Friday, May 27, 2011

राजा आज भी क्यों हैं लोकप्रिय?- अजित गुप्‍ता



भगवान के प्रति व्यक्ति की भक्ति और विश्वास कभी भी समाप्त नहीं होता। अच्छे से अच्छा नास्तिक भी कभी ना कभी भगवान के प्रति नतमस्तक होता ही है। मनुष्य ने कभी भगवान को नहीं देखा। जिन्दगी में अनगिनत दुख हैं और प्रत्येक व्यक्ति दुखों से सरोबार भी है। बहुत अधिक आघात उसे अकस्मात ही लगे हैं। सारे दुखों को झेलने के बाद भी व्यक्ति का भगवान से भरोसा नहीं उठता। मनुष्य भगवान में सुरक्षा ढूंढता है। भगवान सभी के लिए अंतिम सहारा होता है। जब सारे साधन व्यर्थ हो जाते हैं तब केवल भगवान का सहारा ही उसमें आशा का संचार करता है। सभी को सफल परिणाम नहीं मिलते लेकिन यदा कदा आश्चर्यजनक परिणाम देखने को मिलते हैं जिन्हें हम चमत्कार कह देते हैं। यही इक्की-दुक्की सुफलता समस्त मानवता के लिए प्रेरणा बन जाती हैं। जब दुखों के समय चमत्कार नहीं होता तब मनुष्य कहता है कि मेरे भाग्य में ऐसा ही था या मैं पूर्व जन्मों के कर्मों को भुगत रहा हूँ। लेकिन जब अचानक चमत्कार होते हैं तब वह भगवान की कृपा मानता है। यह मानव स्वभाव है। हजारों, लाखों वर्षों के संस्कारों के बाद हमारे मानस में यह बात स्थिर हो गयी है।
मनुष्य ने भगवान के बाद ऐसा ही विश्वास राजा के प्रति प्रदर्शित किया था। वह राजा के समक्ष भी अंतिम विकल्प के रूप में जाता था। ना जाने कितनों को निराश होना पड़ता था लेकिन कई फल भी पा जाते थे। इसी कारण प्रजा और राजा का पिता और पुत्र का सम्बन्ध माना जाता था। प्रजा राजा को पिता की तरह पालनहार मानती थी। प्रजा का अंतिम सुरक्षा कवच राजा ही होता था। भारत में स्वतंत्रता के बाद लोकतंत्र स्थापित हुआ और राजाओं का काल समाप्त हो गया। राजाओं के प्रति अनेक धारणाएं इस काल में निर्मित की गयी। जितना भी उनका कुत्सित स्वरूप हो सकता था प्रजा के समक्ष लाया गया। यह क्रम आज तक चल रहा है। जब भारत में प्रथम आम चुनाव हुए तब कई राजा भी चुनाव में खड़े हुए और प्रजा ने उन्हें भारी बहुमत से जिताया। तब एक प्रश्न सर्व सामान्य के मन में उदित हुआ कि जब राजा इतने अत्याचारी थे तब प्रजा का प्यार उन्हें कैसे मिला? लोगों ने कहा कि प्रजा के मन से अभी तब उनका प्रभाव नहीं गया है। लेकिन आज स्वतंत्रता के 60 वर्ष बाद भी राजाओं के प्रति प्रजा को मोह समाप्त नहीं हुआ है। क्या कारण है? एक तरफ राजाओं के प्रति दुष्प्रचार का अतिरेक है फिर भी प्रजा के मन से उनका मोह नहीं जाता, आखिर इसका क्या कारण है?
शाश्वत लेखन - राजाओं द्वारा निर्मित अनेक संग्रहालय देखें हैं। उनको देखने के बाद राजाओं की विलासिता ही उजागर होती रही है क्योंकि उनकी विलासिता के बारे में ही हमारी पीढ़ी ने पढ़ा है। इसलिए ही पुरानी पीढ़ी की भक्ति स्वतंत्रता के बाद जन्में व्यक्तियों के गले नहीं उतरती। लेकिन एक दिन अकस्मात ही मुझे उदयपुर महाराणा का पुस्तक संग्रहालय देखने का अवसर मिल गया। उदयपुर के पूर्व राजाओं द्वारा किए गए कार्यों का लेखा जोखा वहाँ शब्द रूप में संग्रहित है। एक एक मिनट का हिसाब लिखा गया है। राजा की दिनचर्या खुली किताब की तरह वहाँ संग्रहित