाएंगी, मुंड़ी हुई भेड़ें। चुनाव का डण्डा फिर कहीं गड़ जाएगा और दूसरी जगह की भेड़ें मुंड़ने के लिये तैयार हो जाएंगी।
www.sahityakar.com

Thursday, November 15, 2018

कहाँ सरक गया रेगिस्तान!


बचपन में रेत के टीले हमारे खेल के मैदान हुआ करते थे, चारों तरफ रेत ही रेत थी जीवन में। हम सोते भी थे तो सुबह रेत हमें जगा रही होती थी, खाते भी थे तो रेत अपना वजूद बता देती थी, पैर में छाले ना  पड़ जाएं तो दौड़ाती भी थी और रात को ठण्डी चादर की तरह सहलाती भी थी। लेकिन समय बीतता रहा और रेत हमारे जीवन से खिसक गयी, हमने मुठ्ठी में बांधकर रखी थी कुछ रेत लेकिन वह ना जाने कब हथेली को रिक्त कर चले गयी। लेकिन हमें ललचाती जरूर रही और जब भी बालू-रेत के टीले निमंत्रण देते, हम दौड़कर चले जाते। इस बार टीलों ने हमारे जन्मदिन पर निमंत्रण दिया, लगा की बचपन को साकार कर लेंगे और दौड़ पड़े हम परिवार सहित जैसलमेर के धौरों के निमंत्रण पर। काली चमचमाती सड़क पर हमारी गाड़ी दौड़ रही थी लेकिन हम सड़क के बाजुओं में टीलों को खोज रहे थे जो कभी हठीले से बनकर सड़क पर आ धमकते थे। निगाहें बराबर टिकी थी लेकिन रेत ने सड़क को हथियाया नहीं। हम आगे बढ़े और जैसलमेर के सम तक जा पहुंचे, फटाफट अपने टेण्ट में सामान रखा और एक खुली जीप में ऊंट सी चाल में टीलों के बीच जा पहुंचे। बच्चे लोग ऊंट का आनन्द लेकर पहुंचे। जीप वाला बोला कि लो आ गया सम, याने जैसलमेर का जहाँ रेगिस्तान है। हैं! हमें आश्चर्य ने घेर लिया! तीस साल पहले आए थे तो रेत का समुद्र हुआ करता था और आज तो तालाब सा भी नहीं है! हम बावले से  हो गये, हर आदमी से पूछने लगे कि कहाँ गया रेगिस्तान! होटल का वेटर बोला की यही तो है रेगिस्तान! अरे नहीं, हम तीस साल पहले आए थे तब दूर-दूर तक बस वही था। वह  हँस दिया और बोला कि मेरी उम्र भी इतनी नहीं है तो मैं कैसे बताऊं कि तब क्या था! हम पूछे जा रहे थे और लोग टुकड़े-टुकड़ों में बता रहे थे कि नहर आ गयी, बरसात आ गयी और रेत माफिया सक्रीय हो गये। रेत के टीले अब खेत में बदल गये, हरियाली छा गयी और रेगिस्तान 100 किमी. दूर जा पहुंचा। हमारा मन उचट गया, कहाँ समुद्र देखने का ख्वाब पाले थे और कहाँ तालाब के किनारे ही बैठकर खुश होने का स्वांग कर रहे हैं। कभी धोरों पर गायकी होती थी और अब रिसोर्ट पर होने लगी है। कुदरत की जगह कृत्रिम सा वातावरण बना दिया गया है। सुन्दर से टैण्ट आ गये हैं, रेत के धोरों वाला नरम बिस्तरा नहीं है, टीलों पर चढ़ना और फिसलना नहीं है, बस एक परिधि है उसमें ही सारे आनन्द लेने हैं। रात को नींद तो आयी लेकिन सुबह फिर तारों भरे आकाश को देखने के लिये नींद विदा हो गयी। तारे चमचमा रहे थे और  हमें सुकून दे रहे थे, मैं वहीं कुर्सी डालकर  बैठ गयी कि इन तारों के सहारे ही रेगिस्तान तक संदेश पहुंचा देती हूँ कि तुम बहुत प्यारे थे। दूर जा  बैठे हो, अब क्या पता जब कभी आना हो तो तुम हमारे देश की सीमा में भी रहो या नहीं।  लेकिन खैर, तुम दूर चले गये हो, कोई बात नहीं, यहाँ के लोग खुश हैं। जिन बच्चों के कभी बरसात के मतलब बताने में पसीने छूटते थे अब वे हर साल आती बरसात से परिचित हैं। केर-सांगरी का खाना अब फैशन बन गया है, अब तो ढेर सारी हरी सब्जियां उपलब्ध है। रेगिस्तान दूर जा बैठा लेकिन पर्यटक बाढ़ की तरह बढ़े जा रहे हैं। कहीं तिल धरने को भी जगह नहीं। जैसलमेर के किले पर जाना असम्भव हो गया आखिर हारकर बेटी-दामाद से कहा कि तुम ऑटो लेकर किले पर जाओ। वे भी जैसे-तैसे भीड़ को चीरते हुए आधा-अधूरा सा किला देखकर आए और मन की प्यास अधूरी ही छोड़ आए। शहर में हमारी गाडी घूमती रही लेकिन कहीं जाने का मार्ग उपलब्ध नहीं, रेस्ट्रा भी सारे भीड़ से पटे हुए, आखिर वापस होटल की शऱण ली और वहीं खाने का ऑर्डर किया। हमने तो रेगिस्तान को मुठ्ठी भर रेत में तब्दील होते देखा, किले की विशालता को दूर से ही नमन कर लिया और पटुओं की हवेली तो पुरानी यादों से निकालकर ताजा कर लिया।
लेकिन एक गांव देखा – कुलधरा गाँव। उजड़ा हुआ लेकिन अपने में इतिहास समेटे हुए। पालीवाल ब्राह्मणों का गाँव जो रातों-रात उजड़ गया। कोई कहता है कि एक मुस्लिम मंत्री के कारण रातों-रात पलायन हो गया, कोई कहता है कि भूकम्प आ गया। लेकिन अब लोग भूत-प्रेत तलाश रहे हैं। राजस्थान सरकार ने पर्यटन स्थल का दर्जा देने के कारण यहाँ पर्यटक बड़ी संख्या में आने लगे हैं। लेकिन लग रहा था कि लोग इतिहास को जानने नहीं बस भूत देखने आ रहे थे!
जैसलमेर में एक अद्भुत और रोमांचित करने वाला वार-म्यूजियम भी है और इसी के साथ रात को होने वाला प्रकाश और ध्वनि कार्यक्रम भी अनूठा है। लोंगेवाला का युद्ध साकार हो उठता है और हमारे वीर सैनिक, बोर्डर फिल्म की कहानी के पात्रों के माध्यम से जीवित हो उठते हैं। पर्यटकों को इसे अवश्य देखना चाहिये। जैसलमेर की कहानी लम्बी है लेकिन अभी यही विराम।
www.sahityakar.com

Friday, October 26, 2018

अतिथि तुम कब जाओगे?

