Monday, December 19, 2016

कस्तूरी-सुगंध को हर दम महसूस करूंगी


बहुत खो दिया मैंने, ऐसे सुख को, जिसमें अपार सृजन और कला का वास है। जिसमें प्रेम-प्यार-आत्मीयता को एक ही शब्द में समेटने का जन्मजात गुण है। जिसमें बाहुबल के स्थान पर अपने आँचल में परिवार को समेटने की असीमित शक्ति है। जिसके एक इशारे पर दुनिया का चलन बदल जाता है। जो माँ के रूप में ममतामयी है, पत्नी के रूप में भी प्रेममयी है, बहिन के रूप में भी स्नेहमयी है, बेटी के रूप में भी प्यारभरी है। जो जन्म से लेकर मृत्यु तक परिवार को बांधकर रखती है, ऐसा सुख दुनिया का सबसे बड़ा सुख है। महिला होने का सुख महिला को जी कर  ही जाना जा सकता है।
बचपन से पिता ने पुरुष बनाने की दौड़ में शामिल करा दिया, बहुत सारे सुख अनजाने ही  रह गये। उम्र के इस पड़ाव पर पूरे जतन से महिला बनने का प्रयास कर रही  हूँ, जैसे-जैसे महिला होने के करीब जाती हूँ, मेरा सुख बढ़ता जाता है। दुनिया का सबसे बड़ा सृजन महिला के पास ही है। कला का प्रगटीकरण तो हर क्षण ही होता है, दरवाजे के बाहर रंगोली दिख जाती है तो हाथ में मेंहदी रच जाती है। रसोई से आती सुगंध टेबल पर नाना रूप में सज जाती है। शरीर का आकर्षण कभी वस्त्रों सें झलकता है तो कभी गहनों में खनकता है। बस सृजन ही सृजन और कला ही कला।
साधारण सी दिखने वाली महिला भी असाधारण बनकर सामने खड़ी हो जाती है। तभी तो अच्छे से अच्छे धुरंधर भी उनके समक्ष नतमस्तक से खड़े दिखायी देते हैं। ममता की सत्ता – प्रेम-प्यार-आत्मीयता से बड़ी बन जाती है। परिवार उसका साम्राज्य बन जाता है और साम्राज्यों के अधिपति परिवार के इस साम्राज्य के समक्ष बौने हो जाते हैं। सारी ही भाषाओं के ज्ञान को मन की भाषा निरूत्तर कर देती है। तभी तो शंकराचार्य से उभय भारती जीत जाती है।

सब गड्डमड्ड कर दिया हैं हमने। अपना सुख खुद ने ही छीन लिया है हमने। अपने आकाश को मोदी की तरह विस्तार चाहे कितना ही दे दो लेकिन एक कोना ममतामयी सी सुषमा के जैसा भी रहने दो। मोदी भी मोदी बनकर सफल तब होते हैं जब उनकी आँखों से ममता टपकने लगती है, जब वे अपने अंदर ममता का वास रखते हैं तो भला हम अपनी ममता से कैसे किनारा कर लें। दृढ़ता की कितनी ही प्राचीर बन जाओ लेकिन उस प्राचीर के हर छिद्र में स्नेह की आपूर्ति हमेशा रहनी चाहिये। जो महिला होकर भी इस सुख से अनजान हैं वे ऐसे ही हैं जैसे फूल बनकर भी सुगंध से कोसों दूर हों। अपनी मुठ्ठी में अब अपने आपको रखूंगी, अपने अन्दर इस आनन्द को समेट कर रखूंगी और कस्तूरी मृग के समान कहीं नहीं भटकूंगी बस अपने अन्दर की कस्तूरी-सुगंध को हर दम महसूस करूंगी।

Friday, December 16, 2016

काहे को टेन्शन मौल लेना?


