बचपन शहर से दूर रेत के समन्दर के बीच व्यतीत हुआ। साँप और बिच्छू जैसे जीव रोज के ही साथी थे। वे बेखौफ कभी भी घर में अतिथी बन जाते थे। लेकिन डर पास नहीं फटकता था। घर के आसपास रेत के टीले थे, रोज शाम को सहेलियों के साथ वहाँ जाकर टीलों के ऊपर बैठते थे। कभी-कभी तो किसी एक सहेली के साथ ही जाकर बैठ जाते थे, लेकिन डर नहीं लगता था। उस जमाने में मोपेड बाजार में आयी तो घर में भी भाई ने खरीदी। हम उनकी आँख बचाकर निकल जाते सूनी सुनसान सड़क पर। चारों तरफ रेत ही रेत और बीच में काली सड़क। लेकिन फिर भी डर नहीं लगता था। सायकिल से कॉलेज जाते, रास्ते में कोई बदमाश छेड़ देता तो सामने तनकर खड़े हो जाते, क्योंकि डर नहीं था।
ऐसे ही कितने ही प्रसंग हैं जीवन के, जहाँ जीवन बिंदास होकर जीया जाता था ना कि डर के साये में। डर तो बस एक ही था और वो था पिताजी का। उनका डण्डा कब खाने को मिले इसका कुछ भी निश्चित समय और घटना नहीं थी। अच्छी बात पर भी मार पड़ सकती थी तो बुरी बात पर भी। लेकिन आज के जीवन में जब परिवार में किसी का भी डर नहीं है तब बाहर की दुनिया में हर पल डर ने आ घेरा है। बच्चों को हल्का बुखार भी आ जाए तो न जाने कौन-कौन सी बीमारियों का डर आ घेरता है। बच्चे या अपने कोई छोटी सी यात्रा भी कर रहे हों, तब भी यात्रा पूर्ण होने तक डर ही समाया रहता है। घर सब तरफ से सुरक्षित हैं फिर भी डर बसा रहता है। सड़क पर डर, घर पर डर, मन में डर न जाने कितने प्रकार का डर हमारे अन्दर आ बसा है। क्या हमने अनुभव से डर ही कमाया है? बचपन में डर का अनुभव नहीं था इसलिए डर भी नहीं था या कुछ और बात थी? आपको भी नाना प्रकार के डर सताते होंगे, क्या हम इन सबसे मुक्त हो सकते हैं? किस कारण से यह डर हमारे जीवन में बस गया है?
19 comments:
एक दम सही लिखा लिखा है आपने.
अब तो भौतिक जगत में डर से बचना मुश्किल है.
मेरे विचार से तो-
जितनी कम जिम्मेदारियाँ होती हैं उतना ही डर कम लगता है!
जैसे-जैसे जिम्मेदारियाँ बढ़ती जाती है, डर भी वैसे-वैसे बढ़ता जाता है!
स्वयं के हित की परवाह नहीं थी आपको इसलिये अहित की आशंका भी नहीं थी जिसका परिणाम था कि आपको डर नहीं लगता था।
"बच्चों को हल्का बुखार भी आ जाए तो न जाने कौन-कौन सी बीमारियों का डर आ घेरता है। बच्चे या अपने कोई छोटी सी यात्रा भी कर रहे हों, तब भी यात्रा पूर्ण होने तक डर ही समाया रहता है।"
डर नहीं है यह, यह तो आपका बच्चों के प्रति प्रेम है, जो कि आशंका के रूप में सामने आती है। आप अपने बच्चों का हित ही चाहती हैं, जहाँ हित की कामना होती है वहीं अहित की आशंका भी होती है।
समय और तेज़ तर्रार जिंदगी जीने की लालसा ने डर को भी जन्म दिया है .......... सच लिखा है आज जीवन ख़ौफ़ के साए में जिया जाता है .........
उम्र और जिम्मेदारियां , आदमी को डरना सिखा देती हैं।
सही लिखा है आपने।
उम्र और जिम्मेदारियां , आदमी को डरना सिखा देती हैं।
सही लिखा है आपने।
अजित जी,
आपने लेख शुरू किया तो मुझे लगा कि आप ब्लॉगरों की किसी विशेष प्रजाति की बात कर रही हैं...वे बेखौफ़ कभी भी...
आगे जाकर साफ़ हुआ मुद्दा डर का है...वैसे इस पर माउंट एंड ड्यू की एड बड़ी सटीक है...झूठ कहते हैं वो लोग जो कहते हैं उन्हें डर नहीं लगता, डर सबको लगता है, गला सबका सूखता है, पर डर से मत डरो, उसके आगे बढ़ो, क्योंकि डर के आगे ही जीत है...
जय हिंद...
लेकिन आज के जीवन में जब परिवार में किसी का भी डर नहीं है तब बाहर की दुनिया में हर पल डर ने आ घेरा है।
बहुत ही सही बात कही है। आज ये डर केवल बच्चों को ही नहीं बडों के दिल मे भी बस गया है। शायद कोई रास्ता नहीं है बचने का। बहुत विचार्णीय पोस्ट है बधाई
"रास्ते में कोई बदमाश छेड़ देता तो सामने तनकर खड़े हो जाते, क्योंकि डर नहीं था। "
उस समय के गुंडे-बदमाश शरीफ़ थे .. आज तो बलात्कार पर ही उतर आते हैं॥
आधे डर तो सुनी सुनाई घटनाओं से आ जाते हैं. इसी पर एक कथा लिखी है. सोमवार की सुबह पब्लिश होगी.
सच ही ...यह डर हमारे जीवन से सांस की तरह जुड़ गया है ...
गीता का स्मरण कर कोशिश करते हैं इस पर काबू पाने की ...!!
पेरेंट बने बिना बच्चों के प्रति मोहजनित डर का ज्ञान नहीं होता है. इसीलिये तब तक कोई डर नहीं था.
अजिता जी.. डर के आगे जीत है. डर से डरिये मत... डटकर मुकाबला कीजिए...
सच लिखा मैम। ये हमारा एकस्ट्रा प्रोटेक्टिव होना कही का न छोड़ेगा इस पीढ़ी को।
Bilku sahi kaha aapne aajkal aise hi dar ne aa ghera hai........
Bilku sahi kaha aapne aajkal aise hi dar ne aa ghera hai........
बाहर के जीवन कि प्रतिद्वंदिता ,दुसरो के आगे निकलने कि होड़ और उससे उत्पन्न हुई इर्ष्या ने , बनावटी व्यवहार , झुठे अहम ने एक अनजाना सा डर भर दिया ही हम सबके मन में |
डर नकारात्म्क सोच का परिणाम है.
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