Wednesday, February 17, 2010

बाराती चलाते हैं एक दिन चमड़े के सिक्‍के

आज कई शादियों में जाना था लेकिन एक शादी पारिवारिक मित्र के यहाँ थी तो सोचा कि आज बस उन्‍हीं की शादी में रहेंगे बाकि सभी में जाना केंसिल। कार्ड में बारात आने का समय देखा, लिखा था नौ बजे। दूसरे शहर से बारात आनी थी और बारात सुबह ही शहर में आ गयी थी, तो सोचा कि समय पर ही आ जाएगी बारात तो हम आठ सवा आठ तक जा पहुंचे। घूम-फिरकर भोजन का भी जायजा ले लिया गया और दाल रोटी कहाँ उपलब्‍ध है यह भी देख लिया गया। सोचा कि बारात का स्‍वागत करने के बाद ही खाना खाएंगे लेकिन कहीं बाजे-वाजे की आवाज सुनाई ही नहीं दे रही थी तो लगे हाथ खाने का काम भी निपटा लिया। दस बज गए लेकिन बैण्‍ड-बाजों की आवाज फिर भी सुनाई नहीं दी। अब क्‍या करें? बहुत देर तक परिवार वालों के साथ स्‍वागत करने वालों की कतार में भी खड़े रहे लेकिन आखिर बुढापे की टांगे कब तक साथ देती? पतिदेव ने चुपके से आकर कहा कि चाहो तो यहाँ कुर्सियों पर आकर बैठ जाओ। वैसे तो उनका सुझाव रास नहीं आता है लेकिन आज कुछ अच्‍छा लगा। हम भी पण्‍डाल में सजी-धजी और बारातियों की इंतजार करती कुर्सियों पर बैठ गए। हमने क्षमा भी मांग ली कि भाई आप लोग इन्‍तजार तो बारातियों का कर रही हो लेकिन अब सर्दी में आप भी अकेली बैठी हो तो हम ही आपका साथ निभा देते हैं। सुख-दुख देखकर हमारा ही साथ निभा लो। दो-तीन दोस्‍तों और सहेलियों की मण्‍डली भी जुट गयी।

हमने सारे ही किस्‍से भी सुना डाले, लेकिन जैसे ही हमारा एक किस्‍सा खत्‍म होता मैं देखती कि हमारे मित्र लोग हँस भी लेते लेकिन फिर मुड़कर दरवाजे की ओर देख लेते शायद अब आ जाए? लेकिन राजस्‍थान में बरसात की तरह बारात को भी देरी होती जा रही थी। हमारे किस्‍से भी खतम हो रहे थे। शादी गार्डन में थी, तो नीचे हरी दूब और ऊपर खुला आसमान दोनों से ही ठण्‍ड बरसने लगी थी। मैं तो एक पति में ही विश्‍वास रखती हूँ, तो शॉल वगैरह पहनकर ही जाती हूँ लेकिन आज की महिलाएं दूसरे चांस की जगह रखती हैं तो गरम कपड़ों से कुछ परहेज ही रखती हैं। कहीं ऐसा न हो कि हमें उम्रदराज समझ लिया जाए? तो मेरे अलावा सभी महिलाएं कुड़कती जा रही थीं। मैं भी एक शॉल के सहारे तो कब तक रहती, इसलिए मेरी हड्डिया भी खनकने लगी थी। कॉफी की तलाश शुरू की गयी जिससे शायद कुछ गर्मी का अहसास हो जाए। लेकिन पता नहीं मेजबान को क्‍या सूझी कि कॉफी को नाकाफी सिद्ध करके उसके साथ बेइंसाफी कर डाली। जब कॉफी नहीं मिली तो घड़ी पर ध्‍यान गया, अरे क्‍या साढे ग्‍यारह बज गए? लेकिन शुक्र था कि तब बारात आने की सुगबुगहाट होने लगी थी और बारात दरवाजे पर हाजिर थी। राम-राम करते दूल्‍हा 12 बजे स्‍टेज पर आया। अक्‍सर देखते हैं कि दूल्‍हा बहुत देरे तक स्‍टेज पर अपने दोस्‍तों के साथ बैठता है फिर बड़े सलीके से दुल्‍हन आती है लेकिन यहाँ तो दूल्‍हा स्‍टेज पर चढ़े उससे पहले दुल्‍हन तैयार थी स्‍टेज पर चढ़ने को। आनन-फानन में वरमाला हुई और हम आखिर खिसक ही लिए।