कमाने से ज्यादा खर्च करने का संकट हैं। कभी सोचा है कि - आपने बहुत ज्ञान प्राप्त कर लिया, आप इसका उपयोग करना चाहते हैं लेकिन कैसे उपयोग करें, मार्ग सूझता नहीं। सारा दिन बस इसी उधेड़-बुन में लगे रहते हैं कि कैसे अपना ज्ञान लोगों तक पहुंचे? यहाँ सोशल मीडिया पर भी यही मारकाट मची रहती है कि मेरी बात अधिकतम लोगों तक कैसे पहुंचे? घर में भी अपने ज्ञान को देने के लिये बीबी-बच्चों को पकड़ते रहते हैं, लेकिन सफलता दूर  की कौड़ी दिखायी देती है। बस यही हाल आपके धन का भी है। एक फिल्म आयी थी – मालामाल, कल भी किसी चैनल पर प्रसारित हो रही थी। उस में नायक को तीस दिन में 30 करोड़ रूपये खर्च करने की चुनौती मिलती है, यदि उसने यह कर लिया तो वह 300 करोड़ का मालिक होगा, नहीं तो जय राम जी की। शर्त यह है कि वह अपने नाम से एक पैसे की भी सम्पत्ती नहीं खरीद सकता।
अब आज के परिपेक्ष्य में देखते हैं, एक अधिकारी या व्यापारी प्रति माह लाखों रूपये रिश्वत, टेक्स चोरी आदि से एकत्र करता है, लेकिन यहाँ भी शर्त लगा दी गयी है कि इस धन से सम्पत्ती नहीं खरीद सकते। जमीन, सोना आदि अचल सम्पत्ती के लिये पेन कार्ड चाहिये या चेक से भुगतान करना है। हर माह जमा होने वाले इन लाखों-करोड़ों रूपयों को कैसे खर्च करें, यह कमाने से भी बड़ी समस्या हो जाती है! रात-दिन देश-विदेश का पर्यटन करने लगते हैं, मंहगे कपड़े पहनने लगते हैं, होटलों में पार्टी करने लगते हैं, शादियों में बेहिसाब पैसा बहाने लगते हैं। फिर भी इस कुएं का पानी रीतता नहीं, जितना निकालते हैं, उतनी तेजी से वापस भर जाता है। दिन का चैन और रात की नींद उड़ जाती है, दिल धडकते-धड़कते बन्द होने की कगार पर पहुंच जाता है। लेकिन आदत छूटती नहीं, पैसा एकत्र करने की लालसा समाप्त होती ही नहीं।

आप भूलभुलैय्या में फंस चुके हैं, बाहर निकलने का एक ही रास्ता है, वह बैंक होकर जाता है। अपनी  कमाई को बैंक में जमा कराओ और आसानी से इस भूलभुलैय्या से बाहर निकल जाओ। खर्च करने का तनाव शरीर और मन को मत दो। भ्रष्टाचार के बिना भी आप इतना कमा रहे हैं कि उसे भी खर्च नहीं कर सकते, तो फिर काहे को टेन्शन मौल लेना?

Thursday, December 8, 2016

ज्यादा बाराती नहीं चलेंगे


हमें आपकी लड़की पसन्द है, विवाह की तिथि निश्चित कीजिये, लेकिन एक शर्त है विवाह हमारे शहर में ही होगा। वर पक्ष का स्वर सुनाई देता  है। राम-कृष्ण-शिव को अपना आदर्श मानने वाले समाज में यह परिवर्तन कैसे आ गया! स्वंयवर की परम्परा रही है भारत में। कन्या स्वंयवर रचाती थी और अपनी पसन्द के वर को वरण कर जयमाल उसके गले में डालती थी। इसके बाद ही वर जयमाल वधु के गले में डालता था। यहीं से प्रारम्भ हुआ बारात का प्रचलन। हमारी परम्परा में कन्या वर का चयन करती है लेकिन वर्तमान में वर, वधु का चयन कर रहा है और उसे ही आदेशित कर रहा है कि मेरे शहर में आकर विवाह सम्पन्न करो। विवाह में वर पक्ष के सैकड़ों और कभी-कभी हजारों बाराती कन्या के द्वार पर बारात लेकर आते हैं। कन्या पक्ष के लिये इतना बड़ा खर्च करना कठिन हो जाता है लेकिन विवाह की पहली शर्त तो यही है। न जाने किसने प्रारम्भ की थी यह परम्परा लेकिन अब तो रिवाज ही बन गया है।
कल याने 9 दिसम्बर की अनेक शादियां हैं, मेरे पास भी कई निमंत्रण हैं, लेकिन आश्चर्य का विषय यह है कि इस बार बारात का एक भी निमंत्रण नहीं है। सभी लोग संगीत में निमंत्रित कर रहे हैं, बारात में तो केवल घर वाले ही रहेंगे। सुखद परिवर्तन है। परिवर्तन का कारण बना है – नोट बंदी और कालाधन। कन्या पक्ष को अपनी बात कहने का अवसर मिला है, उन्होंने दृढ़ता से कहा है कि ज्यादा बाराती नहीं चलेंगे।

