Tuesday, December 28, 2010

“दोहा” लेखन और उसकी बारीकियों पर एक नजर – अजित गुप्‍ता


ब्‍लाग लिखने से पूर्व नेट पर हिन्‍द-युग्‍म जैसी कुछ साइट की पाठक थी। हिन्‍द-युग्‍म पर कभी दोहे की और कभी गजल की कक्षाएं चलती थी। मैं इन दोनों विधाओं की बारीकियां समझने के लिए इन कक्षाओं के पाठ नियमित पढ़ने की कोशिश करती थी। लेकिन टिप्‍पणी नहीं करती थी। दोहे की कक्षा आचार्य संजीव सलिल जी लेते थे। एक दिन उन्‍होंने दुख के साथ लिखा कि ऐसा लगता है कि इस कक्षा में किसी की रुचि नहीं हैं तो क्‍या इसे बन्‍द कर देना चाहिए? मुझे लगा कि इतनी अच्‍छी कक्षा यदि छात्रों के अभाव में बन्‍द हो जाएगी तो यह सभी के लिए दुखकारी होगी। मैंने तब उन्‍हें पहली बार टिप्‍पणी की कि आपकी कक्षाओं से हम सभी लाभान्वित हो रहे हैं और आप इसे जारी रखिए। क्‍योंकि मैं समझ गयी थी कि किसी भी विधा के लिए जितना ज्ञान मिल सके उतना ही कम है। मुझे भी तब समझ आने लगा था कि दोहों में भी कितनी पेचीदगियां हैं। यह केवल 13-11 का ही मात्र खेल नहीं है। हम भी मात्रायें गिनते थे लेकिन कहीं न कहीं चूक हो ही जाती थी। लेकिन सलिल जी ने छोटी से छोटी बात को भी समझाया और हमारी प्रत्‍येक गलती पर ध्‍यान आकर्षित किया। मैं उनकी सदैव ॠणी रहूंगी। हमें लगता था कि हमने बहुत अच्‍छा दोहा लिखा है लेकिन उसमें कोई न कोई दोष रह ही जाता था और वे हमें बताते थे कि इसमें यह दोष रह गया है।
कक्षा के समापन के दिनों में उन्‍होंने कहा कि जो कुछ भी सार-संक्षेप हैं उसे आप लिखिए। तब मैंने दोहा-सार लिखा। मुझे लगता है कि शायद यह संक्षिप्‍त जानकारी आप सभी के लिए उपयोगी हो सकती है तो यहाँ आप सभी के लिए प्रस्‍तुत कर रही हूँ।
दोहा - कक्षा - सार
1- दोहे की दो पंक्तियों में चार चरण होते हैं।
2- प्रथम एवं तृतीय चरणों में 13-13 मात्राएं होती हैं ये विषम चरण हैं तथा द्वितीय और चतुर्थ चरणों में 11-11 मात्राएं होती हैं और ये सम चरण हैं।
3- द्वितीय और चतुर्थ चरण का अन्तिम शब्‍द गुरु-लघु होता है। जैसे और, खूब, जाय आदि। साथ ही अन्तिम अक्षर समान होता है। जैसे द्वितीय चरण में अन्तिम अक्षर म है तो चतुर्थ चरण में भी म ही होना चाहिए। जैसे काम-राम-धाम आदि।
4- गुरु या दीर्घ मात्रा के लिए 2 का प्रयोग करते हैं जबकि लघु मात्रा के लिए 1 का प्रयोग होता है।
5- दोहे में 8 गण होते हैं जिनका सूत्र है यमाताराजभानसलगा। ये गण हैं-
य गण यमाता 122
म गण मातारा 222
त गण ताराज 221
र गण राजभा 212
ज गण जभान 121
भ गण भानस 211
न गण नसल 111
स गण सलगा 112
6- दोहे के सम चरणों के प्रथम शब्‍द में जगण अर्थात 121 मात्राओं का प्रयोग वर्जित है।
7- मात्राओं की गणना अक्षर के उच्‍चारण में लगने वाले समय की द्योतक हैं मात्राएं। जैसे अ अक्षर में समय कम लगता है जबकि आ अक्षर में समय अधिक लगता है अत: अ अक्षर की मात्रा हुई एक अर्थात लघु और आ अक्षर की हो गयी दो अर्थात गुरु। जिन अक्षरों पर चन्‍द्र बिन्‍दु है वे भी लघु ही होंगे। तथा जिन अक्षरों के साथ र की मात्रा मिश्रित है वे भी लघु ही होंगे जैसे प्र, क्र, श्र आदि।  आधे अक्षर प्रथम अक्षर के साथ संयुक्‍त होकर दीर्घ मात्रा बनेंगी। जैसे प्रकल्‍प में प्र की 1 और क और ल्‍ की मिलकर दो मात्रा होंगी।
8- जैसे गजल में बहर होती है वैसे ही दोहों के भी 23 प्रकार हैं। एक दोहे में कितनी गुरु और कितनी लघु मात्राएं हैं उन्‍हीं की गणना को विभिन्‍न प्रकारों में बाँटा गया है। जो निम्‍न प्रकार है - 
१. भ्रामर २२ ४ २६ ४८
२. सुभ्रामर २१ ६ २७ ४८
३. शरभ २० ८ २८ ४८
४. श्येन १९ १० २९ ४८
५. मंडूक १८ १२ ३० ४८
६. मर्कट १७ १४ ३१ ४८
७. करभ १६ १६ ३२ ४८
८. नर १५ १८ ३३ ४८
९. हंस १४ २० ३४ ४८
१०. गयंद १३ २२ ३५ ४८
११. पयोधर १२ २४ ३६ ४८
१२. बल ११ २६ ३८ ४८
१३. पान १० २८ ३८ ४८
१४. त्रिकल ९ ३० ३९ ४८
१५. कच्छप ८ ३२ ४० ४८
१६. मच्छ ७ ३४ ४२ ४८
१७. शार्दूल ६ ३६ ४४ ४८
१८. अहिवर ५ ३८ ४३ ४८
१९. व्याल ४ ४० ४४ ४८
२०. विडाल ३ ४२ ४५ ४८
२१. श्वान २ ४४ ४६ ४८
२२. उदर १ ४६ ४७ ४८
२३. सर्प ० ४८ ४८ ४८
दोहा छंद के अतिरिक्‍त रोला, सोरठा और कुण्‍डली के बारे में भी हमने जानकारी प्राप्‍त की है। इनका सार भी निम्‍न प्रकार से है -
रोला यह भी दोहे की तरह ही 24-24 मात्राओं का छंद होता है। इसमें दोहे के विपरीत 11/13 की यति होती है। अर्थात प्रथम और तृतीय चरण में 11-11 मात्राएं तथा द्वितीय और चतुर्थ चरण में 13-13 मात्राएं होती हैं। दोहे में अन्‍त में गुरु लघु मात्रा होती है जबकि रोला में दो गुरु होते हैं। लेकिन कभी-कभी दो लघु भी होते हैं। (आचार्य जी मैंने एक पुस्‍तक में पढ़ा है कि रोला के अन्‍त में दो लघु होते हैं, इसको स्‍पष्‍ट करें।)
कुण्‍डली कुण्‍डली में छ पद/चरण होते हैं अर्थात तीन छंद। जिनमें एक दोहा और दो रोला के छंद होते हैं। प्रथम छंद में दोहा होता है और दूसरे व तीसरे छंद में रोला होता है। लेकिन दोहे और रोले को जोड़ने के लिए दोहे के चतुर्थ पद को पुन: रोने के प्रथम पद में लिखते हैं। कुण्‍डली के पांचवे पद में कवि का नाम लिखने की प्रथा है, लेकिन यह आवश्‍यक नहीं है तथा अन्तिम पद का शब्‍द और दोहे का प्रथम या द्वितीय भी शब्‍द समान होना चाहिए। जैसे साँप जब कुण्‍डली मारे बैठा होता है तब उसकी पूँछ और मुँह एक समान दिखायी देते हैं।
उदाहरण
लोकतन्‍त्र की गूँज है, लोक मिले ना खोज
राजतन्‍त्र ही रह गया, वोट बिके हैं रोज
वोट बिके हैं रोज, देश की चिन्‍ता किसको
भाषण पढ़ते आज, बोलते नेता इनको
हाथ हिलाते देख, यह मनसा राजतन्‍त्र की
लोक कहाँ हैं सोच, हार है लोकतन्‍त्र की

दौलत पाय न कीजिये, सपने में अभिमान.
चंचल जल दिन चारि को, ठाऊँ न रहत निदान.
ठाऊँ न रहत निदान, जियत जग में जस लीजै.
मीठे बचन सुने, बिनय सब ही की कीजै.
कह गिरिधर कविराय, अरे! यह सब घट तौलत.
पाहून निशि-दिन चारि, रहत सब ही के दौलत.

सोरठा सोरठा में भी 11/13 पर यति। लेकिन पदांत बंधन विषम चरण अर्थात प्रथम और तृतीय चरण में होता है। दोहे को उल्‍टा करने पर सोरठा बनता है।
जैसे - 
दोहा: काल ग्रन्थ का पृष्ठ नव, दे सुख-यश-उत्कर्ष.
करनी के हस्ताक्षर, अंकित करें सहर्ष.

सोरठा- दे सुख-यश-उत्कर्ष, काल-ग्रन्थ का पृष्ठ नव.
अंकित करे सहर्ष, करनी के हस्ताक्षर.

सोरठा- जो काबिल फनकार, जो अच्छे इन्सान.
है उनकी दरकार, ऊपरवाले तुझे क्यों?

दोहा- जो अच्छे इन्सान है, जो काबिल फनकार.
ऊपरवाले तुझे क्यों, है उनकी दरकार?



Sunday, December 26, 2010

बड़े लोग अपनी चलाते हैं, वे बदमिजाज होते हैं – अजित गुप्‍ता

एक वाकया याद आ रहा है। मेरे विवाह का अवसर था और मेरे पिताजी एक युवा डॉक्‍टर बराती से बहस कर रहे थे।
पिताजी मैं कहता हूँ कि बड़े लोग ज्‍यादा बदमिजाज होते हैं, छोटों के मुकाबले।
डॉक्‍टर नहीं, नहीं, आप यह क्‍या कह रहे हैं? बड़े तो बड़े हैं।
कुछ देर ऐसी ही बहस चलती रही। फिर अचानक ही पिताजी गरजे और गरजकर बोले कि मैं कह रहा हूँ ना कि बड़े लोग बदमिजाज होते हैं
एक मिनट का मौन छा गया, डॉक्‍टर चुप हो गया। फिर धीरे से पिताजी बोले कि मैंने क्‍या कहा था? अब समझ आया?।
कल से ही यह घटना मुझे बारबार याद आ रही है। भारत में बड़ों को बहुत सम्‍मान दिया जाता है इसलिए वे अपना अधिकार समझ लेते हैं छोटों को टोकाटोकी करने का। जहाँ भी गड़बड़ी देखी नहीं कि फटाक से टोक देंगे कि नहीं ऐसा मत करो। आज के दस पंद्रह वर्ष तक तो यह टोकाटोकी और बड़ों की बात मानने की परम्‍परा जायज थी लेकिन आज बदल गयी है।
दुनिया के ऐसे देश जिनसे नवीन पीढ़ी अनुप्राणित होती हैं वहाँ छोट-बड़े की परम्‍परा नहीं है। ऑफिस में 60 वर्ष के बॉस को भी नवयुवा कर्मचारी नाम लेकर ही पुकारता है। सभी की बात एक समान ही सुनी जाती है और वहाँ के बड़े, युवाओं की किसी भी बात पर टांग नहीं अड़ाते हैं। यही परम्‍परा आज भारत में भी आ गयी है। जब मेरी बेटी फोन पर अपने बॉस से बात कर रही थी और उसे नाम लेकर बुला रही थी तब मैं सन्‍न रह गयी थी। घर में भी यह अन्‍तर स्‍पष्‍ट दिखायी देता है। आज की युवा पीढ़ी से जब बात करते हैं तो वे बराबर की बहस करते हुए आपकी बात को खारिज कर देते हैं। उनकी मानसिकता में कहीं नहीं है कि आपकी बात मानेंगे। बल्कि हमेशा यही दृष्टिगोचर होता है कि वे आपकी बात कभी नहीं मानेंगे।
मैंने इस विषय पर कल बहुत मनन किया। मुझे लगा कि हम दोहरी जिन्‍दगी जी रहे हैं। एक तरफ अपने संस्‍कारों से लड़ रहे हैं जो हमारे अन्‍दर कूट-कूटकर भरे हैं और दूसरी तरफ उस पीढ़ी को अनावश्‍यक परेशान कर रहे हैं जिसने छोटे और बड़े का भेद मिटा दिया है। हमें अब विदेशी जीवन शैली का अध्‍ययन करना चाहिए और उसे ही अपने जीवन का अंग बना लेना चाहिए। यदि सुखी रहना है तो। पुराने जमाने में भी भारत में ॠषि-मुनियों ने यही कहा था कि पचास वर्ष के बाद वानप्रस्‍थी बन जाना चाहिए। अर्थात समाज की सेवा करो और परिवार में सारे अधिकार युवा पीढ़ी को दे दो। 75 वर्ष बाद तो संन्‍यास लेकर एकदम ही मोह माया छोड़ दो।
यहाँ ब्‍लाग जगत में हम जैसे लोग भी आ जुटे हैं। अपने बड़े होने का नाजायज फायदा उठाते रहते हैं और लोगों को टोकाटोकी कर देते हैं। किसी की भी रचना पर टिप्‍पणी कर देते हैं कि यह ठीक नहीं है, वह ठीक नहीं है। इसे ऐसे सुधार लो उसे वैसे सुधार लो। कहने का तात्‍पर्य यह है कि हम जैसे लोग अपनी राय का टोकरा लेकर ही बैठे रहते हैं। व्‍यक्तिगत जीवन में भी हस्‍तक्षेप कर देते हैं कि ऐसा मत करो, वैसा करो। जब सामने वाला पूछता है कि आप कौन? तब ध्‍यान आता है कि अरे काहे को पुरातनपंथी सोच को घुसाएं जा रहे हैं? इसलिए मित्रों फालतू की टोकाटोकी नहीं, सब स्‍वतंत्र हैं। अपने परिवार में सुखी रहना है तो अपने काम से काम रखो। पचास की आयु के बाद युवा पीढ़ी को स्‍वतंत्रता दो और अपना अधिकतर समय घर के बाहर निकालो। वे क्‍या पहनते हैं, क्‍या खाते-पीते हैं, ये उनका मामला है, तुम्‍हें इससे कोई लेना देना नहीं रखना चाहिए।
मैं तो मानती हूँ कि आज की पीढ़ी फिर भी बहुत शरीफ है जो आपको तमीज से उत्तर दे रही है। कल को ऐसा बोले कि रे बुढें/बुढियाओं अपना काम करो, हम क्‍या कर रहे हैं और क्‍या लिख रहे हैं इसपर हमें सीख मत दो। आदि आदि। इसलिए आज पचास के पार लोगों को अपनी हद में रहना सीखना चाहिए। उन्‍हें युवापीढ़ी के साथ रहना है तो उनके तौर तरीके सीखने ही होंगे नहीं तो उन्‍हें उपहास का पात्र बनकर किसी कूड़े के ढेर में डाल दिया जाएंगा। तो मित्रों मैं तो अब सीखने में लगी हूँ। आपका क्‍या ख्‍याल है, सीखेंगे या अपना अड़ियल रवैया जारी रखेंगे?  