है। उन्हीं पुरानी बही खातों को देखते हुए शब्द की ताकत का अंदाजा हुआ। जो भी शब्द लिखा जाता है वह एक दिन इतिहास बनता है और इतिहास बनकर वर्तमान को गुदगुदाता है। जब भी शब्द लिखा जाता है तब कितने लोगों को प्रेरणा देता है इसका अंदाजा शब्दों को अनुभूत करके ही किया जा सकता है। जब प्रजा राजा के बारे में जानती है तो अपनत्व का अनुभव करती है। जब मनुष्य भगवान के बारे में जानते हैं उन्हें साधारण मनुष्य की तरह किस्से कहानियों में पढ़ते हैं तब भगवान आत्मीय लगते हैं। हमने भगवान और राजा दोनों को ही अपने दिल में बसा कर रखा। बसाने का माध्यम बने ये शब्द। एक भगवान है केवल इतना लिख देने से आत्मीय भाव कैसे बनता? भगवान विष्णु है, उनके साथ लक्ष्मी है। भगवान राम है, कृष्ण है उनका जीवन चरित्र हमारे सामने है और जीवन चरित्र सामने होने से आत्मीयता का निर्माण होता है। जब रामायण लिखी गयी और जब रामचरित मानस लिखा गया तब राम जन जन के प्रिय हुए। अतः राजा उतना ही लोकप्रिय होता है जितना वह जनता के समक्ष होता है। किसी कि जीवनी पढ़ते ही वह व्यक्ति हमारा आत्मीय बन जाता है अतः राजाओं की लोकप्रियता का एक कारण ये शब्द हैं।
दाता एवं रक्षक - राजाओं ने प्रजा को भगवान की तरह सुरक्षा भी दी। प्रजा का अंतिम सहारा राजा ही बनते थे। गाँव जलकर राख हो गए या बाढ़ में बह गए, राजा ही एक मात्र सहारा बनते थे। सुरक्षा का भार राजा पर ही था। युद्ध होते थे और हार जाने पर प्रभाव राजा पर ही पड़ता था। इसलिए भगवान के बाद राजा को ही प्रजा रक्षक मानती थी। उनके अत्याचारों को शैतान का रूप मानकर श्रेष्ठ राजा के आने का इंतजार करती थी। इसलिए भारत में जितने भी श्रेष्ठ राजा हुए प्रजा ने उन्हें भगवान का दर्जा दिया। अत्याचार होने पर प्रजा भाग्य का ही दोष मानती रही और कभी कभी राजा के द्वारा सहयोग देने को भगवान की कृपा के समान मानती रही। इसलिए आज तक प्रजा और राजा की आत्मीयता बनी हुयी है। वर्तमान में देखें तो लोकतंत्र में कोई भी स्थिर नहीं हैं आज एक राजनेता है तो कल दूसरा। देश में युद्ध जैसी कोई भी विपरीत परिस्थिति आने पर जहाँ राजा को ही परिणाम भोगने पड़ते थे वहीं वर्तमान में राजनेता सर्वाधिक सुरक्षित है। राजतंत्र उनके लिए उपभोग का साधन बन गया है। प्रजा आज राजतंत्र को भगवान की तरह अंतिम सहारा नहीं मानती। यही कारण है कि आज राजनेताओं के प्रति आत्मीयता का भाव उत्पन्न नहीं होता। वह दाता नहीं है अपितु भिक्षुक है। प्रतिदिन होने वाले चुनावों ने उन्हें भिक्षुक बना दिया है। देश का सारा समय राजनेता चुनने में ही व्यतीत हो रहा है। राजनेता के प्रति भावना निर्माण का समय तो आता ही नहीं। अतः राजाओं के प्रति आज तक चला आ रहा दाता का भाव प्रजा के मन से कम नहीं होता।