शादियों में पहले कन्या पक्ष को सहयोग करने के लिये समाज आर्थिक सहयोग  करता था और समाज के लोग एक निश्चित राशि कन्या को देते थे, जिसे किसी मुखिया द्वारा लिखा जाता था, लेकिन अब लिफाफे में बंद राशि का प्रचलन चल गया है। नोटबंदी पर इस प्रथा में भी बदलाव आएगा और एक निश्चित राशि ही देने की परम्परा पुन: बनेगी। अभी लोहा गर्म है इसलिये चोट अभी ही करनी चाहिये, परम्पाराएं बदलने का सुनहरा अवसर है, बस कन्या पक्ष को दृढ़ रहने की आवश्यकता है।

Wednesday, December 7, 2016

यौन कुण्ठा से उपजा वहशीपन


जिस के फटी ना पैर बिवाई, वो क्या जाने पीर परायी। पुरुष-युवा मन की यौन कुण्ठा क्या है? भला मैं महिला होकर  कैसे जान सकती हूँ? क्या यह प्यास से भी भयंकर है? क्या यह भूख से भी अधिक मारक है? प्यास और भूख में तड़पता इंसान धीरे-धीरे शक्तिहीन होता जाता है लेकिन यौन पीड़ा से तड़पता पुरुष मारक होता जाता है। वह वहशी बनता जाता है और अपनी भूख समाप्त करने के लिये कुछ भी कर गुजरता है। ऐसा ही कुछ अभी उदयपुर में हुआ। 22 साल का लड़का यौन-कुण्ठा में इतना वहशी हो गया कि दो बच्चों की माँ को बेरहमी से खत्म कर दिया।
जैसे ही यौवन फूटने लगता है, मन के जज्बात निकलने के लिये कितने ही मार्ग तलाश लेते हैं। कभी माँ का सहलाना काम आ जाता है तो कभी घर की भाभी, चाची या अन्य रिश्तेदार का स्पर्श उसे राहत दे देता है। लेकिन जब परिवार में कोई ना हो, पढ़ाई की दीवार चारों तरफ खेंच दी गयी हो तब लावा एकत्र होने लगता है और कोई ना कोई विस्फोटक घटना को जन्म देता है। युवा या किशोर मन अक्सर आसान शिकार की खोज करता है, वह घर की या आसपास की उस महिला को चुनता है जहाँ महिला  पर आरोप लगाना सरल हो। सामूहिक परिवारों में यह समस्या रोज सामने रहती है, युवा मन की यौन कुण्ठा को निकलने का कोई ना कोई मार्ग मिल ही जाता है लेकिन एकल परिवारों में पढ़ाई के बोझ तले युवा कुण्ठा का शिकार हो जाते हैं।

उदयपुर की एक अघिवक्ता जो दो बच्चों की माँ थी, अपने कॉम्पलेक्स में पति के साथ रह  रही थी, थोड़ी अनबन दोनों के मध्य थी। उसी कॉम्प्लेक्स में रहने  वाला 22 वर्षीय युवक अपनी यौन कुण्ठा को लेकर सुबह 9.30 पर ही महिला के घर जा पहुँचा। वहाँ उसने महिला की चोटी पकड़कर दीवार पर सर पटक-पटक कर उसे मार दिया। इतनी भयंकर यौन कुण्ठा एक युवा को वहशी बना गयी और पूरे समाज पर एक प्रश्नचिह्न लगा गयी कि हम किस दिशा में अपने बच्चों को ले जा रहे हैं! अपने परिवार के युवाओं पर विचार कीजिये और उनकी यौन कुण्ठा निकालने के लिये परिवार में सहज वातावरण बनाइये। स्वाभाविक प्रेम यौन कुण्ठा को पीछे धकलेता है, खेलकूद शरीर की ऊर्जा को बाहर निकालता है। इसलिये युवक को घर घुस्सू मत बनाइये अपितु उसे अपनी बात निकालने का मौका दीजिये। घर में जितना हो सके बाते कीजिये, खुलकर हँसने की परम्परा बनाइये। चुप रहने से कुण्ठा का जन्म होता है और बोलने से कुण्ठा पनप नहीं पाती।