कन्‍या पक्ष ने विवाह का बड़ा भव्‍य आयोजन किया था, लगभग तीन-चार हजार लोग विवाह में सम्मिलित होने आए थे लेकिन बारात आयी जब केवल घर वाले और इष्‍ट-मित्र ही रह गए थे। ना किसी ने दूल्‍हा देखा और ना ही दुल्‍हन। ना किसी ने आशीर्वाद दिया और ना ही स्‍टेज पर जाकर फोटो खिंचवाए। लेकिन एक दिन के हम बादशाह हैं, लड़के वाले हैं। हम जितनी खरामा-खरामा आएंगे उतने ही लड़के वाले लगेंगे। भइया एक दिन चमड़े के सिक्‍के चला लो बाकि तो वही होगा जो दुल्‍हन चाहेगी। क्‍या आप भी एक दिन के सिक्‍के चलाने में विश्‍वास करते हैं?

21 comments:

ताऊ रामपुरिया said...

आपने सभी की व्यथा कह डाली अपके मनोरंजक अंदाज में. पर असलियत यही है कि आजकल एक दिन के सिक्के ही चल रहे हैं. हम भी कल शादी मे गये थे. और तिन शादियां निपटा डाली रात ११ तक. तब तक सब जगह चमडे के सिक्के ही चल रहे थे. हमे क्या मालूम कि आजकल १२ बजे बाद का समय हो गय है? वर्ना एकाध जगह लिफ़ाफ़े से आशिर्वाद देने की बजाये साक्षात दे आते.:)

बहुत सुंदर लिखा आपने. शुभकामनाएं.

रामराम.

sonal said...

बहुत सटीक वर्णन ,पिछले ३-४ सालों में अपने करीबी सम्बन्धियों को छोड़कर किसी भी शादी में जयमाल नहीं देखी,लड़की की शादी हो या लड़के की आधे से ज्यादा पकवान तो बरात आने से पहले ही निपट जाते हैं,रही बात दुल्हा दुल्हन को देखने की वो तो असंभव सा ही लगता है. अब तो जाते ही इस मन: स्थिति से की वय्हार देकर और खाना खाकर वापस आ जाना है
http://sonal-rastogi.blogspot.com

वाणी गीत said...

एक दिन के चमड़े के सिक्के ..कई बार देखते हैं ...बल्कि कुछ घंटों के ....
कई बार तो शादी attend करके आ जाते हैं बारात आये बिना ही ....
क्या बात है ....ब्लॉग जगत की सारी महिलाएं ऐसे ही बूढ़ा जायेंगे तो कैसे चलेगा ....अभी तो हम ...:):)

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

डॉक्टर अजीत जी ,
आपके अन्य मुद्दों की तरह ही यह भी अच्छा मुद्दा है! बहुत से कारक ये भी है ;
१. घर से ही फुरसत से बरात निकालना, लड़के वाले जो ठहरे !
२. सडको पर बरात का ट्रैफिक जाम में फँस जाना
३. कहीं बीच में रोककर बारातियों द्वारा मद्यपान ( उसके बगैर नाचने के लिए पैर ही नहीं उठते )
४.तदुपरांत दुल्हे के किसी ख़ास अजीज जैसे मामा इत्यादि का शराब पीकर किसी के साथ जबरन उलझ जाना !
५.दुल्हन वालो के अथिति स्वागत कक्ष से कुछ दूरी पर बरात रोककर दुल्हे पक्ष की महिलाओं द्वारा चहरे पर एक बार फिर से लीपा पोती
६. और अब तो बैंड वालो का भी समय निर्धारित होता है शिफ्ट का !

vandana gupta said...

waah..........bilkul sahi baat kahi hai....aaj har jagah yahi aalam hai ...........bahut sundar prastuti.