श्रेष्ठता का विश्वास - आज हम जिन्हें भगवान मानकर पूजते हैं वे सभी राजा थे। राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध आदि। हमारे यहाँ विश्वास की एक परम्परा थी कि यदि कंस हुआ है तो कृष्ण भी होंगे, हिरण्यकश्यप हुए तो प्रहलाद भी आएगा। लेकिन आज एक दूसरे के प्रति आरोप प्रत्यारोप के कारण सारे ही राजनेता शैतान की श्रेणी में आ गए हैं। कोई कृष्ण नहीं, कोई राम नहीं बस हैं तो केवल कंस और रावण। प्रसार माध्यमों ने व्यक्ति के छोटे छोटे अवगुणों को जनता के समक्ष अपराधों की तरह प्रदर्शित किया है और यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि सभी राजनेता अपराधी या चरित्रहीन हैं। आज यह क्रम चल निकला है। हम सभी की सम्भावित कमजोरियों को ही ढूंढते दिखायी देते हैं।
मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति - राजाओं का काल यदि हम तटस्थ भाव से देखें तो पाएंगे कि जितना निर्माण राजाओं के काल में हुआ उतना शायद अभी नहीं हुआ। उदयपुर की ही बात करें और केवल जल स्त्रोतों को ही देखें तो वे सब राजाओं के काल में बने और आज हम उन्हें संरक्षित भी नहीं रख पा रहे। इसी प्रकार कला और साहित्य पूर्ण रूप से राज्याश्रित था। उस काल में कितनी पेंटिग्स बनी, कितना साहित्य लिखा गया इसका तो पैमाना ही नहीं है। आज इतिहास को देने के लिए हमारे पास क्या है? साहित्य के नाम पर समाचार पत्र रह गए हैं और ये सारे राजनीति की गंदगी से भरे पड़े हैं। चित्र के नाम पर अश्लीलता परोसी जा रही है जो भविष्य में शायद हमारा मूल्यांकन करे। आज प्रजा असुरक्षित अनुभव करती है। आज देश में जितने भी संग्रहालय हैं वे सब राजाओं की देन है। जीवन की मूल भूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उन्होंने कार्य किए। अतः उस युग में उपलब्ध संसाधन जनता के लिए भी सुलभ कराए गए। सबसे बढ़कर कला और विज्ञान को जितना आश्रय राजाओं के काल में मिला शायद ऐसा अभी नहीं हुआ। इसीलिए आज हम प्रत्येक क्षेत्र में पुरातन के मुकाबले अविकसित दिखायी देते हैं। वास्तुशास्त्र, शिल्प, ज्योतिष, चिकित्सा, साहित्य, चित्रकारी, हस्तकला आदि में आज हम उस काल को छू भी नहीं पाएं हैं। ऐसे में यदि कुछ लोगों के मन में आज भी राजा को भगवान समझा जाता है तो शायद यह उनकी भूल नहीं है। इसलिए राजाओं का इस देश को क्या योगदान रहा है, यह बात जनता के समक्ष आनी चाहिए। लोकतंत्र के वर्तमान स्वरूप को देखकर आज प्रश्न खुद ब खुद निकल रहे हैं। लोग कहने लगे हैं कि यदि इसी का नाम लोकतंत्र है तो फिर ऐसे लोकतंत्र से तो राजशाही ही श्रेष्ठ थी। यह भी निर्विवादित सत्य है कि लोकतंत्र सर्वश्रेष्ठ प्रणाली है लेकिन गैर जिम्मेदार नेतृत्व कभी भी हितकर नहीं होता। अतः आज भारत के प्राचीन स्वरूप और वर्तमान राज्य प्रणाली के बारे में विस्तार से बहस होनी चाहिए। राजाओं का उज्ज्वल कृतित्व जनता के समक्ष आना ही चाहिए। किसी भी शासन प्रणाली में अनेक कमियां हो सकती हैं लेकिन अच्छाइयां भी होती हैं। अतः आज अनेक पहलू हैं जो राजाओं की लोकप्रियता को जन जन तक पहुंचाते हैं। यही कारण है कि राजाओं का चरित्र हनन इतने व्यापक पैमाने से करने पर भी उनकी हस्ती मिटती नहीं। आज भी जनता उन्हें भगवान के बाद दूसरे संरक्षक के रूप में पूजती है। शहर के सुंदर परकोटे, बावड़िया, तालाब, मंदिर आज भी सभी को अभिभूत करते हैं। आज भी पर्यटक राजमहलों में सुरक्षित संग्रहालय देखने अवश्य जाता है। आज भी कलाकार राज परिवारों की तरफ ही आशा भरी निगाहों से देखते हैं।