Saturday, December 3, 2016

और खीर बनती रहेगी

हमारी अम्मा एक कहानी सुनाती थी, उसे सुनने में बड़ मजा आता था, हम बार-बार सुनते थे। वैसे यह कहानी सभी ने सुनी है, कहानी गणेश जी की है। गणेश जी बालक का रूप धरकर, चुटकी में चावल और चम्मच में दूध लेकर घर-घर जा रहे हैं कि कोई मेरे लिये खीर बना दो - खीर बना दो। सब उस बालक पर हँसते हैं कि भला चुटकी भर चावल और चम्मच भर दूध से कैसे खीर बनेगी! लेकिन एक बुढ़िया तैयार हो जाती है। वह भगोने में दूध डालती है तो दूध खत्म ही नहीं होता, चावल डालती है तो खीर के अनुपात में बढ़ जाता है। सारे मौहल्ले, गाँव और दूसरो गाँवों तक को खीर खिला दी फिर भी खीर खत्म ही ना हो।
गणेश जी कहते हैं कि तुम चुटकी भर देना सीखो तो तुम्हारा दिया गया धन समाज के लिये कभी ना खत्म होने वाला धन बन जाएगा। लेकिन हम चुटकी भर भी नहीं देना चाहते। हम टेक्स को सजा मान बैठे हैं। इसलिये यह टेक्स समाप्त कर देना चाहिए। सुविधा शुल्क के रूप में पैसा लेना चाहिए। पानी, बिजली, फोन, नेट, बस, रेल, हवाई जहाज आदि-आदि सभी की रेट तय कर दो। हजार रूपया महीना जो देगा उसे पानी मिलेगा, दो हजार जो देगा उसे बिजली मिलेगी, ऐसे ही सभी की रेट निर्धारित कर दो। जो अमीर लोग प्रतिदिन हवाई यात्रा करते हैं उनके लिये भी रेट बना दो। माह में एक बार यात्रा करने पर यह रेट, रोज करने पर यह रेट। देखिये सारे ही लोग सुविधाएं खरीदने लग जाएंगे।
या तो गणेश जी की तरह चुटकी भर देना सीख लो या फिर रेट तय करा लो। तब समझ आएगा कि सरकार की सुविधा मुफ्त में ही ले रहे थे अभी तक! मुफ्त की सुविधा मिल रही हैं तो उसका मूल्य भी नहीं पता है, बस तोड़ने-फोड़ने को तैयार बैठे रहते हैं। यदि 125 करोड़ भारतीय टेक्स देना शुरू कर दें तो देश अमेरिका से कहीं अधिक धनवान हो जाएगा। आपको चुटकी भर देना हैं और चुटकी भर से ही देश का भगोना भर जाएगा और कभी ना खत्म होने वाली खीर बन जाएगी। गणेश जी सिखा गये थे चुटकी भर देना और घर की बड़ी-बूढ़ी दादी ने बता दिया था कि चुटकी भर से भी कभी ना खत्म होने वाली खीर बन सकती है। बस आप देते रहो और खीर बनती रहेगी।

पंखुड़ी बनते ही बिखर जाएंगे

कल फतेह सागर झील के ऊपर कुछ पक्षी कतारबद्ध होकर उड़ रहे थे, उनका मुखिया सबसे आगे था। मुखिया को पता है कि उसे कहाँ जाना है, उसकी सीमा क्या है। किस पेड़ पर रात बितानी है और कितनी दूर जाना है। सारे ही पक्षी अपने मुखिया पर विश्वास करते हैं। सभी को पता है कि हमारी भी एक सीमा है, हम सीमा के हटकर कुछ भी करेंगे तो जीवन संकट में पड़ जाएगा। हम अपने घर में, समाज में, देश में सीमाएं या नियम इसीलिये बनाते हैं कि सब सुरक्षित रहें लेकिन कुछ लोग अपनी सीमाओं को तोड़ने का दुस्साहस करते हैं। वे स्वयं की सुरक्षा को तो ताक पर रख ही देते हैं साथ ही पूरे परिवार की, समाज की और देश की सुरक्षा को भी ताक पर रख देते हैं। आज कुछ पत्रकार, कुछ साहित्यकार और कुछ सोशल मीडियाकार सीमाओं से परे जाकर सभी की सुरक्षा से खिलवाड़ कर रहे हैं। वे देश के नागरिक को अपने कानून बनाने के लिये उकसा रहे हैं, जिससे वे समूहबद्ध ना रहकर तितर-बितर हो जाएं और फिर किसी का भी आसान शिकार बन जाएं।
पक्षी अपने झुण्ड से यदि बिछुड़ जाता है तो वह अपने जीवन को सुरक्षित नहीं रख पाता, ऐसे ही कोई भी नागरिक अपने देश की पहचान से विलग हो जाता है तब वह आसान शिकार बन जाता है। उसे अपनी पहचान के लिये कुछ राष्ट्रीय प्रतीकों को धारण और सम्मान करना पड़ता है, जैसे राष्ट्रीय झण्डा, राष्ट्र गान, राष्ट्रीय मुद्रा आदि। इनका अपमान देश का अपमान होता है और वह व्यक्ति देश के हित में ना होकर अहित में खड़ा होता है।
हमारे देश में थियेटर में राष्ट्र गान की परम्परा पुरानी है, सुप्रीम कोर्ट ने इसी परम्परा को बनाये रखने का आदेश दिया है लेकिन कुछ सिरफिरे लोग जिन्हें शायद परिवार की भी सीमाओं का ज्ञान नहीं हैं वे राष्ट्रगान का अपमान करके अपनी कलम की धार पैनी करने का ख्वाब देख रहे हैं। ऐसे लोग उस पक्षी की तरह हैं जो झुण्ड से बिछुड़कर खो जाता है। हमारा देश नहीं हैं तो हम भी नहीं हैं। हम विदेश में भी जाकर अपने देश के बलबूते पर ही बस सकते हैं, हमारा अस्तित्व केवल मात्र देश से ही है। इसलिये देश के प्रतीक चिह्नों का सम्मान करना हमारे लिये सुरक्षा की चाबी है। कुरान की आयतें बोलकर आप आतंक के आकाओं से तो बच जाएंगे लेकिन जब देश की पड़ताल होगी तब राष्ट्रगान ही आपको बचा पाएगा। ऐसे बुद्धिजीवियों से बचिये जो आपको गैर जिम्मेदार नागरिक बनाने के लिये उकसा रहे हों। आप फूल है जब तक सुरक्षित हैं, पंखुड़ी बनते ही बिखर जाएंगे।

