गर्मियों की छुट्टियो में पर्वतीय क्षेत्रों के भ्रमण की परम्पर हमेशा से ही रही है। पहले अंग्रेजों ने अपनी कोठियां पर्वतीय क्षेत्रों में बनवायी और गर्मी की राजधानी भी इन्हें ही बनाया। रईसों ने भी अपनी कोठियां बनवाना शुरू किया और फिर होटल व्यवसाय भी खूब फला-फूला। जैसे ही गर्मियों की छुट्टियां होती हैं, बच्चों का स्वर सुनाई देने लगता है कि चलो घूमने। पूर्व में तो एक ही स्वर था चलो नाना के घर। कहानियां भी तो कितनी थी नाना के घर की। लेकिन अब धीरे-धीरे पूरे दो महिने की नाना के घर की धमा-चौकड़ी कम होते जा रही है। बच्चों की रुचियां बदल गयी हैं, उन्हें खेत-खलियान, या घर में बैठकर केरमबोर्ड, चाइनिस चैकर, शतरंज आदि खेलना रुचिकर नहीं लगता। अब उन्हें चाहिए कोई फन गेम। हैरतअंगेज, तीव्र गति वाला, धड़कनों को बढ़ाने वाला ऐसा ही कोई फन। एक कहानी याद आती है कि लड़का नाना के घर जाने को निकलता है, रास्ते में जंगल हैं और उसे शेर मिल जाता है। वह शेर से कहता है कि नाना के घर जाऊँगा, मोटा-ताजा होकर आऊँगा तब मुझे खाना, अभी तो मैं दुबला हूँ। शेर बात मान लेता है, अब शेर उसकी वापसी का इंतजार करता है। लड़का होशियार है, वह एक ढोलक बनवाता है और उसमें बैठकर शेर को गच्चा दे देता है। इस कहानी में रोमांच भी है और शिक्षा भी। ऐसी ही कितनी कहानियां और अनुभव हम सबके पास हैं। लेकिन यह सब पीछे छूटता जा रहा है।
14 मई को दिल्ली जाना था, ट्रेन में बड़ी भीड़-भाड़ थी। पूरे कोच में शोर-शराबा, धूम-धड़ाका मचा हुआ था। मैंने पूछ लिया कि कहाँ जा रहे हैं? मालूम पड़ा कि पूरे आठ परिवार हैं, संख्या पच्चीस से तीस रही होगी। याने पूरे डिब्बे में ही उनका राज था। शिमला घूमने जा रहे थे, जाने का उत्साह था तो सभी के अन्दर उत्साह का पेट्रोल फुल था। मेरे साथ मेरी मित्र भी थी, वे बोली कि अभी टंकी फुल है तो धमा-चौकड़ी रहेगी लेकिन वापसी में जब टंकी खाली हो जाएगी तब हवा निकले गुब्बारे की तरह लटके हुए होंगे। रात 12 बजे से भी अधिक समय तक उनकी उछल-कूद चलती रही। हम जानते थे कि उन्हें टोकने का भी कोई फायदा नहीं होगा। बस हमें चिन्ता थी कि नींद पूरी नहीं होगी तो दूसरे दिन की मीटिंग में झपकियां लेना ठीक नहीं होगा। लेकिन क्या कर सकते थे?
दूसरे दिन ही शाम को वापस लौटना था, वापसी में एक परिवार मिला। बुझा हुआ सा, चेहरा लटका हुआ। सब चुपचास अपनी बर्थ पर बैठे हुए, बस उनका 10 वर्षीय पुत्र ही शैतानी कर रहा था। वो उसी से परेशान हो रहे थे और बार-बार उसे मारने की धमकी भी दे रहे थे। मैंने उनसे पूछा कि कहाँ से आ रहे हैं? वे बोले की वैष्णो देवी गए थे, लेकिन गर्मी के मारे बुरा हाल हो गया है। वे जल्दी से जल्दी सो जाना चाहते थे लेकिन उनके पुत्र को नींद नहीं आ रही थी तो अन्त तक तो उसने दो-चार थप्पड़ खा ही लिए। हम दोनों आँखों ही आँखों में कह रहे थे कि देखो इनके गुब्बारे की हवा निकल चुकी है, तो कैसे निढ़ाल पड़े हैं?