40 comments:

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

राजे-रानियों का आकर्षण उन आम लोगों के लिए फ़ैटेसी होता है जो इनसे दूर होते हैं. जो इनके नज़दीक़ होते हैं उनके लिए राजाओं में awe जैसा कुछ नहीं होता...

Maheshwari kaneri said...

सही कहा आपने…सारगर्भित आलेख…

vandana gupta said...

आपकी पोस्ट यहाँ भी है………http://tetalaa.blogspot.com/2011/05/blog-post_27.html

kshama said...

यह भी निर्विवादित सत्य है कि लोकतंत्र सर्वश्रेष्ठ प्रणाली है लेकिन गैर जिम्मेदार नेतृत्व कभी भी हितकर नहीं होता। अतः आज भारत के प्राचीन स्वरूप और वर्तमान राज्य प्रणाली के बारे में विस्तार से बहस होनी चाहिए। राजाओं का उज्ज्वल कृतित्व जनता के समक्ष आना ही चाहिए। किसी भी शासन प्रणाली में अनेक कमियां हो सकती हैं लेकिन अच्छाइयां भी होती हैं। अतः आज अनेक पहलू हैं जो राजाओं की लोकप्रियता को जन जन तक पहुंचाते हैं। यही कारण है कि राजाओं का चरित्र हनन इतने व्यापक पैमाने से करने पर भी उनकी हस्ती मिटती नहीं।
Bilkul sahee kaha....sahmat hun aapse pooree tarah se!

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

आज प्रश्न खुद ब खुद निकल रहे हैं। लोग कहने लगे हैं कि यदि इसी का नाम लोकतंत्र है तो फिर ऐसे लोकतंत्र से तो राजशाही ही श्रेष्ठ थी। यह भी निर्विवादित सत्य है कि लोकतंत्र सर्वश्रेष्ठ प्रणाली है लेकिन गैर जिम्मेदार नेतृत्व कभी भी हितकर नहीं होता.

सही विश्लेषण किया है ...इतिहास इसका गवाह है ...सरथ लेख ..आभार

Shalini kaushik said...

bahut sahi bat kahi hain aapne ajit ji .aaj bhi rajaon ke prati vahi moh aakarshan hai jo sadiyon pahle tha .unhe bhagvan kee tarh pooja jata tha aur aaj kee sthitiyan bhinna hote hue bhi shiksha ka prachar prasar hote hue bhi vahi bat havi hai ye dukhad hai.sarthak aalekh.

rashmi ravija said...

राजाओं ने सुन्दर तालाब, मंदिर, बावड़ी तो बनवाये ...जो आज भी दर्शनीय स्थल के रूप में उपस्थित हैं...पर उनके राज्यकाल में गरीब-दलित, उनलोगों के क्या हाल थे??...किस तरह की सजाएं दी जाती थीं??...इन सबका आकलन ही होना चाहिए.

राजाओं की मनमानी की भी कहानियाँ कम प्रचलित नहीं और राजा के पुस्तकालय में जो किताबें होंगी...उनमे लेखकों ने तो सिर्फ उनकी कृतियों का ही बखान किया होगा.उसे इतिहास का दर्जा नहीं दिया जा सकता.

कमियाँ हर तंत्र में हैं...लोकतंत्र हो या राजतंत्र.

संजय कुमार चौरसिया said...

सही कहा आपने

सुज्ञ said...

आपनें बहुत सही परिभाषित किया है। यह बात सही है की राजाओं से ही महापुरूष निकले और उनके समक्ष खलनायक भी राजा ही हुआ करते थे।
पर प्रचीन काल में पालनहार राजाओं की संख्या अधिक हुआ करती थी और दुराचारी राजाओं की संख्या कम।
हम इतिहास पर नज़र करते है तो मुगल-काल के बाद विलासी राजाओं की संख्या बढती प्रतीत होती है और अन्तत: अंग्रेजो ने तो उन्हे पूरा ही विलासी बना दिया। उस काल के बाद ही राजाओं के प्रति यह आक्रोश नजर आता है।
राजाओं के लिये यह श्रेष्ठ सम्मान प्राचीन वास्तविक राजाओं के प्रजा-पालन-धर्म के कारण ही था। दुष्कर काम भी था। आज भी किसी ईमानदार को सर्वोच्छ सत्ता का ऑफर किया जाय तो वह इन्कार ही करेगा। प्रजा-पालन वाकई दुष्कर काम है। और जिन्हें इमानदार नहीं रहना है। भ्रष्ट है उनके लिए मलाई है सत्ता।

मनोज कुमार said...