Thursday, December 23, 2010

लघु कथा के वर्तमान दौर में कैसे करे लेखन? – अजित गुप्‍ता


वर्तमान दौर लघुकथा लेखन का है। पूर्व में किसी भी पत्रिका में सद-विचार या चुटकुले प्राथमिकता से पठनीय होते थे। लेकिन आज इनका स्‍थान लघुकथाओं ने ले लिया है। लघुकथाएं जहाँ भारत में भी अपना स्‍थान बना रही है वहीं विदेशों में प्रतिष्‍ठापित हो चुकी है। आज इन्‍टरनेट पर विदेशी लघुकथाओं के अनुवाद प्रतिदिन पढ़ने को मिलते हैं। एक से एक बढि़या और नायाब। लेकिन जब भारत की स्थिति पर दृष्टि डालते हैं तब मायूसी ही हाथ लगती है। आज का लेखक लघुकथा का शिल्‍प जाने बिना ही लघुकथा लिख रहा है। इस कारण पाठक पर अपेक्षित प्रभाव नहीं दिखायी देता है। मैंने लघुकथा पर विद्वानों से परामर्श किया, उनके आलेख पढे और कार्यशाला भी आयोजित की। इस कार्यशाला का उल्‍लेख विकीपीडिया पर भी है।
मैं यहाँ अपनी बात सरल शब्‍दों में लिखने का प्रयास कर रही हूँ, जिससे पाठक और लेखक लघुकथा के बारे में आसानी से समझ सके। साहित्‍य में लघुकथा को परिभाषित करने के लिए मैंने गद्य में चुटकुले और पद्य में दोहे और शेर का प्रयोग किया है। यदि आप दोहे और गजल के एक शेर को देखेंगे तो पाएंगे कि एक दोहा और एक शेर अपने आपमें परिपूर्ण होता है। दोहे और शेर में चार चरण होते हैं लेकिन अन्तिम चरण सबसे उपयोगी होता है। कवि या शायर की बात अन्तिम चरण से ही स्‍पष्‍ट होती है और हमें चमत्‍कृत कर देती है। यदि दोह और शेर में चमत्‍कृत करने की क्षमता नहीं है तो फिर वह खारिज कर दिया जाता है। इसी प्रकार गद्य में हम अपनी बात चुटकुले के रूप में जब कहते हैं तब अन्तिम पंक्ति में हास्‍य उत्‍पन्‍न होता है। चुटकुले और लघुकथा में बस यही अंतर है कि चुटकुले के अन्‍त में हास्‍य पैदा होता है लेकिन लघुकथा के दर्शन से व्‍यक्ति चमत्‍कृत होता है जैसा कि दोहे और शेर में होता है।
लघुकथा में वर्णन की गुंजाइश नहीं है, जैसे चुटकुले में नहीं होती, सीधी ही केन्द्रित बात कहनी होती है। कहानी विधा में उपन्‍यास और कहानी के बाद लघुकथा प्रचलन में आयी है। उपन्‍यास में सामाजिक परिदृश्‍य विस्‍तार लिए होता है ज‍बकि कहानी में व्‍यक्ति, चरित्र, घटना जैसा कोई भी एक बिन्‍दु केन्द्रित विषय रहता है जिसमें वर्णन की प्रधानता भी रहती है लेकिन लघुकथा में दर्शन प्रमुख रहता है। लघुकथा का प्रारम्‍भ किसी व्‍यक्ति के चरित्र या घटना से होता है लेकिन अन्‍त पलट जाता है और अधिकतर सुखान्‍त होता है। व्‍यक्ति का जो चरित्र हम समझ रहे थे वह परिवर्तित हो जाता है और पाठक चमत्‍कृत हो जाता है कि इस व्‍यक्ति या समाज के चरित्र का यह एक रूप भी और विद्यमान है।  कभी-कभी लघुकथा का समापन व्‍यंग्‍य में भी होता है लेकिन इसे हास्‍य से पृथक स्‍थापित करना होगा।
मैंने कुछ उपयोगी बिन्‍दु आप सभी के लिए यहाँ प्रस्‍तुत किये हैं। लघुकथा मुझे हमेशा से ही प्रभावित करती रही हैं इसलिए जब मैंने इस विषय पर एक कार्यशाला का आयोजन किया तब संयोजक ने सभी को एक पेपर दे दिया और कहा कि अभी दस मिनट के अन्‍दर एक लघुकथा लिखनी है। मैंने इससे पूर्व कोई भी लघुकथा नहीं लिखी थी। मैं चाहती तो नहीं भी लिखती लेकिन मैंने सोचा कि इस कार्यशाला का उद्देश्‍य तभी पूर्ण होगा जब मैं भी इसमें एक लघुकथा लिखू। एकदम से कोई कथानक ध्‍यान में आना बड़ा ही कठिन विषय है। मैंने उस सुबह का चिन्‍तन किया कि सुबह क्‍या हुआ था और मुझे लघुकथा का विषय मिल गया। मैंने अपनी पहली लघुकथा लिख दी थी लेकिन डर था कि वह कही मापदण्‍डों पर खरी नहीं उतरी तो प्रतिष्‍ठा दांव पर लग जाएगी। मुझे तत्‍काल ही दूसरे कार्यक्रम में जाना था तो मैं बिना परिणाम जाने ही वहाँ से रवाना हो गयी। लेकिन मुझे सुखद आश्‍चर्य हुआ कि मेरी लघुकथा प्रथम आयी। एक बार तो मैंने समझा कि मेरे पद के कारण ऐसा हुआ है लेकिन जब मैंने अन्‍य लघुकथाएं देखी तो समझा कि नहीं पद के कारण ऐसा नहीं हुआ है। मुझे संतोष हुआ और फिर मैंने लघुकथा लिखना प्रारम्‍भ किया। उसी का परिणाम है कि मैं अपना लघुकथा संग्रह प्रकाशित करा सकी।
इसी संग्रह से एक लघुकथा प्रस्‍तुत है -
किसका नरक बड़ा

मोहन काका कच्ची बस्ती में घूम रहे हैं। वे एक घर के बाहर कुछ देर बैठ जाते हैं। घर के बाहर गन्दी नाली बह रही है, उसमें सूअर लौट रहे हैं। पास ही दो कुत्ते लड़ रहे हैं। अन्दर से औरतों के झगड़ने की आवाजें आ रही हैं। एक बूढ़ा व्यक्ति खाट पर लेटा है, वह चिल्ला रहा है अरे मुझे भी तो रोटी दे दो, सुबह से शाम हो गयी, अभी तक पेट में दाना भी नहीं गया है।
तभी सुरेश सायकिल चलाता हुआ मोहन काका के पास चला आता है। उन्हें देखते ही बोलता है कि काका आप यहाँ क्या कर रहे हैं? गन्दी बस्ती में घूम रहे हैं। क्या आप पागल हो गए हैं?’
नहीं रे वापस अपनी कोठी जाने पर मुझे वहाँ का नरक भी अच्छा लगने लगे इसीलिए ही घूम रहा हूँ।

Saturday, December 18, 2010

यादों के भँवर जब बनते हैं तो शब्‍द कहाँ-कहाँ टकराते हैं? - अजित गुप्‍ता


आज सुबह से ही मन में भँवर सा उमड़ रहा है। भावनाओं के तूफान में बेचारे शब्‍द तेजी से घूम रहे हैं। उन्‍हें कहीं कोई मार्ग ही नहीं मिल रहा कि बचकर किधर से निकला जाए? कभी यह भँवर गोल-गोल घूमता हुआ बचपन में ला पटकता है जहाँ कभी बस बालू के टीले ही टीले थे और उन्‍हीं टीलों पर चढ़ते उतरते जीवन में कैसे एक-एक पैर बालू रेत पर धंसाते हुए चढ़ा जाता है, सीख लिया था। तो कभी वर्तमान में हमारी यादों को ला पटकता है यह भ्रमर। जहाँ न‍हीं है मखमली बालू और नहीं है बालू जैसा स्‍वभाव, जब कोई भी मन का कलुष, दाग बनकर नहीं चिपकता था। कभी माँ का स्‍मरण हो जाता है तो कभी पिता का, इन्‍हीं के बीच एक जोरदार लहर आती है और यादों की सुई बच्‍चों पर आ अटकती है। कभी बचपन के संगी साथी याद आ जाते हैं और कभी भाई-बहन। दुश्‍वारियों में भी रोज ही इन्‍द्रधनुष निकल आया करते थे और आज कहीं दूर-दूर तक भी कोई रंग नहीं है।
एक-एक मौसम जीवन्‍त होने लगे हैं। बरसात में कौन से पेड़ पर कोयल आकर बोलेगी और कौन सी चिड़िया गाने लगेगी, सभी का हिसाब था। रेतीली धरती पर जैसे ही बरखा की बूंदे पड़ती बस शुरू हो जाता पहल-दूज का खेल। बरसते मेह में जैसे ही कहीं सूरज को खिड़की मिलती झट से अपना चेहरा दिखा जाता और हम सब ताली बजाकर नाच उठते कि सियार का विवाह हो रहा है। सर्दी आते ही सूरज कैसा तो प्‍यारा-प्‍यारा लगने लगता। सुबह से ही उसका इंतजार होता और शाम ढले तक उसकी चाहत रत्ती भर भी कम नहीं होती। तिल-गुड़, मूंगफली तो ऐसे खाये जाते जैसे अब दवाइयां खायी जाती हैं। दिन में तीन बार। पिताजी बोरी भरकर मूंगफली लाते और बोरी भरकर ही गुड़। अब तो आधा किलो ही पड़ा-पड़ा खराब हो जाता है। इन सबके बीच गर्मी भी क्‍या गर्मी थी? तपती रेत, यदि चने भी उसमें डाल दो तो भूंगडे बन जाए लेकिन हम तो उसी के बीच चलते रहे। मानो भगवान ने कहा हो कि तप लो जितना तपना है, जिन्‍दगी में इससे भी ज्‍यादा तपन है। तब ना कूलर थे और ना ही एसी। पंखा भी पूरे घर में एक। लेकिन बचपन ने कहाँ माना है गर्मी का कहना। बस जहाँ-जहाँ से धूप जाती वहाँ-वहाँ हम होते और गर्मी की राते तो इतनी हसीन थी कि भुलाए नहीं भूलती। हवा का पत्ता भी नहीं हिलता लेकिन न जाने कितने ही टोटके बता दिये जाते कि ऐसा करने से हवा चलेगी। कोई कहता कि सात काणों के नाम लो तो हवा चलेगी। अब हम सब लग जाते एकाक्षी को ढूंढने। रेत भी रात को ठण्‍डी हो जाती और हम उसमें लोट-पोट करते रहते। कैसी थी वह बालू रेत? हाथ से सर से सरक जाती, कुछ भी पीछे छोड़कर नहीं जाती। और अब? धूल, काली धूल, उड़ती है कभी कपड़े काले तो कभी मन काला। यह कार्बन वाली धूल ना दिन में ठण्‍डी होती है और ना रात को।
इन सारी यादों के बीच लग रहा है कि शायद यह उम्र यादों को समेटने की ही है। सारा वैभव आसपास फैला है लेकिन मन उस अभाव के चक्‍कर लगा रहा है। बच्‍चों का प्रेम भी टेलीफोन और नेट से खूब मिल ही जाता है लेकिन फिर भी पिताजी की डांट और मार क्‍यों याद आने लगती है? क्‍यों वो माँ याद आती है जिसने जिन्‍दगी में ह‍में केवल डरना ही सिखाया। अरे यह मत करो और वह मत करो बस यही हमेशा बोलती रही और हमें कभी पिताजी से कभी भाई से डराती रही। आज कोई नहीं है ना डराने वाला और ना डांटने-मारने वाला। समय के साथ वह डांट, वह डर कहीं दिखायी नहीं देता केवल अपने मन के अन्‍दर के अतिरिक्‍त। बच्‍चों को गुस्‍से में भी डांट दो तो वे सीरियसली नहीं लेते बस हँस देते हैं। जब डांट का ही असर नहीं तो डर तो कैसा? यहाँ जिन्‍दगी भर डांट और डर को दिल में बसाये रहे कि वसीयत आगे देकर जाएंगे लेकिन अब तो कोई इस फालतू चीज को अंगीकार ही नहीं करता। ओह मैं भी ना जाने किस भँवर में फंसकर बस यादों के बीच चक्‍कर काट रही हूँ, आप लोग भी सोच रहे होंगे कि हम भला क्‍यों उलझे इस भ्रमर में? लेकिन शायद हमें ऐसे ही भ्रमर जीने का मार्ग बताते हैं और कहते हैं कि दुनिया बदल गयी है सचमुच बदल गयी हैं। तुम तो अपनी नाव को पतवार से खेते आए थे लेकिन अब तो नाव का ही जमाना कहाँ रहा? 

