भगवान के प्रति व्यक्ति की भक्ति और विश्वास कभी भी समाप्त नहीं होता। अच्छे से अच्छा नास्तिक भी कभी ना कभी भगवान के प्रति नतमस्तक होता ही है। मनुष्य ने कभी भगवान को नहीं देखा। जिन्दगी में अनगिनत दुख हैं और प्रत्येक व्यक्ति दुखों से सरोबार भी है। बहुत अधिक आघात उसे अकस्मात ही लगे हैं। सारे दुखों को झेलने के बाद भी व्यक्ति का भगवान से भरोसा नहीं उठता। मनुष्य भगवान में सुरक्षा ढूंढता है। भगवान सभी के लिए अंतिम सहारा होता है। जब सारे साधन व्यर्थ हो जाते हैं तब केवल भगवान का सहारा ही उसमें आशा का संचार करता है। सभी को सफल परिणाम नहीं मिलते लेकिन यदा कदा आश्चर्यजनक परिणाम देखने को मिलते हैं जिन्हें हम चमत्कार कह देते हैं। यही इक्की-दुक्की सुफलता समस्त मानवता के लिए प्रेरणा बन जाती हैं। जब दुखों के समय चमत्कार नहीं होता तब मनुष्य कहता है कि मेरे भाग्य में ऐसा ही था या मैं पूर्व जन्मों के कर्मों को भुगत रहा हूँ। लेकिन जब अचानक चमत्कार होते हैं तब वह भगवान की कृपा मानता है। यह मानव स्वभाव है। हजारों, लाखों वर्षों के संस्कारों के बाद हमारे मानस में यह बात स्थिर हो गयी है।
मनुष्य ने भगवान के बाद ऐसा ही विश्वास राजा के प्रति प्रदर्शित किया था। वह राजा के समक्ष भी अंतिम विकल्प के रूप में जाता था। ना जाने कितनों को निराश होना पड़ता था लेकिन कई फल भी पा जाते थे। इसी कारण प्रजा और राजा का पिता और पुत्र का सम्बन्ध माना जाता था। प्रजा राजा को पिता की तरह पालनहार मानती थी। प्रजा का अंतिम सुरक्षा कवच राजा ही होता था। भारत में स्वतंत्रता के बाद लोकतंत्र स्थापित हुआ और राजाओं का काल समाप्त हो गया। राजाओं के प्रति अनेक धारणाएं इस काल में निर्मित की गयी। जितना भी उनका कुत्सित स्वरूप हो सकता था प्रजा के समक्ष लाया गया। यह क्रम आज तक चल रहा है। जब भारत में प्रथम आम चुनाव हुए तब कई राजा भी चुनाव में खड़े हुए और प्रजा ने उन्हें भारी बहुमत से जिताया। तब एक प्रश्न सर्व सामान्य के मन में उदित हुआ कि जब राजा इतने अत्याचारी थे तब प्रजा का प्यार उन्हें कैसे मिला? लोगों ने कहा कि प्रजा के मन से अभी तब उनका प्रभाव नहीं गया है। लेकिन आज स्वतंत्रता के 60 वर्ष बाद भी राजाओं के प्रति प्रजा को मोह समाप्त नहीं हुआ है। क्या कारण है? एक तरफ राजाओं के प्रति दुष्प्रचार का अतिरेक है फिर भी प्रजा के मन से उनका मोह नहीं जाता, आखिर इसका क्या कारण है?
