Tuesday, April 28, 2009

सफलता का मापदण्‍ड क्‍या?

हम अक्‍सर कहते हैं कि हम सफल हुए या असफल ह‍ुए। लेकिन क्‍या है इस सफलता का पैमाना? धन-दौलत का अम्‍बार या पारिवारिक सुख। शिक्षा से मण्डित या अशिक्षित लेकिन ज्ञानवान। हम यदि श्रेणियों में विभक्‍त करेंगे तो नाना प्रकार मिलेंगे सफलता के फिर भी हम खुश नहीं रहते। हमारी चा‍ही एक सफलता हमें मिल जाती है तो हम दूसरी की ओर दौड़ने लगते हैं। अब आप ही बताइए कि हम एक आम व्‍यक्ति को सफलता के किस तराजू में तौले?

Tuesday, April 14, 2009

लघुकथाएं - महादान, रिश्‍ते और आदत

महादान
कुछ वर्ष पूर्व राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र में अकाल पड़ा हुआ था। हमने अपनी संस्था के माध्यम से गाँवों में कुएं गहरे कराने का कार्य प्रारम्भ किया। किसान के पास इतना पैसा नहीं था कि वह स्वयं अपने कुओं को गहरा करा सके। जनजाति समाज के स्वाभिमान को देखते हुए रूपए में से पच्चीस पैसे किसान से भी लिए गए। किसानों के अपना हिस्सा अग्रिम रूप से जमा करा दिया। बारी-बारी से सभी के कुएं गहरे कराने का काम प्रगति पर था। कुएं अधिक थे और समय कम। मनुष्य जब प्रयास करता है तब प्रकृति भी उसका साथ देती है, इसी कारण काम पूरा होने से पूर्व ही वर्षा ने अपनी दस्तक दे दी और रामदीन के कुएं में भी पानी की आवक हो गयी। रामदीन उस दिन बहुत खुश था। क्योंंकि उसके कुएं में पानी आ गया था। अकाल के समय कैसे पाई-पाई जोड़कर उसने पैसे एकत्र किए थे? भगवान ने उसकी सुन ली थी। हमारा काम भी बंद हो गया था। हम उसे पैसे वापस करने के लिए गए।
उसने कहा कि मुझे पानी चाहिए था और प्रभु ने मेरा काम कर दिया। अब मैं इस पैसे का क्या करूंगा? आप इसे कहीं और लगा दे, और उसने पैसे वापस लेने से मना कर दिया।

रिश्ते
एक दिन उदयपुर से आबूरोड की यात्रा बस से कर रही थी। जनजातीय क्षेत्र प्रारम्भ हुआ और एक बीस वर्षीय जनजातीय युवती मेरे पास आकर बैठ गयी। मेरा मन कहीं भटक रहा था, टूटते रिश्तों को तलाश रहा था। मैं सोच रही थी कि क्या जमाना आ गया है कि किसी के घर जाने पर मुझे आत्मीय रिश्तों की जगह औपचारिकता मिलती है और सुनने को मिलता है एक सम्बोधन - आण्टी। इस सम्बोधन से ‘हम एक परिवार नहीं है’ का स्पष्ट बोध होता है। मुझे बीता बचपन याद आता, कभी भौजाईजी, कभी काकीजी, कभी ताईजी, कभी बुआजी, कभी जीजीबाई आदि सम्बोधन मेरे दिल को हमेशा दस्तक देते हैं। लेकिन आज मेरे आसपास नहीं थे ये सारे ही। मेरे समीप तो रह गया था शब्द, केवल आण्टी। इन शब्दों के सहारे हमने दिलों में दूरियां बना ली थी।
मैं किसी कार्यक्रम में भाग लेने जा रही थी और मुझे वहाँ क्या बोलना है इस बात का ओर-छोर दिखायी नहीं दे रहा था। इतने में ही झटके के साथ बस रुकी। एक गाँव आ गया था। नवम्बर का महिना था और उस पहाड़ी क्षेत्र में इस महिने बहुतायत से सीताफल पकते थे। अतः बाहर टोकरे के टोकरे सीताफल बिक रहे थे। मेरे पास बैठी युवती बस से उतरी और हाथ में सीताफल लेकर बस में वापस चढ़ गयी। उसने एक सीताफल तोड़ा और मेरी तरफ बढ़ाते हुए बोली कि ‘बुआजी सीताफल खाएंगी’?