Saturday, December 11, 2010

व्यंग्य - सतयुग का आगमन अर्थात कलियुग का अन्‍त - अजित गुप्‍ता

बड़े-बूढे़ कहते हैं कि कलियुग चल रहा है। लेकिन मुझे लगने लगा है कि हम सतयुग की दहलीज पर खड़े हैं। आपको विश्वास नहीं होता न? कैसे होगा? जब चारों तरफ घनी अँधेरी रात हो, तब कोई खिली-खिली सुबह की बात कैसे कर सकता है? बस हमारे देखने और समझने का यही अन्तर है। जैसे घर और सरकार दोनों में ही नारियों का राज कायम है लेकिन पुरुष अपने आपको ही सरदार मानकर चलते हैं। हम सब जानते हैं कि रात के बाद ही सुबह होती है। इसलिए मैं कहती हूँ कि सतयुग आने वाला है। अभी कलयुग की पराकाष्ठा है इसलिए अंधकार समाप्ति की ओर है। मेरी इस बात से  आप भी सहमत होंगे कि हजारों-लाखों वर्षों से मनुष्य इन्द्रिय निग्रह के प्रयास कर रहा है। लेकिन प्रयोग सफल होता नहीं। जिस युग में इन्द्रिय निग्रह नहीं हो सके वह कलियुग और जब हो जाए वही सतयुग। आपको मैं रोड शो के माध्यम से समझाने का प्रयास करती हूँ, क्योंकि आज राजनेता से भी जनता भाषण की मांग नहीं करती, बस उसके रोड-शो से ही खुश हो जाती है तो आप एक दृश्य देखिए, विश्वामित्र तपस्या में लीन हैं, उन्हें लग रहा है कि मैंने ज्ञान प्राप्ति कर ली है और मेरी इन्द्रियां अब मेरे वश में हैं, तभी स्वर्ग से मेनका उतरती है और अपने नृत्य प्रदर्शन से विश्वामित्र की तपस्या भंग कर देती है। वर्षों की तपस्या, एक अप्सरा ने क्षण भर में भंग कर दी! नारी के दो ठुमके भी तपस्वी पुरुष बर्दास्त नहीं कर पाए तो इसका अर्थ हुआ कि उस काल का मनुष्य आत्मबल क्षीण था। राम-राम घोर कलियुग।
काल आगे बढ़ा, ऋषि-मुनियों की तपस्या-परम्परा समाप्त हुई। शायद समाप्त भी इसलिए हुई कि कभी मेनका और कभी उर्वशी, तपस्वियों की तपस्या भंग करने में सफल हो जाती थी। लोगों ने सोचा कि अब गृहस्थ ही रहा जाए। अनावश्यक तपस्या का बोझ, ईमानदारी के भूत की तरह लोगों के मन से उतर गया और एक नए सत्य का आगमन हुआ। गृहस्थी में रहने से स्वतः ही इन्द्रियनिग्रह हो जाता है। पत्नी के साथ लगातार वर्षों तक रहने से व्यक्ति पर सवार कामदेव वैसे ही भाग छूटता है जैसे बिल्ली को देखकर चूहा। उसे चाँद सा मुख - जेठ का सूर्य, बलखाती मनीप्लांट सी जुल्फे - निरीह पेड़ पर चढ़ी अमरबेल सी लगने लगती हैं। लेकिन फिर भी कुछ लोगों ने संन्यास की परम्परा को जीवित रखा और जंगलों के स्थान पर मठों और मंदिरों में जाकर बैठ गए। इसका भी कारण था कि अब तपस्या के लिए वन में तो नहीं जाना था, अपितु घर के जंजाल से मुक्त होकर आनन्द से जीवन व्यतीत करना था। संन्यासी भी कहलाएं और समस्त भौतिक सुख भी उपलब्ध हों! इस कारण उनकी तपस्या में वह कशिश नहीं थी कि कोई अप्सरा उतर कर आए और उनका तप भंग कर सके। क्योंकि मठों और मंदिरों में तो वैसे ही देवदासियां और बाल विधवाएं रहती थी तो उनके तप भंग करने के लिए इंद्रदेव को कोशिश नहीं करनी पड़ती थी। न ही इंद्र का सिंहासन डोलता था, क्योंकि उनसे उसे कोई खतरा जो नहीं था। इन्द्र भी अब बार-बार धरती पर नहीं आता था, क्योंकि यहाँ के इन्द्रों ने राजनीति में दक्षता प्राप्त कर ली थी। खैर, धीरे-धीरे समय के साथ स्वर्ग के द्वार बंद होने लगे अब केवल वन वे ट्रेफिक ही स्वर्ग के लिए था, अर्थात पृथ्वी से लोग जा तो सकते थे लेकिन स्वर्ग से अप्सराएं आ नहीं सकती थी। अतः पृथ्वी से अप्सरा परम्परा का समापन हो गया।
चलचित्र की दुनिया प्रारम्भ हुई। स्वर्ग की अप्सराओं का ठेका समाप्त हुआ और न्यूनतम दरों के टेण्डर के कारण पृथ्वी की अप्सराओं को ही कार्य मिल गया। अब उन्होंने ही नृत्य कर पुरुषों को रिझाने का कार्य प्रारम्भ किया। ऋषियों की परम्परा भी शेष नहीं थी, तो आम व्यक्ति को यह सुविधा उपलब्ध होने लगी। वैसे भी सामन्तशाही समाप्त होकर आम व्यक्ति का राज आ गया था। फिल्मों के माध्यम से यह अपरोक्ष दर्शनीय सुविधा सभी को उपलब्ध करायी गयी। प्रत्यक्ष रूप से एवं स्पर्श के लिए अप्सराएं नायकों के लिए थीं। अप्सरा रूपी नायिका बुरका पहनकर, हाथ में किताबें लेकर, सड़क पर चली जा रही है, सामने से नायक अपने ख्यालों में खोया हुआ, बेसुध-सा चला आ रहा है। परिणाम - टक्कर। किताबें बेतरतीब सी सड़क पर। नायक किताबों को कम और बुरके से झांकती नायिका की आँखों को समेटने में लग जाता है। पहले मेनका को कितना नृत्य करना पड़ा था, तब कहीं जाकर कामदेव उपस्थित हुए थे और अब पलकों के झुकने-मुंदने से ही नायक के दिल में तीर उतर जाता है। तब घोर कलयुग था, राम! राम! लेकिन अब सतयुग आने लगा था। चलचित्र की यात्रा आगे बढ़ी। तंग सलवार सूट से लेकर जीन्स, स्कर्ट तक जा पहुँची। नायक और नायिकाओं के माध्यम से जनता, धीरे-धीरे कमनीयता से अभ्यस्त होने लगी। अब पाकीजा के राजकुमार की तरह केवल पाँव की एड़ी देखकर ही फिदा होना सम्भव नहीं था। अब तो पूरी खुली टांगे भी कामदेव को आमन्त्रित नहीं कर पाती थी।
राजकपूर जैसे शो मैन ने फिल्मी दुनिया में अपने जलवे बिखेरने प्रारम्भ किए और सत्यम्-शिवम्-सुंदरम्से लेकर राम तेरी गंगा मैली हो गयीजैसी धार्मिक नामों वाली फिल्मों में अप्सराओं को उतारने का प्रयास किया गया। दर्शकों की निगाहें अब आँखों और ऐड़ी से आगे बढ़ीं। अब उनकी आँखें अप्सरा के शरीर के और करीब पहुँच चुकी थीं। नारी को जानने और पाने की ललक के वे बहुत करीब पहुँच गए थे। अर्थात ज्ञान प्राप्ति के काफी नजदीक था आम दर्शक। इन्द्रिय भी वश में होने लगी थी। जहाँ राजेन्द्र कुमार, बुरके से झांकती आँखों से ही घायल हो गए थे और राजकुमार साड़ी से बाहर निकलती पैरों की एड़ियों से ही दिल गँवा चुके थे, वहीं अब टोप लेस, बेक लेस, तक का जमाना आ चुका था और नारी शरीर को देखने की आदत बन चुकी थी। फिर इन्द्रियों को वश में करने का नुस्खा फिल्मों से दूरदर्शन ने भी ले लिया। अब तो घर-घर में विश्वामित्र की तपस्याएँ होने लगी। जब भी कामदेव आते, व्यक्ति दूरदर्शन खोलकर उनका स्वागत करते और धीरे-धीरे उनसे पीछा छुड़ाने में अभ्यस्त होते गए।
फिर आया, रीमिक्स का जमाना। इसी जमाने से हुई सतयुग की शुरुआत। रीमिक्स गानों की अप्सराएँ इस तरह से उछल-कूद करती हैं जैसे रावण के दरबार की राक्षसियाँ। बेचारे व्यक्ति के दिल और दिमाग से अप्सराओं का भूत पूरी तरह से उतर गया और उनकी जगह सूर्पणखा ने ले ली। काफी हद तक जनता का इन्द्रिय वशीकरण यज्ञ सफल हुआ। लेकिन फिर भी यदा-कदा कामदेव का बाण चल ही जाता। अभी हाल ही में सूर्पणखा जैसी अप्सरा ने एक गायक कलाकार का तेज भंग करने का प्रयास किया और वह उसमें सफल भी हुई। जैसे ही गायक पर बाणों की बोछार हुई, साक्षात कामदेव उसके होठों पर आकर बिराजमान हो गए। एक जमाने में लक्ष्मणजी ने सूर्पणखा की ऐसी धृष्टता पर नाक काट दी थी लेकिन आज परिस्थितियां बदल गयी थी। गायक ने तत्काल बाण का प्रत्युत्तर, और भी तीक्ष्ण बाण से दे दिया था। फिर गायक लक्ष्मण भी नहीं था, वैसे वह भी छोटा भाई ही था लेकिन अब कहाँ हैं, राम और लक्ष्मण की परम्परा? सूर्पणखा को ऐसा प्रत्युत्तर नागवार गुजरा और उसने पुलिस रूपी रावण के दरबार में दस्तक दे दी। रावण बोला कि जब लक्ष्मण तुम्हारे बाणों से विचलित नहीं हुआ था और उसने तुम्हारी नाक काट ली थी, तब तुम आहत हुईं थी, लेकिन आज, जब एक बेचारा प्राणी, तुम्हारे बाणों से घायल होकर, तुम्हें बाहुपाश में जकड़कर तुम्हारा विष पी लेता है, तब तुम क्यों विचलित होती हो? सूर्पणखा बोली कि मुझे इससे आपत्ति नहीं, बस आपत्ति है, तो परम्परा के निर्वहन की। विश्वामित्र ने मेनका से विवाह किया था, तो मेरे भी प्रेम निवेदन पर उसे दयालुता के साथ, विवाह का प्रस्ताव रखना चाहिए था। जिसे में मौल-भाव करते हुए स्वीकार करती, या नहीं भी करती। सार्वजनिक रूप से प्रत्युत्तर देने से हम सूर्पणखाओं की परम्परा पर आघात हुआ है। इस सारे वाद-विवाद के कारण और गायक की दुर्दशा देखकर सारे ही दर्शकों ने सबक लिया। उन्हें फिर ज्ञान प्राप्ति हुई कि सूर्पणखा की बात मानो तब भी खतरा है। मनुष्य अपनी इन्द्रियनिग्रह में एक कदम और आगे बढ़ गया।
आज चल-चित्र ही नहीं दूरदर्शन और आम सड़क पर चलती टापलेस, बेकलेस, मिनी स्कर्ट वाली अप्सराएँ आँखों को अभ्यस्त हो चली हैं। अब वे दिन लद गए जब मेनका ने नृत्य किया और विश्वामित्र की तपस्या भंग हो गयी। यह ही कलयुग कहलाता था। सतयुग में कामदेव कम सक्रिय होते हैं, वे अप्सराओं के नर्तन या अल्प वस्त्रों से डगमगाते नहीं हैं। अब तो लगने लगा है कि कामदेव कहीं चरित्र की भांति कथनीय पुराण ही नहीं रह जाए। आज ऐसी अप्सराओं के कारण या सूर्पणखाओं के कारण व्यक्ति के मन का कामदेव शांत हो चला है, अतः सतयुग का आगमन होने लगा है। अब तो तपस्या के लिए जंगल में जाने की आवश्यकता नहीं, बस दूरदर्शन खोलकर बैठिए और तपस्या कर लीजिए। प्रात-काल रामदेवजी जैसे प्राणायाम के द्वारा शरीर को शुद्ध करा रहे हैं वैसे ही सायंकालीन सभा में मनुष्यों के मन को शुद्ध किया जा रहा है। धीरे-धीरे मनुष्य का मन दृढ़ होने लगा है, बहुत जल्दी विचलित नहीं होता। ऐसे लगने लगा है कि मनुष्य की स्थिरप्रज्ञता बढ़ी है। हम सब चल-चित्र निर्माताओं और दूरदर्शन के कलाकारों के आभारी हैं, जिन्होंने स्त्री-पुरुष के बीच समता भाव का निर्माण किया। हम इसलिए भी खुश हैं कि हमारे जीते जी, हम सतयुग देखने की ओर बढ़ रहे हैं। मेरी इस ठोस दलील के बाद तो आप मानेंगे न कि सतयुग आ रहा है। जैसे-जैसे हम प्रकृति के करीब पहुँचेंगे, वैसे-वैसे हम सतयुग के करीब पहुँचते जाएंगे। इसलिए इस सूर्पणखा युग को आप धन्यवाद दीजिए और बढ़ जाइए सतयुग की ओर। 
हम गुलेलची - व्‍यंग्‍य संग्रह - अजित गुप्‍ता