शाश्वत लेखन - राजाओं द्वारा निर्मित अनेक संग्रहालय देखें हैं। उनको देखने के बाद राजाओं की विलासिता ही उजागर होती रही है क्योंकि उनकी विलासिता के बारे में ही हमारी पीढ़ी ने पढ़ा है। इसलिए ही पुरानी पीढ़ी की भक्ति स्वतंत्रता के बाद जन्में व्यक्तियों के गले नहीं उतरती। लेकिन एक दिन अकस्मात ही मुझे उदयपुर महाराणा का पुस्तक संग्रहालय देखने का अवसर मिल गया। उदयपुर के पूर्व राजाओं द्वारा किए गए कार्यों का लेखा जोखा वहाँ शब्द रूप में संग्रहित है। एक एक मिनट का हिसाब लिखा गया है। राजा की दिनचर्या खुली किताब की तरह वहाँ संग्रहित है। उन्हीं पुरानी बही खातों को देखते हुए शब्द की ताकत का अंदाजा हुआ। जो भी शब्द लिखा जाता है वह एक दिन इतिहास बनता है और इतिहास बनकर वर्तमान को गुदगुदाता है। जब भी शब्द लिखा जाता है तब कितने लोगों को प्रेरणा देता है इसका अंदाजा शब्दों को अनुभूत करके ही किया जा सकता है। जब प्रजा राजा के बारे में जानती है तो अपनत्व का अनुभव करती है। जब मनुष्य भगवान के बारे में जानते हैं उन्हें साधारण मनुष्य की तरह किस्से कहानियों में पढ़ते हैं तब भगवान आत्मीय लगते हैं। हमने भगवान और राजा दोनों को ही अपने दिल में बसा कर रखा। बसाने का माध्यम बने ये शब्द। एक भगवान है केवल इतना लिख देने से आत्मीय भाव कैसे बनता? भगवान विष्णु है, उनके साथ लक्ष्मी है। भगवान राम है, कृष्ण है उनका जीवन चरित्र हमारे सामने है और जीवन चरित्र सामने होने से आत्मीयता का निर्माण होता है। जब रामायण लिखी गयी और जब रामचरित मानस लिखा गया तब राम जन जन के प्रिय हुए। अतः राजा उतना ही लोकप्रिय होता है जितना वह जनता के समक्ष होता है। किसी कि जीवनी पढ़ते ही वह व्यक्ति हमारा आत्मीय बन जाता है अतः राजाओं की लोकप्रियता का एक कारण ये शब्द हैं।
दाता एवं रक्षक - राजाओं ने प्रजा को भगवान की तरह सुरक्षा भी दी। प्रजा का अंतिम सहारा राजा ही बनते थे। गाँव जलकर राख हो गए या बाढ़ में बह गए, राजा ही एक मात्र सहारा बनते थे। सुरक्षा का भार राजा पर ही था। युद्ध होते थे और हार जाने पर प्रभाव राजा पर ही पड़ता था। इसलिए भगवान के बाद राजा को ही प्रजा रक्षक मानती थी। उनके अत्याचारों को शैतान का रूप मानकर श्रेष्ठ राजा के आने का इंतजार करती थी। इसलिए भारत में जितने भी श्रेष्ठ राजा हुए प्रजा ने उन्हें भगवान का दर्जा दिया। अत्याचार होने पर प्रजा भाग्य का ही दोष मानती रही और कभी कभी राजा के द्वारा सहयोग देने को भगवान की कृपा के समान मानती रही। इसलिए आज तक प्रजा और राजा की आत्मीयता बनी हुयी है। वर्तमान में देखें तो लोकतंत्र में कोई भी स्थिर नहीं हैं आज एक राजनेता है तो कल दूसरा। देश में युद्ध जैसी कोई भी विपरीत परिस्थिति आने पर जहाँ राजा को ही परिणाम भोगने पड़ते थे वहीं वर्तमान में राजनेता सर्वाधिक सुरक्षित है। राजतंत्र उनके लिए उपभोग का साधन बन गया है। प्रजा आज राजतंत्र को भगवान की तरह अंतिम सहारा नहीं मानती। यही कारण है कि आज राजनेताओं के प्रति आत्मीयता का भाव उत्पन्न नहीं होता। वह दाता नहीं है अपितु भिक्षुक है। प्रतिदिन होने वाले चुनावों ने उन्हें भिक्षुक बना दिया है। देश का सारा समय राजनेता चुनने में ही व्यतीत हो रहा है। राजनेता के प्रति भावना निर्माण का समय तो आता ही नहीं। अतः राजाओं के प्रति आज तक चला आ रहा दाता का भाव प्रजा के मन से कम नहीं होता।
