इन गर्मियों की छुट्टियों में बच्चों ने कहा कि पापा इस बार हम मसूरी घूमने चले। पापा ने कहा कि देखते हैं। लेकिन एक दिन अचानक ही पापा बोले कि बच्चों तुम कह रहे थे ना कि मसूरी घूमने जाना है। तो हम ऐसा करते हैं कि मसूरी की जगह कोडयकेनाल चलते हैं। तुम्हें तो हिल-स्टेशन से मतलब है ना, और फिर मसूरी से अधिक अच्छी जगह है कोडयकेनाल। फिर वहाँ फायदा यह है कि वहाँ पर पहाड़ों की खुबसूरती के साथ समुद्र भी है। बच्चे खुश हो गए। पत्नी ने पूछा कि उस दिन तो आप चुप लगा गए थे लेकिन आज कैसे आप दक्षिण घूमने की बात कर रहे हैं? पति बोले कि वो क्या है ना कि अपना हितेश है ना। कौन हितेश पत्नी ने कहा? अरे अपने दिल्ली वाले चाचाजी का लड़का। वो आजकल केरल में पोस्टेट है। कल उसी का फोन आया था कि भैया इसबार छुट्टियों में यहाँ का कार्यक्रम बना लो। अब घूमने का घूमने हो जाएगा और उससे मिलने का अवसर भी। फिर सबसे बड़ी बात की कोई अपना वहाँ है तो मन में सुरक्षा का भाव भी रहेगा। लेकिन वो तो अपने दूर की रिश्तेदारी में है। पत्नी ने फिर प्रश्न कर दिया। अरे तो क्या हुआ? हितेश मुझे बड़ा मानता है। एक दो दिन उसके यहाँ रहेंगे और बाकि पूरा समय घूमेंगे। उसका वहाँ परिचय है तो गेस्ट-हाउस वगैरह भी वो उपलब्ध करा देगा।
अब बोलने की बारी बच्चों की थी। बच्चों ने कहा कि पापा हम तो होटल में रहेंगे। घूमने तो जाते ही इसलिए हैं कि होटल में रहने को मिले।
अरे होटल में भला घर जैसा सुख मिलता है क्या? पापा बोले। हम होटल में भी रहेंगे और घर पर भी। अब देखो साउथ में खाने की कितनी दिक्क्त होती है? घर का खाना मिल जाएगा।
ये वार्तालाप अमुमन हर घर में होता है। हम जब भी कहीं घूमने जाते हैं पहले किसी रिश्तेदार या परिचित को ढूंढते हैं। हमारा स्वभाव ही यह बन गया है। लेकिन इसके विपरीत आधुनिकता को अपना रहे बच्चे होटल की बात करते हैं। विदेश में कहीं भी किसी परिचित के रूकने की बात अधिकतर नहीं सोची जाती। सगे भाई-बहन भी होंगे तो रुकेंगे तो होटल में ही, फिर चाहे मिलने चले जाएं। इसी कारण हमारे यहाँ समाज जीवित है। परिवार भी रिश्तों से बंधे हैं।
लेकिन आधुनिकता और भारतीयता के मध्य एक अजीब सी परिस्थिति का निर्माण होने लगा है। मैं जब भी किसी माता-पिता से बात करती हूँ तो वे अक्सर कहते हैं कि हम बच्चों से कुछ नहीं लेते। माता-पिता अपना सम्मान रखने के लिए ऐसा कहते हैं वास्तविकता में तो बच्चे कुछ देते नहीं। हम जिस देश में रहते हैं, उस देश को चलाने के लिए प्रत्येक समर्थ नागरिक टेक्स देता है इसी प्रकार परिवार में भी समर्थ संतानों को टेक्स देना पड़ता है। यह भारत का कानून है कि हम समर्थ से ही टेक्स लेते हैं। परिवार में भी यही होता है कि गरीब और असमर्थ संतान को तो सब मिलकर पालते हैं। आज संतानों के द्वारा परिवारों में यह कहकर टेक्स देना या अपना अंश देना बन्द कर दिया है कि आपको इसकी आवश्यकता ही क्या है? परिणाम हुआ है कि आज एक पीढ़ी ही समाज को बनाए रखने का प्रयास कर रही है। यही युवा पीढ़ी जब स्वयं कहीं जाती है तब माता-पिता से रिश्तेदारों का पता पूछती हैं लेकिन ये रिश्तेदारी कैसे बचायी जाती है इसकी