आदत
मेरा नौकर नारायण जनजातीय समाज का था। इस समाज में सुबह काम पर निकलते समय और शाम को काम से वापस आने के बाद ही भोजन करने की आदत है। ऐसी ही आदत नारायण की भी थी। मेरे यहाँ वह सुबह नौ बजे आता और शाम को चार बजे जाता। दिन में हम सब को वह भोजन कराता, लेकिन स्वयं नहीं खाता। मैं उससे हमेशा कहती कि खाना खाले, लेकिन नहीं खाता। एक दिन मैंने डाँटकर उसे कहा कि खाना क्यों नहीं खाता? सारा दिन यहाँ काम करता है और मुँह में दाना भी नहीं डालता, कैसे काम चलेगा?
तब वह बोला कि हम लोग दो समय ही खाना खाते हैं, एक सुबह और एक शाम। सुबह मैं खाना खाकर आता हूँ और शाम को जाकर खाऊँगा। यदि दिन में आपके यहाँ खाना खाने लगा तो मेरी आदत बिगड़ जाएगी।

Tuesday, April 7, 2009

लघुकथाएं - छिलके, अपना प्राप्‍य, फिजूलखर्ची

छिलके

शहर से 10 किलोमीटर की दूरी पर बसा एक जनजातीय गाँव। अधिकांश लोग या तो खेती करते या फिर शहर में मजदूरी करने आते। एक दिन वहाँ एक कार्यक्रम के निमित्त जाना था। जाते समय, साथ में बच्चों के लिए केले ले लिए। छोटा सा कार्यक्रम रखा हुआ था गाँव वालों के लिए, सारे ही गाँव वाले एकत्र हुए। कार्यक्रम के बाद हमने बच्चों को केले बाँटे। बच्चों ने केले खाए और छिलके वहीं फेंक दिए।
मैंने बच्चों से कहा कि बेटा ये छिलके उठाओ और पास बैठी गाय के सामने डाल दो।
एक वृद्ध व्यंग्यात्मक रूप से बोला कि गायें केले के छिलके नहीं खाएंगी।
मैंने कहा कि ऐसा कैसे हो सकता है? बच्चों तुम ये छिलके गाय के सामने डाल दो।
उन्होंने ऐसा ही किया, लेकिन गाय ने छिलकों की तरफ देखा ही नहीं।
मैं अचम्भित थी, मैंने बच्चों से कहा कि ऐसा करो कि जो वहाँ बकरी बैठी है, उसे डाल दो।
बकरी ने छिलके देखकर मुँह घुमा लिया। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि ऐसा क्यूँ हो रहा है?
वृद्ध बोला कि गाय छिलकों को पहचानती नहीं हैं।

अपना प्राप्य

सुबह उठकर जैसे ही मैंने वाशबेसिन का नल खोला, देखा कि वहाँ से नन्हीं-नन्हीं चीटियां कतार बनाकर कहीं चली जा रही हैं, उनकी दो कतारे बनी हुई थीं, एक जा रही थी और एक वापस लौट रही थीं। वापस लौटने वाली चीटियों के मुँह में एक दाना था। मेरी निगाहों ने उनका पीछा किया। निगाहें चीटियों के साथ-साथ चल रही थीं। एक जगह जाकर चीटियां रुक गयीं थी, निगाहें भी रुकी। देखा एक छोटा सा मिठाई का टुकड़ा भोजन की टेबल पर पड़ा था, वे सारी चीटियां कतारबद्ध होकर उसका एक-एक कण अपने मुँह से पकड़कर वापस लौट रही थीं। कहीं कोई बदहवासी नहीं, रेलमपेल नहीं, बस था तो एक अनुशासन। तभी घर के बाहर शोर सुनायी दिया। बाहर आकर देखा, एक सेठजी के हाथ में मिठाई का डिब्बा था, उनके चारों तरफ मांगने वालों की भीड़ थी और कुछ बच्चे उनसे छीना-झपटी कर रहे थे। इसी छीना-झपटी में मिठाई का डिब्बा हाथ से छूट गया और सारी मिठाई सड़क पर गिर कर बेकार हो गयी। सेठजी नाराज हो रहे थे और बच्चों पर चिल्ला रहे थे। तभी चीटियों पर नजर पड़ी, मिठाई के टुकड़े का अस्तित्व समाप्त हो चुका था और चीटियां वैसे ही कतारबद्ध लौट रही थीं।