श्रेष्ठता का विश्वास - आज हम जिन्हें भगवान मानकर पूजते हैं वे सभी राजा थे। राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध आदि। हमारे यहाँ विश्वास की एक परम्परा थी कि यदि कंस हुआ है तो कृष्ण भी होंगे, हिरण्यकश्यप हुए तो प्रहलाद भी आएगा। लेकिन आज एक दूसरे के प्रति आरोप प्रत्यारोप के कारण सारे ही राजनेता शैतान की श्रेणी में आ गए हैं। कोई कृष्ण नहीं, कोई राम नहीं बस हैं तो केवल कंस और रावण। प्रसार माध्यमों ने व्यक्ति के छोटे छोटे अवगुणों को जनता के समक्ष अपराधों की तरह प्रदर्शित किया है और यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि सभी राजनेता अपराधी या चरित्रहीन हैं। आज यह क्रम चल निकला है। हम सभी की सम्भावित कमजोरियों को ही ढूंढते दिखायी देते हैं।
मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति - राजाओं का काल यदि हम तटस्थ भाव से देखें तो पाएंगे कि जितना निर्माण राजाओं के काल में हुआ उतना शायद अभी नहीं हुआ। उदयपुर की ही बात करें और केवल जल स्त्रोतों को ही देखें तो वे सब राजाओं के काल में बने और आज हम उन्हें संरक्षित भी नहीं रख पा रहे। इसी प्रकार कला और साहित्य पूर्ण रूप से राज्याश्रित था। उस काल में कितनी पेंटिग्स बनी, कितना साहित्य लिखा गया इसका तो पैमाना ही नहीं है। आज इतिहास को देने के लिए हमारे पास क्या है? साहित्य के नाम पर समाचार पत्र रह गए हैं और ये सारे राजनीति की गंदगी से भरे पड़े हैं। चित्र के नाम पर अश्लीलता परोसी जा रही है जो भविष्य में शायद हमारा मूल्यांकन करे। आज प्रजा असुरक्षित अनुभव करती है। आज देश में जितने भी संग्रहालय हैं वे सब राजाओं की देन है। जीवन की मूल भूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उन्होंने कार्य किए। अतः उस युग में उपलब्ध संसाधन जनता के लिए भी सुलभ कराए गए। सबसे बढ़कर कला और विज्ञान को जितना आश्रय राजाओं के काल में मिला शायद ऐसा अभी नहीं हुआ। इसीलिए आज हम प्रत्येक क्षेत्र में पुरातन के मुकाबले अविकसित दिखायी देते हैं। वास्तुशास्त्र, शिल्प, ज्योतिष, चिकित्सा, साहित्य, चित्रकारी, हस्तकला आदि में आज हम उस काल को छू भी नहीं पाएं हैं। ऐसे में यदि कुछ लोगों के मन में आज भी राजा को भगवान समझा जाता है तो शायद यह उनकी भूल नहीं है। इसलिए राजाओं का इस देश को क्या योगदान रहा है, यह बात जनता के समक्ष आनी चाहिए। लोकतंत्र के वर्तमान स्वरूप को देखकर आज प्रश्न खुद ब खुद निकल रहे हैं। लोग कहने लगे हैं कि यदि इसी का नाम लोकतंत्र है तो फिर ऐसे लोकतंत्र से तो राजशाही ही श्रेष्ठ थी। यह भी निर्विवादित सत्य है कि लोकतंत्र सर्वश्रेष्ठ प्रणाली है लेकिन गैर जिम्मेदार नेतृत्व कभी भी हितकर नहीं होता। अतः आज भारत के प्राचीन स्वरूप और वर्तमान राज्य प्रणाली के बारे में विस्तार से बहस होनी चाहिए। राजाओं का उज्ज्वल कृतित्व जनता के समक्ष आना ही चाहिए। किसी भी शासन प्रणाली में अनेक कमियां हो सकती हैं लेकिन अच्छाइयां भी होती हैं। अतः आज अनेक पहलू हैं जो राजाओं की लोकप्रियता को जन जन तक पहुंचाते हैं। यही कारण है कि राजाओं का चरित्र हनन इतने व्यापक पैमाने से करने पर भी उनकी हस्ती मिटती नहीं। आज भी जनता उन्हें भगवान के बाद दूसरे संरक्षक के रूप में पूजती है। शहर के सुंदर परकोटे, बावड़िया, तालाब, मंदिर आज भी सभी को अभिभूत करते हैं। आज भी पर्यटक राजमहलों में सुरक्षित संग्रहालय देखने अवश्य जाता है। आज भी कलाकार राज परिवारों की तरफ ही आशा भरी निगाहों से देखते हैं।