Friday, December 2, 2016

तू भी मेहमान - मैं भी मेहमान

पण्डित रामनारायण शास्त्री अपने बेटे के पास शहर आये, उनका परिचय इतना कि ये शिवराज के पिता हैं। सारे ही मोहल्ले में घूम आयें लेकिन कोई ना कहे कि शास्त्री जी आओ बैठो। बस सभी यही कहें कि अरे शिवराज जी के पिता हैं। एक दिन गुजरा दो गिन गुजरे यहाँ तक की एक महीना गुजर गया लेकिन उनकी पहचान ही नहीं, बस टल्ले खाते घूम रहे हैं। बेटा-बहु नौकरी पर चले जाएं और शास्त्रीजी इधर-उधर टहलते रहें। घर पर डाकिया भी आये तो पूछे कि शिवराज जी का घर है? एक दिन पानी सर से ऊपर उतर ही गया और शास्त्री जी ने आव देखा ना ताव बस एक साइन-बोर्ड बना डाला। एक पुठ्ठे का टुकड़ा लिया, उसे एक सा किया और उसपर नाम लिखने के लिये पेन-पेंसिल ढूंढने लगे, नहीं मिली। बहु की ड्रेसिंग टेबल तक गये और लिपिस्टिक उठा लाए। मोटे-मोटे अक्षरों में लिख दिया - पण्डित रामनारायण शास्त्री का मकान। ले अब पूछ कि आप कौन हैं? अब शिवराज कौन? पण्डित रामनारायण शास्त्री का बेटा।
यह तेरा घर - यह मेरा घर, घर बड़ा हसीन है। घर की यही कहानी है। पिता कहते रहे कि यह मेरा घर है, यहाँ मेरे हिसाब से ही पत्ता हिलेगा, जब बेटे ने दूर शहर में घर बसाया तो उसने भी यही कहा कि यह घर मेरा है, यहाँ मेरे हिसाब से ही पत्ता हिलेगा। फिर समय बदला, पिता ने कहा कि यह घर मेरा है, मेरे बेटों का है। बेटे भी आँख दिखाने लगे कि घर में यह होना चाहिये यह नहीं। पिता कैसे भी उनकी मर्जी पूरी करते रहे। आखिर मालिक तो बाद में यही है, कह-सुनकर मन बहलाते रहे। बेटा महानगर या विदेश में जा बसा, उसका घर अलग और पिता का घर अलग हो गया।
बेटा जब पिता के घर आये तो बहुत नाक-भौं सिकुड़े कि मकान में यह नहीं है, वह नहीं है। पिता भी अपनी जमा-पूंजी से बेटे की आवाभगत में कसर नहीं छोड़े। लेकिन जब माता-पिता बेटे के घर जाएं तो रहने को कमरा भी ना मिले, बेचारे ड्राइंगरूम में ही सोकर अपने दिन गुजारें। कई बेटों ने तो माता-पिता के रहते उनका ही मकान बेच दिया और वे सड़क पर आ गये। माता-पिता कहते कि हमारा घर तो तेरा है लेकिन तेरा घर हमारा क्यों नहीं है! बेटा गुर्रा जाता, कहता कि कौन सी किताब में यह लिखा है? लेकिन कल गजब का सूरज निकला, कोर्ट ने कह दिया कि पिता का घर बेटे का नहीं है। अब तू भी गा और मैं भी गाऊं – यह तेरा घर – यह मेरा घर। तू भी मेहमान - मैं भी मेहमान। 