जब बच्चे थे तब भी दीवाली की सफाई करते थे और अब, जब हम बूढ़े हो रहे हैं तब भी सफाई कर रहे हैं। 50 साल में क्या बदला? पहले हम ढेर सारा सामान निकालते थे, कुछ खुद ही वापस ले लेते थे, कुछ भाई लोग ले जाते थे और जब थोड़ा बचता था तो वह कचरे के डिब्बे में जाता था। जैसे ही पिताजी की नजर कचरे के डिब्बे में जाती थी, वह सूतली उठा लेते थे और कहते थे कि यह तो बड़े काम की है, इसे कैसे फेंक दिया! आज भी यही हो रहा है, पहले केवल धूल ही कचरे में बच पाती थी और आज थोड़ी थैलियां और जुड़ गयी हैं। धीरे-धीरे करके एक-एक चीजें वापस अपने ठिकाने बिराज जाती हैं। कोई ना कोई इनकी तरफदारी करने आ ही जाता है। इस बार पुराने कपड़ों का ढेर निकाल डाला लेकिन फिकने में नहीं आ रहा। फेंके भी तो कहाँ? फेंकते समय हर चीज काम की लगती है और अगले साल फिर वही चीज फेंकने वाली लिस्ट में होती है, बरसों बरस यह क्रम चलता ही रहता है और इन्हें कोई ना कोई प्रशान्त भूषण सा वकील मिल ही जाता है। देश का कचरा देश में ही स्थापित हो जाता है। 
आज एक अलमारी खोली गयी, सामान ढूंसकर भरा था। यह कहाँ से आया? बिजली के कुछ बोर्ड बदलवाए गये थे और पुरानों को अल्मारी में बकायदा स्थान दे दिया गया था। जैसे ये सीनियर सिटिजन हों और उनके लिये एक कोठरी बना दी जाये! जब पुराने को बदल ही दिया गया है तो उसे सुरक्षित म्यूजियम बनाकर रखने की क्या आवश्यकता है? लेकिन हमारी मानसिकता में फेंकना तो मानो गुनाह है। मैंने अल्मारी खाली कर दी लेकिन वह सामान किसी दूसरे स्टोर में जगह पा ही जाएगा, यह निश्चित है। अच्छा कुछ सामान तो कबाड़ी भी नहीं खऱीदता, वह कहता है कि किसी काम का नहीं। लेकिन फिर भी हमारे यहाँ बिराजमान है। मेरी सबसे बड़ा समस्या है मोमण्टो। कबाड़ी कहता है कि नहीं ले जाता, अल्मारी कहती है कि किस-किस को समेटूं और किस-किस को याद रखूं। देश में भी ना न जाने कैसी-कैसी प्रथा बन जाती है! देने वाले के पैसे खर्च होते हैं और लेने वाले की समस्या बन जाते हैं। उपहार देना फैशन से भी बढ़कर आवश्यकता बन गया है, उपहार के बदले फिर वापसी में उपहार! कई बार तो लगता है कि हम सामान के बीच किसी खांचे में रहते हैं। जैसे सारे शऱीर में हड्डियों का जाल और बेचारा नन्हा सा दिल एक कोने में चुपचाप धड़कता रहता है। 18 बाय 22 के कमरे में हम सामानों से घिरे हैं और हमारे लिये बामुश्किल 5-6 फीट की जगह बची है। अल्मारी में सामान और पुस्तकें बढ़ती जाती हैं। दीवाली पर जब कुछ जगह बनाने की सोचते हैं तो कुछ किताबें ही फालतू के रिश्तों जैसे बाहर हो जाती हैं। बिग-बॉस के घर में बेचारी कविता की किताबों के कोई जगह नहीं होती। पत्रिकाएं तो महिने भर भी अपनी जगह स्थिर नहीं रख पाती, फिर चाहे उनके पन्नों में हम ही क्यों ना बैठे हों। यह तो भला हो कैमरे के डिजिटल होने का, नहीं तो ना जाने कितने नेगेटिव पड़े-पड़े अपने कालेपन को धोने को बेताब रहते। अब हम लेपटॉप को भरते रहते हैं। लेपटॉप की जगह दुनिया के एक कोने में कहीं सुरक्षित है, जिसका हमें भी नहीं पता है। कभी दुनिया नष्ट होगी और फिर आबाद होगी तो यह भूतिया महल लोगों के लिये आश्चर्य का कारण बनेगा! सारे दुनिया के डेटा यहाँ भरे हैं, लोग इस पहेली को हल करते-करते ना जाने कितनी सदियां निकाल देंगे। इस इलेक्ट्रोनिक कचरे की सोचकर तो मुझे कुछ राहत सी मिली है, मेरे पास तो एकाध अल्मारी में ही उछल-कूद मचाए है लेकिन दुनिया में ना जाने कितने देश की जगह ये लील रहे हैं! हम कहते हैं कि हर चीज नश्वर है, जो आया है वह जाएगा लेकिन इन्हें कैसे भस्मीभूत करें, समस्या बने हुए हैं! लगता है अलादीन का चिराग है, बोतल से निकलते ही समस्या कर देता है। कहाँ से लाएं वह बोतल, जिसमें कचरे को भर दें और ढक्कन लगाकर समुद्र में फेंक दें। हे! फालतू सामानों, तुम्हें हम कचरा कहते हैं, हमारे घर से, हमारे मन से निकलने का जतन करो। हमने यह मकान अपने लिये बनवाया था और तुमने इसपर अधिकार जमा लिया है। तुम क्यों उस अतिथि की तरह हो गये हो जिसे कहना पड़ता है – अतिथि तुम कब जाओगे? लेकिन तुम तो हमारे मन में बस गये हो, तुम्हें कैसे निकालें। मैं निष्ठुर हो जाती हूँ और बंगलादेशी समझकर बाहर कर देती हूँ लेकिन तभी पतिदेव प्रशान्त भूषण को अपने साथ ले आते हैं और स्टे लग जाता है। बचा ले मुझे! 

Thursday, October 25, 2018

इस ओर ध्यान दीजिए माननीय

यह जो श्रद्धा होती है ना वह सबकी अपनी-अपनी होती है, जैसे सत्य सबके अपने-अपने होते हैं। अब आप कहेंगे कि सत्य कैसे अलग-अलग हो सकते हैं? जिसे मैंने देखा और जिसे मैंने अनुभूत किया वह मेरा सत्य होता है और जिसे आपने देखा और आपने अनुभूत किया वह आपका सत्य होता है उसी प्रकार श्रद्धा भी अपनी अनुभूति का विषय है। इसपर विवाद करना ऐसा ही है जैसे भारत में बैठकर मैं कहूँ कि अभी दिन है और अमेरिका में बैठकर आप कहें कि अभी रात है और दोनों ही विवाद में उलझे रहेंगे, परिणाम कुछ नहीं निकलने वाला। न्यायालय के फैसले इसी सत्य पर आने चाहिये। पटाखे चलाना पर्यावरण को हानि पहुंचाता है, यह सच है, जैसे परमाणु बम्म विनाश करता है, यह भी सच है। इसलिये पटाखे ऐसे बनाए जाएं जो पर्यावरण को हानि नहीं पहुंचाएं। बहुसंख्यक आबादी को समझाना कठिन है लेकिन पटाखे बनाने वाले कम संख्या की कम्पनी को समझाना आसान है। पटाखे उल्लास का प्रतीक हैं तो जरूरी नहीं कि तेज आवाज करने वाले और ज्यादा धुआँ छोड़ने वाले पटाखे ही चलाए जाएं। न्याय का काम है कि वह जनता का दृष्टिकोण पर्यावरण की ओर मोड़े ना कि धार्मिकता की ओर। किसी त्योहार विशेष पर जब आप कानून लागू करते हैं तब वह श्रद्धा पर केन्द्रित हो जाता है। और फिर व्यक्ति प्रतिक्रिया में कानून अधिक तोड़ता है। 
पुणे और बैंगलोर ऐसे शहर रहे हैं जो पर्यावरण की दृष्टि से उत्तम थे लेकिन आज वहाँ के क्या हाल हैं? कभी जिन शहरों में घरों में सीलिंग फैन तक नहीं हुआ करते थे आज एसी लग रहे हैं। बड़ी-बड़ी कम्पनियां इन दोनों शहरों में आगयी हैं और इनके ऑफिस पूर्णतया वातावुकूलित हैं। इन शहरों में कम्पनी लाने का कारण ही यह था कि यहाँ का तापमान कम रहता है लेकिन हमने एसी लगाकर तापमान की ऐसी की तैसी कर दी। शहर में परमाणु बम्म डाल दिया और पटाखे चलाने से मना करते हो! यदि कम्पनियाँ आयी थी तो उनकी बिल्डिंग बिना एसी की होनी चाहिये थी, खुली-खुली। लेकिन जब माननीय न्यायालय जाग नहीं रहे थे और ना ही सरकारें जाग रही थीं, अब जब हम आकण्ठ प्रदूषण से डूब रहे हैं तब तिनका उठाने की बात करते हैं! यह उपाय पर्यावरण की रक्षा तो नहीं कर पाएंगे उल्टा सामाजिक प्रदूषण को बढ़ा जरूर देंगे। आज भी समय है यदि हम इन बड़ी कम्पनियों से कहें कि कम करिये एसी के प्रदूषण को तो शायद आने वाले खतरों से बच पाएंगे।
हम सारे काम उल्टे करते हैं, सीधे नाक पकड़ने की जगह घुमाकर नाक पकड़ते हैं। तकनीकी का उपयोग कितना और कहाँ जरूरी है, इसपर मंथन नहीं करते बस छोटे टोटके करते हैं। दिल्ली में पेट्रोल की समस्या से निजात सीएनजी ने दिलायी थी तो ऐसे ही जागृति से काम होंगे। न्यायालय का सभी श्रद्धा के स्थानों पर धकल देना देशहित में नहीं है। जैसे पहले ज्यूरी की व्यवस्था होती थी वैसे ही श्रद्धा के मामलों पर ज्यूरी को निर्णय देना चाहिये जो समग्रता से न्याय दें। अकेले कानून थोपने से व्यवस्थाएं सुधरने वाली नहीं हैं। सामाजिक मुद्दों पर समाज द्वारा ही निर्णय आने चाहिये। न्यायालय का कार्य केवल कानून की अवलेहना में न्याय देना होना चाहिये। शेष सारे ही सामाजिक और श्रद्धा से जुड़ी समस्याओं को ज्यूरी बनाकर हल करना चाहिये। देखना इस दीवाली पर पटाखे सारी रात चलेंगे, कोई नहीं रोक पाएगा। एक गरीब बालक एक बम्म की लड़ी फोड़कर खुश हो लेता है और सारे साल के अभाव को भूल जाता है। उसे नहीं समझ आता कि मेरे एक पटाखे से कैसे खतरा पैदा हो जाता है जबकि सड़क पर चलती लाखों गाड़ियों से खतरा दूर से ही विदा हो लेता है! वह समझ नहीं पाता कि उसकी एक पतंग से कैसे जीव-हत्या हो जाती है जबकि शहर में रोज ही लाखों पशुओं को मारकर खाया जाता है। वह समझ नहीं पाता कि रंगों से कैसे नुक्सान होता है जबकि रंगों से क्या कपड़ें और क्या घर रोज ही रंगे जाते हैं! ऐसे कितने ही प्रश्न हैं जो हर व्यक्ति के मन में आते हैं, जब समझ नहीं आते तो पटाखे को फोड़कर विरोध दर्ज कराता है। यही विरोध पर्यावरण का दुश्मन है, इस ओर ध्यान दीजिए माननीय।
www.sahityakar.com

