कभी बचपन लड़खड़ाकर चलता था तब एक वृद्ध हाथ उसकी अंगुली पकड़ लेता था और जब कभी वृद्ध-घुटने चल नहीं पाते थे तब यौवन के सशक्त हाथ लाठी का सहारा देकर उन्हें थाम लिया करते थे। एक तरफ घर में जिद्दी दादा जी हुआ करते थे, वे जो भी चाहते थे वही घरवालों को करना पड़ता था। लेकिन तभी एक दो साल का पोता आकर उनकी मूछ खीच लेता था और दादाजी मुस्करा उठते थे। वही दादा कभी घोड़ी बन जाते थे और कभी पीठ पर लादकर पोते को जय कन्हैया लाल की करते थे। बचपन और बुढ़ापे का अन्तर मिट जाता था। ना दादा सख्त रह पाते थे और ना ही पोता जिद्दी बन पाता था।
घर का यौवन भी हँसी-खुशी इस मिलन को देखता था और अपने अर्थ-संचय के कार्यों को बिना किसी बाधा के पूरा करता था। लेकिन आज यह दृश्य परिवारों से गायब होते जा रहे हैं। परिवार तीन टुकड़ों में बँट गए हैं। बच्चे डे-केयर में रहने को मजबूर हैं क्योंकि जिस शहर में माता-पिता की नौकरी है, उस शहर में बच्चे के दादा-दादी नहीं रहते। मजबूर माता-पिता दूध पीते बच्चे को डे-केयर में छोड़ने को मजबूर हैं। जिस शहर में वे अपने माता-पिता को छोड़ आए हैं, उनके पास भी कोई सशक्त हाथ नहीं हैं। वे भी डे-केयर में रहने को मजबूर हैं। बच्चे, यौवन और बुढ़ापा जो कभी एक छत के नीच रहता था आज तीन हिस्सों में विभक्त हो गया है। एक दूसरे से सीखने की परम्परा समाप्त हो चली है। प्रतिदिन की यह नि:शुल्क पाठशाला अब घर में नहीं है। अब एक-दूसरे के लिए जीने का स्वर नहीं सुनाई देता।
आज ही मेरे पड़ोस में वृद्धों के लिए एक डे-केयर सेंटर की स्थापना हुई है। अब सारे ही वृद्ध परिवारों से निकलकर दिन में अपना समय यही गुजारेंगे। वे परिवार की समस्याओं से मुक्त हो जाएंगे और युवा पीढ़ी उनकी समस्याओं से मुक्त हो जाएगी। दोनों ही सुखी रहेंगे। लेकिन यह सुख हमें कितना एकाकी बना देगा शायद इस बात का अहसास हम सभी को है लेकिन आवश्यकता अविष्कार की जननी होती है इसलिए ही ये डे-केयर सेंटर बनते जा रहे हैं। बस हमारा मन कहीं ओर रहेगा, दिल कहीं ओर और दिमाग कहीं ओर। कितनी आसानी से हमने परिवार को तीन टुकड़ों में बाँटकर खण्डित कर दिया। किसी ने रसगुल्ले की परिभाषा करते हुए कहा था कि पहले रस कहा फिर गुल कहा फिर ले कहा, जालिम ने रस-गुल्ले के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। काश हमारे परिवार की पाठशाला पुन: स्थापित हो जाए।
8 comments:
नयी जीवन शैली न जाने क्या क्या हमसे छीनती जायेगी ! काश ......!
सम्बन्ध आज सारे, व्यापार हो गये हैं।
अनुबन्ध आज सारे, बाजार हो गये हैं।।
न वो प्यार चाहता है, न दुलार चाहता है,
जीवित पिता से पुत्र, अब अधिकार चाहता है,
सब टूटते बिखरते, परिवार हो गये हैं।
सम्बन्ध आज सारे, व्यापार हो गये हैं।।
http://uchcharan.blogspot.com/2009/02/0_5108.html
आपका यह आलेख पढकर मुझे अपने घर में घटी एक घटना याद आ गयी .. एक बार मेरी दादी बहूओं से नाराज होकर बैठ गयी थी .. सब उन्हें खाने को मनाते रहें .. वह आ ही नहीं रही थी .. मेरे चाचाजी की छह वर्षीय लडकी ने भी उन्हें खाने को चलने कहा .. दादीजी ने गुस्से में कहा कि वह नहीं खाएंगी खाना .. पोती भी गुस्से से बोली .. नहीं खाइएगा तो मत खाइए .. खुद ही भूखे पटपटाइएगा .. अब भला दादी उसके नन्हें मुख से बोली गयी उस बात को सुनाने घर में कैसे न आती .. उनका गुस्सा तो काफूर हो चुका था !!
बदलते जमाने के बदलते रूप है..अभी और ना जाने कितने केयर सेंटर खुलेंगे...बढ़िया चर्चा..धन्यवाद
अजित जी,
शीघ्र ही देश में ऐसा दिन भी आएगा जब हम फादर्स या मदर्स डे पर डे केयर सेंटर में जाकर माता-पिता को कुछ गिफ्ट देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेंगे...और फिर यही सिलसिला हमारे साथ दोहराया जाएगा जब हम अपने सांध्यकाल में पहुंचेंगे...
जय हिंद...
तेज़ी से घूमती जीवन चक्र की, नये साँचे में ढले जीवन की यह सबसे बड़ी त्रासदी है ..........
अजित जी
मनुष्य के भीतर दिल है ,प्रेम है . हम प्रेम को जी रहे हैं . लिख , पढ़ रहे हैं . प्रेम कर रहे हैं . बच्चों को ममता की , बड़ों को आदर की , बराबर वालों को सहयोग की जरुरत सदा बनी रहती है . फिर ये डे केयर सेंटर क्यों ?
क्या हम अति महत्वाकांक्षी और स्वछंद रहना चाहते हैं ?अच्छा मुद्दा उठाया है आपने .
बहुत दिन बाद पढी है आपकी पोस्ट । समाज मे जो कुछ हो रहा है दिल दिमाग समझ नहीं पा रहा हम भी तो यहीं हैं क्यों अपने बच्चों को रोक नहीं पा रहे? आज तक समझ नहीं पाई कि ये कैसे संस्कार हैं जो माता पिता अपने बच्चों को नहीं देते जिस से ये बिखराव बढता ही जा रहा है। सब कुछ हमारी हाथ से निकलता जा रहा है सही कहा खुशदीप जी ने शीघ्र ही देश में ऐसा दिन भी आएगा जब हम फादर्स या मदर्स डे पर डे केयर सेंटर में जाकर माता-पिता को कुछ गिफ्ट देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेंगे.
और फिर अगला समय शायद आगे सोच नहीं सकती। शुभकामनायें
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