Saturday, July 28, 2018

बातें हैं तो हम-तुम हैं


बातें – बातें  और बातें, बस यही है जिन्दगी। चुप तो एक दिन  होना ही है। उस अन्तिम चुप के आने तक जो बातें हैं वे ही हमें जीवित रखती हैं। महिलाओं के बीच बैठ जाइए, जीवन की टंकार सुनायी देगी। टंकार क्यों? टंकार तलवारों के खड़कने से भी होती है और मन के टन्न बोलने से भी होती है। झगड़े में भी जीवन है और प्रेम में भी जीवन है। मैं जब महिलाओं के समूह को पढ़ती हूँ तो वहाँ मुझे जीवन की दस्तक सुनायी देती है, कहीं चुलबुली हँसी बिखर रही होती है तो कहीं शिकायत का दौर, लेकिन लगता  है कि हम सब खुद को अभिव्यक्त कर रहे हैं। जहाँ अभिव्यक्ति नहीं वहाँ मानो जीवन ही नहीं है। महिला की अभिव्यक्ति बगिया जैसी होती है, भाँत-भाँत के फूल और भाँत-भाँत की अभिव्यक्ति। जीवन के सारे ही अनुभव का पिटारा लिये होती है महिला। उसका घर ही सृष्टि का पर्याय बन जाता है। बगिया के फूलों के रंग आपको सावचेत करते हैं कि आपके बिखरते और बेतरतीब हुए रंगों को आप सम्भाल लें नहीं तो हमारे बीच बदरंगी नहीं चलेगी। इसलिये जीवन में करीने से सजने का नाम भी है महिला। खुद सजना, औरों को सजाना और सबके मिजाज को खुशगवार बना देना।
अजी चुप सी क्यूँ लगी है, जरा कुछ तो बोलिये, यह कहते-कहते मेरी जुबान भी चुप रहना सीख गयी, लेकिन बातें तो अन्दर दफन हैं, उन्हें तो निकास चाहिये। जुबान का काम हाथों की अंगुलियों ने करना शुरू किया और बातें कागज पर अपने मांडने मांडने लगी। पुरुषों के साथ जीवन बिताते बिताते कब जीवन-रस से वंचित हो गयी पता ही नहीं चला लेकिन एक दिन बोधि-वृक्ष मिल गया और उसके नीचे बैठकर लगा कि जीवन को महिला की तरह जीकर देखना चाहिये। देर तो बहुतेरी हो चली थी लेकिन सोचा जब जागें तभी सवेरा। मुझे इतने रंग दिखायी दिये जिनका मेरी जिन्दगी से नाता ही टूट गया था, मैंने सारे रंगों का अपने पास बुलाया, उन्हें हाथों से सहलाया, दुलार किया और कहा कि मेरे जीवन में भी आ जाओ। लेकिन सूर्य और चन्द्रमा के बीच जैसे पृथ्वी आ जाए और चन्द्रमा अपनी रंगत ही खो दे वैसे ही मेरे और रंगों के बीच उम्र का तकाजा आ जाए और मन के रंग अपनी रंगत को बचाने में लग जाएं, ऐसी ही स्थिति मेरी है।
मैंने जिन्दगी में बहुत कुछ खो दिया है, महिला होने का सुख मैंने जाना ही नहीं क्योंकि जीवन ही पुरुषों के बीच निकला। घर में भी चुप लगी रहती है तो मेरा मौन मुखर कब हो? साक्षात जीवन में यौवन का साथ बामुश्किल मिलता है, क्योंकि यौवन तो उल्लास है और थके-हारे पैर उल्लास का साथ दें तो कैसे दें, बस पिछड़ जाते हैं हम जैसे लोग। जीवन को भरपूर जीना और भरपूर जीवन को महसूस करना, दोनों ही सुख हैं। कोई सा मिल जाए, बस जीना हो जाता है। कुछ लोग जीवन में जीते हैं और कुछ लोग सपनों में जीते हैं लेकिन अब दोनों व्यवस्थाएं विज्ञान ने साक्षात उपलब्ध करा दी हैं। सपनों में जीने के लिये आँख मूंदना जरूरी नहीं अपितु अब आँख खोलना जरूरी है, नेट खोलिये और महिलाओं के समूह को पढ़ने की लत लगाइए, जीवन आँखों में उतरता जाएंगा। मैं भी यही करने लगी हूँ, आप लोगों का साथ जीवन के सारे ही रंगों से परिचय कराने लगा है। हँसी अपने आप दहलीज पर आकर घण्टी बजाने लगी है, मुझे उठकर दरवाजा खोलना ही पड़ता है। बातें जो अपना स्वाद कभी जुबान को चखने नहीं देती थी अब आँखों के रास्ते रस बरसाने लगी हैं और जुबान की बेचैनी कम हुई है। मैं यौवन को नहीं कहती कि तू मेरे द्वार आ, बस मैं ही यौवन की हँसी अनुभूत कर लेती हूँ। बादल से एक बूंद गिरी थी, लेकिन सूर्य ने उस बूंद में इन्द्रधनुष के रंग भर दिये और सारा जीवन दौड़कर बाहर आ गया, इस सुन्दर रंगों के जादुई नजारे को देखने। आप बस खिलखिलाती रहें जिससे हमारा जीवन भी खिलखिलाने को उतावला हो जाए। बस याद रखना अपनी बातों का खजाना, इसे कम ना होने देना क्योंकि बातें हैं तो जीवन है, बातें हैं तो यौवन है और बातें हैं तो हम-तुम हैं।
www.sahityakar.com

2 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (29-07-2018) को "चाँद पीले से लाल होना चाह रहा है" (चर्चा अंक-3047) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

अजित गुप्ता का कोना said...

आभार शास्त्रीजी।