Tuesday, October 23, 2018

मैं इसे पाप कहूंगी


अभी शनिवार को माउण्ट आबू जाना हुआ, जैसे ही पहाड़ पर चढ़ने लगे, वन विभाग के बोर्ड दिखायी देने लगे। "वन्य प्राणियों को खाद्य सामग्री डालने पर तीन साल की सजा", जंगल के जीव की आदत नहीं बिगड़नी चाहिये, यदि आदत बिगड़ गयी तो ये सभी के लिये हानिकारक सिद्ध होंगे। आश्चर्य तब होता है जब देखते हैं कि भूखे को रोटी खिलाना पुण्य कार्य है – का बोर्ड लगा होता है। पूरे देश में हर सम्प्रदाय ने भोजनशाला संचालित कर रखी है, जहाँ लाखों लोग प्रतिदिन मुफ्त की रोटी तोड़ते हैं। धार्मिक स्थानों पर तो मुफ्त की रोटी या रियायती दरों पर रोटी मिलना आम बात है। सरकारों को भी बाध्य किया जाता है कि वे भी रियायती दरों पर भोजन उपलब्ध कराए। एक तरफ भिक्षावृत्ती अपराध है लेकिन दूसरी तरफ धर्म के नाम पर जायज है। हमने मनुष्य जीवन प्राप्त किया है, लेकिन क्या हम खुद के लिये रोटी कमाने में भी असमर्थ हैं? सारे देश में मुफ्त रोटी की व्यवस्था करना क्या मनुष्य की आदत बिगाड़ने का काम नहीं है? एक बार अयोध्या जाना हुआ, वहाँ शंकर गढ़ी में प्रतिदिन 5000 लोगों को भोजन खिलाया जाता है। वे 5000 लोग संन्यासी कम और भिखारी ज्यादा हैं, उनकों जिस प्रकार का भोजन मिलता है और उससे वह भिखारी बने हुए हैं, देखकर तरस आता है कि क्या ये लोग मनुष्य कहलाने लायक हैं? किसी को किस का नशा होता है किसी को किसका लेकिन भारत में मुफ्त रोटी का नशा परोसा जा रहा है। लोग पुण्य कमा रहे हैं, भूखे को रोटी देकर। लोग पुण्य कमाना चाहते हैं वन्य प्राणियों को रोटी देकर, लेकिन एक पुण्य पाप बताया गया है और दूसरा पाप पुण्य बताया जा रहा है!
हम कहते हैं कि – अतिथि देवोभव:, लेकिन यह कब और किसके लिये कहा गया था? पूर्व काल में जब बाजार में भोजन नहीं मिलता था, राहगीर गाँव आते थे, रात  हो जाती थी तब कहा गया था कि अतिथि को देवता मानकर भोजन कराओ। यह कहीं नहीं कहा गया कि लोगों को मुफ्त की रोटी तोडने के लिये वातावरण बनाओ। देश में बहुत धन्ना सेठ हैं, उनका अकूत पैसा कोठियों में बन्द है, उसका वह सदुपयोग लोगों की आदते बिगाड़ने के लिये कर रहे हैं। हर महिने लोग पहुँच जाते हैं धार्मिक स्थानों पर, खाना मुफ्त मिल जाता है, फिर क्या परेशानी! सड़कों पर भीड़ बढ़ रही है, रेलें भरी पड़ी है, क्योंकि खाना मुफ्त और रहना भी तकरीबन मुफ्त। हर आदमी की आदत बिगाड़ दी गयी है। हम साल में एक  बार कहीं घूमने का कार्यक्रम बनाते हैं, बजट देखकर पैर सीमित दायरे में ही फैलाते हैं लेकिन धार्मिक यात्रा करने वाले रोज ही निकल पड़ते हैं। अब तो ये धन्ना सेठ यात्राएं भी मुफ्त कराने लगे हैं! देश की पूरी 125 करोड़ की जनसंख्या इस मुफ्तखोरी की समस्या से ग्रस्त हो गयी है।
हम अमेरिका गये, वहाँ भी इस बीमारी ने पैर पसार लिये हैं। मन्दिर गुरुद्वारे सभी जगह लंगर चल रहे हैं। कुछ युवा तो प्रतिदिन वहीं खाना खा रहे हैं। थोड़ा सेवा कर दी और खाना मुफ्त! कौन करे घर में खटराग! आप लोग मेरे विरोध में कितना ही खड़े हो जाना लेकिन मुझे तो यह कृत्य अमानवीय लगता है। यदि भोजनशाला चलानी ही है तो पैसा पूरा लीजिये, बिना परिश्रम के रोटी तोड़ने की इजाजत नहीं होनी चाहिये। हमने हर व्यक्ति को भिखारी बना दिया है, मैं जब भी ऐसे किसी स्थान पर खाना खाती हूँ तो खुद में भिखारी की गन्ध अनुभव करती हूँ। आप कहेंगे कि पैसा दान कर दो, अरे भाई पैसा तो दान कर दोगे लेकिन मनुष्य को निठल्ला बनाने की प्रक्रिया का क्या करोगे? आज हम शहरों में बन्दरों की समस्या से परेशान रहते हैं, क्यों रहते हैं परेशान? क्योंकि हमने रोटी खिलाकर ही उन्हें जंगलों से दूर कर दिया है, अब वे घरों में आक्रमण करने लगे हैं। एक दिन ऐसा आएगा जब मनुष्य भी घरों में आक्रमण करने लगेगा। आप इसे पुण्य कहते रहिये, लेकिन मैं तो इसे पाप ही कहूंगी।
www.sahityakar.com

Tuesday, October 9, 2018

अब कब 565?


हमारा  भारत है ना, यह 565 रियासतों से मिलकर बना है। अंग्रेजों ने इन्हें स्वतंत्र भी कर दिया था लेकिन सरदार पटेल ने इन्हें एकता के सूत्र में बांध दिया। ये शरीर से तो एक हो गये लेकिन मन से कभी एक नहीं हो पाए। हर रियासतवासी स्वयं को श्रेष्ठ मानता है और दूसरे को निकृष्ठ। हजारों साल का द्वेष हमारे अन्दर समाया हुआ है, यह द्वेष एक प्रकार का नहीं है. इसके न जाने कितने पैर हैं। कातर या कंछला होता है ना, उसके अनगिनत पैरों जैसे हमारे अन्दर द्वेष हैं। क्षेत्र, भाषा, धर्म, जाति, पंथ, वर्ण, लिंग, वैभव, पद आदि-आदि, न जाने कितने भेद हैं हममें। कदम-कदम पर हम एक दूसरे को आहत करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। हमारी हर बात में दूसरे के लिये द्वेष है। यही कारण है कि हम खुश नहीं रह  पाते। कहने को तो हम सम्पन्न हैं, शिक्षित हैं, ज्ञानवान हैं लेकिन फिर भी खुश नहीं हैं! क्यों नहीं हैं! क्योंकि हम द्वेष से भरे हैं। हमें खुशियाँ दिखती ही नहीं, बस हर घड़ी द्वेष निकलकर बाहर आ जाता है।
हम कहते हैं कि हमारे अन्दर प्रेम का सागर हिलोरे मारता है लेकिन मुझे लगने लगा है कि हमारे अन्दर द्वेष का ज्वालामुखी खदबदाता रहता है। मेरे बगीचे में एक फूल लगा है, उसमें फल के रूप में फलियां लगती हैं और वे फलियां ठसाठस परागकण व बीजों से भरी होती हैं। कभी आपने आक का झाड़ देखा होगा तो उसमें भी जो आक की डोडी होती है वह बीजों और परागकणों से ठसाठस भरी होती है। जैसे ही यह फली पकती है, फट जाती है और इसके अन्दर भरे हुए परागकण व बीज तेजी से उड़ने लगते हैं। आक के डोडे में भी यही होता है। रूईनुमा इन परागकणों की कोई सीमा नहीं होती, ये अनन्त यात्रा पर भी निकल सकते हैं। बस इसी  प्रकार हमारे अन्दर जो द्वेष का दावानल खदबदाता रहता है वह जब वातावरण की गर्मी से परिपक्व होता है तब फली की तरह फट जाता है और द्वेष के रेशे न जाने कहाँ-कहाँ तक जा पहुँचते हैं।
हम हर घड़ी दूसरे को आहत करने के लिये सज्ज रहते हैं, इसलिये कुछ लोग इस बात का फायदा उठाते हैं। हमारे लिये कहा जाता है कि यहाँ लोगों को हथियार देने की जरूरत ही नहीं है,  लोगों के अन्दर इतना द्वेष भरा है कि वे  बिना हथियार के ही एक दूसरे को चीर-फाड़ डालेंगे। जंगल घर्षण से जल उठते हैं, लेकिन यहाँ तो केवल पकी हुई फली पर हाथ रखना है, वह फट जाएगी और उसके परागकण ना जाने कहाँ-कहाँ तक पहुंच जाएंगे! क्षेत्रवाद, भाषावाद, जातिवाद आदि आदि का खेल हमारे यहाँ रोज ही खेला जाता है। हम एक देश में रहते हुए भी बाहरी के तमगे से नवाजे जाते हैं। गुजरात या महाराष्ट्र से बिहारियों को निकालने का मसला तो बहुत बड़ा है लेकिन यहाँ राजस्थान में भी हर शहर में दूसरे शहर का निवासी भी बाहरी हो जाता है। हमारे अन्दर अनेकता के इतने खांचे हैं कि एकता का कोई  भी खोल उन्हें समेट ही नहीं पाता है। मजेदार  बात यह है कि जितने भी प्रबुद्ध लोग हैं जो इस दावानल के विष्फोट में माहिर हैं वे हमारे अन्दर की आग को तो कभी बुझने नहीं देते हैं लेकिन जो वास्तव में बाहरी हैं, विदेशी हैं, आक्रमणकारी हैं, हमें रौंदनेवाले हैं, हम उनका स्वागत करते हैं। यह कहानी आज की नहीं है, सदियों से यही चल रहा है। हम विदेश आक्रान्ताओं का स्वागत करते हैं और अपनों का विरोध करते हैं। आज भी रोंहिग्या को बसाने की वकालात करते हैं और गुजराती-बिहारी को लड़ाने की जुगत बिठाते हैं।
क्या हम भारतीय कहलाने वाले लोग, अधिक दिनों तक भारतीय रह पाएंगे? मुझे तो लगता है कि हमारे अन्दर जो रियासत जड़ जमाए बैठी है, हम एक दिन उसी में बदल जाएंगे। 565 बने या ज्यादा बने या कम, बनेगे शायद। यदि बंटवारा हुआ तो क्या केवल क्षेत्र का होगा? नहीं अभी तो धर्म है, सम्प्रदाय है, वर्ण हैं और भी बहुत कुछ है। कितने बंटेंगे हम? हमारे द्वेष का घड़ा कितनी बार फूटेगा? कितना जहर धरती पर फैलेगा। हे भगवान! तू ने केवल मनुष्य को बुद्धि दी, अच्छा किया, नहीं तो इस सृष्टि में कितनी बार प्रलय होती! क्या हमें फिर से समुद्र मंथन की जरूरत नहीं है? इस बार हमें अपने अन्दर मंथन करना होगा, जहर और अमृत को अलग-अलग करना होगा। हमारे अन्दर जो द्वेष का अग्निकुण्ड धधक रहा है उसके लिये कुछ तो करना ही होगा। कोई उपाय नहीं खोजा तो सृष्टि खोज लेगी उपाय। फिर से अनादि काल में ले जाएगी और फिर जुट जाएगा मनुष्य सभ्यता बनाने में। शायद हमें नष्ट होना ही है। बीज रूप में धरती में गड़ना ही है और फिर नष्ट होकर नये वृक्ष को जन्म देना ही है। तभी हम से द्वेष नामक विष दूर होगा और हमारे वृक्ष पर अमृत फल लग सकेंगे।
www.sahityakar.com