गर्मी के मौसम में घूमने जाना अपने आपको सजा देने से कम नहीं है। वैसे भी भारतीय व्यक्ति किसी भी पर्वतीय स्थल पर दो-तीन दिन से ज्यादा टिकता नहीं है और इतना ही समय उसे आने-जाने में लग जाता है। दो दिन ठीक से ठण्डक भी नहीं मिलती कि झुलसती गर्मी उसके सामने खड़ी होती है। सर्दी और गर्मी के कपड़े भी लादकर ले जाने होते हैं। आनन्द के स्थान पर थकान मन को घेर लेती है। इसलिए इस भरी गर्मी में दो-तीन दिन के लिए घूमने जाना समझ नहीं आता। या तो आप पुराने रईसों की तरह पूरे दो महिने ही पर्वतीय क्षेत्रों में रहें या फिर छुट्टियों में नाना-मामा के घर पर या स्वयं के घर पर ही उनके लिए योजना बनाएं। घूमने जाने के लिए ऐसा मौसम चुने जब दोहरे मौसम की मार ना पड़े। वैसे भी एक सप्ताह घूमने से पूरे दो महिने का काम चलता नहीं है। आप सभी का इस बारे में क्या विचार है? क्या इस भरी गर्मी में घूमने जाना चाहिए या फिर घर में ही अपने परिवार के साथ अंतरंग होने का प्रयास करना चाहिए। क्या टीवी और कम्प्यूटर के अतिरिक्त अन्य खेलों से भी बच्चों को अवगत कराना चाहिए? हम तो यदि मामा के घर नहीं भी जाते थे तब भी हमारी दिनचर्या इतनी व्यस्त होती थी कि समय ही कम पड़ता था। सारे ही इन्डोर और आउटडोर गेम्स खेले जाते थे। अपने साथ प्रत्येक आयुवर्ग के व्यक्ति को जोड़ लेते थे और रात 10 बजे के बाद भी धमा-चौकड़ी चलती ही रहती थी। कभी बच्चे नहीं कहते थे कि हम बोर हो गए है। आज भी वे दिन आँखों में बसे हैं। वे महफिले भूले नहीं भूलती। कभी खयाल में ही नहीं आता था कि कहीं घूमने भी जाना है, बस सुबह से ही महफिल सजनी शुरू होती थी और रात जाते-जाते ही हँसी ठट्टा के साथ समाप्त होती थी। कितनी रात तक धीरे-धीरे फुसफुसाते रहते थे, ना गर्मी की चिन्ता थी और ना ही बारिश का डर। डॉट खाने का डर हमेशा बना रहता था लेकिन फिर भी बिंदास काम होते थे। क्या अब वो ही हमारे वाला बचपन का युग हम वापस नहीं ला सकते?
37 comments:
मैं तो शुरु से ही किसी भी पर्यटन स्थल पर ऑफ सीजन में जाना पसन्द करता हूँ। इसका कारण अच्छी सुविधायें सस्ते में मिलना भी है।
लेकिन कई जगहों पर इन्हीं दिनों में जाया जा सकता है, जैसे केदारनाथ आदि।
गर्मियों की छुट्टियों में मामा या बुआ के घर गुजारना बच्चों को ज्यादा खुशी देता है।
इस बार का फरवरी में ही टूर का कोटा पूरा कर दिया था, अब अक्तूबर-नवम्बर में सोचेंगे।
प्रणाम
सच कहा अजित जी,
गर्मी में जिस उर्ज़ा को खोजने हम अक्सर उत्साह से पर्यटन स्थल जाते है रही सही उर्ज़ा खोकर निढाल हो लौटते है।
होटलों के भारी भरकम बिल में महीने भर आनंद लिया भी नहीं जा सकता।
अब तो यह पर्यटन भी आनंद की जगह प्रथा सम हो गया है। मात्र लोगों को बताने के लिये कि 'इस गर्मी में हम वहाँ घुम आए'
अजित जी ....आपकी बात भी एक दम सही है ....गर्मी की छुटियों में बाहर जाने का मन नहीं करता ...हर जगह अफरातफरी का मोहोल बना रहता है ...पर जिनके पास छोटे बच्चे है जो स्कूल में पढ़ते है ..वो उनकी छुटियों के मुताबिक ही चलते है .....और ये पूरे साल में सिर्फ गरमी कि ही ऐसी छुटियाँ है जो बहुत दिनों कि पड़ती है ...