Wednesday, December 8, 2010

राजस्‍थान को मेरी आँखों से देखो, हमें मालूम है प्रेम के मायने – अजित गुप्‍ता

 राजस्‍थान की जब बात आती है तब लोगों के मन में एक दृश्‍य उभरता है, बस बालू ही बालू। बालू के टीले, अंधड़, भँवर, कहीं कहीं उग आए केक्‍टस। ऊँट की सवारी और पानी को तरसता सवार। राह भटकते राहगीर। लेकिन इन सबसे परे भी कुछ और है राजस्‍थान में। राजस्‍थान का सेठाना, रंग बिरंगी चूंदड़, तीज-त्‍योहार, मेले-ठेले, और केक्‍टस पर लगा सुन्‍दर सा लाल फूल। आज का राजस्‍थान कभी राजपुताना था और इससे पूर्व रेगिस्‍तान या मरु भूमि। आज के राजस्‍थान में मरूभूमि भी है तो अरावली पर्वत मालाएं भी हैं। रेगिस्‍तान में खिलने वाले केक्‍टस पर लाल फूल हैं तो वादियों में लहलहाते खेत भी हैं। सात रंगों से बना है राजस्‍थान। सारे ही रंग हैं यहाँ। जिस धरती पर मीरां ने शाश्‍वत प्रेम के गीत गाए हों वह भूमि प्रेमरस से पगी हुई है। हम राजस्‍थानी प्रेम क्‍या है, इसे समझते हैं।
यहाँ के नायक ने सीमाओं को तोड़ा है, अपने देश से दूर विदेश तक में स्‍वयं को ना केवल बसाया है अपितु उस देश को भी सदा-सदा के लिए उन्‍नत कर दिया है। हजारों-लाखों युवा दिल जब राजस्‍थान से कूच करते हैं तब पीछे छूट गए उनके प्रेम को प्रेम और विरह के शब्‍द यहीं से मिले हैं। राजस्‍थानी कभी दुखी नहीं हुआ, उसने संघर्षों में से अपनी राह बनायी है। रेतीले धोरों में भी पानी निकाला है और आँधियों के साथ अपने को खड़ा किया है। यहाँ का कर्मठ व्‍यक्ति पंख लगाकर उड़ा है और सारी दुनिया को उसने नाप लिया है।
राजस्‍थान के आँचल में अनेक सभ्‍याएं पलती हैं, कहीं शेखावाटी है, कहीं मेवाड़, कहीं मारवाड़, कहीं बागड़, कहीं हाड़ौ‍ती, कहीं मेवात। सभी के अपने रंग हैं। लेकिन पधारो म्‍हारा देश की तान हर ओर सुनायी देती है। शेखावाटी और मारवाड़ में पी कहाँ का राग मोर अपने सतरंगी पंख फैलाकर सुनाते हैं तो मेवाड़ में कोयलिया बागों में कुहकती है। बागड़, मेवात और हाड़ौती के घने जंगलों में आज भी बाघों की दहाड़ सुनी जाती है। न जाने कितने सुन्‍दर और सुदृढ़ किले आज भी अपनी आन-बान-शान से पर्यटकों को सम्‍मोहित करते हैं। कितनी ही हवेलियां और उनमें बने झरोखें, राजसी ठाट-बाट का चित्र उपस्थित करते हैं।
राजस्‍थान में क्‍या नहीं हैं? यहाँ शौर्य रग-रग में टपकता है, यहाँ प्रेम नस-नस में बहता है और यहाँ त्‍याग कण-कण के बसता है। तभी तो कहते हैं कि म्‍हारो छैल-छबीलो राजस्‍थान। कभी यहाँ की मिट्टी को मुठ्ठी में उठाइए, इसका कण-कण सोने की आभा सा चमक उठेगा, आपके हाथों में कभी नहीं चिपकेगा बस हौले से सरक जाएगा। जब हवा अपनी रागिनी छेड़ती है तब यहाँ के मरूस्‍थल में स्‍वर लहरियाँ ताना-बाना बुनने लगती हैं और मरूस्‍‍थल पर बन जाते हैं अनगिनत मन के धोरे। बस इस बालू रेत को आहिस्‍ता से सहला दीजिए, मखमली अहसास दे जाएगी लेकिन कभी इसे उड़ाने की भूल की तो आँखों में किरकिरी बन चुभ जाएगी। इस बालू रेत का आकर्षण सारे ही आकर्षणों को फीका कर देता है तभी तो कहते हैं कि मरूस्‍थल में ही मरीचिका का जन्‍म होता है।
यहाँ की पहाडियां वीरगाथाओं से भरी पड़ी हैं। न जाने कितने किले सर उठाकर भारत के स्‍वाभिमान की रक्षा कर रहे हैं? कहीं चित्तौड़, कहीं रणथम्‍भोर, कहीं लौहागढ़ तो कहीं बूंदी का तारागढ़। सभी में न जाने कितनी कहानियां छिपी हैं। कहीं रानी पद्मिनी जौहर करती है तो कहीं हाड़ी रानी अपना सर काटकर युद्ध में जाते हुए अपने राणा को सैनाणी के रूप में दे देती है, कहीं पन्‍ना धाय अपने ही पुत्र का बलिदान राजवंश को बचाने के लिए कर देती है। कही राणा सांगा है तो कहीं राणा कुम्‍भा और महाराणा प्रताप। न जाने कितना इतिहास बिखरा है यहाँ? गाथा पूर्ण ही नहीं होगी, सदियों तक चलती रहेगी, अनथक।
बस ऐसा ही राजस्‍थान और ऐसे हैं राजस्‍थानवासी। जिसने भी यहाँ जन्‍म लिया है उसने इन सारे ही रंगों को अपने अन्‍दर संजोया है। यहाँ तपते रेगिस्‍तान में भी जब शाम ढलती है तब लोग स्‍वर लहरियां बिखेर देते हैं और जब पहाड़ों पर आदिवासी नंगे पैर चलता है तब भी वह प्रेम की धुन ही छेड़ता है। राजपूत जब युद्ध में जाते हैं तो वीर रस सुनायी पड़ता है और जब रानियों को जौहर करना पड़ता है तब भी करुण रस कहीं नहीं आता। यहाँ तो बस यही गीत गूंजता है मोरया आच्‍छयो बोल्‍यो रे ढलती रात में।
और अन्‍त में इस पोस्‍ट लिखने की भूमिका। http://satish-saxena.blogspot.com
पर सतीश जी ने इंदुपुरी गोस्‍वामी पर एक पोस्‍ट लिखी।
 मैंने उस पर यह टिप्‍पणी की -  राजस्‍थान वाले ऐसे ही प्रेम करते हैं। इस प्रेम को अनमोल समझ कर झोली में बांध लीजिए।

और अनामिका की सदाएं ने यह टिप्‍पणी की -
और डा.अजित जी क्या आप सच कह रही हैं ?

:):):):)
बस उसी प्रेम का उत्तर देने का प्रयास किया है कि राजस्‍थान वाले सदा प्रेम ही करते हैं।
   

Sunday, December 5, 2010

एक और लघुकथा - घर - अजित गुप्‍ता

आज किसी भी घर में दस्‍तक दीजिए, एक साफ-सुथरा सा बैठक खाना एकान्‍त में उदास सा बैठा हुआ मिलेगा। उसके सोफे को पता नहीं कि उस पर कितने दिन पहले कोई बैठा था और ना ही कालीन को पता होगा कि आखिरी पैर किसके यहाँ पड़े थे। बस नौकर ही रोज झाड़-पोछकर कमरे को बुहार देता है और दो जोड़ी बूढ़ी आँखे अपने साफ-सुथरे से करीने से सजे ड्राइंग रूम को देखकर कभी खुश हो लेते हैं और कभी दुखी। 
बरामदे में एक झूला लगा है, कभी-कभी कोई चिड़िया आकर चीं-चीं कर जाती है तब घर की मालकिन बड़े ही अरमानों से घर का दरवाजा खोलकर देख लेती है कि शायद कोई आया हो। बस यही है आज अधिकांश घरों की दास्‍तान। 
एक वृद्ध आदमी से एक दिन किसी ने पूछ लिया कि क्‍यों मियां घर में सब खैरियत से तो हैं। बस इतना पूछना था कि मियांजी भड़क गए। बोले कि क्‍या मतलब है तुम्‍हारा खैरियत से? पोते-पोती वाला आदमी हूँ, भरा-पूरा कुनबा है तो कभी कोई बीमार तो कभी कोई। क्‍या अकेला हूँ जो खैरियत पूछ रहे हो? परिवार वाला हूँ तो खैरियत कैसी?
परिवार में रहते हुए बच्‍चों की धमाचौकड़ी से कितना तो गुस्‍सा आता है लेकिन जब ये नहीं होते तब क्‍या घर, घर रह जाता है। एक लघुकथा पढिये और अपनी टिप्‍पणी दीजिए। 

घर
कमला ने आज अपनी सहेलियों को चाय पर आमंत्रित किया है। दिन में उसकी सभी अभिन्न सहेलियां समय पर ही घर आयी थीं लेकिन कमला का बैठक-खाना तितर-बितर देखकर उन्हें अजीब सा लगा।
अरे कमला ने अपना घर कैसा फैला रखा हैं? दोनों ही अकेले रहते हैं फिर भी इतना फैलावड़ा? सुमित्रा ने ताना कसा।
हो सकता है कि आज नौकरानी नहीं आयी हो, कुमुद बोली।
अरे क्या हुआ तो? जब हमें बुलाया है तो सफाई भी करनी ही चाहिए थी।
इतने में ही कमला इठलाती हुई, खुश-खुश बैठक-खाने में प्रवेश करती है। सभी उसे प्रश्नभरी निगाहों से देखती हैं।
देखो न बच्चों ने कैसा घर फैला दिया है, आज बहुत दिनों बाद इस घर में बच्चों ने उधम मचाया है। कितना अच्छा लग रहा है न यह घर। नहीं तो यह एक मकान ही बना हुआ था, एक होटल जैसा, सब कुछ सजा हुआ। कमला चहकती हुई बोले जा रही थी।
लघुकथा संग्रह - प्रेम का पाठ - अजित गुप्‍ता 

Thursday, December 2, 2010

लघुकथा - पूजनीय- अजित गुप्‍ता

पूजनीय
प्रसिद्ध साहित्यकार रामबल्लभजी का आज उद्बोधन है। मंच पर एक राजनेता, एक पूँजीपति भी बैठे हैं। रामवल्लभजी अपने उद्बोधन से पूर्व मंच को सम्बोधित करते हुए बोल रहे हैं कि पुज्यनीय नेता जी, पूज्यनीय सेठजी.......। लोग आश्चर्य में पड़ गए। रामवल्लभजी एक राजनेता और काली कमाई से बने सेठ को पुज्यनीय सम्बोधित कर रहे हैं! कार्यक्रम समाप्त हुआ, उनके शिष्य ने प्रश्न किया कि आप का सम्बोधन कितना उचित था? क्या आप भी राजनेता और पूँजीपतियों को पूजनीय मानते हैं?
हाँ। क्योंकि भारत में हम साँपों की भी पूजा करते हैं।