Monday, October 8, 2018

बैताल को ढोता विक्रमादित्य


मेरे अन्दर मेरी अनूभूति को समेटने का छोटा सा स्थान है, वह शीघ्र ही भर जाता है और मुझे बेचैन कर देता है कि इसे रिक्त करो। दूध की भगोनी जैसा ही है शायद यह स्थान, जैसे ही मन की आंच पाता है, उफन जाता है और बाहर निकलकर बिखर जाता है। मैं कोशिश करती हूँ कि यह बिखरे नहीं और यथा समय मैं इसे खाली कर दूँ। मेरे सामने पाँच-सात चेहरे हैं जो राजनीति के फलक पर स्थापित होना चाहते हैं, लगातार कोशिश में हैं, लेकिन कोशिश सफल नहीं होती। उन सबके चेहरों पर तनाव देख रही हूँ, किसी उत्सव में होने पर भी मन की प्रसन्नता कहीं झलक नहीं रही है। लग रहा है कि विक्रमादित्य बैताल को कन्धे पर लादकर चल रहा है। बैताल प्रश्न कर रहा है, विक्रमादित्य कभी उलझ रहे हैं और कभी सुलझ रहे हैं। भीड़ में भी अकेलापन उनकी नियति बन गयी है। कुछ दुर्लभ सा पाने की इच्छा शायद उन्हें बेचैन करे हुए है। उनकी आँखे मित्र को नहीं देख पाती, उनकी आँखें बस खोज रही हैं जो उनकी नैया को पार लगा दे। उनकी हँसी उनसे दूर चले गयी है, उनकी चपलता उनके पास नहीं है, बस है तो खामोशी और चिन्ता। व्यग्रता ने उन सबको घेर लिया है। सत्ता मेरी मुठ्ठी में हो और मैं दुनिया में विशेष बन जाऊँ, बस यही चाहत उनको घेरे है।
सम्राट अशोक याद आने लगते हैं, भारत के सारे राज्य और राजा उनके अधीन होने चाहियें, या तो स्वयं ही सर झुका दो, नहीं तो तलवार के बल पर सर झुक जाएंगे या कट जाएंगे। सारा साम्राज्य कदमों में आ गया लेकिन मन के किसी कोने ने प्रश्न कर लिया! क्या मिला? सबको मुठ्ठी में बन्द करने से क्या मिला? क्या सबके उत्थान की चिन्ता थी, या सबके माध्यम से देश के उत्थान की चिन्ता थी? शायद नहीं! मेरा साम्राज्य चारों तरफ हो, मैं एकमात्र स्वामी हूँ, शायद यह भाव मन में था। भगवान का साक्षात्कार पता नहीं किस-किस ने किया है लेकिन भगवान की चाहत सभी को है। हर व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का भगवान बनना चाहता है। अशोक के मन में उहोपोह है, बेचैनी बढ़ती जा रही है। नहीं, यह मार्ग शान्ति की ओर नहीं जाता। आज मेरी तलवार में ताकत है तो कल दूसरे की तलवार में ताकत होगी, मैं आज जीत गया हूँ, कल हार जाऊँगा। सिंहासन कभी भी मन की खुशी का कारण नहीं हो सकता, हाँ मेरा प्रेम ही मन की खुशी का कारण बन सकता है। जिन प्रदेशों को जीतने में ना जाने कितने लोगों का रक्त बहा, कितने परिवार उजड़ गये, वह जीत कभी  भी मन को सुख देने वाली नहीं हो सकती है। अशोक ने निश्चय किया कि वे प्रेम बांटेंगे, प्रेम का संदेश देंगे। जैसे ही उनके मन से प्रेम का झरना फूटने लगा, चारों तरफ हरियाली छा गयी। क्या देश और क्या विदेश सब ओर स्वागत में लोग बिछ गये। अब रक्तपात नहीं था, था तो बस प्रेम। लोगों के दिल में अशोक बस गये।
सत्तासीन होने के लिये आचरण बदलना, ना केवल अपने लिये अपराध है अपितु समस्त आत्मीय जनों के प्रति भी अपराध जैसा ही है। मन का प्रेम, मन का उल्लास, मन की हँसी अक्षुण्ण रहनी चाहिये। यदि मन का असली स्वरूप परिवर्तित हो गया तो समझो आपने अपने आपको खो दिया। खोया हुआ इंसान भला क्या पा लेगा! यदि पा भी लिया तो किसी को क्या दे पाएगा? मैं घर से लेकर, समाज और देश में सत्ता का द्वन्द्व रोज देखती हूँ, जो सत्ता के लिये अपना स्वाभाविक चेहरा बदल लेते हैं, वे मिट जाते हैं। आपके अन्दर का प्रेम ही आपके लिये सबसे बड़ा वरदान है, यदि यह ही नष्ट हो गया तब किसके लिये सत्ता? कुछ भी पाने के लिये अपना मूल खोना, पाने से भी बदतर है। दुनिया प्रेम से मिलती है, दुनिया को बस प्रेम से जीता जा सकता है, इसलिये प्रेम को जीवित रहने दो। खुलकर प्रेम बांटों और माहौल को प्रेममय कर दो, बस तुम्हारी जीत निश्चित है। मन में उहापोह चल ही रहा था कि दूर कहीं खिलखिलाहट सुनायी दी, इन्हें शायद कुछ नहीं चाहिये था, ये हँस रहे थे, प्रेम बाँट रहे थे। ये दुनिया के सबसे सफल व्यक्ति थे। मन का आनन्द ही तो सफलता का पैमाना है। मैंने भी एक मुठ्ठी आनन्द झोली में भर लिया और सहेज लिया अपने मन में। मन में अब उद्वेग नहीं था।
www.sahityakar.com

Monday, October 1, 2018

बता तू किसका भूत है?