इस शिखर से तिरंगा सारी दुनिया को दिखायी देगा

पहले एक लघु-कथा - पहाड़ की साधी सपाट चोटी पर चढ़ने की प्रतियोगिता हो रही थी, भाग ले रहे थे मेढ़क। कुछ मोटे-ताजे और कुछ कमजोर व नाटे। अभी बर्फ भी पड़ कर चुकी थी तो पहाड़ फिसलन भरे थे लेकिन मेढ़कों में उत्साह की कमी नहीं थी। दर्शक भी चारों तरफ आकर खड़े हो गये थे और पत्रकार भी। चारों तरफ से आवाजें आ रही थीं कि ये मरियल से मेढ़क इस चढ़ाई को पूरा नहीं कर सकते हैं। आखिर रेस शुरू हुई और आवाजों का शोर भी बढ़ने लगा। ये पिद्दी ना पिद्दी का शोरबा, भला कैसे रेस पूरी करेंगे! ये कैसे पहाड़ की चोटी तक पहुँचेंगे! मेढ़क टपकने लगे, शोर बढ़ने लगा लेकिन देखते ही देखते एक मेढ़क चोटी पर जा पहुँचा। सारे ही पत्रकार दौड़ पड़े, उस मेढ़क से प्रश्न पूछने लगे कि तुमने कैसे इस दुर्गम चढ़ाई को पूरा कर लिया? क्या तुमने हार्लिक्स पिया था या कोई और उपाय किया था? ना-ना प्रकार के सवाल किये गये लेकिन जवाब नहीं आया, पता लगा कि मेढ़क बहरा था। उसने हताशा की आवाजें सुनी ही नहीं, बस केवल ध्येय पर ध्यान दिया और लक्ष्य पूरा किया।
आज की राजनीति में भी यही हो रहा है, चारों तरफ से हताशा की आवाजे आ रही हैं, मोदीजी ने अपनी राजनैतिक बुलंदियों के दुर्गम पहाड़ पर चढ़ना शुरू ही किया था कि सारे ही लोग चिल्लाने लगे, यह सम्भव नहीं है, यह काम हो ही नहीं सकता और मोदीजी कान में रूई डालकर बस चढ़ते रहे चढ़ते रहे। पहाड़ चढ़ने के बाद ही उन्होंने कान से रूई निकाली। अब वे पहाड़ की चोटी पर हैं और सारे ही विरोधी नीचे तलहटी में खड़े उन्हें नीचे पटकने की चेतावनी दे रहे हैं। वे देश के दुर्गम पहाड़ पर चढ़ चुके हैं, उन्होंने डर को परास्त कर दिया है अब वे ऊतुंग शिखर पर तिरंगा फहराने जा रहे हैं। इस शिखर से तिरंगा सारी दुनिया को दिखायी देगा।

महिलाएं तो बदनाम हो गयीं पर पुरुषों का क्या?

