Thursday, January 24, 2013

जीवन के दो मूल शब्‍द - अपमान और सम्‍मान (insult & respect)

मान शब्‍द मन के करीब लगता है, जो शब्‍द मन को क्षुद्र बनाएं वे अपमान लगते हैं और जो शब्‍द आपको समानता का अनुभव कराएं वे मन को अच्‍छे लगते हैं। दूसरों को छोटा सिद्ध करने के लिए हम दिनभर में न जाने कितने शब्‍दों का प्रयोग करते हैं। इसके विपरीत दूसरों को अपने समान मानते हुए उन्‍हें आदर सूचक शब्‍दों से पुकारते भी हैं। दुनिया में रोटी, कपड़ा और मकान के भी पूर्व कहीं इन दो शब्‍दों का जमावड़ा है। सम्‍पूर्ण पोस्‍ट पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें - http://sahityakar.com/wordpress/%E0%A4%9C%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%A8-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%A6%E0%A5%8B-%E0%A4%AE%E0%A5%82%E0%A4%B2-%E0%A4%B6%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E2%80%8D%E0%A4%A6-%E0%A4%85%E0%A4%AA%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A8/

4 comments:

रविकर said...

आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति शुक्रवार के चर्चा मंच पर ।।

अजित गुप्ता का कोना said...

धन्‍यवाद जी

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आशा और निराशा के क्षण,
पग-पग पर मिलते हैं।

काँटों की पहरेदारी में,
ही गुलाब खिलते हैं।

पतझड़ और बसन्त कभी,
हरियाली आती है।
सर्दी-गर्मी सहने का,
सन्देश सिखाती है।
यश और अपयश साथ-साथ,
दायें-बाये चलते हैं।
काँटो की पहरेदारी में,
ही गुलाब खिलते हैं।

जीवन कभी कठोर कठिन,
और कभी सरल सा है।
भोजन अमृततुल्य कभी,
तो कभी गरल सा है।
सागर के खारे जल में,
ही मोती पलते हैं।
काँटो की पहरेदारी में,
ही गुलाब खिलते हैं।

अजित गुप्ता का कोना said...

शास्‍त्री जी, बेहद खूबसूरत रचना है। आभार।