मेरी जानकारी के अनुसार देश भर में साधु-संन्यासी, मुल्ला-मौलवी, सिस्टर-पादरी
आदि-आदि जो भी धर्म और समाज हित में घर-बार छोड़कर समाज के भरोसे काम कर रहे हैं, उनकी संख्या
एक करोड़ से भी अधिक है। ये समाज के धन पर ही पलते हैं और फलते-फूलते भी हैं।
दूसरी तरफ फिल्म उद्योग से जुड़े, कलाकार, संगीतज्ञ, लेखक आदि-आदि की संख्या देखें तो यह भी करोड़ के
आस-पास तो है ही। ये दोनों ही प्रकार की प्रजातियाँ लोगों के मन को प्रभावित करती
हैं और नये प्रकार के जीवन की ओर ले जाती हैं। साधु-संन्यासी वाला वर्ग एक स्वर्ग
दिखाता है और इस दुनिया को निस्सार कहता है जबकि फिल्म जगत वाला वर्ग धरती पर ही
स्वर्ग उतार देता है। दोनों में कोई अन्तर नहीं है, एक कहता है स्वर्ग में अप्सराएं हैं, मय है मयखाने
हैं, बस
जितना चाहे भोग लो। कोई कर्तव्य नहीं बस भोग। तो दूसरा कहता है कि इस दुनिया को भी
मय और मयखाने के युक्त बना दो, जहाँ अप्सराएं विचरण करती हैं और बस भोग ही भोग
है। एक कल्पना लोक में ले जाकर भोग की सम्भावना दिखा रहा है, दूसरा साक्षात
सुख दिखा रहा है। दोनों ही वर्गों से लोग प्रभावित हैं, बस अन्तर इतना
है कि स्वर्ग की कल्पना वाले भी धरती पर
ही साक्षात स्वर्ग की कल्पना में कुछ देर जी लेना चाहते हैं और जो इस धरती पर ही स्वर्ग के भोग खोज रहे हैं वे तो पूरी
तरह से डूब गये हैं इस सिद्धान्त में। एक कल्पना का स्वर्ग दिखा रहा है दूसरा
साक्षात स्वर्ग दिखा रहा है, लेकिन दोनों ही दिखाने वाले आनन्द में हैं, बस यदि कहीं
कष्ट है तो देखने वालों को। दोनों वर्ग लुट रहे हैं, स्वर्ग की कल्पना के नाम पर एक
करोड़ लोगों को समाज पाल रहा है, उनको स्वर्ग से भी अधिक सुख दे रहा है और जनता
नरक सा जीवन जी रही है। इस दुनिया का त्याग करो, जो भी तुम्हारे पास है, सब दे दो और
डूब जाओ स्वर्ग की कल्पना में। भूखे रहो, प्यासे रहो, लेकिन स्वर्ग का मार्ग मत बिसराओ। दूसरा कह रहा
है कि मुझे देखो, मेरे
ऊपर पैसा फेंको, मैं
तुम्हें धरती के स्वर्ग में रहने की कला सिखाऊंगा। दोनों की दुनिया चल रही है, भक्त इधर भी
हैं और उधर भी हैं।
स्वर्ग का साक्षात सुख लेने के लिये दिल्ली में
11 लोग मृत्यु को गले लगा लेते हैं तो दूसरी तरफ फिल्म "संजू" हिट हो
जाती है। तुम मरकर स्वर्ग देखोगे और हम कलाकार बनकर यहीं स्वर्ग बना देंगे। इधर डाकू-गुण्डे-मवाली
को कहा जाता है कि छोड़ दो यह सब, हमारा ताबीज बांध लो और स्वर्ग की राह पकड़ लो।
उधर भी कहा जाता है कि तुम्हारे सौ खून माफ हो जाएंगे यदि कलाकार बन जाओ। लोग
मचलने लगते हैं अपराधी को हीरो बनाने में, सिद्ध कर देते हैं कि यह अपराधी नहीं अपितु
साक्षात स्वर्ग का बाशिन्दा है जो इसी धरती पर भोग कर रहा था। तुम वहाँ भोग
कराओंगे और हम यहाँ भोग कराते हैं, अन्तर क्या है भाई! दो प्रकार के सोफ्टवियर फिट
किये जा रहे हैं, लेकिन
हम जैसे कुछ लोग भी हैं जिनके सिस्टम में ये दोनों प्रकार के ही सोफ्टवियर डाउनलोड
नहीं होते। ना हम जीते-जी फांसी का फंदा लगाकर स्वर्ग जाना चाहते हैं और ना ही अपराधी
को स्वर्ग की सैर कराना चाहते हैं। हम तो इस धरती को धरती ही रखना चाहते हैं, जहाँ केवल
भोगने को अप्सराएं ना हो, मय ना
हो और ना ही मयखाने हों। बस सृष्टि के प्राणी हों, उनमें संतुलन हो। हम कहते हैं कि यह
धरतीनुमा सृष्टि ही सत्य है, इस धरती में जो कुछ है वही सत्य है, इसी सत्य को
सुन्दर बनाना है। किसी के भी दिखाये स्वर्ग के पीछे हम नहीं भागते, ना पीर-फकीर
के पैर पूजते हैं और ना ही किसी कलाकार के पीछे दीवाने होकर दौड़ते हैं। बस जो
निर्माण कर रहा है उसके सहयोगी बनना चाहते हैं। इस धरती को जो हमारे लिये सहेज रहा
है हम थोड़ा सा योगदान उसमें करना चाहते हैं। दुनिया को अपनी नजर से देखना चाहते
हैं। इधर भी स्वर्ग है और उधर भी स्वर्ग है बस बीच में हम जैसे तुच्छ प्राणी पिस
रहे हैं कि जाएं तो किधर जाएं! फांसी के फन्दे पर लटक जाएं और स्वर्ग पा जाएं या
फिर संजू फिल्म देखकर कलाकार को महान बनाकर इसी धरती को स्वर्ग बनाने में जुट जाएं।
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9 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (04-07-2018) को "कामी और कुसन्त" (चर्चा अंक-3021) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
आज सलिल वर्मा जी ले कर आयें हैं ब्लॉग बुलेटिन की २१०० वीं बुलेटिन अपने ही अलग अंदाज़ में ... तो पढ़ना न भूलें ...
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, कुछ इधर की - कुछ उधर की : 2100 वीं ब्लॉग-बुलेटिन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
पलायनवाद सिखाते हैं दोनों माध्यम...
सटीक !
राधा तिवारी जी, ब्लाग बुलेटिन आपका आभार।
वाणीजी आभार।
जहाँ हैं वहीं बने रहना है. सच है, जीवन और और जटिल होता जा रहा है.
घुघुती जी आभार।
अप्प दीपो भव - स्वविवेक जाग्रत कर अपना निर्णय स्वयं करना ही उचित है .
प्रतिभाजी बहुत दिनों बाद दर्शन हुए, कहाँ हैं आप?
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