अभी समीरलाल जी की पोस्ट आयी, "दूर हुए मुझसे वो मेरे अपने थे"। मन में कहीं उथल-पुथल सी हुई, रिश्तों को लेकर। मेरा यह आलेख समीर जी के लिए -
सुकून आता जाएगा
कई दिनों से मन में एक उद्वेग उथल पुथल मचा रहा है, लेकिन समझ नहीं आ रहा कि क्या है? तभी डॉक्टर पति के पास एक बीमार आया, उसे फूड पोइजनिंग हो गयी थी और वह लगातार उल्टियां कर रहा था। मुझे मेरी उथल पुथल भी समझ आ गयी। दिन रात मनुष्यता को समाप्त करने वाला जहर हम पीते हैं, शरीर और मन थोड़ा तो पचा लेता है लेकिन मात्रा अधिक होने पर फूड पोइजनिंग की तरह ही बाहर आने को बेचैन हो जाता है। मन से निकलने को बेचैन हो जाता है यह जहर। कुछ लोग गुस्सा करके इसे बाहर निकालते हैं, कुछ लोग झूठी हँसी हँसकर बाहर निकालने का प्रयास करते हैं और हम स्याही से खिलवाड़ करने वाले लोग स्याही को बिखेर कर अपनी उथल-पुथल को शान्त करते हैं। बच्चा जब अपने शब्द ढूंढ नहीं पाता तब वह स्याही की दवात ही उंडेल देता है। शब्द भी पेड़ों से झरे फूलों की तरह होते हैं, वे झरते हैं और सिमट कर एक कोने में एकत्र हो जाते हैं। अच्छा मकान मालिक उन्हें झोली में भरता है और अपने घर में सजा लेता है। लेखक भी शब्दों को अपनी स्याही के सहारे पुस्तकों में सजा देता है। जैसे ही कमरे में फूलों का गुलदस्ता सजा दिया जाता है स्वतः ही वातावरण सुगंधित हो जाता है। वहाँ फैली घुटन, सीलन झट से बाहर भाग जाती है। ऐसे ही जब हम शब्दों को मन में सजाते हैं उन्हें कोरे पन्नों में उतारते हैं तब मन की घुटन और ऊब पता नहीं कहां तिरोहित हो जाती हैं। जीवन फिर खिल उठता है।
आज एक कसक फिर उभर आयी। बचपन से ही मेरे पीछे पड़ी है, कभी भी छलांग लगाकर मेरे वजूद पर हावी हो जाती है। मैं नियति का देय मानकर सब कुछ स्वीकार कर चुकी हूँ लेकिन फिर भी यह कसक मेरे अंदर अमीबा की तरह अपनी जड़े जमाए बैठी है। जैसे ही अनुकूल वातावरण मिलता है यह भी अमीबा की तरह वापस सक्रिय हो जाती है। आदमी सपनों के सहारे जिंदगी निकाल देता है। बचपन में जब नन्हें हाथ प्रेमिल स्पर्श को ढूंढते थे तब एक सपना जन्म लेता था। हम बड़े होंगे अपनी दुनिया खुद बसाएंगे और फिर प्रेम नाम की ऑक्सीजन का हम निर्यात करेंगे। जिससे कोई भी रिश्ते में उत्पन्न हो रही कार्बन-डाय-आक्साइड का शिकार ना हो जाए। लेकिन यह कारखाना लगाना इतना आसान नहीं रहा। हवा इतनी दूषित हो चली थी कि आक्सीजन का निर्यात तो दूर स्वयं के लिए भी कम पड़ती थी। जैसे तैसे करके काम चलाते रहे। बच्चे बड़े होने लगे, तब फिर सपना देख लिया। सपने में देखने लगे कि अब तो प्राण वायु का पेड़ बड़ा होगा और हमें भरपूर वायु मिलेंगी। लेकिन क्या? हमने पेड़ बोना चाहा लेकिन बच्चे पंछी बन गए। वे हमारे पेड़ से उड़कर बर्फ की धवल चोटी पर बैठ गए। जहाँ उष्मा नहीं थी, थी केवल ठण्डक। हम फिर आक्सीजन के अभाव में तड़फड़ाने लगे। अब तो सपने भी साथ छोड़ने को आमादा हो गए। वे बोले कि तुम जिंदगी भर हमारा सहारा लेते रहे, तुमने सच करके कुछ भी नहीं दिखाया। हम भला तुम्हारा साथ कब तक देंगे? और एक दिन उन्होंने बहुत ही रुक्षता के साथ हम से कह दिया कि नहीं अब नहीं होगा, बाबा हमारा पीछा छोड़ो।
