रेल के एसी द्वितीय श्रेणी में अधिकतर सम्भ्रान्त लोग यात्रा करते हैं, मैंने अधिकतर सम्भ्रान्त लोग इसलिए लिखा है कि कभी-कभार मुझ जैसे लोग भी यात्रा करते हैं। वहाँ के बेड-रोल अक्सर गन्दे होते हैं। मैं उदयपुर में निवास करती हूँ तो मेरा उदयपुर से चलने वाली रेलों से ही अधिक सामना होता है, लेकिन कभी-कभी भारत के अन्य क्षेत्रों की रेलों से भी रूबरू हुई हूँ। कम्पार्टमेन्ट में 42-44 यात्री रहते हैं लेकिन मैंने कभी भी मेरे सिवाय किसी और को गन्दे बेड-रोल के लिए केयर-टेकर को टोकते नहीं सुना। उदयपुर से ट्रेन दिल्ली जाती है तो सुबह होते ही यात्रियों से चद्दरें लेकर केयर-टेकर समेटकर रख देता है और शाम को वापस दूसरे यात्रियों को दे देता है। कम्बल तो इतने फटे हुए और गन्दे होते हैं कि शायद घर में ऐसे हो तो तत्काल पत्नी के ऊपर फेंक दिए जाएं। नेपकीन तो मांगने पर भी मिल जाए तो शुक्र कीजिए। लेकिन हम कभी भी प्रतिक्रिया नहीं करते, बस चुपचाप उसी बिस्तर पर सो जाते हैं। यह मुद्दा तो ऐसा भी नहीं है जिससे आप किसी संकट में पड़ जाएं। लेकिन उस समय साधु बन जाते हैं कि जो मिला उसी में संतोष। परिणाम क्या होता है, रेल के ठेकेदार इसका फायदा उठाते हैं और हमें प्रतिदिन इन गन्दे बिस्तरों पर सोना पड़ता है।
इसके विपरीत एक और वाकया देखिए। जब मैंने यात्रियों को प्रतिक्रिया करते हुए देखा। मैं हैरान रह गयी देखकर कि लोग कमजारे व्यक्ति के सामने कैसे शेर बनते हैं? रायपुर से मैंने ट्रेन पकड़ी, अपनी बर्थ पर बैठ गयी। कुछ ही मिनट में एक व्यक्ति को थामे दो व्यक्ति आए और एक बर्थ पर सुलाकर चले गए। उसका सामान भी रख गए। जब ट्रेन चल दी, तो पास के सह-यात्रियों ने हल्ला मचाना शुरू किया कि इसने शराब पी रखी है और यह बेसुध होकर सो रहा है, हमें इससे खतरा है। पुलिस आ गयी, उन्होंने भी समझाने का प्रयास किया कि यात्री सो रहा है, पता नहीं क्या बात है? आपको इससे क्या परेशानी है? लेकिन लोग नहीं माने और अगले ही स्टेशन पर उस यात्री को सामान सहित प्लेटफार्म पर डाल दिया गया। मैं खड़ी अवाक देखती रही कि यह क्या हो रहा है? उस यात्री की क्या मतबूरी थी, हो सकता है किसी ने उसे लूटा हो और ऐसी हालात में उसे यहाँ छोड़ गए हों। उसके पीछे कोई भी कारण हो सकता था। लेकिन भीड़ के कानून ने पुलिस के सामने फैसला सुना दिया था। यह घटना कई वर्ष पुरानी है, लेकिन मेरे मन से जाती नहीं। वह बेचारा व्यक्ति पता नहीं किस हालात का शिकार हुआ होगा। आप कहेंगे कि मैं क्यों नहीं बोली? मैंने कोशिश की लेकिन नक्कार-खाने में तूती की आवाज भला कौन सुनता है?
ये दो उदाहरण हैं, ऐसे कितने ही उदाहरण हमारी रोजमर्रा के जीवन में आते हैं लेकिन जहाँ कमजोर व्यक्ति होता है, वहाँ हम शेर बन जाते हैं और जहाँ व्यवस्था सुधारने की बात होती है वहाँ हम सहन करते जाते हैं। फिर कहते हैं कि भ्रष्टाचार है। हम बात-बात में नेताओं को गाली देते हैं लेकिन कभी नहीं सोचते कि हम कितना चुप रहते हैं? केवल अपना फायदा देखते हैं। यदि हम ऐसे अव्यवस्थाओं के खिलाफ प्रतिक्रिया करना प्रारम्भ कर दें तो बहुत कुछ सुधार सम्भव हो सकता है। प्रतिक्रिया करने पर ही सुधार होगा, सुप्त समाज मृत समान है।
10 comments:
आपने बिलकुल सही कहा... ऐ.सी. बोगी में बिलकुल ऐसा ही होता है.... लेकिन मैं तो झगड़ लेता हूँ.... फिर टॉवेल और बेद भी अच्छा ले लेता हूँ.... पर सब कुछ लड़ के मांगने पर ही मिलता है....
कमजोरों को दबाना तो आदि काल से एक दस्तूर रहा है....
बहुत अच्छी लगी आपकी यह पोस्ट...
बहुत सही मुद्दा उठाया है आपने!
"प्रतिक्रिया करने पर ही सुधार होगा, सुप्त समाज मृत समान है।"
प्रतिक्रिया अत्यन्त आवश्यक है।
बिना लड़े हक कोई देता नही है
बात तो सही है
बहुत सही बात, प्रतिक्रया न करो तो उस गलत परम्परा को इस देश में कानून समझ लिया जाता है और फिर यही ताका सा जबाब होता ही कि इतना तो चलता ही है ! अब अपने पुराने रेल मंत्री जी की मुनाफा बढाने की तुगलकी पहल हे देख लो कि दुसरे दर्जे में साइड में दो की जगह तीन बर्थ लगा दी गई , लोग ठीक से बैठ भी नहीं पाते !
सही कहा ......... अपने हक के लिए तो लड़ना पढ़ता है .......... और अगर आपकी बात मानी जाय या नही ... अपना प्रतिरोध तो जतला ही देना चाहिए ......... विरोध जतलाना ग़लत व्यवस्था के प्रति एक अच्छी प्रक्रिया है ............
प्रतिक्रिया करने पर ही सुधार होगा, सुप्त समाज मृत समान है।
बहुत सही कहा आपने .. हमलोग किसी भी बात का विरोध ही नहीं कर पाते हैं .. यही कारण है कि समस्याएं बढती जा रही हैं !!
आपकी दोनो बातें सोचने को मजबूर करती हैं. हकीकत हैं.
रामराम.
विचारणीय बिन्दु हैं!
बहुत सही कहा आपने. प्रतिक्रया का असर ज़रूर होता है, भले ही थोड़ा हो या देर में दिखे.
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