अजीत जी मेरी जैसी घुमक्कड के लिए आपकी मानना जरा मुश्किल है :).पर हो सकता है वहाँ के परिवेश में ठीक बैठती हो. मेरा तो मानना है कि घूमने जाना हमेशा ही उर्जा बढाता है.घर में ही रहकर कुछ नया करने की कोशिश बात तो बहुत अच्छी है.पर प्रेक्टिकल नहीं हो पाती.
garmiyon ki chhutti main ghumne jaane par man main urja bhale hi naa bhare , parntu jeevan ki bhagdaud se kuchh dinon ka aaram jarur milta hai , aur man main romanch kuchh dinon tak bana rahta hai ,
meri nayi post par aayen
मेरी दुकान पर आयें और अपने सम्पूर्ण कष्टों को दूर भगाएं .......>>> संजय कुमार
तमाम परेशानियों के बावजूद भी किसी नई जगह पर सपरिवार घूमने जाने से निश्चय ही आंतरिक ख़ुशी मिलती है और एक ताजेपन का अहसास कई दिनों तक मन को प्रफुल्लित रखता है !
इससे परिवार में सभी को अपने नियमित कार्यों से एक ब्रेक मिलता है जो सभी को अच्छा लगता है !
मेरे विचार से घूमने का मौका कभी नहीं छोड़ना चाहिए !
अजित जी,
लगता तो नहीं है, हिल स्टेशन पर कितनी आपाधापी होती है और अगर आप को पहले से छुट्टियाँ नहीं मिली हैं तो फिर टिकट आरक्षण का झमेला . इस लिए हिल स्टेशन के बजाय अपने परिवार को ही एक स्थान पर एकत्र करके आनंद दिया जाय तो अधिकअच्छा है.
हमें तो सुकून से सोना पसन्द है।
बात तो आपकी ठीक है --पर क्या करे गर्मी की छुटियाँ ही बच्चो को नसीब होती है --हम खुद गर्मी की छुटियो में ही घुमने का प्रोग्राम बनाते थे --हा ,२ दिन के लिए नही कम से कम १० दिन का प्रोग्राम बनता था --१५ दिन के लिए घर से निकलते थे --और आराम से घूमते थे --कोई जल्दी नही --कम स्थान देखना --और ज्यादा आराम करना --हमारा नारा था --हमे कभी कोई परेशानी नही हुई ..
नियम से और योजना बनाकर चलेगे तो कभी कोई परेशानी नही हो सकती ..
रोजमर्रा की जिंदगी से नीरसता दूर करने के लिए ज़रूरी है छोटे छोटे ब्रेक । विशेषकर गर्मियों में २-४ दिन के लिए भी पहाड़ों में जाना बड़ा ताजगी प्रदान करता है । लेकिन निश्चित ही आना जाना भी एक सर दर्द है । ऐसे में वे लोग बहुत एन्जॉय करते हैं जो अपनी गाड़ी से जाते हैं या हवाई यात्रा से ।
जहाँ तक भीड़ भाड़ का सवाल है , बड़े हिल स्टेशन को छोड़ , यदि छोटी जगह जाएं तो ज्यादा आनंद आएगा ।
लेकिन इस सब के लिए पैसा एक बाधा हो सकता है।
जैसा कि ज्यादातर लोगो ने कहा है...बच्चों की छुट्टियाँ ही इस वक़्त होती हैं....इम्तहान का टेंशन सर पर नहीं होता तो उन्मुक्त होकर घूमने जा सकते हैं...
बच्चे स्कूल में थे तो मैं भी इन्ही दिनों घूमने जाया करती थी...पर हमारा प्रोग्राम कुछ ऐसा होता था कि किसी पर्वतीय स्थल पर तो पूरा परिवार साथ जाता...वहाँ से, पतिदेव अपने कार्यस्थल पर लौट आते और मैं बच्चो को लेकर नानी के घर.
अब आपके द्वारा सुझाया गया...तीसरे चरण का दौर चल रहा है....बच्चों की छुट्टियाँ नहीं हैं....इसलिए हम तो नहीं जा पाते....पर मेहमान आ जाते हैं...सो अच्छा बदलाव मिल जाता है...
छुट्टियों में दैनंदिन एकरसता से अलग रूटीन बहुत जरूरी है...पूरे साल के लिए तरोताजा हो जाते हैं.