Sunday, November 28, 2010

दुख के सब साथी सुख में ना कोय - अजित गुप्‍ता


      सुख के सब साथी, दुख में ना कोययह कहावत जिसने भी ईजाद की होगी तब शायद यह कहावत चरितार्थ होती होगी। लेकिन आज के युग में यह कहावत मेरी समझ से परे है। मुझे तो हर ओर दुख के सब साथी सुख में ना कोय ही नजर आता है। फिर सुख और दुख का अर्थ भी व्यापक है जो आपके लिए सुख है वही दूसरे के लिए दुख बन जाता है। बचपन में जब पिताजी की मार पड़ती थी तब हम दुखी होते थे और पिताजी सुखी। तब हमारे भाई लोग हमारे दुख के आँसू पोछने आते और जिस दिन हमें डाँट भी नहीं पड़ती तो वे आँसू नहीं पोछने के दुख से दुखी होकर हमारी डाँट का बंदोबस्त करते थे। जब हम सायकिल पर सवार होकर कॉलेज जाते और कोई मनचला हमें छेड़ता तो रास्ते वाले हमारे दुख से दुखी होकर हमारे पास सांत्वना के लिए आ जाते। जिस दिन हम उस मनचले के जूते मारकर सुखी होते तब कोई भी हमारे पास नहीं होता उल्टे वे सब उस मनचले के आँसू पोछ रहे होते।
      नौकरी में जब अफसर ने हमको खेद पत्र पकड़ाया तो सारे मित्रगण अफसोस जताने को आए और जिस दिन पदोन्नति के कागज मिले उस दिन कोई भी बधाई देने नहीं आया और शर्म लिहाज के मारे आ भी गए तो वही दुख प्रगट करने वाले शब्दों का ही सहारा लिया गया। अरे आपका प्रमोशन हुआ अब आपको घर से बाहर अधिक रहना पड़ेगा तो आपके पति और बच्चे तो बेचारे कैसे रह पाएंगे?’ एक दिन सोचा चलो नौकरी छोड़कर घर का सुख ही ले लिया जाए और जो बेचारे हमारे नौकरी करने से यह कहकर दुखी थे कि आपके घरवाले तो कैसे सुखी रहते होंगे, तो हमने उनका दुख हलका करने के लिए नौकरी छोड़ दी। जैसे उठावणे में लोग आते है दुख प्रगट करने वैसे ही लोग चले आए। अरे आपने नौकरी छोड़ दी, अच्छी भली नौकरी को भला कोई इस तरह छोड़ता है? फिर धीरे से कान के पास मुँह ले जाकर पूछा कि कोई परेशानी थी क्या और थी तो हमसे कहते। भई हमें तो बहुत दुख हुआ सुनकर जो चले आए। मैंने कहा कि आपको दुखी होने की कतई आवश्यकता नहीं मैंने नौकरी सुख लेने के लिए छोड़ी है। मैं बहुत सुखी अनुभव कर रही हूँ। मेरे सुख का नाम सुनना था कि वह उठकर चले गए जैसे मरे की खबर सुनकर आए हों और मुर्दा जिन्दा हो जाए तो कहना पड़े अरे बेकार ही समय बर्बाद हुआ।
      हम लेखक ठहरे और उस पर तुर्रा सामाजिक कार्यकर्ता का। जैसे करेला और नीम चढ़ा। लेखक भी क्या है लिखता गम के फसाने है और सुनाता हँसके है। लेखक के फटे हाल को देखकर कोई दया करके उसकी रचना पर कुछ बख्शीश दे देते हैं। लेकिन यदि वह सुखी दिखता है तो उसे कोई लेखक ही मानने को तैयार नहीं होता। सामाजिक कार्यकर्ता की भी ऐसी ही नियति है। यदि झोला लटकाए टूटी सायकिल पे चप्पल घिसटते हुए आपको कोई मिल जाए तो तुरन्त आपकी सहानुभूति उसके साथ होगी। लेकिन यदि कोई पढ़ा लिखा मुझ जैसा व्यक्ति समाज का कार्य करे तो लोग मुँह फेर लेते हैं। आजकल समाज का दुख दूर करने का भी फैशन चल निकला है। एक दिन भरी सर्दी में हमारे एक मित्र बोले कि चलो ऐसे सर्दी में बेचारे जो बिना कम्बल के सो रहे हैं उनको कम्बल बांट आएं। थोड़ा पुण्य कमा आएं। मैंने कहा कि किसे कम्बल बाँटोंगे? उन्होंने कहा कि कैसे सामाजिक कार्यकर्ता हो, तुम्हे दिखायी नहीं देता रात को फुटपाथ के किनारे बेचारे भिखारी सर्द में ठिठुर रहे हैं उन्हें ही देंगे। मैंने कहा वे तो व्यापारी हैं उनका भीख मांगना धंधा है वह बेचारे कैसे हो गए? फिर भी दुख में शामिल होने का उनका जोश कम नहीं हुआ और भरी ठण्ड में मुझे ले जाकर ही दम लिया। पूरे शहर के चक्कर काटकर पचासों सोए हुए लोगों के ऊपर कम्बल डालकर हम आ गए। वे भी किसी के दुख मंे शरीक हो कर तृप्त होकर सो गए। मैंने दूसरे दिन उनसे कहा कि उनके दुख को तो देख आए अब क्या उनके सुख को देखने नहीं चलोंगे? सर्द रात को फुटपाथ पर तुम्हारे कम्बल के सहारे सुख से सोते हुए लोगों का सुख क्या नहीं देखोंगे? उन्हें लगा कि चलो यह भी देख लिया जाए। वे दूसरी रात को हमारे साथ चल दिए। देखने के बाद वे दुखी हो गए और हम उनके दुख में शरीक होकर सुखी हो गए। एक भी भिखारी के तन पर कम्बल नहीं था। गुस्से में आगबबूला होकर उन्होंने एक को झिंझोड़कर उठाया और कहा कि कम्बल कहाँ है? कौन से कम्बल, पहले तो वह अनजान बना फिर कहने लगा कि अच्छा आपने ही रात को हमारे ऊपर डाला था क्या? वह तो हमने बेच दिया। भाईसाहब क्यों हमें दुखी करते हो हमें तो ऐसे ही रात गुजारने की आदत हैं। भीख मांगना हमारा पेशा है दिन में हाथ पसारते हैं और रात को भरी ठण्ड में खुली छत के नीचे सोकर मजबूत बनते हैं। बेचारे हमारे मित्र उनके सुख को देखकर दुखी हो गए और चुपचाप आकर सो गए।
      अब अपनी बात कहती हूँ कि जब मन का सुख लेने के लिए हम पति-पत्नी जोर शोर से लड़ते हैं और हमारी आवाजे खिड़कियों से पार हमारे पड़ोसी सुनते हैं तब झट से कोई ना कोई पड़ोसी आ जाता है। हमें समझाता है और हमारे दुख में दुखी होकर अपार सुख पाता है। लेकिन जब कभी भूले भटके से पतिदेव हमारी मान मनौवल कर रहे होते हैं और हमारे पड़ोसी की हम पर नजर पड़ जाती है, पड़ौसी की नजर तो हमारे हर काम पर ही रहती है इसलिए ऐसे मौके पर भी पड़ना लाजमी है, तब पड़ोसी गुस्से से अपनी खिड़की का पर्दा खींच लेते हैं और बुरा मुँह बनाकर कहते हैं कि अपने प्रेम का ढिंढोरा पीट रहे हैं कल ही तो लड़ रहे थे और देखो आज कैसे चोंचले कर रहे हैं।
      तो भाईसाहब आप ही बताइए कि लोग आपके दुख में कितने दुखी है और कितने आपके सुख को देखकर आपके साथ होते हैं? आप किस भ्रम में जीते हैं? आप यदि दुखी हैं तो चाहे कोई मित्र हो या शत्रु आपके आँसू पोछने चला आएगा और यदि आप सुखी हैं तो फिर चिड़ी का बच्चा भी पंख नहीं मारेगा। एक हमारी मित्र हैं, मित्र इसलिए कह रही हूँ कि हमारे दुख में वे सदैव दुख प्रकट करने आ ही जाती हैं और जब आ नहीं पाती तो फोन अवश्य कर देती हैं। उनमें इतना दुखों के प्रति संवेदना का भाव है कि वे केवल दुख के समय ही उपस्थित होती हैं। यदि आप भूले से सुखी हो जाए तो वे प्राणपण से दुख के स्रोत ढूंढने में लग जाती हैं। आपका सुख उन्हें फूटी आँख नहीं सुहाता और आपके सुख में वे बराबर की दूरी बनाकर रखती हैं। बस उनका मन हमेशा सहारा देने के लिए ही लालायित रहता है। एक दिन हमारे चोट लग गयी, कहीं से उनको भी खबर लगी। उन्होंने सांत्वना का कोई मौका नहीं छोड़ा था तो आज कैसे छोड़ती, तुरन्त फोन किया और हालचाल पूछा। मैंने कहा कि आपका इतने दिनों बाद फोन आने का कारण? उन्होंने कहा कि बहुत दिनों बाद मौका मिला, इसलिए फोन किया वरना आप तो मौका ही नहीं देतीं।
      मेरे जैसे उदाहरण आपके जीवन में भी बिखरे पड़े होंगे। मेरी बात पर यदि गौर कर सको तो करना वैसे मेरा क्या है एक लेखक हूँ, जिसका कोई वजूद नहीं होता। बेचारा लेखक तो वह प्राणी है जिसके पास ना कोई दुख देखकर आता है और ना कोई सुख देखकर। क्योंकि वह बेवकूफ किस्म का व्यक्ति दुख में भी सुख ढूंढ लेता है। रुदन में भी हास्य ढूंढ लेता है तो फिर ऐसे सिरफिरों के पास भला कोई सांत्वना देने भी क्यों आए। आप तो बस दुख में शरीक होकर कहावत को झूठा सिद्ध करते रहिए और देश के संवेदना वाले नागरिक बनने का सौभाग्य पाइए। किसी को भी सुखी देखें तो उसे दुखी करने का मौका जरूर तलाशे। तभी आप इस देश के महान नागरिक बन पाएंगे।
व्‍यंग्‍य संग्रह - हम गुलेलची - लेखक- अजित गुप्‍ता

Friday, November 19, 2010

सास बनते ही एक डर दबे पैर क्‍यों चला आता है?- अजित गुप्‍ता

बेटे के विवाह के मायने क्‍या हैं? किसी भी माँ से पूछकर देखिए वह यही कहेगी कि जीवन का सबसे अनमोल क्षण है। शायद पिता के लिए भी ऐसा ही होता हो, लेकिन चूंकि मैं एक माँ हूँ तो पिता की अनुभूति का मुझे मालूम नहीं। आप उत्तर दे पाएंगे। घर में जब बहु के कदम पड़ते हैं तो लगता है कि हमारा घर पूर्ण हो गया। बेटे के चेहरे पर जो उल्‍लास दिखायी देता है, वह किसी भी शब्‍दों में नहीं समेटा जा सकता है। घर-परिवार में प्रत्‍येक सदस्‍य नवागत का स्‍वागत करने के लिए प्रफुल्लित हो रहा होता है। मुझे अमिताभ बच्‍चन का स्‍मरण आ रहा है। जब वे अपनी पुत्रवधु को लेकर स्‍वयं ही ड्राइविंग करते हुए घर आते हैं। इससे बड़ा उल्‍लास का उदाहरण मुझे दिखायी नहीं देता है। आज से लगभग पाँच वर्ष पूर्व जब मेरे घर भी बहु आने वाली थी तब मेरे अन्‍दर भी ऐसा ही उल्‍लास भरा था। बहु के आगमन पर कितनी ही कविताएं रच दी गयी थीं। कहीं भी चिन्‍ता या डर का नाम नहीं था। ना ही यह भाव था कि मैं सास बन रही हूँ तो एक बदनाम नाम मेरे साथ भी जुड़ जाएगा। लेकिन समय बीता, और जब हमउम्र मित्र एकत्र हुए तो ध्‍यान में आया कि इस प्‍यार भरे रिश्‍ते के बीच में एक भय भी साथ-साथ आकर घर करता जा रहा है। पहले यह भय बहु के मन में साथ चलकर ससुराल की चौखट तक आता था और कितने अन्‍तरद्वंद्वों से निकलकर कभी समाप्‍त होता था तो कभी नहीं। लेकिन आज दुनिया बदल गयी है, वास्‍तव में ही बदल गयी है। डर ने भी अपना पाला बदल लिया है। अब उसने सास के दिल में दस्‍तक दे दी है।
मैं आज ये बातें आपसे क्‍यों कह रही हूँ? अभी विवाह का मौसम चल रहा है। घर-घर में शहनाइयां बज रही हैं। मेरे पड़ोस में भी मेरी मित्र के यहाँ शहनाई की धूम रही। आज वे जानी-पहचानी हस्‍ती हैं तो चर्चा का बाजार भी गरम रहा। उम्र भी अधिक नहीं तो सास बनना कौतुहल का विषय हो गया। सभी कहने लगे कि अरे अब आप सास बन जाएंगी? जीवन में कई तब्‍दीली आएंगी। सभी ने उनके मन में एक अन्‍जाना सा भय डाल दिया। कुछ वर्ष पूर्व के प्रश्‍न बदल गए। मुझसे पूछा जाता था कि अरे आपकी बहु आ रही है? घर में रौनक हो जाएगी। लेकिन अब यह कहा जा रहा है कि अरे आप सास बन जाएंगी? गीत भी ऐसे ही गाए जा रहे हैं कि सासु अब सम्‍भलकर रहना, घर में बहु आ रही है। मुझे फिर एक आलेख का स्‍मरण हो रहा है, जिसे मेनका गांधी ने बहुत वर्ष पूर्व लिखा था। पता नहीं क्‍यों वे शब्‍द मेरी स्‍मृति में अंकित हो गए थे? उन्‍होंने लिखा था कि मैं उस दिन से सबसे ज्‍यादा डरती हूँ जिस दिन मेरे घर में बहु आएगी। वह आते ही कहेगी कि मम्‍मी को कुछ नहीं आता। कुछ ही दिनों में वह घर माँ का नहीं रह जाता। ऐसे ही कुछ भाव थे उस आलेख में।
तो क्‍या आज वास्‍तव में एक माँ के मन में डर समा गया है? पढी-लिखी माँ, समाज में उच्‍च स्‍थान रखने वाली माँ भी आज इस अन्‍जाने डर से भयभीत क्‍यों हैं? कैसा है यह भय? क्‍या केवल एक भ्रम है या वास्‍तव में ही माँ के ऊपर सास नाम का बदनाम उपनाम हावी होने को है। बहुत सारे खट्टे-मीठे अनुभव हैं हम सबके। समाज उन्‍नति भी कर रहा है, सास-बहु के रिश्‍तों में मधुरता भी आयी है लेकिन डर ने भी अपनी जगह बनायी है। मुझे लगता है कि यह डर हमारे अहम् का है। पहले परिवार में जो बड़ा होता था सब उसका सम्‍मान करते थे इसलिए बहु अपने साथ अहम् लेकर नहीं आती थी बस सास का अहम् ही रहता था। लेकिन आज बहु का अहम् भी प्रमुख हो गया है इस कारण बड़े-छोटे का भाव समाप्‍त होता जा रहा है। हमारी पीढ़ी ने हमेशा बड़ों का सम्‍मान किया है लेकिन जब यह सुनने और दिखने में आने लगा कि बड़ों का सम्‍मान अब सुरक्षित नहीं है तब ही डर नामके अजगर ने अपना डेरा डाल लिया। यह डर मेरी मित्र के ऊपर भी हावी हो गया और उन्‍होंने संगीत संध्‍या के दिन बहु के नाम पत्र लिखा और उसे पढ़कर सुनाया। बार-बार उनका डर झलक रहा था। मीठे से पत्र की जगह कहीं डर ने जगह बना ली थी।
आज की इस पोस्‍ट का केन्द्रित विषय है क्‍या है यह डर? यदि हम अपने विचार केन्द्रित करेंगे और विषय में भटकाव नहीं लाएंगे तो मेरे लिखने का श्रम सार्थक होगा। हम जान सकेंगे कि वर्तमान समाज किस ओर जा रहा है। आप सभी के विचारों का स्‍वागत है।  