अनामिका की सदायें ...... said...

puri vaardaat padhne ke baad samajh me aayaa ki ktaaaaksh kya hai...uffff....dhuundhti hi reh gayi ki puri kahani me aakhir chmde ke sikke hai kaha...(ha.ha.ha.)
acchhi prastuti..shukriya...yahi sacchayi hai.

Anamika7577.blogspot.com

Dev said...

वाह आपने तो ....मनोरंजन अंदाज में पूरा किस्सा सुना दिया शादी का .......मजा अगया पढ़ कर .

Udan Tashtari said...

बिल्कुल सटीक नब्ज़ पर हाथ रखा है आपने...जाने क्या समझते हैं और समय सीमा की तो कोई परवाह ही नहीं है चाहे लड़की वाले कितना भी परेशान हों.

सागर नाहर said...

बहुत गलत बात है डॉ साहिबा,
यह तो आप खुद भी मानती है कि बाद में तो दुल्हन का ही चलेगा तो फिर आपसे पुरुषों का एक दिन का सुख भी हजम क्यों नहीं होता?
:)
मजेदार वर्णन रहा।

shikha varshney said...

सटीक व्यंग रोचक शैली यही आलम है आजकल.

डॉ टी एस दराल said...

आजकल शादियों का हाल यही हो गया है --खाओ पियो , लिफाफा थमाओ और खिसको।
दूल्हा दुल्हन खुद एक दुसरे को संभाल लेते हैं।

मनोरंजक प्रस्तुति।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

समझ में आ गया जी!
ये लोग एक दिन के ही तो शहन्शाह हैं ना!

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

ऐसी घटना आम बात है लेकिन आपने इसे रोचक शैली में लिख विशेष बना दिया है....बहुत रुचिकर प्रस्तुति...काश लोग दूसरों की परशानियों को समझ समय की कीमत समझें

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

बहुत वाजिब बात कही आपने.... अंत तक आपने बाँध कर रखा.... पर आंटी मैं अपनी शादी में ऐसा नहीं करूँगा.... अब बिन माँ-बाप का हूँ तो आशीर्वाद भी आपको देना पड़ेगा....

मुझे बहुत अच्छी लगी आपकी यह पोस्ट.... शैली लाजवाब है...

दीपक 'मशाल' said...

फिसल गया इस पोस्ट पर तो.. कब शुरू की और कब ख़त्म पता ही नहीं चला..
बढ़िया शैली है आपकी..
जय हिंद...

श्यामल सुमन said...

सत्यवचन। एकदम सटीक चित्रण।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com

Khushdeep Sehgal said...

ये लोग एक दिन के ही तो शहंशाह हैं ना!

एक बार डोली के वक्त गलती से ये गीत बज गया था...

दिल में छुपा कर प्यार का अरमान ले चले,
हम आज अपनी.......का सामान ले चले...

जय हिंद...

Smart Indian said...

जिसको जब मौक़ा लगा तब बादशाह. बराती की तो बात ही क्या है.

अजित गुप्ता का कोना said...

महफूज अली, जी नहीं लगा रही। केवल तुम में अपना जी लगा रही हूँ। अपने आपको बिन माँ-बाप का मत कहो। अरे जिसके सर पर ऊपर वाले की छत है वो अनाथ हो ही नहीं सकता। कब कर रहे हो शादी? रिजर्वेशन करना पड़ेगा ना भाई अभी से। शादी धूमधाम से करेंगे, समाचार देंगे कि एक ब्‍लागर की शादी।

rashmi ravija said...

बहुत ही सटीक वर्णन किया है....अपनी चिरपरिचित लुभावनी शैली में...पता नहीं लोग समय की कीमत क्यूँ नहीं समझते...सारा मजा किरकिरा हो जाता है...ये लड़के वाले भी कभी लड़की वाले होते है..भूल जाते हैं वो दिन...कितनी परेशानी हुई थी...या फिर यह सोचते हैं...हमने इतना सहा था...अब हमारी बारी है...भाव दिखाने की ??

अजय कुमार झा said...

वाह डा. साहिबा आज तो जाने कितनों की बातें और कितनी सारी बातें कह गई आपकी ये पोस्ट .बहुत खूब
अजय कुमार झा