आज सुबह मैं वेन्टीलेटर पर जाते-जाते बची! अभी ढंग से मुँह धोया भी नहीं था कि आदतन अखबार तलाशने के लिये निकल पड़ी, अखबार को हाथ में लेते ही लगा कि अब साँस रूकी और अब साँस रूकी। अखबार के हर पन्ने में हाहाकार था, कहीं रोहिंग्या मुसलमानों की घुसपैठ थी तो कहीं केमिकल युद्ध की तैयारी। कहीं पुलिस ने राह चलते युवक को मार दिया था तो कहीं बलात्कार था। मैं एकदम से घबरा गयी, साँस उखड़ने लगी, दौड़कर कमरे में आयी और जैसे-तैसे टीवी का रिमोट ढूंढा। शुक्र था की वह आसानी से मिल गया, झट से टीवी ऑन किया। जैसे ही डीडी न्यूज दिखायी दी, देश में अमन-चैन दिखने लगा। तब जाकर साँस आयी। फेफड़ों को जोर से ऑक्सीजन के लिये फुलाया, भरपूर ऑक्सीजन ली और अखबार को दूर फेंक दिया। लेकिन अखबार का खौफ अभी तक बना है, चारों तरफ हाहाकार दिख रहा है, अफवाहों का बाजार गर्म है। मेरे मन का विश्वास डोलने लगा है और अफवाहें मेरे दीमाग पर हावी होने लगी हैं। तभी किसी की सलाह याद आ गयी कि कैसी भी समस्या हो, फला ओझा के पास जाओ, समस्या दूर हो जाएगी। जब ओझा के पास गयी तो देखा कि वहाँ भीड़ लगी है, उसकी पेटी धन से भरती जा रही है और लोग कह रहे हैं कि बस अब तो ओझा ही पार लगाएगा।
अफवाहे और हॉरर, अखबार क्या और क्या मीडिया फैलाने में लगी हैं, जनता का एक-एक सूत विश्वास समाप्त होना चाहिये। जब चिकित्सक से विश्वास टूट जाएगा तो ओझा की ओर इशारा कर दिया जाएगा। दवा तो डॉक्टर की ही चलेगी लेकिन विश्वास ओझा का चलेगा। डॉक्टर ने कहा कि महामारी के किटाणु हमारे देश के नहीं है, बाहर से आए हैं। इन्हें खत्म करना होगा। लेकिन लोग अड़ गये कि नहीं ये किटाणु खत्म नहीं कर सकते, हमारे ओझा का धंधा इसी कारण फल-फूल रहा है। एक तरफ अखबार हाहाकार मचा रहा है तो दूसरी तरफ ओझा की ताकत है जो संक्रमण को रोकने नहीं देती। पिस रहे हैं हम, जो रोज सुबह होते ही अखबार के दर्शन कर लेते हैं और अपनी हालत पतली करते रहते हैं। पानी 20 रू लीटर बिक रहा है उसके लिये कभी हाय-तौबा नहीं हुई लेकिन पेट्रोल के भाव बढ़ गये तो जमीन आसमान एक हो गये! किसने कानून तोड़ा, किसने कानून को हाथ में लिया, यह कानून ही तय करेगा लेकिन यह मसले भी जनता के दरबार में परोस दिये गये हैं कि तू भरपूर डर ले। सारा दिन रोता फिर की हाय मार डाला पुलिस वाले ने। उसे मारा तो मुझे भी मार देंगे। पुलिस वाला खतरनाक डाकू हो गया।
मुझे तो हर गली, हर चौराहे पर ओझा ही ओझा दिखायी दे रहे हैं, भांत-भात के ओझा हैं और जात-जात के ओझा हैं। ओझाओं का आका भी है जो जानता है कि ओझा तो सरकार चला नहीं सकता बस सरकार को गिराने में हमारी मदद कर सकता है, आखिर सरकार तो हम ही चलाएंगे। वे अफवाहों का और महामारी फैलाने का बंदोबस्त करते हैं और जनता को ओझा के पास जाने का मंत्र देते हैं। लेकिन आजकल जनता थोड़ी स्याणी होने लगी है, वह डॉक्टर की दवा बन्द नहीं करती बस ओझा का चक्कर भी लगा आती है। ओझा भी भीड़ देखकर खुश हो लेता है लेकिन दवा तो डॉक्टर की ही चलती है। सारे ही बाजार जोर पर हैं, अखबार भी बिक रहा है, मीडिया भी चल रहा है और सोशल-मीडिया नामक नयी सनसनी भी बाजार में उतर आयी है। हम सबका डर बढ़ता जा रहा है, चौबीस घण्टे डर में रखने की सुपारी अखबार और मीडिया को दे दी गयी है। जैसे ही माडिया के किसी चैनल पर रिमोट अटक जाए समझो एकाध सेर डर हमारे अन्दर फोकट में प्रवेश कर जाएगा। चैनल पर सैना डटी है, जोर-जोर से चिल्ला-चिल्लाकर डर को शरीर और मन में प्रवेश कराने की ट्रेनिंग दी जा रही है। कभी अनजाने भूत-पिशाच प्रवेश लेते थे अब मीडिया के अपने भूत-पिशाच है, पूछना नहीं पड़ता कि बता तू किसका भूत है? मीडिया को पता है कि यह कौन सी प्रजाति का भूत हमने छोड़ा है, वह सर्वज्ञ बनता जा रहा है। सारे भूत-पिशाच उसकी जेब में हैं, उनका ईलाज भी उन्हें पता है, बस वे हॉरर दिखा-दिखाकर जनता को डराना चाहते हैं जिससे जनता डरे और उनके बैठाए नये-नये ओझाओं को भीड़ मिले।
www.sahityakar.com

Sunday, September 30, 2018

स्त्री पूर्ण पवित्र है, हर पल पवित्र है

कल एक और फैसला आया लेकिन पुरुषों ने इसपर ज्यादा तूफान नहीं मचाया। क्यों नहीं मचाया? क्योंकि इन्हें लगा कि यह मामला केवल सबरीमाला मन्दिर में महिलाओं के प्रवेश का है तो हमें क्या? लेकिन यह मामला केवल मन्दिर में प्रवेश का नहीं है। यह मामला है महिला की पवित्रता का। ना जाने कब से हमने महिला को अपवित्र घोषित कर दिया था! महिला भी स्वयं को अपवित्र मानने लगी थी और उसकी अपवित्रता का कारण था मासिक धर्म। स्त्री बनने की प्रक्रिया है मासिक धर्म और माँ बनने की प्रक्रिया है प्रसव क्रिया, जैसे पुरुष बनने की प्रक्रिया है, दाढ़ी-मूंछ और शुक्र-उत्पत्ति। यह प्राकृतिक क्रियाएं हैं, इसीकारण इसे मासिक धर्म कहा गया। लेकिन हमने इसे अपवित्रता का बहुत बड़ा कारण मान लिया और ना जाने कितने मानसिक रोगों को जन्म दे दिया। हम जैसी करोड़ो महिलाओं ने इस यंत्रणा को भोगा है, जब हमें रसोई में प्रवेश नहीं मिलता था, यहाँ तक की हम एक अछूत बिमारी से ग्रस्त रोगी की तरह अछूत बना दिये जाते थे। आज भी करोड़ों महिलाएं इस यंत्रणा से गुजर रही हैं। जब घर में ही हम अछूत बना दिये गये तब मन्दिर तो सबसे अधिक पवित्र स्थान होता है, भला वहाँ कैसे महिला का प्रवेश सम्भव था! बस इसी अपवित्रता के कारण महिला को 10 वर्ष की आयु से 50 वर्ष तक के लिये प्रतिबन्धित कर दिया गया। सबरीमाला में कानूनन प्रतिबन्ध लगा इसलिये कुछ लोग कानून की शरण में गये लेकिन सम्पूर्ण समाज में अघोषित प्रतिबन्ध के कारण महिला अपवित्र बना दी गयी, उसपर विचार नहीं हुआ।
अब महिला को जागरूक होना होगा, स्वयं को अपवित्र मानकर किसी भी प्रतिबन्ध के दायरे से निकलना होगा। शरीर की स्वाभाविक प्रक्रिया को अपवित्र नहीं माना जा सकता है, यदि ऐसा है तो फिर हर व्यक्ति अपवित्र है और महिला से भी ज्यादा अपवित्र है। हम मल-मूत्र का त्याग करते हैं, हमारे शरीर में हमेशा ये रहते हैं तो हम भी अपवित्र हो गये! शास्त्रों में तो दाढ़ी-मूंछ को भी मल कहा है तो ये भी अपवित्र हो गये! शरीर से बाहर निकलने वाले हर पदार्थ को मल कहा गया है तो सारे ही मलीन हो गये फिर अकेली महिला ही अपवित्र क्यों कहलाए? जब शरीर में स्त्रीत्व और मातृत्व के कारण रक्त का प्रवाह होता है तब शरीर में कुछ वेदना भी होती है और शरीर के कोष निर्माण के लिये स्त्री को आराम की आवश्यकता होती है। उसे उन दिनों में सम्मान के साथ विश्राम की जरूरत है ना कि अपमान के साथ अछूत बनाने की। महिलाओं में जितने भी मानसित अवसाद के कारण हैं उनमें से यह अछूत का भाव प्रमुख है। इसलिये समाज परिवर्तन के लिये यदि न्यायालय आगे आता है तो उसका स्वागत करना चाहिये ना कि विरोध प्रगट करना चाहिये। मैं इस फैसले का स्वागत करती हूँ और मानती हूँ कि अब महिला को कोई भी नरक का द्वार कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाएगा। माँ बनने की प्रक्रिया ही अपवित्र बना दी जाएंगी तो सृजन ही दूषित हो जाएगा। इसलिये हर स्त्री पूर्ण पवित्र है, हर पल पवित्र है। 

Friday, September 28, 2018

बिना मालिक के भी कोई जीवन है?