आपकी आयी हुई टिप्पणी में मेरी टिप्पणी कुछ अलग है | मै कभी भी घूमने नहीं गया बचपन में नानी के घर जाता था ,अब वो कार्य मेरी बची करती है | लेकिन सपरिवार कही भी घूमने नहीं जाता हूँ | उसके दो कारण है पहला आर्थिक दूसरा मेरा काम काज इतना फ्री माईंड है कि कभी अपनी जिंदगी और अपने काम से बोरियत ही नहीं होती है तो उसमे रिचार्ज करने जैसी जरूरत ही महशूस नहीं होती है |हम दिन भर मिया बीबी साथ रहते है इस लिए एक दुसरे को भरपूर समय देते है |
सुन्दर साल भर मेहनत के बाद नई उर्जा की आवश्यकता होती ही है इसके लिए दिन चर्या में बदलाव की जरुरत होती है ।
मैं आप सभी की इस बात से सहमत हूँ कि घूमने जाने से नयी ऊर्जा मिलती है लेकिन जब पारा 42 से 44 डिग्री हो और केवल दो-तीन दिन के लिए हिल-स्टेशन पर जाना मन को निढ़ाल भी करता है। इसलिए जाओ तो लम्बे समय के लिए जाओ। या फिर तापमान में इतना अन्तर ना हो। रोजमर्रा की जिन्दगी में बदलाव से कुछ राहत तो मिलती ही है। चलिए यहाँ सब लोग घूमने के शौकीन ज्यादा हैं और घर-घुस्सू कम, अच्छी बात है।
सही कह रही हैं आप...छुट्टियों में घूमने जाना अनुभव अथवा तारो-ताज़ा होने के लिए कम , प्रतिष्ठा के लिए ज्यादा होता है.
आपकी उम्दा प्रस्तुति कल शनिवार (21.05.2011) को "चर्चा मंच" पर प्रस्तुत की गयी है।आप आये और आकर अपने विचारों से हमे अवगत कराये......"ॐ साई राम" at http://charchamanch.blogspot.com/
चर्चाकार:Er. सत्यम शिवम (शनिवासरीय चर्चा)
नैनीताल आइए न घूमने के लिए!
इसी कमिस्नरी में हमारी भी कुटिया है!
आपका स्वागत करके हम भी धन्य हो जाएँगे!
गर्मी में ना जाइये और ना जाड़ों में जाइये, आनंद बड़ी चीज है घर में ही सोइए| हम तो इसी का पालन करते थे मगर अब बच्चे कहाँ मानते छुट्टी ही कहीं चलो ?
शास्त्री जी, नैनीताल देखा भी नहीं हैं, बड़ा मन है वहाँ आने को। लेकिन आप सार्वजनिक निमंत्रण दे रहे हैं तो देख लीजिएगा, कितने ब्लागर तैयार हो जाएंगे?
घूमना उतना ही अच्छा है जितना अपना शरीर झेल सकता है और आराम करके घूमना ठीक होता है, बजाय लगातार एक जगह से दूसरी जगह यात्रा करके हर जगह एक दिन का आराम का रखा जाये तो बेहतर होता है, हाँ घूमने के दिन और बजट दोनों बड़ जाते हैं, परंतु ताजगी के साथ ही वापिस आते हैं। और यह हर व्यक्ति की अपनी मानसिकता और इच्छाशक्ति पर निर्भर करता है।
अब हम भी जा रहे हैं, इस २६ मई को ५ जून तक ३० डिग्री से ४६ डिग्री में, फ़िर आकर बतायेंगे कि कितनी उर्जा मिली :)
नैनीताल हमें भी आना है, अब देखते हैं कि कब जाना होता है। अभी तो धौलपुर, वृन्दावन, मथुरा, आगरा और उज्जैन का ही कार्यक्रम बनाया है।
बचपन में बहुत जगह जाने का ऑप्शन ही नहीं होता था। तो गांव चले जाया करते थे। इस बार दिल्ली, ऊटी और गांव का भ्रमण हुआ। आज भी सबसे ज़्यादा आनंद गांव में ही आया।
अजीत जी ,
यह तो सही है की जीवन में बदलाव ज़रुरी है पर इतनी गर्मी में मात्र दो चार दिन के लिए सही में पहाड़ों पर जाना एक सिरदर्दी है ...लेकिन मौसम के अनुसार बच्चों की छुट्टियाँ भी तो नहीं होतीं ..या फिर काम से छुट्टी नहीं मिलती ...
आधुनिक साधनों के इतने आदी हो चुके हैं कि बच्चे क्या बड़े भी बहुत मुश्किल से एडजस्ट कर पाते हैं ... पर आपकी पोस्ट ने बहुत से इनडोर गेम्स कि याद दिला दी ... हम लोंग तो चौसर बहुत खेलते थे ... गोटियों को पीटने में और उनको बावली कर खड़ा करने में जो आनन्द आता था ..कितनी धामाचौकड़ी होती थी सब बच्चों में ..आपने भी क्या याद दिला दी :):)
Sach! Wo din kitne achhe the jab maasee yaa nanee ke ghar jaya karte the! Khatm se ho gaye wo din!