@ राजा आज भी क्यों हैं लोकप्रिय?
वंशवाद और व्यक्तिपूजा के ऐसे गुण थे उस तंत्र में कि उनसे हम आज तक उबर नहीं पाए हैं और आज के इस तंत्र में भी कुछ लोग ‘राजा’ जैसे मौज़ूद हैं जो इस तंत्र को भी बदनाम कर रहे हैं।

दर‍असल हमारी आदत सी हो गई है राजाओं के हुक्म की तामिल करने की इसलिए आज के हर तंत्र में, चाहे वो नौकरशाही हो, चाहे न्यायपालिक या फिर विधायिका, हम ‘उन्हें’ माई-बाप ही कहते हैं।

पता नहीं कब भोले भंडारी का युग आएगा।

shikha varshney said...

मैं जो कहना चाहती थी मनोज जी ने कह दिया है.
वाकई हमें आदत पढ़ गई है किसी न किसी पर पूर्ण रूप से निर्भर करने की.
यूँ कमियां हर तंत्र में होती हैं परन्तु राजतन्त्र में विलासिता और अत्याचार चरम पर होता भी देखा गया.

Er. सत्यम शिवम said...

आपकी उम्दा प्रस्तुति कल शनिवार (28.05.2011) को "चर्चा मंच" पर प्रस्तुत की गयी है।आप आये और आकर अपने विचारों से हमे अवगत कराये......"ॐ साई राम" at http://charchamanch.blogspot.com/
चर्चाकार:Er. सत्यम शिवम (शनिवासरीय चर्चा)

Kailash Sharma said...

बहुत सच कहा है...आज के शासकों के सन्दर्भ में बहुत सार्थक विचारणीय पोस्ट..

राज भाटिय़ा said...

मैने भारत मे ओर विदेशो मे बहुत से किले देखे हे राजाओ, महाराजो के, जिन्हे देख कर हमेशा दिल मे नफ़रत ही जागती हे, उन के हत्या चारो के बार जान कर,उन के ऎशो आराम के बार जान कर, जनता के ऊपर हुये जुल्मो को जान कर... हां आज कहानी किस्सो मे तो जरुर राजा रानी जिन्दा हे, असल मे लोग इन्हे भी नही चाहते थे, जहां इन के बारे लिखा जाता हे वो एक तरफ़ा बात होती थी, इन की तारीफ़ मे ही लिखो बिरोधी को कहां जीने देते होंगे... इस लिये इतिहास भी आधे अधुरे ही होंगे.

prerna argal said...

achcha lekh badhaai aapko.




please visit my blog and leave a comment also.thanks

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

पहले एक राजा हुआ करता था और प्रजा उसकी संतान, पर आज तो साढे पांच सौ राजा हम पर राज कर रहे है और निश्चय ही इन कुकर्मियों को हम अपना बाप नहीं मान सकते :)

प्रवीण पाण्डेय said...

अच्छा व्यक्ति अपनी उपाधि को सुशोभित करता है.

Rahul Singh said...

राजा यानि अगुवा, मुखिया, नेता.

शूरवीर रावत said...

आपके संपादन में मधुमती के कई अंक पढ़े. ब्लॉग पर आपके लेख भी काफी समय से पढता आ रहा हूँ. यह अलग है कि आकर कभी उपस्थिति दर्ज नही की. अजीत जी, आपका लेखन कम शब्दों में अधिक बयां करता है. राजाओं के विषय में खुल कर लिखकर आपने एक सार्थक बहस छेड़ी है. वास्तव में जो श्रृद्धा, विश्वास व आदर आमजनों के मन में राजाओं के प्रति है वह साठ वर्षों में किसी राजनेता के प्रति नहीं जाग पाया. कुछ प्रगतिवादी लोग इसे गुलामी की मानसिकता मानते हैं. परन्तु यदि हम शांत मन से विचार करें तो देखते हैं कि हिंदुस्तान का जो वैभव है वह या तो राजाओं की दें है या फिर अंग्रेजों की (वैसे अंग्रेजों को भी राजाओं की श्रेणी में रख सकते हैं). गढ़वाल में राजा को 'बोलंदा बद्री' अर्थात जीवित भगवान कहा जाता था. और यही आस्था थी कि टिहरी लोकसभा क्षेत्र से तीन बार महारानी सांसद रही और आठ बार उनके पुत्र महाराजा मानवेन्द्र शाह(मृत्यु तक). बहरहाल, बहस लम्बी है.
सार्थक व रचनात्मक पोस्ट के लिए आभार.
बारामासा पर आपसे टिपण्णी अपेक्षित है ........ अनेकानेक शुभकामनायें.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर और सार्थक आलेख!