Friday, November 12, 2010

बेरोजगारी दूर करने का सरल उपाय – क्‍या कम्‍पनियां ध्‍यान देंगी? – अजित गुप्‍ता

सारी दुनिया में बेरोजगारी अपने पैर फैला रही है और दूसरी तरफ अत्‍यधिक काम का दवाब लोगों को तनाव ग्रस्‍त कर रहा है। परिवार संस्‍था बिखर गयी है और विवाह संस्‍था भी दरक रही है। अमेरिका से चलकर ओबामा भारत नौकरियों की तलाश में आते हैं और मनमोहन सिंह जी कहते हैं कि हम नौकरी चुराने वाले लोग नहीं हैं। बेटा इंजिनीयर या मेनेजमेंट की परीक्षा देकर निकलता है और उसे केम्‍पस के माध्‍यम से ही नौकरी मिल जाती है। नौकरी भी कैसी लाखों की। पिताजी ने हजार से आगे की गिनती नहीं की और बेटा सीधे ही लाखों की बात करने लगा। आकर्षक पेकेज के साथ आकर्षक सुविधाएं भी। एसी और फाइव स्‍टार से नीचे बात ही नहीं। यहाँ अगल-बगल चार फाइव स्‍टार होटल हैं लेकिन अभी चार बार भी नहीं जाया गया और आजकल के बच्‍चे केवल उन्‍हीं की बात करते हैं। उनसे फोन से बात करो तो कहेंगे कि अभी समय नहीं, घर आने की बात करो तो छुट्टिया नहीं। सारे ही नाते-रिश्‍तेदार बिसरा दिए गए। चाहे माँ मृत्‍यु शय्‍या पर हो या पिताजी, बेटे-बेटी के पास फुर्सत नहीं। हाँ दूर बैठकर चिंता जरूर करेंगे और बड़े अस्‍पताल में जाने की सलाह देकर उनका बिल भी बढ़ाने का पूर्ण प्रयास करेंगे।
इतनी लम्‍बी-चौड़ी भूमिका बाँधने का मेरा अर्थ केवल इतना सा है कि आखिर इन सारी समस्‍याओं का कोई हल भी है क्‍या? मेरे पास इस समस्‍या का एक हल है, आपको मुफ्‍त में बताए देती हूँ। जब हम नौकरी करते थे तब हमने कभी भी छ: घण्‍टे से अधिक की नौकरी नहीं की। हमारी छ: घण्‍टे की नौकरी हुआ करती थी और शेष जूनियर स्‍टाफ की अधिकतम आठ घण्‍टे की। हम अपना परिवार भी सम्‍भालते थे, बच्‍चों को भी पूरा समय देते थे और अपने जीवन को अपनी तरह जीते थे। इसके बाद भी हमें नौकरी रास नहीं आयी और हमने छोड़ दी। इसलिए ओबामा सहित मनमोहन सिंह‍ जो को यह बताने की आवश्‍यकता है कि आज जो घाणी के बैल की तरह आपने लोगों को नौकरियों में जोत रखा है उसे बन्‍द करो। अपने आप बेरोजगारी दूर हो जाएगी। आज प्राइवेट सेक्‍टर में प्रत्‍येक व्‍यक्ति 12 घण्‍टे की नौकरी कर रहा है। एक व्‍यक्ति के स्‍थान पर दो को नौकरी दो और इतने वेतन देकर आप क्‍यों उसे आसमान पर बिठा रहे हैं और माता-पिता से दूरियां बढ़ाने में सहयोग कर रहे हैं? अधिकतम वेतन निर्धारित करो। मेरे घर के सामने ही एक बैंक है, उस बैंक का मेनेजर सुबह नौ बजे आता है और रात आठ बजे के बाद ही जा पाता है। यह क्‍या है? कहाँ जाएगा उसका परिवार? आज यदि इन्‍फोसिस जैसी कम्‍पनी में एक लाख व्‍यक्ति काम कर रहे हैं तो इस नीति से दो लाख कर्मचारी हो जाएंगे और वेतन में भी वृद्धि नहीं होगी। क्‍या आवश्‍यकता है करोड़ों  के पेकेज देने की? इन पेकेजों ने ही मंहगाई को आसमान पर चढ़ाया है। जब एक नवयुवा को पचास हजार रूपया महिना वेतन दोगे तो वह सीधा मॉल में ही जाकर रुकता है और बाजार में जो कमीज 100 रू में मिलती है उसके वह 1500 रू. देता है। बेचारे माता-पिता तो रातों-रात बेचारे ही हो जाते हैं क्‍योंकि उनका लाड़ला लाखों जो कमा रहा है। इसलिए बेरोजगारी के साथ समस्‍त पारिवारिक और मंहगाई की समस्‍या से निजात पाने का एक ही तरीका है कि इन बड़ी कम्‍पनियों को अपनी नीति बदलनी होगी। समाज को इन पर दवाब बनाना होगा नहीं तो  प्रत्‍येक युवा तनाव का शिकार हो जाएगा। मेरी बात समझ आयी तो समर्थन कीजिए।  

Tuesday, November 9, 2010

आज स्‍वीट सिक्‍सटी में प्रवेश का दिन – अजित गुप्‍ता

इस दुनिया में तकरीबन सभी लोग अपने आने की सूचना देते हैं, तो उनका गाजे-बाजे और ढोल-नगाड़ों के साथ स्‍वागत भी होता है। लेकिन हम तो दबे पाँव ही इस दुनिया में चले आए। जब हमारी माँ को कई महिनों बाद पता लगा कि अरे कोई नवीन शायद आ रहा है तो घर भर में खलबली मच गयी कि अब और नहीं। कारण लड़की का होना नहीं था बस अब और संतान नहीं चाहिए थी क्‍योंकि पहले ही हमारे घर पर हाऊस फुल का बोर्ड टंग चुका था। लड़के सात हो चुके थे तो लड़कों से भी पेट भर गया था और एक लड़की भी अन्‍त में आ चुकी थी तो घर पूरा बन चुका था। लेकिन अब क्‍या कर सकते थे? हमारा भाग्‍य तो विधाता ने तभी लिख दिया था कि इस दुनिया में वाण्‍टेड नहीं हो। लेकिन हमने भी ठान ली थी कि अनवाण्‍टेड हैं तो क्‍या एक दिन लोगों के दिलों में राज करके बताएंगे। भगवान ने भेजा हमें अलटप्‍पू में ही था लेकिन भेजा था खास बनाकर। हम बचपन से ही खास बन गए, पता नहीं क्‍यों? जोर जबरदस्‍ती ही जब घर में घुसे थे तो जबरदस्‍त तो होने ही थे।
साधारण बचपन में भी जीवन असाधारण था। पिता का कठोर अनुशासन था या यूं कहें कि उनका बनाया हुआ ही शासन था। घर में उनकी मर्जी के बिना पत्ता नहीं हिल सकता था। वे जो कहें केवल वही सत्‍य। उन्‍होंने ही जीवन का निर्धारण किया। हम कर भी क्‍या सकते थे? पिताजी के सामने अच्‍छे-अच्‍छों की नहीं चलती थी तो हमारी क्‍या बिसात थी? उन्‍होंने हमें लड़कों की तरह ही पाला तो स्‍वीट सिक्‍सटीन कब हुए पता ही नहीं चला। प्‍यार व्‍यार क्‍या होता है इस चिड़िया का तो कभी पंख भी नहीं फड़फड़ाया। जैसे सब की शादी होती है हमारी भी हो गयी, हाँ कुछ रोचक तरीके से जरूर हुई। ना ना करते शादी तुम्‍ही से कर बैठे वाले अंदाज में। महिला होने का फायदा शादी के बाद भी नहीं मिला। दिल विल प्‍यार व्‍यार क्‍यों होता है पता ही नहीं चला और दिमाग में कर्तव्‍य आकर बैठ गया। तब से अब तक कर्तव्‍य ही निभाते रहे। पाँच वर्ष पूर्व दोनों बच्‍चों का विवाह भी कर दिया और दोनों के एक-एक संतान भी हो गयी। मतलब अपनी ड्यूटी पूर्ण। अब जीवन में आनन्‍द ही आनन्‍द।
आज अंग्रेजी तारीख से हमारा जन्‍मदिन पड़ता है, भारतीय तारीख तो देव उठनी ग्‍यारस की है तब शुभ मुहुर्त्त प्रारम्‍भ होते हैं, अर्थात् हमारे जन्‍म के बाद से ही शुभ प्रारम्‍भ होता है। लेकिन 9 नम्‍बर भी बुरा नहीं था तो हमने एक सा और सरलता का चुनाव करते हुए अंग्रेजी तारीख को अपना ही लिया। घर में तो आज भी वही ग्‍यारस है। इतनी लम्‍बी चौड़ी बात लिखने का अर्थ यह है कि हमने जोर जबरदस्‍ती से 59 वर्ष पूर्ण कर लिए हैं और अब स्‍वीट सिक्‍सटी में प्रवेश कर लिया है। स्‍वीट सिक्‍सटीन की याद नहीं तो स्‍वीट सिक्‍सटी ही सही। इस आयु को पूर्ण कर लेने के बाद बहुत सारे सरकारी प्रिविपर्स चालू हो जाते हैं तो एक वर्ष तो स्‍वीट सिक्‍सटी का उल्‍लास मनाएंगे और फिर सरकारी सुविधाओं का आनन्‍द उठाएंगे। आप सभी बधाई तो देंगे ही तो मैं पहले ही सभी का आभार मान लेती हूँ। आज प्रकृति भी मेहरबान है तो सुबह से ही उसने भी हमारे स्‍वागत के लिए वर्षा जल का छिड़काव कर दिया है तो भगवान का भी आभार। उसने हमें भेजा दबे पैर था लेकिन अब हम सबके सामने  प्रसन्‍नता से खड़े हैं उस प्रभु के आशीर्वाद से ही। आप सभी का स्‍नेह बना रहे, इसी आशा और विश्‍वास के साथ जन्‍मदिन पर आप सभी को मेरा नमन। 

Monday, November 1, 2010

राम के त्‍याग का स्‍मरण और सभी को दीपावली का नमन - अजित गुप्‍ता


लो फिर दीपावली आ गयी। मेरे घर को हर साल इंतजार रहता है प्रकाश का, और मुझे तो प्रतिपल। पिछले साल ही तो दीपावली प्रकाश लेकर आयी थी, मैंने उसे समेट कर क्‍यों नहीं रखा? आखिर कहाँ चला जाता है प्रकाश? कैसे अंधकार जबरन घर में घुस आता है? मैंने तो ढेर सारे दीपक भी लगाए थे और लाइट की रोशनी भी की थी।
प्रकाश बोला कि मैं तो रोज ही सुबह-सवेरे तुम्‍हारे दरवाजे पर दस्‍तक देता हूँ। लेकिन मेरी भी नियति है, मैं शाम के धुंधलके के साथ ही कहीं और जहाँ को रोशन करने चला जाता हूँ। पीछे छोड़ जाता हूँ चाँद और तारे। लेकिन तभी प्रकाश ने प्रश्‍न दाग दिया। आखिर तुम क्‍यों दीपावली के दिन मेरा दिवस मनाते हो?
अरे तुम्‍हें इतना भी नहीं मालूम कि इस दिन प्रभु राम अयोध्‍या आए थे। पूरे 14 वर्ष वनवास काटने के बाद। अयोध्‍या फूली नहीं समा रही थी अपने राजा को पाकर। तो दीपकों से सजा डाला था हमने उनका राजपथ।
लेकिन राजा तो विलासी होते हैं, उनका ऐसा स्‍वागत? क्‍या प्रजा भी विलासी थी?
अरे तुम कैसी बातें कर रहे हो? राम और विलासी? वे तो त्‍याग की मूर्ति थे। तुम्‍हें पता है वे वनवास क्‍यों गए थे?
क्‍यों गए थे?
अयोध्‍या के राजा दशरथ के चार पुत्र थे, राम सबसे बड़े थे। राजा दशरथ ने उन्‍हें अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। लेकिन उनकी दूसरी रानी कैकयी ने दशरथ को कहा कि मेरा पुत्र भरत राजा बनना चाहि‍ए। भरत के मार्ग में कोई बाधा ना आए इसलिए राम को 14 वर्ष का वनवास भी दे दो।
तो क्‍या राजा दशरथ ने कैकयी की बात मान ली? एक सामर्थ्‍यशाली राजा का यह कैसा पतन?
नहीं राजा दशरथ ने कैकयी की बात नहीं मानी। लेकिन वे वचन से बंधे थे तो उनका राजधर्म उन्‍हें वचन पालन के लिए प्रेरित कर रहा था। एक तरफ राम थे और दूसरी तरफ वचन। राजा धर्मसंकट में थे, रानी हठ पकड़े बैठी थी। तभी राम ने निर्णय लिया कि मुझे पिता के वचन की लाज रखनी है और वे वन में जाने को तैयार हो गए।
यह तो बहुत बड़े त्‍याग की बात है। प्रकाश ने आश्‍चर्य के साथ कहा।
अब आगे सुनो त्‍याग की बात। पत्‍नी सीता को जब राम के वनवास जाने का समाचार प्राप्‍त हुआ तो वह भी वन में जाने को तैयार हो गयी। राम ने कहा कि तुम क्‍यों वन जाना चाहती हो? वनवास की इच्‍छा तो माता कैकयी ने मेरे लिए चाही है। सीता ने कहा कि नहीं पति के साथ रहना ही पत्‍नी का धर्म है।
ओह हो यह तो बहुत बड़े त्‍याग की बात कही सीता ने। प्रकाश ने फिर आश्‍चर्य प्रकट किया।
लेकिन अभी त्‍याग का प्रकरण पूरा नहीं हुआ है। लघु भ्राता लक्ष्‍मण को जब वनवास की भनक लगी तो वे भी वनवास जाने को तैयार हो गए। कहने लगे कि वन के अन्‍दर उनका एक सेवक भी होना चाहिए इसलिए मैं भाई और भाभी की सेवा के लिए जा रहा हूँ। माता सुमित्रा ने भी उन्‍हें आशीर्वाद दिया।
प्रकाश हैरान था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि लोग दीपावली को प्रकाश का पर्व क्‍यों कहते हैं? अरे यह तो त्‍याग का पर्व है। मनुष्‍यों को अपने अन्‍दर के प्रकाश को जगाना चाहिए जिससे उनके अन्‍दर सत्ता के मोह ने जो अंधकार की दीवार खडी कर रखी है, वह गिर जाए। अब प्रकाश की जिज्ञासा जाग चुकी थी। वह बोला कि मुझे भरत के बारे में भी बताओ।
तो सुनो, राम वनवास गए, उनके साथ सीता और लक्ष्‍मण भी गए। राजा दशरथ ने प्राण त्‍याग दिए। भरत उस समय अपने ननिहाल में थे। उन्‍हें तत्‍काल बुलाया गया और जब उन्‍हें सारा कथानक का पता लगा तो वे अपनी माता कैकयी पर आगबबूला हो गए। उन्‍होंने कहा कि यह राज्‍य राजा राम का है मैं तो केवल उनका सेवक हूँ। वे भैया राम को मनाने चले, लेकिन राम ने उन्‍हें वापस लौटा दिया। भरत राम की खडाऊ लेकर आए और सिंहासन पर खडाऊ को ही आसीन कर दिया।
यह भी बहुत ही बड़े त्‍याग की बात है। किसी को राज मिल जाए और त्‍याग कर दे? आजकल तो ऐसा नहीं देखा जाता। अब तुम यह बताओ कि राम ने 14 वर्ष वहाँ कैसे बिताए? प्रकाश ने फिर प्रश्‍न कर दिया।
राम अपने वनवास काल में जंगल-जंगल घूमकर अपना वनवास काट रहे थे और जब उनका वनवास समाप्‍त होने ही वाला था तभी एक घटना घट गयी। लंका का राजा रावण सीता का हरण करके लंका ले गया। राम और लक्ष्‍मण के दुखों का कोई अन्‍त नहीं। उस समय वहाँ के वनचर एकत्र हुए और उन्‍होंने राम की योजना से लंका पर आक्रमण किया और रावण का वध कर दिया।
तब तो लंका पर भी राम का शासन स्‍थापित हो गया होगा। और वे सोने की लंका को पाकर बेहद खुश हुए होंगे।
यही तो राम का चरित्र है कि उन्‍होंने यहाँ भी त्‍याग का साथ नहीं छोड़ा। उन्‍होंने कहा कि मेरी जन्‍मभूमि ही स्‍वर्ग से बढ़कर है। उन्‍होंने रावण के छोटे भाई विभीषण का राजतिलक किया और अयोध्‍या वापस लौट आए।
प्रकाश ने कहा कि धन्‍य है यह भारत भूमि जहाँ ऐसे त्‍यागी राजा भी हुए। मैं तो सम्‍पूर्ण दुनिया के देशों में रोज ही घूमता हूँ मुझे तो आज तक ऐसा एक भी त्‍यागी राजा नहीं मिला। लेकिन एक बात और बताओ कि इस देश में आज इतना भोगवाद क्‍यों है? हम जब श्रीराम को आदर्श मानते हैं तो हमारा आदर्श त्‍याग होना चाहिए था लेकिन मैं तो यहाँ भोगवाद के ही दर्शन कर रहा हूँ। दीपावली पर यही कहा जाता है कि प्रकाश का पर्व है, रोशनी का पर्व है। मैंने तो कभी नहीं सुना कि किसी ने कहा हो कि त्‍याग का पर्व है।
यही तो रोना है इस देश का, हमारे अन्‍दर भोगवाद प्रवेश लेता जा रहा है और हमने अपनी सुविधा से और भोगवाद को प्रश्रय देने के लिए त्‍योहारों की परिभाषा बदल दी है। दीपावली के दिन हमें मन के अंधकार को भगाने की बात करनी चाहिए और हम रोशनी और पटाखों की बात करते हैं। सत्ता का मोह हमारे अन्‍दर ऐसे प्रवेश कर गया है जैसे माता के मन में संतान का मोह। राजनीति से लेकर धर्मनीति तक में सत्ता का मद चढ़ा हुआ है। संन्‍यासी भी अपनी गद्दी के लिए लड़ रहे हैं और राजनेता भी। दीपावली के दिन शायद ही किसी के घर में श्रीराम की पूजा होती हो, वहाँ तो लक्ष्‍मीजी आ विराजी हैं।
अब तो लग रहा है कि यह देश राम को भूलता जा रहा है। बस मैं तो तुम पर ही आशा लगाए बैठी हूँ कि तुम लोगों के जीवन में प्रकाश करोगे। उन्‍हें पारिवारिक प्रेम के दर्शन कराओगे और त्‍याग से ही लोगों के दिलों पर राज किया जाता है, यह सिखलाओगे। तो आओ हम भी दीपावली मनाए। अपने दिलों से बैर-भाव निकाले और राम और भरत जैसे भाइयों के प्रेम का स्‍मरण करें। लक्ष्‍मण और सीता के त्‍याग को भी नमन करें। तभी हम कहेंगे कि दीपावली सभी के लिए शुभ हो।
  