हमने भी जिद ठान ली कि देखें सपने कैसे नहीं आते? लेकिन सपनों ने नींद से दोस्ती कर ली। वे बोले सपने तभी देखोंगे ना, जब नींद आएगी? हम नींद को भी अपने साथ ले जाते हैं। हम फिर भी हताश नहीं हुए। हमने कहा कि कोई बात नहीं हम खुली आँखों से सपना देखेंगे। लेकिन इतना सुनते ही सपने फिर हँस दिए, वे बोले कि दिन में जब भी खुली आँखों से सपना देखने की कोशिश करोगे तो नींद झपकी बनकर उसे तोड़ देगी। अब तुम उस संन्यासी की तरह हो जिस का तप भंग करने के लिए अप्सरा जरूर आएगी। अतः भूल जाओ सपने और कठोर धरातल पर जीना सीखो। यहाँ रिश्तों में जहरीली हवा ज्यादा है और प्रेम की ताजगी से भरी प्राण वायु कम है। तुम ने जिस प्राण वायु का कारखाना लगाना चाहा था वह भी तुम्हारे लिए नहीं रहा। तुम्हें तो उसी जद्दो-जहेद में अपनी जिंदगी निकालनी है। यदि हिम्मत को बटोर सको तो फिर जुट जाओ। लेकिन इस बार ध्यान रखना कि सपनों की दुनिया बसाने का अब समय नहीं है, जो भी करना है ठोस धरातल पर खुली आँखों के सहारे करना है। रोज ही पीना है जहर और जब भी आत्मसात ना हो तब शब्दों के सहारे उन्हें उलट देना है। तुम्हारी बगियां की प्राण वायु शायद तुम्हारें लिए ना हो लेकिन उठो और खोजों शायद कहीं किसी की बगियां में थोड़ी प्राण वायु तुम्हारे लिए हो। विवेकानन्द की तरह हिम्मत मत हारो, जब तक प्रयत्न करते रहो जब तक कि मंजिल ना मिल जाए। बस शब्दों की निर्झरनी को बहाते रहो और अपने आप सुकून आता जाएगा, आता जाएगा बस आता जाएगा।
14 comments:
अच्छा प्रेरणादायक लेख है !
बहुत ही अच्छा आलेख,दिल से लिखा हुआ और सबके दिल की बात समाहित किये हुए....यही पीड़ा,बेबसी तो लिखने की प्रेरणा बन जाती है और लेखनी फूल बिखेर देती है...जिसे हम जैसे पाठक उठा कर संजो लेते हैं.
एक मजाक की बात बोलूं,आपने समीर लाल जी के लिए ये पोस्ट लिखी पर शीर्षक में उनका जिक्र नहीं किया?...लोग २ मिनट बात करते हैं और एक पोस्ट बना डालते हैं जो टॉप पर पहुँच जाती है...आपने शीर्ष में उनके नाम का जिक्र भर किया होता...और यह पोस्ट टॉप पर होती पूरा ब्लॉग जगत पढ़ रहा होता :)
आपने सच कहा है ........... पर कठोर धरातल पर जीना इतना आसान कहाँ है ......... सपने न देखना इंसान के बस में होता ......... तो फिर बात ही क्या है ............
रश्मिजी
मैंने यह पोस्ट समीर जी के लिए नहीं लिखी थी बस उन्हें समर्पित की थी। कैसे कोई टॉप पर पहुंचता है यह गणित कभी जानी ही नहीं। बस हमेशा ही भगवान हाथ से उठाकर उचित स्थान पर बैठाते रहें हैं। मुझे आपकी फोटो बड़ी अच्छी लगी, हँसते हुए।
aapane jo likha usi ka nam to jindagi hai
bhagyodayorganicblogspot.com
aapane jo likha ,wahi to jindai hai
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ओज और उद्भावना भरी पोस्ट
ek bahut hi sargarbhit aur prernadayi lekh.
बहुत ही अच्छा आलेख लिखा है आपने ,दिल की गहराईयों से ..बधाई स्वीकारें.
सच कहा ज़िन्दगी जीते रहे मगर ज़िन्दगी को जाना नहीं फिर तो दुख आना ही था । ये सही है कि जीवन केवल भावनाओं मे नहीं जीया जाता लेकिन बिना भावनाओं सपनों के जीना भी मुश्किल है । आपने बहुत ही सार्थक प्रयास किया है जीवन को समझने समझाने का । आपसे तो हर बात मे प्रेरना मिलती है आप सही मे ब्लागजगत के लिये एक उपल्ब्धि हैं। ेआगे से भी सभी को ऐसे ही राह दिखाती रहें धन्यवाद और शुभकामनायें
अजित जी,
साहित्य, दर्शन, सरोकार, पर्यावरण, भाव, बॉयोलॉजी...क्या-क्या नहीं दिखा दिया आपने इस पोस्ट में...हमेशा ये तेवर बनाए रखें...
जय हिंद...
बहुत सही लिखा है आपने।
दिल से उतरकर सीधे लेखनी में प्रकट हो रहे हैं, सद्विचार।
अच्छा लेख है।
बस शब्दों की निर्झरनी को बहाते रहो और अपने आप सुकून आता जाएगा, आता जाएगा बस आता जाएगा।
-बिल्कुल सही सीख दी.
इस आलेख को मुझे समर्पित करने के लिए आपका आभार. देर से आ पाया, क्षमाप्रार्थी जबकि सबसे ज्यादा जरुरत मुझे ही थी इसकी.
और रश्मि जी के इस स्नेह भरे बयान का भी आभार कि इस लायक इस अदना से नाम को सम्मान दिया. :)
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