डॉ. मोनिका शर्मा said...

एकदम सटीक विश्लेषण करता आलेख...... हाँ यह सच है आज भी राजसी वैभव लोगों को बहुत लुभाता है..... राजतन्त्र की खामियों के किस्से भी बहुत हैं....

VICHAAR SHOONYA said...

मैं आपकी इस बात से पूरी तरह से सहमत हूँ की आज के ज़माने में कोई राम नहीं कोई कृष्ण नहीं.आजकल तो चहुँ ओर रावणों और कंसों का राज है और आम जनता भी इन्ही का साथ दे रही है. अभी सुबह सुबह ही टेलीविजन पर हरियाणा के मेहम के पूर्व विधायक लाली पहलवान का रोहतक के पुलिस आई जी के समक्ष आत्मसमर्पण का ड्रामा देख रहा था. बन्दा ४०० गाड़ियों के काफिले के साथ समर्पण करने आया था. आज का समय तो इस प्रकार के बाहुबली हत्यारों के राज का समय है.

Khushdeep Sehgal said...

पहले राजा होते थे, अब ए राजा होते हैं...

लोगों ने अब बच्चों को प्यार से राजा बुलाना ही छोड़ दिया है...

जय हिंद...

(आपको नए ब्लॉग की बधाई, वहां कमेंट नहीं हो पा रहा)

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

मानवीय वृत्तियों पर गम्‍भीर चिंतन किया है आपने। बधाई।

---------
हंसते रहो भाई, हंसाने वाला आ गया।
अब क्‍या दोगे प्‍यार की परिभाषा?

अजित गुप्ता का कोना said...

खुशदीप भाई, बड़ी सटीक टिप्‍पणी है, लोगों ने राजा बुलाना बन्‍द कर दिया है।

Sushil Bakliwal said...

इन टिप्पणियों में भी लग रहा है कि राजाओं के काल में हुए समस्त रचनात्मक कार्यों के बावजूद भी उन्हें बुरा मानने वालों की आज भी कमी नहीं है । वर्तमान शासक तो खैर उस दायरे में भी नहीं आते । इसीलिये शायद आमजन के मन में यह धारणा गहराई से जम गई सी लगती है कि 'कोउ हो नृप हमें का होहि' वैसे आपका विश्लेषण वाकई सारगर्भित है ।

अजित गुप्ता का कोना said...

रश्मिजी, यह सत्‍य है कि जहाँ भी राजशाही होगी निरंकुशता भी होगी लेकिन आज के लोकतन्‍त्र को जब देखते हैं तब भी लगता है कि निरंकुशता तो यहाँ भी है। लेकिन हम न जाने कितने ऐसे राजाओं के किस्‍से पढ़ते हैं जिन्‍होंने अपनी प्रजा के लिए बहुत कुछ किया। यह भी सत्‍य है कि आक्रमण होने पर राज-परिवार को ही सबसे अधिक बलिदान देना पड़ता था लेकिन आज जनता ही पिसती है। इसलिए अनेक पहलू हैं। इतिहास को तो अभी खंगाला ही नहीं गया है बस जो अंग्रेज लिख गए और समझा गए वो ही सत्‍य मान लिया गया है। इसलिए इस पर बहस अवश्‍य होनी चाहिए कि पुरातन राजाशाही और आधुनिक लोकतन्‍त्र में कितना अन्‍तर है?

उपेन्द्र नाथ said...

सारगर्भित और विचारणीय पोस्ट

कविता रावत said...