Wednesday, October 27, 2010

किसान को जितनी चिन्‍ता फसल की है उतनी ही अपनी संतान की भी है, कितना संवेदनशील है हमारा किसान लेकिन हम? - अजित गुप्‍ता

अभी सुबह ही भोपाल से लौटी हूँ। राष्‍ट्रीय नारी साहित्‍यकार सम्‍मेलन के एक सत्र में मुख्‍य वक्‍ता के रूप में मुझे भागीदारी निभानी थी। सम्‍मेलन सफलता पूर्वक सम्‍पन्‍न हुआ। इसके समाचार और कभी दूंगी लेकिन आज जिस पोस्‍ट को लिखने का मन कर रहा है वो कुछ अलग ही बात है। भोपाल से उदयपुर के लिए सीधी रेल नहीं है। रात को 2.30 बजे  रेल से चित्तौड़ पहुंची और फिर रात को 4 बजे चित्तौड़ से उदयपुर के लिए रेल मिलती है जो सुबह 6 बजे उदयपुर पहुंचा देती है। इस कारण रात को नींद पूरी नहीं हो पाती। अभी सर बहुत भारी हो रहा है लेकिन मन में एक बात दस्‍तक दे रही है तो सोचा कि आप सभी से सांझा कर ली जाए। कई बार हम सभी का मन पता नहीं किसी भी बात पर संवेदनशील हो जाता है या छोटी सी बात भी बड़ी बन जाती है। तभी पता लगता है हमें स्‍वयं के मन का कि यह किन विषयों पर जागरूक हो पाता है।
रात को 2.30 बजे गाडी चित्तौड़ स्‍टेशन पर पहुंच गयी थी। मैंने कुली से कहा कि वेटिंग रूम में ले चलो, लेकिन उसने बताया कि वेटिंग रूम दूर है और दूसरी गाड़ी यही पर लगेगी। इसलिए आप यही बेंच पर बैठ जाएं तो अच्‍छा रहेगा। मुझे उसकी बात समझ आ गयी। मौसम भी ठण्‍डा और सुहावना था तो खुले में बैठने का मन बना लिया। बेंच पर पहले से ही तीन व्‍यक्ति बैठे थे, वेशभूषा से किसान लग रहे थे। मैं भी उन्‍हीं के बीच जाकर बैठ गयी। वे लोग भी उसी गाडी से उतरे थे। कुछ ही देर में मेरे पास बैठे व्‍यक्ति ने पूछा कि भोपाल में मावठे की बरसात हुई क्‍या?
मैंने कहा कि मैं भोपाल से आ रही हूँ  लेकिन वहाँ रहती नहीं, लेकिन सुना था कि अभी चार दिन पहले बरसात हुई है। लेकिन अभी से मावठ कहाँ शुरू हो गया?
किसान ने कहा कि नहीं मावठे की बरसात शुरू हो गयी और कल ही रतलाम में हुई है।
उसके चेहरे पर और आवाज में खुशी छायी हुई थी। मैंने पूछा कि क्‍या आप किसान हैं? तो उसने कहा कि हाँ।
किसान के मन में आधी रात को भी बरसात की खुशी थी। फसल की चिन्‍ता किसान के चेहरे पर हमेशा बनी रहती है। बारिश आ गयी तो सबकुछ मिल जाता है और बारिश नहीं आयी तो बेचारगी के सिवाय कुछ नहीं रहता। मैंने उससे पूछा कि उदयपुर कैसे जा रहे हो? तो उसने मेरे पास बैठी युवती की और इशारा किया कि यह मेरी बेटी है इसका दिमाग थोड़ा फिर गया है इसलिए उदयपुर जाकर दिखाना है। युवती विवाहित ही लग रही थी। मैने ज्‍यादा पूछताछ तो नहीं की लेकिन एक मन में संतोष जरूर हुआ कि एक पिता को अपनी पुत्री की कितनी चिन्‍ता है जो इतनी दूर उसके ईलाज के लिए आया है। रात भर द्वितीय श्रेणी एसी में भी करवटे ही बदली थी क्‍योंकि एक घटना बार बार मन को झिझोड़ रही थी। एक सम्‍भ्रान्‍त घर की घटना थी, माता-पिता ने अपनी पढ़ी-लिखी गर्भवती पुत्री को यह कहकर घर से निकाल दिया था कि तुम मेरा वंश तो बढ़ाओगी नहीं तो हम तुम्‍हारी क्‍यों सेवा करें? इसी गम में वह अपने पुत्र को जीवित नहीं रख पायी थी। उच्‍च रक्‍तचाप के कारण गर्भ में ही पुत्र मृत हो गया था। क्‍योंकि अपने ही माता-पिता का कथन लेकर अकेली ही दर्द को झेल रही थी।
हम पूर्व में कहते थे कि हमारे रिश्‍तों में दरार आर्थिक विपन्‍नता के कारण है, यदि हम सम्‍पन्‍न हो जाएंगे तो हम रिश्‍तों की कद्र करेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। फिर कहने लगे कि शिक्षा के कारण हममें संवेदनशीलता नहीं है, शिक्षित होते ही हम समझदार हो जाएंगे। लेकिन तब भी हम संवेदनशील नहीं बने। अपितु पैसे और शिक्षा के कारण हम अपनी पुत्री से भी हिसाब करने लगे। रात में न जाने कितने परिवार मेरे आँखों के सामने घूम गए, ऐसे उदाहरण तो हमारे समाज का हिस्‍सा नहीं थे फिर क्‍या अब ये दिन भी देखने पड़ेंगे?
एक किसान मावठ की बरसात से खुश है, नवीन फसल की योजना बना रहा है और अपने परिवार के प्रेम को भी निभा रहा है। पूरी रात बिगाड़कर अपनी बेटी की चिकित्‍सा कराने दूर शहर आता है, शायद डॉक्‍टर अस्‍पताल में भर्ती होने को भी कहे तो उसके लिए भी तैयार होकर आया है। और हमारे सम्‍भ्रान्‍त परिवार घर में भी पैसे का जोड़-भाग कर रहे हैं। कहाँ जा रहा है हमारा समाज? मेरी इस पोस्‍ट पर आपकी प्रतिक्रिया होगी कि यह कैसी घटना है? लेकिन एकदम सच्‍ची है, बहुत ही संक्षिप्‍त बात लिखी है, विस्‍तार देकर किसी की निजता को नहीं छीनना चाह रही हूँ। लेकिन दुआ कर रही हूँ कि भगवान हम सभी को उस किसान जैसा मन ही दे दे जिससे छोटी-छोटी खुशियों में हम जी सकें और अपने परिवार के कर्तव्‍यों को पूरा कर सकें। 

