चाय बनाने के लिये जैसे ही अदरक को हाथ में लिया ऐसा लगा कि किसी भारी भरकम पहलवान के हाथ का पंजा हाथ में आ गया हो। इतनी मोटी-ताजी अदरक! खैर चाय बन गयी, लेकिन अदरक का स्वाद कुछ खास नहीं आया। कल ही कोस्को ( costco) जाना हुआ, वहाँ अपने जैसी पतले पंजों वाली अदरक दिखायी दे गयी और पूरा डब्बा ही उठा लिया। बेटे ने बताया कि यह ऑर्गेनिक है, महंगी भी है और इसका स्वाद अधिक है। घर आकर चाय बनायी, मेहमान आए हुए थे। चाय अदरक के कारण स्वदिष्ट बन गयी थी और तारीफ मुझे मिल गयी। लेकिन असल बात पर आती हूँ, #scmudgal जी ने एक सवाल किया था कि अमेरिका में भुखमरी और गरीबी कैसी है? मैं गरीबी को परिभाषित नहीं कर पा रही थी लेकिन इस अदरक ने मेरी उलझन आसान कर दी। अदरक जैसी सारी ही खाद्य सामग्री का यहाँ खूब विकास हुआ, मोटी बना दी गयी, लोगों ने कहा कि अब खाद्य सामग्री का अभाव नहीं है और अमेरिका भुखमरी वाले देशों में नहीं है। लेकिन स्वाद नहीं है! अब स्वाद की तलाश की गयी तो पाया कि भारत में खाने की चीजों में स्वाद है और वे गोबर खाद से उपजायी जाती हैं। याने की ऑग्रेनिक हैं। फिर उल्टे चले और ऑग्रनिक बाजार सज गया। मोटी अदरक खाने वाले गरीब माने जाने लगे और पतली वाले अमीर।
यदि अपने देश में देखें तो गाँव कस्बों में आज भी ऐसी पतली मकड़ सी सब्जियां खायी जाती हैं और वे बेचारे गरीब कहलाते हैं, जबकि बड़े शहरों में मोटी-ताजी सब्जियां चलन में हैं और वे अमीर समझे जाते हैं। एक बार मैंने एक कृषि वैज्ञानिक से प्रश्न किया था कि हमारा जो पहले पपीता था वह कहाँ चले गया? अब जो आता है वह स्वाद नहीं है। उनका कहना था कि हमारी प्राथमिकता लोगों का पेट भरना है इसलिये अभी स्वाद पर नहीं जाते। यही हाल अमेरिका का है, इन्होंने पहले अदरक से लेकर अंगूर तक को मोटा कर लिया, लोगों का पेट भर गया, भुखमरी नहीं रही और अब वापस स्वाद की तलाश में ऑग्रेनिक खेती की ओर मुड़ गये हैं। भुखमरी तो नहीं है लेकिन गरीबी को कैसे नापे? जो ऑग्रेनिक प्रयोग कर रहे हैं वे अमीर हैं और जो नहीं कर पा रहे हैं वे अभी भी शायद गरीब हैं। लेकिन दो दुनिया यहाँ बनी हुई हैं। भारत में भी बन रही हैं, लेकिन वहाँ एक तरफ भुखमरी मिटाने का संघर्ष हैमोटी अदरक – पतली अदरक तो दूसरी तरफ अमीर बनने की होड़ है। इसलिये खायी गहरी है।
यदि अपने देश में देखें तो गाँव कस्बों में आज भी ऐसी पतली मकड़ सी सब्जियां खायी जाती हैं और वे बेचारे गरीब कहलाते हैं, जबकि बड़े शहरों में मोटी-ताजी सब्जियां चलन में हैं और वे अमीर समझे जाते हैं। एक बार मैंने एक कृषि वैज्ञानिक से प्रश्न किया था कि हमारा जो पहले पपीता था वह कहाँ चले गया? अब जो आता है वह स्वाद नहीं है। उनका कहना था कि हमारी प्राथमिकता लोगों का पेट भरना है इसलिये अभी स्वाद पर नहीं जाते। यही हाल अमेरिका का है, इन्होंने पहले अदरक से लेकर अंगूर तक को मोटा कर लिया, लोगों का पेट भर गया, भुखमरी नहीं रही और अब वापस स्वाद की तलाश में ऑग्रेनिक खेती की ओर मुड़ गये हैं। भुखमरी तो नहीं है लेकिन गरीबी को कैसे नापे? जो ऑग्रेनिक प्रयोग कर रहे हैं वे अमीर हैं और जो नहीं कर पा रहे हैं वे अभी भी शायद गरीब हैं। लेकिन दो दुनिया यहाँ बनी हुई हैं। भारत में भी बन रही हैं, लेकिन वहाँ एक तरफ भुखमरी मिटाने का संघर्ष हैमोटी अदरक – पतली अदरक तो दूसरी तरफ अमीर बनने की होड़ है। इसलिये खायी गहरी है।
No comments:
Post a Comment