हमारे पिताजी लिफाफे के सख्त खिलाफ थे। आप पूछेंगे की लिफाफे ने क्या बिगाड़ दिया? लिफाफे का तात्पर्य होता है गोपनीयता या छिपाकर कुछ करना। हम शादी में शगुन देते थे, सभी पंचों के समक्ष देते थे, लिखे भी जाते थे कि किसने क्या दिया? समाज जो नियम बनाता था उसी के अनुसार शगुन दिया जाता था, लेकिन फिर आया लिफाफे का चलन। लिफाफे में क्या है, पता ही नहीं! गुपचुप तरीके से समाज के नियम को तोड़ा गया। पिताजी तो शादी के निमंत्रण-पत्र को भी लिफाफे में नहीं रखने देते थे। मेरी शादी का कार्ड छपा, लेकिन लिफाफा नहीं, अब बड़ी शर्म लगे कि बिना लिफाफे के कार्ड अपने इष्ट-मित्रों को कैसे दें? सबसे बड़ी दुविधा तो थी कि अपने गुरुजनों को और सहकर्मियों को कैसे दें? अब रास्ता खोजा गया जैसे आज नोट-बदली में खोजा जा रहा है – पिताजी से कहा कि कार्ड तो दूसरे शहर भेजने हैं, लिफाफा तो लगेगा ही। इस बात को उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया और हमने लिफाफा लगा ही दिया।
नोट-बदली की जब बात आ रही है तब महिलाओं द्वारा छिपाये धन की भी बात आ रही है। प्रधानमंत्री जी के पास भी यह बात गयी और उन्होंने हमारे पिताजी ने जैसे लिफाफे में छूट दी थी वैसे ही महिलाओं को मोदीजी ने छूट दे दी। लेकिन छिपाकर धन रखने की बात घर में तो बाहर आ गयी और पता लग गया कि महिलाएं धन छिपाती हैं। मेरे जैसी महिला जो पिताजी के नियमों से बंधी थी तो छिपाने की बात तो सपने में भी नहीं सोची जा सकती थी इसलिये मेरे पास कोई छिपा धन था ही नहीं। हमने बड़े गर्व से कहा कि नो लिफाफा बाजी। लेकिन महिलाएं तो बदनाम हो गयीं पर पुरुषों का क्या? कल पतिदेव एक गड्डी लेकर आये कि यह बैंक में जमा करा देना। मैं आश्चर्य चकित की कहाँ से आया यह रूपया! वे बोले कि एक व्यक्ति को जरूरत थी तो लेकर गया था आज वापस दे गया। एक तरफ तो हरीश चन्द्र बने घूम रहे हैं पुरुष लोग कि हम तो सारा पैसा पत्नी को दे देते हैं और एक तरफ बड़ी-बड़ी रकम भी छिपाकर दे दी जाती है! भाइयों और बहिनों केवल महिलाओं को ही बदनाम मत करो, पुरुषों से भी पूछो कि कितना कहाँ छिपाया था? मुन्नी तो बदनाम हो गयी लेकिन मुन्ना भाई भी तो नकली MBBS बने घूम रहे हैं। कहीं डूब गयो हैं और कहीं पुराने वसूल रहे हैं।

कैसी किरकिरी कर दी तूने!

अरे डोकरी के पास खजाना कितना निकला? पड़ोस की काकी मरी और अभी अर्थी उठी भी नहीं थी कि कानाफूसी होने लगी। काकी के जीवन की पूंजी ही यही थी कि मेरे मरने के बाद कितना माल निकलता है, बस इसी शान को बढ़ाने के लिये काकी जीवन भर संचय करती रही। आज घर-घर में ऐसी काकियों के खजाने पर नजर टिक गयी है। एक हम हैं कि दो पैसे भी नहीं है खजाने में! इज्जत को सारा जीवन रोते रहे हम और आज मोदी ने सारी पोलपट्टी खोलकर रख दी, कोई खजाना नहीं! अब काहे की इज्जत! बेगैरत से हो गये हैं हम। अजी तुम्हारी बातें अब रहने ही दो, खीसे में दमड़ी नहीं और देने चले हैं हमको उपदेश। घर वालों ने जैसे लात ही मार दी, कौन दो कोड़ी की औरत की बात पर ध्यान दे! 
हम अपने घर वालों को समझाने में असफल हो गये कि हमारी भी कोई औकात है, लेकिन वे मानने को ही तैयार नहीं। उपेक्षा भरी दृष्टि के पात्र हो गये हैं हम। घर का हर सदस्य अफरा-तफरी में लगा है, कुछ ना कुछ बचाने की जोड़-तोड़ कर रहा है, भागते चोर की लँगोटी ही सही। लेकिन हम निश्चिंतता के साथ शब्दों को तौल रहे हैं, जितना पिटारे से निकालते हैं उतने ही वापस आ जाते हैं, हम स्वयं को अमीर समझ बैठे हैं लेकिन जब घर वाले ही दो कौड़ी का मान बैठे तो आस-पड़ोस, रिश्तेदार तो क्या मान देंगे! हे भगवान! कहीं समधी भी यह ना कह बैठे कि कैसे कंगले घर में बेटी को ब्याह दिया! सारे ही फोन खामोश हो गये हैं, यदि हम कर भी दें तो लोग यह कहकर काट देते हैं कि तुम्हारे पास तो समय ही समय है लेकिन हमें तो बहुत काम है। कई बैंक खातों में कुछ ना कुछ जमा कराना है, अब तुम तो इस लायक भी नहीं कि तुम्हारें बैंक में कुछ डला ही दें।
ऐसे लगने लगा है कि हमारा जनम भी बिगड़ गया है और मरण भी। भला मेरे मरने में किसको रुचि रहेगी! कौन आएगा मिट्टी को ठिकाने लगाने! पोटली को खोलने की बात तो दूर-दूर तक भी सोची नहीं जाएगी, पहले ही पोलपट्टी खुल गयी है। जब धन छिपाकर रखने के दिन थे तब तो एक धैला नहीं मिला अब जब छिपाने की गुंजाइश ही नहीं तो डोकरी ने क्या छिपा लिया होगा? कहीं ऐसा नहीं हो कि चार लोग भी नहीं जुटे हमारी मैय्यत में! हाय मोदी – हाय मोदी कर रही हूँ तभी से, कैसी किरकिरी कर दी तूने! 