चिन्ता नहीं करती। कितने भी समर्थ माता-पिता हो लेकिन क्या युवा-पीढ़ी को अपना अंश परिवार में नहीं देना चाहिए? क्या एक दिन रिश्तेदारी का यह सुरक्षा-कवच भारत में भी समाप्त हो जाएगा? क्या हम भी कहीं घूमने जाएंगे तब बस होटल की ही तलाश करेंगे? हमारा रिश्तेदार वहाँ रह रहा होगा लेकिन उससे सम्बंध बनाए रखने के लिए कुछ त्याग करना पड़ेगा तो हम ऐसा क्यों करें, ऐसा भाव क्या भारत में भी सर्वत्र छा जाएगा? अपना अंश नहीं देने और होटलों की परम्परा को अपनाने से माता-पिता और संतानों के रिश्ते तो शायद बचे रह जाएं लेकिन हम रिश्तेदारी के रिश्ते नहीं बचा पाएंगे। आगे आने वाली पीढ़ी फिर बिल्कुल अकेली होगी, बिल्कुल अकेली।
19 comments:
बिलकुल सही कहा आपने ,आज सचमुच यह एक सोचनीय मुद्दा बन गया है , बच्चे सोचते है कि रिश्तेदारी निभाना सिर्फ माँ-बाप का फर्ज है ! आज का युवा अपने खुद के विषय में इतना गुम है या यूँ कहूँ कि हालात यहाँ तक बिगड़ चुके है कि अगर हम मान लीजिये कि पांच भाई-बहिन है तो मेरे बेटे को यह नहीं मालूम कि बाकी के चार भाई-बहनों का असली नाम ( सिर्फ घरेलु नाम जैसे टिंकी, रिंकू इत्यादि मालूम है उन्हें बस ) क्या है ?
आपने बहुत ही ज्वलंत मुद्दे को ऊठाया है. मेरी समझ से इसका उपाय असंभव है. अभी तो नई पीढी "मैं और मेरा नाथा, दूसरे का फ़ोड माथा" पर अमल कर रही है.
रामराम.
ताऊ जी, आज आपकी कहावत से स्वर्गीय माँ की याद आ गयी। वे अक्सर कहती थीं यह कहावत - मैं और मेरा नाता, दूसरे का फोडू माथा। आज वही चरितार्थ हो रहा है।
यह समस्या दिनो दिन बढ़्ती ही जा रही है...आज की संताने सिर्फ अपने बारे मे ही सोचती है....यहाँ तक कि देखा गया है की घर की समस्याओ और जिम्मेवारीयों को वह अपनी जिम्मेवारी मानने को ही तैयार नही होते..ऐसे मे माँ बाप और क्या कह सकते हैं .....भविष्य मे समय के साथ बहुत कुछ बदल रहा है जो शायद निज स्वार्थो पर आधारित संबधो को जन्म देगा...
बहुत ही अच्छे विषय पर लिखा है....आज घर घर का यही हाल है...नयी पीढ़ी रिश्तों स एज्यादा दोस्ती को अहमियत देती है...किसी शहर में वे दोस्त को ढूंढ कर मिल लेंगे पर माता-पिता रिश्तेदारों से मिलने को कहें तो समय का बहाना कर देंगे...और किसी शादी में आनेपर होटल में ठहरने का रिवाज तो हो ही गया है...देखना है..आगे आगे और क्या क्या बदलता है...
सच कहा आपने ...माहोल तो बदल ही गया है...अब रिश्तेदारों के यहाँ कोई रहना नहीं चाहता..सचमुच बहुत अकेले पड़ते जा रहे हैं हम...आगे क्या होगा पता नहीं
बहुत सार्थक चिन्तन!
"माता-पिता अपना सम्मान रखने के लिए ऐसा कहते हैं वास्तविकता में तो बच्चे कुछ देते नहीं।"
सम्मान बनाये रखना भी तो पड़ता है आखिर।
आपने बहुत अच्छे और नेक विचार प्रस्तुत किये हैं।
लेकिन आज की युवा पीढ़ी की सोच कुछ और ही है।
हम इसे बदल भी नहीं सकते।
विचारोत्तेजक! आपसे सहमत हूं। ये जेनेरेशन पेड़ों को काट कर आधुनिक बन रही है कंक्रीट का जंगल बसा कर। एक हम थे जो कहते थे
घने दरख़्त के नीचे मुझे लगा अक्सर
कोई बुज़ुर्ग मिरे सर पर हाथ रखता है।
कुछ ना कुछ हम खो रहे है..जिसका एहसास बाद में होता है..बढ़िया चर्चा..
