हम रोज ही कितना कुछ लिखते हैं। अपने लिखे को लेकर झगड़ा भी करते हैं। कभी कोई हमारे साहित्य की चोरी कर लेता है तो हम उसे धमकाते भी हैं। कभी कोई कागज उड़कर इधर-उधर हो जाता है तो कितना नाराज होते हैं अपने घर वालों पर? एक-एक शब्द को सहेज कर रखते हैं। अपनी किताबों को बैठक में सजाते भी हैं। प्रकाशित आलेखों को काट-काटकर फाइल बना देते हैं, उन पत्रिकाओं को भी सहेज कर रखते हैं। कम्प्यूटर में भी वेबसाइट पर ज्यादा से ज्यादा अपने लेखन को डालने का प्रयास रहता है। कोई घर का सदस्य हमारा लिखे को नहीं पढ़े तो मन कुंद हो जाता है। हमारा परिचय लेखक के रूप में ना हो तो उदासी छा जाती है। लेकिन ... इसी लेकिन पर अटकी है मेरी लघुकथा। आपकी अनुशंसा चाहिए।
लघुकथा - लेखक
पूर्णाशंकर जी श्रेष्ठ साहित्यकार थे, कई पुस्तकें प्रकाशित हुई थीं और कई पाण्डुलिपियां अभी जिल्द को तलाश रही थी। घर में सर्वत्र पुस्तकों एवं कागजों का साम्राज्य स्थापित था। अधिकारी पुत्र को इन सबसे लगाव नहीं था। प्रतिदिन की खट-पट से ऊकता कर एक दिन पूर्णाशंकर जी ने सारी पुस्तकें और पाण्डुलिपियां बेच दी। कमरा खाली हो चुका था, अब वह कक्ष एक अधिकारी-पुत्र का बैठक-खाना था। पूर्णाशंकर जी कुछ दिनों बाद ही स्वर्ग सिधार गए।
शोक-सभा चल रही थी, एक गाड़ी आकर रुकी, उसमें से एक प्रकाशक उतरा। प्रकाशक ने सर्वप्रथम पूर्णाशंकर जी को श्रद्धांजलि दी, फिर उनके बेटे की ओर उन्मुख हुआ। प्रकाशक ने कहा कि एक दिन पूर्णाशंकर जी अपनी समस्त दौलत मेरे पास छोड़ गए थे, उनकी इच्छा थी कि मैं अपनी जमा-पूँजी को नाम दूं।
अधिकारी पुत्र असमंजस में था, दिल धड़क रहा था, कि पिताजी के पास कौन सी जमा-पूंजी थी?
तभी प्रकाशक ने कहा कि पूर्णशंकर जी ने मुझसे आग्रह किया था कि मैं उनकी शेष पाण्डुलिपियों को प्रकाशित करूं। मेरे लिए यह सौभाग्य की बात थी। लेकिन उन्होंने एक शर्त रख दी थी, जिसे पूरा करना कठिन था। आज उनकी मृत्यु के बाद मैं उनकी अंतिम इच्छा पूर्ण करना चाहता हूँ क्योंकि वे बहुत ही श्रेष्ठ साहित्यकार थे।
सारे ही लोग और अधिकारी पुत्र उनके चेहरे की ओर देख रहे थे। एक अनजाना डर पुत्र के चेहरे पर देखा जा सकता था। पता नहीं अंतिम इच्छा क्या हो? कहीं मुझे समाज के समक्ष स्वीकार करने पर मजबूर तो नहीं होना पड़ेगा?
प्रकाशक ने कहा कि वे चाहते थे कि मेरी पुस्तकों पर लेखक के जगह मेरे पुत्र का नाम लिखा जाए। जिससे मेरे कक्ष में पुनः मेरी पुस्तके सज सकें। अतः मैं आपसे आज्ञा प्राप्त करने आया हूँ।
33 comments:
nice
आपने इस लघुकथा में एक साहित्यकार कि वेदना को बहुत अच्छे से अभिव्यक्त किया है....इसे पढते हुए मुझे प्यासा पिक्चर याद आ गयी...
jeevan ke ktu saty ko ujagar karti shresht laghukatha.
बहुत ही सुन्दर लघु कथा है।
इसे पढ़कर हंस प्रकाशन याद आ रहा है जिसकी बदौलत प्रेमचंद जी के सन्तान का अत्यन्त हित हुआ, जबकि सुना है कि प्रेमचंद का जीवन सर्वथा अभाव में गुजरा।
bahut hi khoobsoorti se ek katu satya ko ujagar kiya hai..........ye sach hai ki apne hi uski kadra nhi jante .........vedna ko bakhubi ujaagar kiya hai.
बहुत जबर्दस्त लिखा है।
घुघूती बासूती
वाह !
कहानी के माध्यम से एक अच्छा और प्रेरक प्रसंग डाक्टर अजीत गुप्ता जी
आत्मा वै जायते पुत्रः
सुन्दर लघु कथा
बढिया लघुकथा
एक लेखक की वेदना को उचित शब्द दिए हैं आपने ..दिल को छूती हुई कहानी
इस लघुकथा के लिये आपको नमन करता हूं. बहुत श्रेष्ठ.
रामराम.
बहुत दिनों बाद एक अविस्मरणीय
लघुकथा पढ़ने को मिली!