हाय रे हाय, कल मुझसे मेरा मालिक छिन गया! कितना अच्छा तो मालिक था, अब मैं बिना मालिक के कैसे गुजरा करूंगी? मेरी आदत मालिक के पैरों में लौटने की हो गयी थी, उसकी जंजीर से बंधे रहने की आदत हो गयी थी। मैं किताब हाथ में लेती तो मालिक से पूछना होता, यदि कलम हाथ में लेती तो मालिक से पूछना होता, हाय अब किससे पूछूगी? मेरी तो आदत ही नहीं रही खुद के निर्णय लेने की, मैं तो पूछे बिना काम कर ही नहीं सकती। घर के मालिक के अलावा भी समाज के सारे ही मर्द मालिक बने हुए थे तो मैं निश्चिंत थी, मुझे कुछ नहीं सोचना होता था, सब बेचारे मालिक ही कर देते थे। मैं सामाजिक क्षेत्र में काम करने गयी, वहाँ चारों तरफ मालिक ही मालिक थे, मैंने एक दिन कह दिया कि यह काम मैं कर लूँ? बस फिर क्या था मालिक को बुरा लग गया, अरे तुम अबला नारी भला कैसे कर पाओगी, नहीं रहने दो, तुम आराम करो, कितने अच्छे थे ना वे सारे। मुझे तो कल बहुत ताज्जुब  हुआ कि मालिकाना हक एक जज साहब ने हटाया क्योंकि मुझे तो एक बार एक जज ने ही बताया था कि तुम महिलाएं हमारे अधीन रहोगी तो ही सुखी रहोगी और मैं सुखी हो गयी थी। लेकिन कल के निर्णय से घर क्या और बाहर क्या, सारे मर्दनुमा मालिक बहुत दुखी है। दुखी होना भी लाजिमी है, हजारों साल की गुलाम उनसे भला छीन ली गयी, भला यह भी कोई बात हुई! मोदी तेरे राज्य में मर्दों पर अत्याचार! नहीं सहेगा हिन्दुस्थान।
हाय हाय, मालिक क्या गया, मानो संस्कृति पर ही कुठाराघात हो गया। भारतीय संस्कृति का इतना अपमान! पति परमेश्वर की संस्कृति पर कुठाराघात! तीन तलाक तक तो ठीक था, यह तो दूसरे तरह के मर्दों पर आघात था लेकिन हमारे ऊपर आघात, सहन नहीं किया जा सकता। उसकी गुलाम मुक्त लेकिन मेरी गुलाम मेरे पास रहनी ही चाहिये। जज साहेब क्या कर रहे हो, ऐसा अनर्थ तो किसी युग में नहीं हुआ, मालिक और गुलाम का भाव तो रहना ही चाहिये। सुना है कि आज जज साहब एक और क्रांतिकारी फैसला सुनाने वाले हैं, जिससे इस गुलाम को पवित्र घोषित कर सकते हैं! तब क्या होगा? गुलाम ही पवित्र घोषित हो गये तो फिर गुलामी का आधार क्या होगा? हे भगवान बचा, हमारी संस्कृति को बचा। मेरे मालिक को मुझसे मत छीन, मेरी आदत ही नहीं कि मैं एक कदम भी उसके बिना धर सकूँ। हे भगवान मेरी रक्षा करना, मुझे मालिकविहीन मत कर। कितनी तो अच्छी होती है गुलामी। मैं कितनी खुश थी कि मेरे भी कोई मालिक है। मैं जूते खाकर भी खुश थी, गाली तो मुझे रसगुल्ला लगती थी, अब मत छीन रे मेरा रसगुल्ला।
हाय बेचारी एक छोटी सी बालिका थी, उसने अपने भाई के कच्छे का नाड़ा बांध दिया, बस जिन्दगी भर उसपर पहरा लगा दिया, अब यह पहरा टूट जाएगा, हाय बेचारी बच्चियां बिना पहरे के कैसे रहेंगी? न जाने कितने पिता उनका परीक्षण करने के बाद ही विवाह की स्वीकृति देते थे, अब वह परीक्षण भी बन्द हो सकता है, कितनी गलत बात हो गयी। चारदीवारी टूट गयी, नजरे दूर तक जा सकेंगी, यह तो बुरा हुआ। महिला की नजरे खराब हो  जाएंगी, पति की खराब हो रही थी और महिला की नजरे बची हुई थी, अब कितना अन्याय हो गया, हम पर। बहुत खराब हुआ, मेरा मालिक मेरा देवता था। अब मैं किसकी पूजा करूंगी! हाय-हाय धरती फट क्यूं नहीं गयी! हे  भगवान उठा ले मुझको, बिना मालिक के भी कोई जीवन है?
www.sahityakar.com

Monday, September 24, 2018

पाकिस्तान की ये सुन्दर लड़कियां क्या संदेश दे रही हैं?


अभी एशिया कप क्रिकेट हो रहा है, स्थान है संयुक्त अरब अमीरात। दुबई के प्रसिद्ध स्टेडियम पर मैच चल रहा है, कैमरामैन रह-रहकर पाकिस्तानी सुन्दर लड़कियों पर सभी का ध्यान खींचता है। लोग सी-सी कर उठते हैं, कोई कह रहा है कि ये हमारे मुल्क में क्यों नहीं हुई, कोई कह रहा है कि काश देश का विभाजन नहीं हुआ होता। मेरी भी दृष्टि गयी, लेकिन मेरी नजर सुन्दरता के साथ उनके पहनावे पर भी गयी। पाकिस्तानी लड़कियों में एक भी बुर्का पहने नहीं दिखायी दी अपितु आधुनिक वेश में ही वे थीं। लग ही नहीं रहा था कि हम दुबई जैसे शहर को देख रहे हैं, क्योंकि हमने तो सुना था कि लड़कियां यहाँ बुर्के में रहती हैं। खैर मुद्दा यह भी नहीं हैं मेरा। मुद्दा यह है कि पाकिस्तान, हिन्दुस्थान की मुस्लिम महिलाओं के लिये भी कानून बताता है और यहाँ के मुल्ला-मौलवी यह कहकर उसे स्वीकारते हैं कि ऐसा मुस्लिम धर्म में कहा है। कश्मीर में हम देखते हैं कि अलगाववादी नेताओं के बच्चे विदेश में पढ़ रहे हैं और कश्मीर के स्कूलों में उनके द्वारा ताले लगा दिये गये हैं। एक तरफ मुस्लिम समुदाय का वह वर्ग है जो सम्पूर्ण आधुनिकता के साथ रहता है, उनकी महिलाओं को सम्पूर्ण आजादी है, उनके बच्चे विदेश में पढ़ रहे हैं और दूसरी तरफ वह वर्ग है जिसे किसी भी प्रकार की आजादी नहीं है, उनके बच्चों की शिक्षा का अधिकार भी धर्म के नाम पर छीन लिया गया है। यदि इनका प्रतिशत निकालें तो शायद 10 और 90 प्रतिशत होगा।
ये 10 प्रतिशत शानोशौकत से रहने वाले लोग किसी धार्मिक बातों से बंधे हुए नहीं हैं, वे मानो स्वयं धर्म हैं लेकिन शेष 90 प्रतिशत लोगों के लिये सारी बंदिशें हैं। ऐसा नहीं है कि यह मुस्लिम समाज में ही हो रहा है, यह सभी वर्गों में हो रहा है। जो सम्पन्न हैं उनके लिये धर्म की कोई भी बंदिशें नहीं है लेकिन जो विपन्न है, उनके लिये सारी ही बंदिशें हैं। धर्म के पैरोकार इस तबके को डराकर रखता है, दोजख का वास्ता देता है और धर्म की आड़ में शोषण करता है। विपन्न वर्ग में भी अनजाना डर समाया हुआ है, वह भी डर की आड़ में शोषण का आदि हो गया है। अभी 150 साल पहले तक यूरोप में महिला चर्च से मुक्त नहीं थी, पादरी उसकी देह का शोषण करते थे इसलिये यूरोप में महिला मुक्ति का आन्दोलन चला। हालात यहाँ तक थी कि यदि कोई महिला चर्च के शोषण के खिलाफ आवाज उठाती थी तो उसे डायन घोषित कर दिया जाता था। यह डायन प्रथा हमारे देश में भी वहीं से आयी है। यूरोप में महिला संघर्ष को जीत मिली और महिला चर्च के शोषण से मुक्त हुई। अभी हाल ही में केरल में हुई ननों के साथ बलात्कार की घटना इस ओर इशारा करती है कि आज भी पादरी ननों को अपना शिकार बना रहे हैं और इसे धार्मिक कृत्य बताने की कोशिश कर रहे हैं।
सारी दुनिया में यह खेल चल रहा है, 10 प्रतिशत लोग निरंकुश हैं लेकिन शेष 90 प्रतिशत लोग धार्मिक गुलाम हैं। ये ही 10 प्रतिशत लोग दुनिया पर राज कर रहे हैं। वे पूर्ण स्वतंत्र लोग हैं इनपर दुनिया के किसी भी धर्म का कोई कानून लागू नहीं होता है, यह स्वयं कानून हैं। इसलिये इन लोगों को देखकर जनता को मुक्त होने की ओर कदम बढ़ाना चाहिये। जब पाकिस्तान की उन आधुनिक लड़कियों को पूर्ण स्वतंत्रता है तो शेष लड़कियों को क्यों नहीं? ये प्रश्न सभी को करना चाहिये। हम भी इन कर्मकाण्डों और आडम्बरों से जितना मुक्त होने की कोशिश करेंगे उतने ही उन्नत होते जाएंगे। हिम्मत जुटाइए और मुक्ति की ओर कदम बढ़ाइए। इस दुनिया के हर फूल को खिलने का अधिकार है तो दुनिया की हर लड़की को भी खिलने का अधिकार है, इसे पर्दे में रखकर अत्याचार करने का हमें कोई हक नहीं है।

Saturday, September 22, 2018

मोगली को मनुष्य बताने में गलत क्या है?