मेरा तो मानना है कि पहले भी राजाओं ने प्रजा के दम पर ही राज पाट चलाया .. कुछ ने जरुर जनता के लिए अच्छे किये लेकिन बहुतेरे राजाओं ने तो सिर्फ राजगद्दी बरकरार रखने के लिए बड़े-बड़े किले वगैरह बनाकर अपनी सुरक्षा की है, हाँ आज वे हमारी ऐतिहासिक धरोहर जरुर हैं जिन पर हमें नाज होता है, लेकिन इतिहास के पन्नो में आम गरीब की किया दुनिया थी, इसका उल्लेख न के बराबर ही मिलता है ...... पहले की राजाओं वाली मानसिकता वाले लोगों की आज भी कोई कमी दिखती है और शाही ठाट बाट से रहने वालों की भी कोई कमी नहीं है, हाँ आज जरुर इन राजाओं के जय जय कार करने वालों की तादाद में कमी जरुर हुई है लेकिन मानसिक गुलामी वैसी ही नज़र आती है.. जब तक मानसिकता नहीं बदलेगी तब तक कोई फर्क नहीं पड़ने वाला कि यह लोकतंत्र है....
बहुत बढ़िया सार्थक प्रस्तुति के लिए आभार

Atul Shrivastava said...

अजीत जी देर से आने के लिए क्षमा।
आपने नया ब्‍लाग शुरू किया है उसके लिए शुभकामनाएं
मौजूदा पोस्‍ट पर बात करूं तो राजा भी आम इंसान ही होते है पर हमने ही उन्‍हें अलग महत्‍व देकर राजा का गौरव दिया है।
बहरहाल अच्‍छा लेख

दिगम्बर नासवा said...

बहुत कम राजा ही ऐसे हुवे हैं जिन्होने अपना स्तर इस लायक रक्खा है की लोग उन्हे पूजे .... गिनती के ही मिलेंगे लंबे इतिहास में ....
अधिकतर राजा स्वार्थ और लोलुप ही रहे हैं ....

Vivek Jain said...

बहुत अच्छा आलेख,
- विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

upendra shukla said...

अजित जी आपकी रचना मुजहे बहुत ही पसंद आई धन्यवाद !
आप लोग मेरे ब्लॉग पर भी आये मेरे ब्लॉग पर आने के लिए"यहाँ क्लिक करे"

ZEAL said...

आम लोगों के लिए आकर्षण का विषय है राजा रानी अस्तित्व। थाईलैंड के राजा बहुत ही लोकप्रिय हैं और पूरे विश्व के सबसे अमीर राजा हैं।

ZEAL said...

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Sorry for being late here. I have few guests from India [Dad and elder sister's family]. They are leaving on 5th June.

Regards,

.

www.navincchaturvedi.blogspot.com said...

सद्यस्थिति को भी विवेचित करता प्रसांगिक आलेख प्रस्तुत करने के लिए साधुवाद स्वीकार करें| समस्या पूर्ति मंच पर आने के लिए आप का बहुत बहुत आभार|

आप का ई मेल आइ डी नहीं है मेरे पास| कृपया navincchaturvedi@gmail.com पर एक टेस्ट मेल भेजने की कृपा करें|

संजय @ मो सम कौन... said...

किसी के भी चरित्र का विश्लेषण उसके कृत्यों को देखकर होना चाहिये, न कि उसकी पदस्थिति देखकर। अच्छे बुरे लोग हर वर्ग में रहे हैं लेकिन कुछ वर्ग, वर्ण ऐसे रहे हैं जिनकी एक ऐसी छवि हमारे दिल दिमाग में गढ़ दी जाती है कि हम उससे अलग सोच ही नहीं पाते।

Smart Indian said...

शक्तिपूजन एक सामान्य मानवीय गुण है। उस पर भी स्वार्थी और सत्तालोलुप व्यक्ति तो सत्ता का ही चरणचुम्बन करेगा। फिर भी संसार भर में बचे-खुचे राजतंत्रोंका भी सफाया हो रहा है। हमारे बीच ही जम्मू-कश्मीर सिक्किम, नेपाल और भूटान के ताज़े उदाहरण हैं।

blogkosh said...

बहुत अच्छी तरह से आपने प्रस्तुत किया है

Anonymous said...

I'm not sure exactly why but this blog is loading very slow for me.

Is anyone else having this issue or is it a issue on my end?
I'll check back later and see if the problem still exists.


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