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इस लघुकथा की आत्मा
सचमुच इन पंक्तियों में बसती है -
मेरी पुस्तकों पर लेखक के रूप में
मेरे पुत्र का नाम लिखा जाए!
बहुत अच्छी लगा ये लघु कथा ........बहुत खूब
बहुत ही मार्मिक लघुकथा थी ये तो...एक लेखक का दर्द बखूबी बयाँ करती हुई..
और इसकी भूमिका भी जबरदस्त लिखी आपने...लिखने वाले के मन में यह पीड़ा तो होती ही है...अगर उसके नजदीकी ही उसके लेखन का सम्मान ना करें..
बहुत सटीक अभिव्यक्ति!! अक्षरशः यही कटु सत्य है..
हिला दिया आपकी इस रचना ने..
एक साहितयकार की वेदना आपसे अधिक कौन जान सकता है। बहुत अच्ची लघु कथा है बधाई अब कुछ दिन के लिये इजाजत। देखें फिर कब आ पाती हूँ। शुभकामनायें
अरे निर्मलाजी अमेरिका ही तो जा रही हैं, आपका आई डी देती जाइए। अमेरिका में किस जगह जा रही हैं जरा बताइए तो सही। ब्लोंगिग भी चालू रखिए।
एकदम धारदार लघुकथा. परफैक्ट.
रहा सवाल हमारे लेखन का भविष्य, तो ग़नीमत है कि इस जमाने में हमारे जैसे लेखकों को इंटरनेट की सुविधा है - ब्लॉग्स और ईबुक हैं, जो एक छोटे से चिप में समा जाते हैं... :)
बेहतरीन लघुकथा..आज के समाज के सच को जीती है..बधाई !!
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"शब्द-शिखर" पर - हिन्दी की तलाश जारी है
अवधिया जी की प्रेमचन्द वाली बात तथा रतलामी जी की सुविधा वाली बात से सहमत…
आपने बहुत सुन्दर और कम शब्दों में बात रखी… शानदार लघु कथा…
लघुकथा बहुत सुन्दर रही!
ek acchhi laghu katha k sath lekhak ki vedna bahut acchhe se uker di aapne ..aur katha ko padh kar lekhak ke putr ke man ke bhaav imagine kar rahi hu ki abhi to shayed use apna naam likhwana bhi ek saja lag raha hoga lekin ho sakta he prem chand ji k baccho ki tarah vo b naam kama jaye.
bahut acchhi laghu katha.
हम उन किताबों को काबिले ज़ब्ती समझते हैं,
जिन्हें पढ़कर बेटे बाप को खब्ती समझते हैं...
जय हिंद...
वाह वाह...!!
आपको पढ़ना हमेशा ही सुखद लगता है..
इधर कमेन्ट नहीं कर पाई इसका अर्थ आप हरगिज न लगायें कि हमारी नज़र आप पर नहीं है...
बेहतरीन लघुकथा...
हमेशा कि तरह एक बार फिर आपकी सशक्त लेखनी के दीदार हुए हैं....
हाँ नहीं तो..!!
आभार...
@ Dr. Smt.ajit gupta सबसे पहले धन्यवाद कहना चाहूँगा कि आपने मेरे विचार पर अपने विचार खुले मन से रखे। अब बात करता हूँ, उस विचार पर, जो आपने मेरे ब्लॉग पर रखा। उत्तर देना मेरा पहला कर्तव्य है। मैंने बात तो युवा होने की ही की है, शायद आप अंत आने से पहले ही पढ़ना छोड़ गए या फिर मैं अपनी बात कहने में असमर्थ रह गया हूँगा। मैंने कहा है कि मृत्यु की कोई उम्र नहीं, तुम मृत्यु से डरो मत जिओ। मौत आने से पहले ही मत मर जाओ, उसके बारे में सोचकर। बुजुर्गपन में भी जवानी का जोश रखो। उसके लिए आपको सही मार्ग तलाशना होगा। वो कविता के भीतर है। तुम तय मत करो कि तुम बुजुर्ग हो गए, तुम तय मत करो कि तुम्हारा अब अंतिम समय है। तुम बस इतना सोचो कि तुम को आज क्या करना है।
bahoot hee achha hai
कुलवन्त जी, मैंने आपके विचार पढ़े हैं, वे बहुत ही श्रेष्ठ हैं बस मैं तो यह कहना चाहती हूँ कि अभी से बुजुर्ग वाली बाते क्यों लिख रहे हैं। आप लोग तो ऐसा कुछ लिखो जिससे हम जवान हो जाए। मेरी बात से पीड़ा पंहुची हो तो क्षमा करना, मेरा मतलब आपको ठेस लगाना नहीं था। बस मन यही करता है कि युवा लोग अपनी मस्ती में रहें और हमें भी मस्त रखें।
Dr. Gupta
Ye bahut bada katu satya hai jo amooman har lekhak ke sath hota hai.
Rachna bahut achchi lagi...
बहुत कुछ कहती है लघु कथा। लघु कथाएं हमारी दस्तावेजी फिल्मों जैसी हैं, थोड़े समय में बहुत बात कहती हैं।
यह सिर्फ लघु कथा नही है हर लेखक के मन की व्यथा है ।
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