एक फिल्म आयी थी ‘जब वी मेट’ उसके नायिका एक संदेश देती है कि जब कोई प्यार में हो तो वह बिल्कुल सही होता है। फिल्म देखने के बाद यह संदेश गले नहीं उतरा, बहुत चिंतन-मनन हुआ। फिर एक दिन अचानक ही दिमाग की बत्ती जली, ज्ञान का प्रकाश फैल गया। मुझे सुनायी देने लगी गाय के जोर-जोर से रम्भाने की आवाजें। बचपन में बहुत सुनी थी क्योंकि घर पर गाय थी। लेकिन तब समझ नहीं आता था कि गाय के रम्भाने की आवाज से घर वाले विचलित क्यों हो जाते हैं? वे उसे जंगल में छोड़ देते थे, दूसरे दिन उसका रम्भाना या चिल्लाना बन्द हो जाता था। कोई नहीं कहता था कि गाय को क्या हुआ है? बस सब उसकी चिन्ता करते थे और उसकी शारीरिक और मानसिक क्षुधा को पूरा करने का प्रयास।
ऐसा ही मनुष्यों के साथ होता है, प्यार में पड़ने पर आवेश जन्म लेता है। अब मनुष्य सामाजिक प्राणी है तो कुछ कायदे-कानून के साथ मनुष्य को जीना पड़ता है। वह पशु नहीं कि उसको आवेश आया और उसकी पूर्ति कर दी गयी। वो अलग बात है कि बेचारे पशु को आवेश छठे-चौमासे ही आता है। लेकिन मनुष्य को तो ऐसा आवेश प्रतिदिन ही आ जाता है। अब मैं उस फिल्म की नायिका की बात मानूं या अपने समाज के कानून की। वो तो मनुष्य को पशु के समान तौलकर अपना निर्णय सुना रही थीं जबकि हम कानून से बंधे हैं। फिल्म के नायक को बात समझ आ गयी और उसने अपनी माँ को माफ कर दिया। बात माफी की हो तब तक तो ठीक है, लेकिन जब कानून तक चले जाए तब क्या करें? किसी का परिवार टूट जाए तब क्या करें? जैसे मटूकनाथ वाले केस में बेचारी पत्नी का परिवार टूट गया। मैं आप सब से और उस फिल्म के निर्देशक से जानना चाहती हूँ कि क्या वो वाक्य मनुष्यों के लिए सही है? यह फिल्म बहुत पहले आ चुकी लेकिन मेरी बत्ती कुछ देर से जली इसके लिए भी क्षमा चाहती हूँ। आप भी सोच रहे होंगे कि गड़े मुर्दे उखाड़ दिए। लेकिन क्या करूं विचार बहुत दिनों से परेशान किये था कि क्या वो विचार सही है या फिर हमारा भारतीय विचार कि मनुष्य अपना आवेश पशुवत नहीं निकाल सकता।
14 comments:
bahut khoob regarding ajit mem.
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बात तो आपने सही कही है मैम...मनुष्य पशु से एक ही वजह से ही भिन्न होता है .वो है दिमाग ,उसके सोचने समझने की शक्ति .परन्तु जब वह उसे ही खो कर पशुवत व्यवहार करे तो....... फिर चाहे कारण कोई भी हो
आपकी बात से में सहमत हूँ .......असल में रील लाइफ और रियल लाइफ में बहुत अंतर होता है .....उस फिल्म का dialogue सिर्फ फिल्म तक ही सीमित था .
आपकी बात से में सहमत हूँ........
आपसे सहमत हूं।
हमारी सांस्कृतिक चेतना ही हमें पशुता से दूर करती है
और ये भी सही है की आदमी प्यार में अंधा हो जाता है
मगर दोनों को मिला कर कोई परिभाषा देना मेरे गले नहीं उतरता है
रही बात फिल्म की तो ये कहना ज्यादा उचित है की
""फिल्म में जो होता है वो सब जायज है क्योकि वो इक फिल्म है ""
बाकी वो दिन लड़ गए जब फिल्म समाज का आईना हुआ करती थी
अब कोई मदर इंडिया नहीं बनाया करता
aaj k samay me pyar ki paribhaashaa kya honi chahiye, mere samajh se pare hai. Achchhi lagi
पूर्ण सहमत!
aapka blog bahut achch laga... mere blog par aane ke liye shukria......apnt turti ke liye khed hai jaldvbaaji me dalat date type ho gayi thii.. shukria aapka dhyan gaya....
www.boltikalam.blogspot.com
pashu aur manav mein yahi to fark hai didi ki wo pashu hai isliye purntaya tanav mukt hai.hum manushya hain isliye purnataya tanav yukt hain.dono mein se kaun shreshth hai aap hi kuch batane ki krapa karen.
सही कहूं तो मैने फिलमे देखनी ही छोद दी उन्हें तो बस कोई नया फँडा चाहिये जो युवाओं की तरफदारी करे चाहे वो बात उनके जीवन को बर्बाद करने वाली हो। आपसे पूरी तरह सहमत हूँ। अच्छा सवाल उठाया है आपने। धन्यवाद्
हम्म सही कहा आपने...फिल्म में तो सबकुछ संभव है...और फिल्मवालों के लिए भी..पर आम लोगों के लिए कई बंदिशे हैं...और वही समाज को संतुलित भी रखती हैं..
अजित जी , जब वी मेट में नायिका को आधा पागल दिखाया गया है। कम से कम मुझे तो यही समझ में आया।
ज़रा सोचिये यदि आज देश के सारे युवक राँझा या फरहाद बनकर प्यार में कुर्बान हो जाएँ तो उनकी हीर या शिरी को चीन या पकिस्तान से कौन बचाएगा। जो देश की तरफ मूंह बाये खड़े हैं।
प्यार तो एक अहसास होता है जो समाज की मर्यादाओं में रहकर बखूबी महसूस किया जा सकता है।
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