मोगली की कहानी तो आपको याद ही होगी, क्या कहा, ध्यान नहीं है! जंगल-जंगल पता चला है, चड्डी पहनके फूल खिला है, याद आ गयी ना। तो एक कहानी थी कि एक मनुष्य परिवार का बच्चा जंगल में गुम हो गया। भेड़ियों के झुण्ड को वह बच्चा मिलता है और वे उसे पालने का निश्यच करते हैं। बच्चा भेड़ियों के बीच बड़ा होने लगता है और बच्चा खुद को भी भेड़िया ही समझने लगता है। जंगल के शेर आदि दूसरे प्राणी जानते हैं कि यह मनुष्य का बच्चा है और हमेशा इस ताक में रहते हैं कि कब अवसर मिले और हम इसका शिकार कर लें लेकिन मोगली नहीं समझता की मैं मनुष्य का बच्चा हूँ। मोगली की भेड़िया माँ भी जानती है कि मोगली मनुष्य का बच्चा है लेकिन वह भी उसे नहीं बताती। एक दिन जंगल में एक मनुष्य जा पहुँचा, उसने मोगली को देखा और कहा कि अरे तुम मनुष्य के बच्चे हो और यहाँ भेड़ियों के बीच क्या कर रहे हो! मोगली कहता है कि नहीं मैं तो भेड़िया ही हूँ। मनुष्य उसे समझाने की कोशिश करता है कि देख तेरे दो हाथ और दो पैर हैं, मेरे जैसे। तू बोल सकता है, मेरे जैसे। मनुष्य उसे सबकुछ बताता है, लेकिन मोगली नहीं मानता। तभी भेड़िये भी आ जाते हैं और मोगली को समझने नहीं देते। मनुष्य कहता है कि देख मैं तुझे बता रहा हूँ कि तू मेरे जैसा है, तेरे पिता और मैं एक जैसे ही हैं। तू हिंसक नहीं है, इन भेड़ियों की तरह शिकार नहीं कर सकता। तू मेरे साथ शहर में चल। मोगली कहता है कि नहीं, मैं तुम्हारे साथ नहीं जाऊंगा क्योंकि मुझे पता है कि मनुष्य बहुत खतरनाक होता है और तुम मुझे भी मार दोगे। मनुष्य उसे फिर समझाने की कोशिश करता है कि मैं यदि तुझे मार दूंगा याने मनुष्य होकर मनुष्य को मार दूंगा तो मैं मनुष्य कैसे रहूंगा? मैं भी फिर भेड़िया ही बन जाऊंगा ना! 
मोगली ने उसकी बात ध्यान से सुनी और भेड़ियों की तरफ देखा, भेड़ियों ने कहा कि तू इसकी बात में मत आ, यह मनुष्य बहुत खतरनाक होते हैं। तुझे अवश्य मार देंगे। हम सब मिलकर इन्हें मारेंगे और सबके डर को समाप्त करेंगे, तू हमारे साथ ही रह। जब मोगली भेड़ियों के साथ जाने लगा तो मनुष्य ने कहा कि देख मैं तुझे फिर कह रहा हूँ कि तू मनुष्य है यदि तूने मेरी बात नहीं मानी और इन भेड़ियों के साथ मिलकर मनुष्यों को समाप्त करने के सपने देंखे तो फिर मैं इन भेड़ियों को तो समाप्त करूंगा तुझे फिर समझ आएगा कि तू वास्तव में क्या है। यह कहकर मनुष्य शहर में लौट गया। जंगल में सन्नाटा छा गया, मोगली क्या शहर लौट जाएगा? यह प्रश्न हर प्राणी की जुबान पर था। शहर में भी हलचल मच गयी कि मोगली को यह मनुष्य अपने जैसा कहकर आया है, जबकि अब वह हमारे जैसा रहा ही नहीं। लोगों में डर बैठ गया, चारों तरफ चर्चा होने लगी कि आखिर मोगली हमारे जैसे कैसे है! कैसे मनुष्य ने कहा कि इसको मारने से मनुष्यत्व समाप्त हो जाएगा। यह तो हम मनुष्यों के साथ सरासर अन्याय है। हम बरसों से भेड़ियों का आतंक झेलते रहे हैं और अब यह मनुष्य मोगली को कहकर आया है कि तुम हमारे जैसे हो! नहीं यह हो नहीं सकता, हम मनुष्य को ऐसा नहीं करने देंगे। जंगल में चर्चा थी कि यदि मोगली चले गया तो हम भेड़ियों का यह दावा खारिज हो जाएगा कि मनुष्य सब पर अत्याचार करता है इसलिये हम इसका शिकार करते हैं। उधर शहर में यह चिंता थी कि मोगली यहाँ आ गया तो वह हमारे साथ रहकर हमें मारेगा, आखिर वह भेड़िया ही तो है।
आज यदि हम कहें कि ऐसे लोग जिनके और हमारे पूर्वज एक थे, साथ आ जाओ और देश को सुंदर बनाने में सहयोगी बन जाओ तो क्या गलत है? यदि कोई भेड़ियों के साथ रह रहे मोगली को कहे कि तुम हमारे जैसे ही मनुष्य हो तो क्या गलत है? भेड़ियों ने मोगली को कहा कि तुम हमारे जैसे हो इसलिये इंसान का खून करो लेकिन यदि मनुष्य कह रहा है कि नहीं मोगली तुम मेरे जैसे हो तो क्या गलत है? शहर के सभ्य लोगों समझों उस मनुष्य की बात जो मोगली को मनुष्य बताकर उसकी हिंसा समाप्त करना चाहता है, उसे देश निर्माण में भागीदार बनाना चाहता है। हमेशा की हिंसा और रक्तपात को मिटाना चाहता है तो गलत क्या है?

Thursday, September 20, 2018

स्वयंसेवक स्वयंभू संघ बन गया


एक युग पहले हम सुना करते थे कि आचार्य रजनीश ने स्वयं को भगवान माना। सदी बदल गयी तो हमारे लिये युग बदल गया। फिर भगवान घोषित होने और करने का सिलसिला शुरू हो गया। कहीं खुद भगवान बन जाते तो कहीं शिष्य भगवान घोषित कर देते। आखिर भगवान क्यों बनना? हमने सर्व गुण सम्पन्न भगवान को माना है, यह चमत्कारी भी है, कुछ भी कर सकता है। इसलिये जब किसी को समाज में प्रतिष्ठित करना होता है तब हम उसे भगवान घोषित कर देते हैं, याने इससे ऊपर कोई नहीं, यह श्रद्धा का केन्द्र है। भगवान घोषित होते ही उनकी सारी बाते सर्वमान्य होने लगती हैं और उनकी शिष्य परम्परा में तेजी से वृद्धि होती है। तीन दिन से चली आ रही व्याख्यानमाला को सुनने के बाद, जिज्ञासा समाधान को भी सुनने के बाद और माननीय भागवत जी के समापन उद्बोधन सुनने के बाद मैं एक नतीजे पर पहुँची हूँ कि जैसे समाज में किसी को भी भगवान घोषित करने की परम्परा है वैसे ही समाज ने या स्वयं ने, संघ के किसी भी स्वयंसेवक को संघ घोषित करने की परम्परा है। संघ में एक कार्यकर्ता है जो उनका डिग्री कोर्स करता है और उनके ही विश्वविद्यालय में शिक्षक बन जाता है, उसे प्रचारक कहते हैं। एक कार्यकर्ता है जो वहाँ से शिक्षा लेता है और स्वयं का अधिष्ठान खोल लेता है, उसे उसी विश्वविद्यालय का अंग मानते हुए सम्पूर्ण स्वतंत्रता मिलती है। एक अन्य कार्यकर्ता है जो कभी शाखा में जाता है, कभी ड्राप आउट हो जाता है, लेकिन स्वयं को स्वयंसेवक कहता है।
हमारे समाज की परम्परा अनुसार हम इन्हें भगवान तो नहीं कहते लेकिन इन्हें संघ कह देते हैं। जब भी कोई बात आती है, हम कहते हैं कि संघ की यह इच्छा है। जब प्रश्न किया जाता है कि कौन है संघ, तो इन प्रभावशाली व्यक्तियों पर इशारा कर दिया जाता है। समाज इन्हें साक्षात संघ मान लेता है। जैसा की माननीय भागवत जी ने कहा कि संघ की विचारधारा समय के अनुरूप परिवर्तनशील है लेकिन उसका मूल बिन्दू राष्ट्रहित ही है। राष्ट्रहित में अनेक बार हिन्दुत्व में बदलाव किया गया है तो हम भी बदलाव करते हैं। अत: जब किसी भी व्यक्ति विशेष को संघ कह दिया जाता है तब उसकी प्रत्येक बात संघ की बात घोषित हो जाती है। उसका आचरण संघ का आचरण बन जाता है। हम अक्सर समाज में सुनते हैं कि संघ के लोग ऐसे होते हैं, वैसे होते हैं। जब एक प्रकार का विचार और आचरण प्रमुखता से परिलक्षित होने लगे तो मान्यता प्रगाढ़ हो जाती है। आज समाज में जो भ्रम और शंका की स्थिति बनी है वह इसी कारण से बनी है। संघ का ड्राप आउट स्वयंसेवक भी जब स्वयं को संघ कहने लगे तो स्थिति विकराल होने लगती है। यह स्थिति गम्भीर इसकारण भी हो गयी कि सोशलमिडिया की स्लेट हमें मिल गयी। जिस किसी के मन में आया उसने वह बात लिख दी। उसका खंडन करने वाला कोई नहीं तो वह बात भी संघ की मान ली गयी। जिन स्वयंसेवकों के विभिन्न क्षेत्रों में अधिष्ठान चल रहे हैं वे भी अपने अधिष्ठान की बढ़ोतरी के लिये स्वयं को संघ कहने लगे। वे नियंत्रण में रहें इसके लिये संघ ने संगठन मंत्री भी दिये लेकिन उसका भी कोई परिणाम नहीं निकला, क्योंकि उन संगठन मंत्री को भी स्वयं को संघ कहलाने में आनन्द आने लगा। समाज में भ्रम बढ़ते गये और संघ के विरोधी इन भ्रमों को हवा देते रहे और स्वयं को संघ घोषित किये हुए लोग वास्तविकता से दूर बने रहे। आज विकट स्थिति बन गयी है क्योंकि स्वयंभू घोषित संघ ने मनमाने प्रतिमान गढ़ लिये, उनके शिष्यों ने भी पत्थर की लकीर मानकर उनका अनुसरण किया लेकिन जब आज स्वयं माननीय भागवत जी ने कहा कि हम सब केवल स्वयंसेवक हैं और संघ विचार हिन्दुत्व की तरह परिवर्तनशील है, तब सामान्य व्यक्ति बगले झांकने लगा है। हम किसको सच माने, वह पूछ रहा है? राजनीति क्षेत्र की तो हालत ही पतली कर दी गयी, किसी भी राजनेता के खिलाफ फतवा जारी कर दिया गया कि यह संघ की मर्जी है। कार्यकर्ता दो भागों में बंट गये, एक सरेआम शोर मचाने लगे कि हटाओ-हटाओ और दूसरा कहने लगा कि यह अन्याय है। ऐसा ही वातावरण प्रत्येक अधिष्ठान में होने लगा, किसी को भी जब मन में आया निकालकर बाहर कर दिया गया, संघ की इच्छा के विरोध में भला कौन बोले? इसलिये यह तीन दिन की व्याख्यानमाला समाज के लिये हितकारी रही। स्वयं में संघ बने व्यक्तियों से संघ को कैसे बचाया जाए, अब यह प्रश्न विचारणीय होना चाहिये।
www.sahityakar.com