Sunday, October 17, 2010

ब्‍लागिंग में आना और कार्यशाला में पहचाना एक-दूसरे को – अजित गुप्‍ता

एक दूसरे को समझने की ललक मनुष्‍य में हमेशा ही रहती है, बल्कि कभी-कभी तो अन्‍दर तक झांकने की चाहत जन्‍म ले लेती है। लेखन ऐसा क्षेत्र है जहाँ हम लेखक के विचारों से आत्‍मसात होते हैं तो यह लालसा भी जन्‍म लेने लगती है कि इसका व्‍यक्तित्‍व कैसा होगा? आज से लगभग 6 वर्ष पूर्व नेट पर हिन्‍दी कविता संग्रह नामक एक समूह से परिचय आया, लेकिन ज्‍यादा लम्‍बा साथ नहीं रह पाया। इसके बाद हिन्‍दी भारत समूह के साथ कविता वाचक्‍नवी जी से परिचय हुआ, मात्र परिचय ही। ब्‍लाग के बारे में मेरी तब तक कोई विशेष जानकारी नहीं थी। आज से लगभग 3 वर्ष पूर्व मेरे पास एक फोन आया, नम्‍बर अमेरिका का था और अपरिचित था। सामने से एक मधुर आवाज सुनायी दी और उन्‍होंने कहा कि आपका मधुमती में सम्‍पादकीय पढ़ा और मैं आपकी हो गयी। सामने फोन पर मृदुल कीर्ति जी थी। उसके बाद उनसे बात का सिलसिला चल पड़ा और उन्‍होंने हिन्‍दयुग्‍म के पोडकास्‍ट कवि सम्‍मेलन के बारे में बताया। पोडकास्‍ट सुनते हुए एक दिन अकस्‍मात ही एक बटन दब गया और सामने था कि अपना ब्‍लाग बनाएं। जैसे-जैसे निर्देश थे मैं करती चले गयी और एक ब्‍लाग तैयार था। लेकिन पोस्‍ट कैसे लिखते हैं और कैसे लोग इसे पढ़ते हैं, कुछ पता नहीं था। कविता जी से बात हुई, उन्‍होंने बताया कि इसे चिठ्ठा जगत और चिठ्ठा चर्चा के साथ इस प्रकार जोड़ लें। मैंने उनके निर्देशानुसार अपना ब्‍लाग जोड़ लिया। जोड़ते ही टिप्‍पणियां आ गयी और हम हो गए एकदम खुश। धीरे-धीरे पोस्‍ट लिखने का और टिप्‍पणी करने का सिलसिला आगे बढ़ा। लेकिन किसी को भी प्रत्‍यक्ष रूप से नहीं जानने का मलाल मन में रहता था। कविता जी से कई बार फोन पर बात भी हुई और उनके बारे में जिज्ञासा ने जन्‍म भी लिया।
अचानक ही वर्धा में ब्‍लागिंग की कार्यशाला में जाने का अवसर मिल गया और तब लगा कि चलो कुछ लोगों से परिचय होगा। सिद्धार्थ जी से भी हिन्‍दी भारत समूह के कारण परिचय हुआ था। वे भी बड़े अधिकारी हैं इतना ही मुझे पता था। जब तय हो गया कि वर्धा जाना ही है तो एक दिन सिद्धार्थ जी से पूछ लिया कि कौन-कौन आ रहे हैं? मुझे तब तक मालूम हो चुका था कि इन दिनों कविता जी भारत में हैं। तो मेरी उत्‍सुकता उनके बारे में ही अधिक थी। सिद्धार्थ जी से पूछा तो उन्‍होंने कहा कि वे तो एक सप्‍ताह पहले ही आ जाएंगी। साथ में उन्‍होंने बताया कि श्री ॠषभ देव जी भी आएंगे। ॠषभ जी को मैं ब्‍लाग पर पढ़ती रही हूँ और उनके लेखन की गम्‍भीरता से भी वाकिफ हूँ। एक और नाम बताया गया वो नाम था अनिता कुमार जी का। यह नाम मेरे लिए अपरिचित था तो मैं तत्‍काल ही उनके ब्‍लाग पर गयी तो वहाँ कुछ भजन लगे हुए थे। एक छवि बन गयी।
अब हम वर्धा में फादर कामिल बुल्‍के छात्रावास के सामने थे और हमारे सामने थे सिद्धार्थ जी। सिद्धार्थ जी को एक सलाह कि वे अपने ब्‍लाग पर तुरन्‍त ही अपना फोटो बदलें। इतने सुदर्शन व्‍यक्तित्‍व के धनी का ऐसा फोटो? किस से खिचवा लिया जी? हम चाहे कैसे भी हो, लेकिन फोटो तो अच्‍छा ही लगाते हैं। लेकिन अभी तो कई आश्‍चर्य हमारे सामने आने शेष थे। सामने से जय कुमार जी आ गए, वही जी ओनेस्‍टी वाले। सारी कार्यशाला में इतना बतियाते रहे कि लगा कि कोई शैतान बच्‍चा कक्षा में आ गया है। भाई हमने तो आपकी और ही छवि बना रखी थी। दिमाग पर इतनी जल्‍दी-जल्‍दी झटके लग रहे थे कि सामने ही अनिता कुमार जी दिखायी दे गयी। बोली कि मैं अनिता कुमार। अब बताओ क्‍या व्‍यक्तित्‍व है, एकदम धांसू सा और ब्‍लाग पर लगा रही हैं भजन? हमारे दिमाग की तो ऐसी तैसी हो गयी ना।
लेकिन हमें तो मिलने की उत्‍सुकता थी सर्वाधिक कविता जी से, तो सामने ही कुर्सी पर बैठी थी, हमने झट से उन्‍हें पहचान लिया। भाई उनके बालो का एक स्‍टाइल जो है। बहुत ही आत्‍मीयता से मिलन हुआ और खुशी जब ज्‍यादा हो गयी तब मालूम हुआ कि हम एक ही कक्ष में रहने वाले हैं। कविता जी पूरे समय जिस तरह चहचहाती रहीं उससे लग ही नहीं रहा था कि मेरे कल्‍पना की कविता जी हैं। मेरा संकोच एकदम से फुर्र हो गया। कुछ देर बाद ॠषभ देव जी से भी सामना हो गया और मैंने अपना आगे बढ़कर परिचय कराया तो वे बड़ी सहजता से बोले कि मैं तो आपको जानता हूँ। दो दिन तक कई बार उनके साथ बैठना हुआ और लगा कि ब्‍लाग से निकलकर कोई दूसरा ही व्‍यक्तित्‍व सामने आ गया है। या उस परिसर का ही ऐसा कमाल होगा कि सभी लोग अपनी गम्‍भीरता को बिसरा चुके थे। बहुत ही आत्‍मीयता और बहुत ही सहजता।
अब बात सुनिए सुरेश चिपनूलकर जी की, अरे क्‍या छवि बना रखी है? खैर अब शायद उन्‍होंने ब्‍लाग की फोटो तो बदली कर दी है, ऐसा कहीं पढ़ा था। मजेदार बात तो यह है कि वे स्‍वयं फोटोग्राफर है और ऐसी फोटो? उन्‍हें शायद पहले देख लिया होता तो उनके गम्‍भीर आलेखों पर इतनी गम्‍भीरता से विश्‍वास ही नहीं किया होता। कहने का तात्‍पर्य है कि एकदम युवा, सुदर्शन और हँसते रहना वाला व्‍यक्तित्‍व। बात चली है तो अनूप शुक्‍ल जी की हो ही जाए। मेरा उनसे परिचय नहीं था, लेकिन वहाँ देखकर मुझे वे एक जिन्‍दादिल इंसान लगे। प्रवीण पण्‍ड्या जी के लिए बताया गया कि वे कल आएंगे। खैर वे आए और फिर दिमाग की बत्ती लप-झप करने लगी। इतने युवा? लेकिन कठिनाई यह है कि उनका लेखन इतना परिपक्‍व है कि उन्‍हें तुम से सम्‍बोधित करने का साहस नहीं हो रहा।
मुझे लगता था कि ब्‍लाग जगत में युवा कम हैं लेकिन यह क्‍या? यहाँ तो जिसे देखो वो ही युवा है, ऐसा लगा कि मैं ही सबसे अधिक बुजुर्ग हूँ। एक और दिलचस्‍प व्‍यक्तित्‍व यशवन्‍त। रात को आलोक धन्‍वा जी कहीं घूमकर आए थे उनके साथ यशवन्‍त भी थे। आलोक जी बड़े प्‍यार से कहने लगे कि तुम कुछ खाना खा लो। यशवन्‍त बोले कि नहीं मुझे नहीं खाना। स्‍नेहिल पिता की तरह ही वे फिर बोले कि अरे तुमने कुछ नहीं खाया है, जाकर कुछ तो ले लो। लेकिन यह क्‍या, यशवन्‍त जी उठे और सीधे ही आलोक जी के चरणों में ढोक लगा दी, कि मुझे नहीं खाना। कुछ देर बाद ही यशवन्‍त गाने के मूड में थे और अपनी धुन में राग छेड़ रहे थे। मुझे लगा कि इस नवयुवक के अन्‍दर जितना तेज है उसे अभी मार्ग नहीं मिल रहा है उद्घाटित करने का। निश्चित रूप से यह एक क्रान्ति लाएगा। फिर भी मुझे मलाल रहा कि मैं काश उसे और समझ पाती।
इसी कड़ी में एक और नाम है संजय बेंगाणी जी का। वे बोले कि मेरा बेटा मुझसे लम्‍बा निकल चुका है। भाई क्‍या बात है? इतनी सी उम्र अभी लग रही है और ये तो इतने बड़े बेटे की भी बात कर रहे हैं? ऐसे ही युवा हस्‍ताक्षरों में विवेक सिंह, हर्षवर्द्धन जी और गायत्री थे। बस थोड़ा-थोड़ा ही परिचय आया। संजीत त्रिपाठी और डॉ. महेश सिन्‍हा जी तो स्‍टेशन से ही साथ थे तो पहला परिचय उन्‍हीं से आया। अविनाश वाचस्‍पति जी रविन्‍द्र प्रभात जी अपने काम की धुन वाले व्‍यक्ति लगे। और हाँ जाकिर अली रजनीश और शैलेष भारतवासी की बात को कैसे भूल सकती हूँ, जाकिर अली जी के ब्‍लाग को तो मैं साँप की छवि से ही जानती थी और शैलेष तो हिन्‍दयुग्‍म के कारण पूर्व परिचित थे। दोनों ही एकदम शान्‍त स्‍वभाव के लग रहे थे, लेकिन जो शान्‍त दिखते हैं उनमें उर्जा बहुत होती है। प्रियंकर पालीवाल जी और अशोक मिश्र जी से पहला परिचय था तो अभी उनके बारे में लिखने में असमर्थ हूँ। अब बात करें रचना त्रिपाठी की। मैं तो एक ही बात कहूंगी कि ऐसी पत्‍नी सभी को मिल जाए तो इस देश में न जाने कितने सिद्धार्थ सिद्ध हो जाएं। समय बहुत कम था, इसलिए अभी जानना और समझना बहुत शेष है। यह तो आगाज भर था, लेकिन अब ब्‍लाग पढ़ते समय अलग ही भाव आने लगे हैं। इसलिए जितने भी सक्रिय ब्‍लागर हैं उनसे और मिल लें तब देखिए ब्‍लागिंग का आनन्‍द और ही कुछ होगा। मैंने आप सबके बारे में जाना हो सकता है कि मेरे बारे में भी कोई राय बनी होगी? तो सुनो साथियों, राय कैसी भी बना लेना बस स्‍नेह बनाए रखना। हम इस ब्‍लाग जगत में नए विचारों से अवगत होने आए हैं तो आप लोगों से मिलकर अच्‍छा लग रहा है और नवीन विचार भी जान रहे हैं। 

Thursday, October 14, 2010

ब्‍लोगिंग की कार्यशाला – अभी छाछ को बिलौना बाकी है – अजित गुप्‍ता

वर्धा का नाम आते ही महात्‍मा गाँधी और विनोबा भावे का स्‍मरण होने लगता है। यह पावन भूमि दोनों ही महापुरुषों की कर्मभूमि रही है। इसी कारण महात्‍मा गाँधी अन्‍तरराष्‍ट्रीय विश्‍वविद्यालय वर्धा में ब्‍लोगिंग पर कार्यशाला का निमंत्रण एक सुखद बात थी। साहित्‍य और पत्रकारिता के क्षेत्र में सम्‍मेलन, सेमिनार और कार्यशालाएं नित्‍य प्रति होती हैं लेकिन ब्‍लागिंग के क्षेत्र में विधिवत कार्यशालाओं का प्रारम्‍भ करने का श्रेय श्री सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी जी को जाता है। अभी हम जैसे कई लोग जो ब्‍लागिंग के क्षेत्र से नए जुड़े हैं, समझ नहीं पाए हैं, ब्‍लागिंग और ब्‍लागर की मानसिकता। कभी एक परिवार सा लगने लगता है तो कभी एकदम ही आभासी दुनिया मात्र। मेरे जैसा व्‍यक्ति जो नदी में डूबकर नहीं चलता बल्कि किनारे ही अपनी धुन में चलता है, के लिए एक नवीन अनुभव था।
वर्धा पहुंचने पर त्रिपाठी जी ने विश्‍वविद्यालय के बारे में बताया कि यह लगभग 300 एकड़ क्षेत्रफल में विस्‍तार लिए है और इसकी खूबसूरती इसकी पांच पहाडियों में हैं। वर्धा बेहद खूबसूरत और सादगी भरा शहर लगा। गाँधी जी की कुटिया देखना ऐसा अनुभव था जैसे हम भी उस ऐतिहासिक युग का हिस्‍सा बन गए हों। मैं जब रेल से वर्धा जा रही थी तो बजाज कम्‍पनी का एक पूर्व अधिकारी मेरे साथ ही यात्रा कर रहे थे, उन्‍होंने मुझे बताया कि किस प्रकार बजाज परिवार आज भी वर्ष में एक बार वर्धा जाते हैं और उसी सादगी के साथ रहते हुए सारी योजनाओं पर विचार होता है। विनोबा जी की पावन स्‍थली जो पवनार नदी के किनारे बसी है, एक अभूतपूर्व आनन्‍द देती है। हमने इन दोनों महापुरुषों को नहीं देखा लेकिन वहाँ जाने पर इतिहास को अपने साथ खड़े हुए पाया। मुझे वर्धा में सबसे अधिक खुशी तब हुई जब मैंने गाँधीजी के निजि सचिव महादेव भाई के नाम पर बना एक भवन देखा। गाँधीजी के बारे में पढ़ते हुए महादेव भाई सर्वाधिक प्रभावित करते रहे हैं,  लेकिन देश उनके कृतित्‍व का स्‍मरण नहीं करता। यहाँ आने पर उन्‍हें नमन करने का मन हो आया।
जैसा मैंने लिखा है कि ब्‍लागिंग का क्षेत्र अभी नवीन है और इसकी नब्‍ज कहाँ से संचालित है इसका किसी को इल्‍म नहीं है, ना ही यह समझ है कि आखिर हम लिख क्‍या रहे हैं? सब बस अपनी समझ और अपनी धुन में लिखे जा रहे हैं। यहाँ बात आचार-संहिता की करनी थी, लेकिन सभी ने किसी भी व्‍यावहारिक या सैद्धान्तिक प्रतिबन्‍धों को नकार दिया। लेकिन हमारे नकारने से तो दुनिया चलती नहीं कि हमने कह दिया कि बिल्‍ली मुझे नहीं देख रही और हम कबूतर की तरह आँख बन्‍द कर बैठ जाएंगे। बिल्‍ली तो आ चुकी है, सायबर कानून भी बन चुके हैं और हम मनमानी के दौर से कहीं दूर जिम्‍मेदारी के दौर तक आ प‍हुंचे हैं। वो बात अलग है कि हमें अभी पता ही नहीं कि कानून का शिकंजा हम पर कस चुका है। बस अभी सुविधा यह है कि हमारी पुलिस इस कानून के बारे में ज्‍यादा कुछ जानती नहीं। श्री पवन दुग्‍गल जी ने सायबर कानूनों के बारे में बताया तो पुलिस की कार्यवाही के बारे में कुछ मजेदार तथ्‍य भी बताए। यहाँ तो घटनाओं का उल्‍लेख कर रही हूँ जो दुग्‍गल जी ने बतायी थी -
1-  अश्‍लीलता को परोस रही एक दुकान पर छापा मारा गया और वहाँ से 17 कम्‍प्‍यूटर बरामद किए गए। पुलिस वाले इसे अपनी बहुत बड़ी जीत मान रहे थे। लेकिन उन्‍हें धक्‍का जब लगा कि न्‍यायालय ने जब उनसे कम्‍प्‍यूटर मांगा। असल में वे सब मोनीटर उठा लाए थे और सीपीयू वहीं छोड़ आए थे।
2- इसी प्रकार एक जगह से पुलिस ने कुछ सीडी बरामद की। अब देखिए हमारी पुलिस। उन्‍होंने बड़े प्रेम से छेद करके उन सीडियों को फाइल कर दिया।
हमारी पुलिस अभी अज्ञानी है लेकिन कुछ ही दिनों में उसे भी कम्‍प्‍यूटर का ज्ञान हो जाएगा तब इस ब्‍लाग जगत पर प्रसारित अश्‍लीलता को कानून से नहीं बंचा पाएंगे।
कार्यशाला पर कई दृष्टिकोणों से लिखा गया, इसलिए उन सारी बातों को दोहराने का कोई अर्थ नहीं है। मुझे दुख रहा कि मैं समापन सत्र में वहाँ उपस्थित नहीं रह पायी। मुझे नागपुर में एक अन्‍य कार्यक्रम में अपनी उपस्थिति दर्ज करानी थी। लेकिन फिर भी वहाँ आए सभी लोगों को जानने और समझने का अवसर मिला। ब्‍लागिंग का मिजाज क्‍या है, कुछ-कुछ समझ भी पायी। यहाँ कुछ लोगों के लिए अवश्‍य लिखने का मन हो रहा है, लेकिन पोस्‍ट लम्‍बी ना हो जाए उसका डर है। लेकिन अभी तो पहली बार मिले हैं, इस सफर में न जाने कितनी बार आमने-सामने होंगे तब शायद हम जैसे अपनी धुन में चलने वाले लोग भी यहाँ के रंग-ढंगों से परिचित हो जाएं।
अन्‍त में धन्‍यवाद देना चाहती हूँ त्रिपाठी जी का, जिनके सौहार्द के कारण मेरी नवीन पुस्‍तक प्रेम का पाठ लघु कथा संग्रह का वहाँ विमोचन हो सका। जिन लोगों ने मुझे प्रभावित किया मैं उनके बारे में एक अलग पोस्‍ट लिखने का प्रयास करूंगी क्‍योंकि वह एक अलग अनुभव है। बस अन्‍त में यही कहना चाहूंगी कि ऐसे आयोजन प्रारम्‍भ हैं हमें भी अपने स्‍तर पर अकादमियों, विश्‍वविद्यालयों आदि के संसाधनों के माध्‍यम से इस पहल को निरन्‍तर रखना चाहिए जिससे हमारा लेखन सार्थक दिशा में कदम रख सके। साहित्यिक संस्‍थाओं के समान ही ब्‍लागिंग की संस्‍थाएं बनाकर इन आयोजनों को करने की पहल करनी चाहिए। अभी छाछ को बिलौना बाकी है, बस बिलोते रहिए, मक्‍खन निकल आएगा और तब छाछ भी अमृतमयी बन जाएगी और मक्‍खन भी। आपने यहाँ तक पढ़ लिया, आपका आभार।