हम जिस देश में रहते हैं, उस देश को चलाने के लिए प्रत्येक समर्थ नागरिक टेक्स देता है इसी प्रकार परिवार में भी समर्थ संतानों को टेक्स देना पड़ता है। यह भारत का कानून है कि हम समर्थ से ही टेक्स लेते हैं। परिवार में भी यही होता है कि गरीब और असमर्थ संतान को तो सब मिलकर पालते हैं। आज संतानों के द्वारा परिवारों में यह कहकर टेक्स देना या अपना अंश देना बन्द कर दिया है कि आपको इसकी आवश्यकता ही क्या है?
.. और अफसोस की बात तो यह है कि इसे लोग आधुनिकता कहते हैं !!
इसका मतलब कि हम नयी पीढ़ी के हो गये क्योंकि हम होटल में ठहरना पसंद करते हैं नहीं जी अगर रिश्तेदार से अच्छे संबंध हों तो वहाँ जाने में कोई आपत्ति नहीं होती और अगर संबंध अच्छॆ नहीं होते तो हाँ हम वहाँ झांकते भी नहीं हैं, सीधे होटल ही जाते हैं, वैसे भी ऐसी जगह रहने वाले रिश्तेदार बहुत भाव खाते हैं।
आज की बढती आधुनिकता .....ने हमारे भारत की कई संस्कारो को खत्म करता जा रहा है .
बढ़िया, सौ टके की बात. अबकी छुट्टियों में हम आपके शहर में घूमने का प्लान बना रहे हैं. आपकी-हमारी ब्लॉगिंग-रिश्तेदारी तो है ही! :)
रतलामी जी
आपका स्वागत है दुनिया के नम्बर वन शहर उदयपुर में। अगर ये नवीन रिश्तेदारियां भी बन जाए तो हम जी लेंगे। आभार।
अजित जी,
ये विडंबना नहीं तो और क्या है, हम रियल दुनिया छोड़कर वर्चुअल दुनिया (ब्लॉग, सोशल साइट्स) में रिश्ते ढूंढ रहे हैं, प्यार ढूंढ रहे हैं...दरअसल इस स्थिति के लिए मैं फिर एडुकेशन सिस्टम को ज़िम्मेदार मानता हूं...आज कौन से
स्कूल में बच्चों को नैतिक पढ़ाई कराने पर ज़ोर दिया जाता है...रामायण के रिश्तों की सीख को सही संदर्भ में पढ़ाया जाता है...और अब तो न्यूक्लियस परिवारों का चलन ज़ोर पकड़ने की वजह से बच्चों को ऊंच-नीच समझाने वाले बड़े-बूढ़े भी नहीं रह गए हैं...इसीलिए रिश्तों की महत्ता घटती जा रही है...मैं तो ये सोचकर घबराता हूं कि आर्थिक सुधारों की वकालत के बीच दुनिया में कदम रखने वाली पीढ़ी जवान होगी तो सिर्फ रोबोट बन कर ही न रह जाए...जिसमें दिमाग तो होगा लेकिन रिश्तों का दर्द समझने वाला दिल नहीं...
जय हिंद...
adar jog , ajit mem, sunder rachnaon ke liye aap ka aabhar
आप हमेशा ही समाज की बदलती स्थिति के बारे मे सही मुद्द उठाती हैं । आज के युवाओं मे जो बदलाव आ रहा है जल्दी ही वो इसके दुश्परिनाम समझने लगेंगे--- तो मुझे लगता है फिर से ये बदलाव जरूर आयेगा जब इन्सान फिर से रिश्तों की महक को समझेगा। कल बेटी कह रही थी अपनी बहन से कि तू अलग होने की कभी मत सोचना। जो सुख और खुशी संयुक्त परिवार मे है वो अकेले रहने मे नही। वो खुद संयुक्त परिवार मे रहती है। तो मुझे लगता है कि बडी बहन की हालत देख कर दोनो छोटी बहने कुछ सीख रही हैं । इस लिये शायद मुझे कुछ आशा है। अभी तो सम्य खराब ही है। धन्यवाद
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