यह तो वैसा ही है कि कुछ देर एयर कंडीशन कमरे में बैठे और लम्बे समय के लिए दोपहर में निकल पडे... तो हताशा होगी ही॥
हम तो जी......यही कहेंगे कि
घूमो।
हम भारतीय छुट्टिया बिताने में नहीं कही जा कर घुमाने में विश्वास करते है कही गए साडी जगह देख ली अब क्या करेंगे वह बैठ कर अब अपने घर चलो | खुद मै भी यही करती हूँ कही जाने से पहले देखती हूँ की वह घुमाने देखने के लिए कितनी जगह है उसी हिसाब से वहा ठहराने के दिन गिने जाते है हा घर में बैठ कर कुछ नया करने से ज्यादा बच्चे बहार जा कर घुमाना पसंद करते है और मुझे लगता है की वो इससे सिखाते भी ज्यादा है |
अजीत जी बहुत सुंदर बात कही आप ने, भारत मे तो आज कल लोग एक दुसरे को देखा देखी यह सब करते हे, अरे भाई जब जा ही रहे हो तो कम से कम १५, २० दिन वहां रहो भी, इतनी गर्मी मे घर से निकलना ओर फ़िर वापिस आना बहुत कठिन हे, हां मामा, नाना, दादा ताऊ के घर जाना तो हमारे जमाने मे होता था, उस जमाने की यादे आज भी दिल मे छाई हे, बहुत शरारते करते थे,
लेकिन हम यहां तो हर साल जाते हे, पहाडो पर सर्दी गर्मी देखने नही बल्कि उन्हे देखने ओर मनोरंजन करने, असल मे यहां मामा मामी, चाचा चाची तो हे नही, ओर यह गोरे वैसे ही अपने मे मस्त रहते हे,लेकिन जब भारत आते हे तो सब से ज्यादा मजा आता हे, ओर घर पर ही रहते हे... इस बार देखे..
भाटिया जी ने बहुत सही बात कही..... उनसे सहमत हूँ....
आदरणीय अजीत गुप्ता जी...मुझे तो गर्मियों की छुट्टियों में अपने ननिहाल जाने का बहुत शौक था| परीक्षाएं ख़त्म होते ही अगले दिन मामाजी आ जाते| मैं और बड़े भैया उन्ही के साथ चले जाते थे| पूरे दो महीनों की छुट्टियां वही बीतती थीं|
अब तो पता नहीं कितने दिन हो गए नानी के पास गए हुए? अब तो बस यहाँ से वहां तो वहां से यहाँ धूमता रहता हूँ| मेरी नौकरी ही कुछ ऐसी है|
पिताजी अध्यापक थे तो गर्मी की छुट्टियाँ होती थीं। अब कहाँ गर्मी की छुट्टियाँ? बस चुरानी पड़ती हैं।
जो मज़ा छज्जू के चौबारे, वो बलख न बुखारे...
मनोरम स्थानों पर घूमने के लिए सबसे पहले मन का प्रसन्नचित होना ज़रूरी है...अगर काम के तनाव, बच्चों के होमवर्क की चिंता साथ लेकर कहीं भी जाएंगे तो सुंदर नज़ारों के बीच भी खुद को कुड़-कुड़ करते ही पाएंगे...
और अगर वक्त की कमी और पैसा आपको छूट नहीं देता तो अपने शहर के आस-पास वीकएंड की आउटिंग ही पूरे हफ्ते प्रफुल्लित रखने के लिए काफी होती है...
जय हिंद...
पोस्ट पढ़ कर मुझे भी अपना बचपन याद आ गया जब हम सब नानी के यहाँ जाते थे और बहुत मज़े करते थे. पर इसका एक दूसरा पहलु ये है की मामी आज इतने सालो बाद अहसान जताती है की उन्हें खूब काम करना पड़ता था. जब कि मेरी माँ, मौसिया और नानी सब बराबर काम करती थी
वाकई सीमित समय के लिये मौसम की मार सहते हुए आना-जाना किसी सजा से कम साबित नहीं होता ।
बिल्कुल सही, गर्मी की छुट्टियां है, बाहर जाने का प्रोग्राम बन रहा है। आज कल इस पर दिन भर में कई बार चर्चा हो जाती है। सुंदर लेख
माता पिता दोनों का निजी कम्पनियों में काम करना .लम्बी छुट्टी न मिलना ,और सबसे बड़ी बात है आज के दौर में रिश्तेदारों से दूर रहना कही और इंज्वाय करना यही फंडा होता जा रहा है |
हम लोग तो बिना पैसे खर्च किये ही दो महीने आराम से बिताते थे और एक जैसी जीवन शैली होने के कारण प्रतिस्पर्धा भी नहीं थी |
बहुत अच्छा लेख है, हम जैसे तो गर्मी हो सर्दी कुछ नहीं देखते है,
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