जब से अमेरिका का आना-जाना शुरू हुआ
है तब से अमेरिका के बारे में लिख रही हूँ, 10 साल से न जाने कितना लिख दिया है और
एक पुस्तक भी प्रकाशित हो चुकी है लेकिन जब भी अमेरिका आओ, ढेर सारी नयी बाते
देखने को मिलती हैं। मेरा बेटा जब पहली बार अमेरिका आया था तब पहली बात फोन पर
सुनायी दी थी - लग रहा है कि स्वर्ग में आ गया हूँ। हमने सदियों से स्वर्ग की
कल्पना की है, हम सभी मरने के बाद स्वर्ग पाना चाहते हैं और सारे ही लोग इसी
उधेड़बुन में जीवन जीते हैं। कुछ लोग तो इस धरती को ही नरक बनाने पर तुले हैं
क्योंकि वे मरने के बाद जन्नत जाना चाहते हैं। सोचकर देखिये कि हम सब एक कल्पना
लोक में जी रहे हैं, हमने एक कल्पना की और उसे पाने के लिये प्राणपण से जुटे हैं।
लेकिन जब कोई युवा सच में जीता है तो उसे नकार देते हैं। हमने स्वर्ग नहीं देखा
लेकिन जाने का प्रयास कर रहे हैं, हमारे युवा ने अमेरिका देखा है, उसे वही स्वर्ग
लग रहा है और वह इसी जीवन में इसे पाना चाहता है तो क्या गलत कर रहा है! जैसी
कल्पना हम स्वर्ग की करते हैं, वैसा ही अमेरिका है। बस वर्तमान में कुछ लोगों का
फितूर देखकर लगता है कि कहीं कल्पना लोक के जन्नत के चक्कर में इसे मटियामेट ना कर
दें।
लेकिन मुझे हमेशा एक बात की शिकायत रही है कि हम किसी को भी
आधा-अधूरा क्यों अपनाते हैं! यदि अमेरिका में रहने की चाहत है तो इसे पूरी तरह
अपनाओ, यहाँ की सभ्यता को अपनाओ और यहाँ की संस्कृति को भी अपनाओ। लेकिन हमारे
जीन्स, हमें ऐसा नहीं करने नहीं देते, बस भारतीय यहीं आकर दुविधा में पड़ जाते
हैं। अमेरिका में "शक्तिशाली ही जीवित रहेगा" इस सिद्धान्त पर लोग चलते
हैं और बच्चों को ऐसा ही सुघड़ बनाना चाहते हैं। बच्चे मजबूती से खड़े रहे, अपनी
प्रतिभा के बल पर आगे बढ़े, सभी इसी बात पर चिंतन करते हैं। यहाँ के स्कूल भी ऐसी
ही शिक्षा देते हैं जिससे बच्चों का सर्वांगीण विकास हो और कम से कम स्नातक की
शिक्षा अवश्य लें। खेलों का यहाँ के जीवन में बहुत महत्व है। हमारे यहाँ खेल के
मैदान खाली पड़े रहते हैं लेकिन यहाँ खेल के मैदानों में भारी भीड़ रहती है। परसो
बॉस्केट बॉल के मैदान पर थे, ढेर सारे बच्चों को खेलते हुए देखना, आनन्ददायी था।
सारे ही स्कूल-कॉलेज, खेल मैदानों से पटे हुए हैं, इसके अतिरिक्त भी न जाने कितने
कोचिंग सेन्टर हैं। अधिकतर बच्चे कोई ना कोई खेल अवश्य खेलता है। भारतीय ही केवल
शिक्षा को जीवन का आधार मानते हैं इसलिये यहाँ भी भारतीय कुछ पीछे रह जाते हैं।
यहाँ बच्चे के लिये करने और सीखने को दुनिया की हर चीज उपलब्ध है, बस उसकी रुचि
किसमें है और वह क्या कर सकता है, यह देखना मात-पिता का काम है। यहाँ की दुनिया
एकदम ही बदली हुई है इसलिये इसे जब तक पूरी तरह से नहीं अपनाओगे तब तक संतुष्टि
नहीं होती। आधा-अधूरा जीवन विरोधाभास पैदा करता है, यहाँ के सारे ही भारतीय दो
नावों पर सवार होकर चलते हैं। दो संस्कृतियों का मेल कैसे सुखदायी बने, इस बात का पता अभी कम ही है, लेकिन जिसने भी दोनों
को तराजू के दो पल्लों में बराबर तौल लिया वह सुखी हो जाता है। नहीं तो लेबल लगा
है – एबीसीडी का। मतलब नहीं समझे, मतलब है - अमेरिका बोर्न कन्फ्यूज्ड देसी। हर
कोई पर यह गीत लागू होता है – मैं इधर जाऊं या उधर जाऊं, बड़ी मुश्किल में हूँ,
मैं किधर जाऊं। चलिये आज की बात यहीं तक।
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