Tuesday, September 18, 2018

हमारे मन में बसा है राजतंत्र


वाह रे लोकतंत्र! तू कहने को तो जनता के मन में बसता है लेकिन आज भी जनता तुझे अपना नहीं मानती! उसके दिल में तो आज भी रह-रहकर राजतंत्र हिलोरे मारता है। मेरे सामने एक विद्वान खड़े हैं, उनके बचपन को मैंने देखा है, मेरे मुँह से तत्काल निकलेगा कि अरे तू! तू कैसे बन गया बे विद्वान! तू तो बचपन में नाक पौछता रहता था। यह है आम आदमी की कहानी। लेकिन यदि मेरे समक्ष कोई खास आदमी लकदक करता खड़ा हो तो उसे कभी नहीं कहेंगे कि तू  बचपन में कैसा था। बचपन में नाक उसके भी बहती होगी लेकिन वह खास था तो खास बनने के लिये ही पैदा हुआ है। हाँ ऐसा जरूर हुआ होगा कि कोई अध-पगला सा बच्चा आपके सामने बड़ा हुआ हो और जवानी में किसी उच्च पद पर होकर जब आपके सामने आ खड़ा हो, और सब उसे स्वीकार भी कर रहे हों! यह है हमारे मन में बसा राजतंत्र। मुझसे तो यह प्रश्न न जाने कितनी बार किया गया है कि तुम भला लेखक कैसे! ना कोई अपना और ना ही कोई पराया मानने का तैयार है! क्योंकि मैं खानदानी नहीं! लेकिन इसके विपरीत जो विरासत में लेखक की संतान है वह चाहे कखग नहीं लिख सकें लेकिन उनसे कोई प्रश्न नहीं होता!
इसलिये मैं कहती हूँ कि लोकतंत्र को जड़े जमाने में बहुत समय लगेगा। अभी राजतंत्र की जड़े अपना वर्चस्व बनाए हुए हैं। 90 प्रतिशत आम जनता को कोई मानने को ही तैयार नहीं है, बस हमारे मन में तो 10 प्रतिशत खास लोग ही बिराजे हैं। लोकतंत्र जिनके लिये हैं वे भी राजतंत्र से ग्रसित हैं, वे भी कहते हैं कि इसका बचपन तो हम देखी रहे। इसलिये आज लोकतंत्र को भी राजतंत्र का चोला पहनना पड़ता है। जैसे ही आम आदमी खास हुआ नहीं कि वह हमारे गले उतर जाता है। लालू यादव, मुलायम सिंह, मायावती इसी लोकतंत्र का चेहरा रहे हैं लेकिन जब इनने राजतंत्र का चोला पहना तो गरीब-गुरबा को कोई आपत्ति नहीं हुई अपितु अब वे सर्वमान्य हो गये। इनका भ्रष्टाचार इनके राजतंत्र में शामिल हो गया। राजीव गांधी से लेकर राहुल तक आज सर्वमान्य बने हुए हैं क्योंकि वे राजतंत्र का चेहरा हैं। उनके किसी कृतित्व पर कोई चिन्तन या बहस नहीं होती, वे सर्वमान्य हैं लेकिन लोकतंत्र की जड़ों से उपजे मोदी पर बहस होती है। क्या मोदी राजपुरुष की तरह सर्वगुण सम्पन्न हैं? उनकी छोटी से छोटी बात पर भी प्रश्न खड़े होते हैं। आज लोग उनसे प्रश्न कर रहे हैं कि यह कैसा लोकतंत्र है आपका, जो हमें कानून के दायरे में रखता है! हम सदियों से कभी कानून के दायरे में नहीं रहे! हमारा हर शब्द ही कानून था। चारों तरफ कोलाहल है, कोई कह रहा है कि स्त्री को पैर की जूती समझना हमारा अधिकार है, आप कैसे कानून ला सकते हैं कि हम किसको रखे और किसको छोड़े! कोई कह रहा है कि हम उच्च कुलीन हैं, हम किसी को भी दुत्कारें, यह सदियों से हमारा अधिकार रहा है, हमें कानून के दायरे में कैसे रखा जा सकता है! कोई कह रहा है कि हम क्षत्रीय हैं, हमें राजकाज से कैसे दूर किया जा सकता है। लोग कह रहे हैं कि यह सारे कानून पहले से ही थे तो आज प्रश्न क्यों? पहले जब कानून बने थे तब राजतंत्र के व्यक्ति ने बनाये थे लेकिन आज इस लोकतंत्र के व्यक्ति की हिम्मत कैसे हो गयी जो हमारे खिलाफ कानून को समर्थन दे डाला।
ये है हमारे दिल और दीमाग की कहानी, जिसमें आज भी राजा और रानी ही हैं। उनका अधपगले बेटे को हम राजा मानते हैं लेकिन तैनाली राम जैसे प्रबुद्ध व्यक्ति को हमारा मन नेता मानता ही नहीं। मेरे तैनाली राम लिखने से भी प्रश्न खड़े हो जाएंगे, आपने तैनाली राम से तुलना कैसे कर दी? किसी भी लोकतंत्र से निकले व्यक्ति की तुलना नहीं, बस उदारहण के रूप में किसी महापुरुष से कर दो, फिर देखो, कैसा बवाल मचता है! उन्हें यह पता नहीं कि वह महापुरुष भी जरूरी नहीं कि किसी राजतंत्र का हिस्सा ही हों। लेकिन बेचारे साधारण परिवार से आए व्यक्ति को किसी उदाहरण में भी जगह नहीं है। इसलिये मोदीजी कह देते हैं कि वे नामदार है और हम कामदार हैं। हे! खास वर्ग के लोगों, जागो, लोकतंत्र आपके दरवाजे पर दस्तक दे रहा है, आपको भी इसी लोकतंत्र का हिस्सा बनना ही होगा अब दुनिया से राजतंत्र विदा लेने लगा है तो आपके मन से भी कर दो नहीं तो कठिनाई आपको ही होगी। लोकतंत्र में हम जैसे लोग तो लेखक भी बन जाएंगे और मोदी जैसे लोग प्रधानमंत्री भी बनेंगे, आपके घर की महिला अब पैर की जूती नहीं रहेगी और ना ही आपके घर का चाकर आपके चरणों की धूल बनकर रहेगा। जिन भी देशों ने राजतंत्र को अपने दिलों से विदा किया है, वे आज सर्वाधिक विकसित हैं। अमेरिका इसका उदाहरण है। तो आप भी विदा कर दो इस राजतंत्र को।
www.sahityakar.com