ढाई लाख ले लो

ढाई लाख ले लो – ढाई लाख ले लो, की आवाजें घर-घर से आ रही हैं। कुछ दिन पहले इन्हीं घरों से आवाजें आ रही थी – मेरे 15 लाख कहाँ है – 15 लाख कहाँ हैं? अब बाजी उलट गयी है, 15 लाख की मांग की जगह ढाई लाख देने की आवाज लगायी जा रही है। महिलाओं को लुभाया जा रहा है, अरे तुम तो गृहिणी हो तुम्हें तो ढाई लाख की छूट है तो हमारे ढाई लाख ले लो। जो लोग नौकरी करते हैं, जब ये आवाजें उनके घर से भी आना शुरू हो जाए तो मन कसैला सा हो जाता है। रिश्वत खोर है यह जग इतना तो मुझे पता था लेकिन तुम भी, तुम भी कहते हुए दिन निकालने पड़ेंगे यह पता नहीं था।
मेरे बचपन के एक पारिवारिक मित्र थे, हमारे ही शहर में रहने आ गये थे तो हमारे संरक्षक जैसे बन गये थे। रोज ही का आना जाना था एक दिन मेरे ही घर की एक बालिका ने उनकी शिकायत हम से कर दी, हम दंग रह गये। इतना धार्मिक और बड़ा व्यक्ति और ऐसी हरकत! जब मैं नौकरी में थी और चिकित्सा करना मेरा कार्य था, वहाँ भी देखती कि आसपास के रिश्ते या आसपड़ोस के कई किस्से मेरे पास आते, मैं तब भी दंग रह जाती। तब आँख को चौकन्ना रखने की इच्छा होती और पाती की न जाने कितने लोग चरित्र के पायदान पर फिसल रहे हैं, वे अपनों को ही शिकार बना रहे हैं।
समाज का चरित्र जानकर कल तक लोग चौकन्ना रहने लगे थे और आज समाज का रिश्वतखोर या चोर रूप देखकर लोग चौकन्ने हो रहे हैं। कैसे-कैसे मासूम चेहरे ढाई लाख ले लो- ढाई लाख ले लो की रट लगा रहे हैं। सहकारी बाजार में भीड़ भरी है, साल का दो साल का राशन खरीदा जा रहा है, हवाई यात्राएं की जा रही हैं, कहने का तात्पर्य है कि रूपये के रूप में जिन्दगी की गारण्टी ली जा रही है। दानवीर राजाओं के, त्यागी संतों के उदाहरण देते हम थकते नहीं हैं लेकिन जब खुद का नम्बर आता है तब ये उदाहरण चुपके से कोने में दुबक जाते हैं।
वस्तुतः हम सब लालची लोग हैं, दुनिया के सारे ही ऐश्वर्य को भोगना चाहते हैं। कोई इस दुनिया में भोग कर जाना चाहता है तो कोई दूसरी दुनिया में भोगने की इच्छा रखता है। लालची सभी हैं। जब हम स्वर्ग या जन्नत की इच्छा रखते हैं तो लालच को तो अपने अन्दर पनपने का अवसर दे ही रहे हैं। जैसे अपने घर वालों के समक्ष चरित्र उज्जवल रखने की चेष्टा करते हैं और दूसरी दुनिया दिखते ही चरित्र को धता बता देते हैं। अपने घर में चोरी को अपराध बताते हैं और नौकरी में चोरी करने को हक मान लेते हैं। इसलिये लालच इस दुनिया में सुख भोगने का करो या स्वर्ग के लिये करो, लालच तो हैं ही हम में। ढाई लाख की आवाजें आपको भी डिगा रही हैं, क्या पता लगेंगा रख लो। लेकिन आपके मन को तो पता है, आपका मन तो कहेगा ही कि तुमने चोरी नहीं की तो क्या, चोरी के रूपयों का भोग तो किया। कल तक जो लोग अपना कबाड़ आपको थमा रहे थे, उस कबाड़ के कारण आप कबाड़ी तो बनेंगे ही लेकिन कभी ऐसा ही प्रसंग दुबारा आया तो आप भी आवाज लगा रहे होंगे – ढाई लाख ले लो – ढाई लाख ले लो।