फिजूलखर्ची

पानी की समस्या मेरे शहर में विकराल रूप ले चुकी थी। सरकारी नलों में दो दिन में एक बार, एक घण्टे के लिए पानी आता था वह भी कम दवाब से। घरों के बोरिंग भी सूख चले थे। घर में नजर घुमाती तो चारों तरफ लगे नल मुझे चिढ़ाते। आदतों से लाचार हमें वाशबेसन के नल या टायलेट के नल फिजूलखर्ची करते बच्चे से लगते। लेकिन वे भी हमारी जरूरत थे, हम उन्हें बंद नहीं कर सकते थे। ऐसे ही एक दिन मैं, पानी की समस्या से जूझ रही थी। मुँह में ब्रश का झाग भरा था और वाशबेसन से पानी नदारत। मैं झुंझला उठी। इतने में ही दरवाजे की घण्टी चहक उठी। मैं दरवाजे की तरफ देखती हूँ, बाहर सफाई कर्मचारी खड़ी है। मैं वैसे ही दरवाजा खोल देती हूँ।
वह पूछती है कि क्या पानी गया?
मैं कहती हूँ कि हाँ गया।
वह हँसती है, कहती है कि पानी की समस्या केवल आप लोगों की बनायी हुई है, हम तो इस समस्या से ग्रसित नहीं हैं।
मैं पूछती हूँ कि कैसे?
हम सुबह उठते हैं, पास के तालाब में जाते हैं, वहाँ स्नान करते हैं, कपड़े भी धोते हैं और पास लगे हैण्डपम्प से एक घड़ा पानी पीने के लिए ले आते हैं। न हमारे यहाँ वाशबेसन का चक्कर, ना लेट्रीन का चक्कर।

Thursday, April 2, 2009

लघुकथाएं : प्रभु की पूजा, बाबा और आम

लघु कथाएं गद्य की वो विधा है जो अपनी बात को संक्षिप्‍त रूप में कह देती है। लीजिए लघुकथाएं नियमित रूप से पढ़िए और अपनी टिप्‍पणी भी दीजिए।

प्रभु की पूजा

अपने घर में बने भगवान के आले में अगरबत्ती जलाकर भगवान को प्रणाम करने के लिए मेरे कदम कक्ष पहुंच जाते हैं। सामने भगवान की मूरत है, भगवान हँस रहे हैं। मैं उन्हें देख ठिठक जाती हूँ, अगरबत्ती की ओर बढ़े मेरे हाथ रुक जाते हैं। मैं क्यों पूजा कर रही हूँ? मन प्रश्न करता है। क्यों इस नन्हें कृष्ण को नहलाती हूँ? क्यों इसे लड्डू का भोग लगाती हूँ? क्यों इसका शृंगार करती हूँ? एक दिन मेरा मन भी इस नन्हें कृष्ण को पुत्र रूप में पाने के लिए नहीं मचल उठेगा? क्या मेरा मन नहीं करेगा कि इसे छू लूँ, इससे बातें कर लूँ? जब भी मन ने किसी रिश्ते को पकड़ना चाहा क्या वह मेरे हाथ लगा? मन उन रिश्तों की टूटन से कितना द्रवित हुआ था तो एक अपेक्षा फिर क्यूँ। मैं केवल प्रभु को मेरे मन के अंदर ही रखूंगी, उनको किसी भी रूप में कैद नहीं करूंगी। पट बंद हो गए और साक्षात दर्शन भी, अब केवल मन की आँखें खुली थीं।

बाबा

बड़े दिनों बाद सपना अपने मैके गयी है, भाई के चेहरे पर प्रसन्नता नहीं है, भाभी के चेहरे पर भी नहीं। वह कारण जानना चाहती है, पूछती है कि कोई विशेष बात हुई है? भाई कुछ नहीं बोलता लेकिन भाभी बताती है कि इन दिनों तुम्हारे पिताजी को न जाने क्या हो रहा है? सपना प्रश्नवाचक चिन्ह सा मुँह बनाकर भाभी की ओर देखती है। भाभी बताती है कि उनके गाँव से उनके एक भतीजे का बेटा आता है, उसे हम जानते हैं कि वह बड़ा चालबाज है। तुम्हारे पिता जो कभी किसी को भी एक पैसा नहीं देते, पता नहीं उसने ऐसा क्या जादू किया है कि वे उसे पैसा दे रहे हैं। सपना पिता के पास जाती है, उनसे पूछती है कि क्या प्रकाश आया था और क्या आपने उसे पैसे दिए हैं? वह कहते हैं कि हाँ दिए हैं। वह पूछती है कि आप तो कभी किसी को भी एक पैसा नहीं देते फिर प्रकाश को क्यों? वे बोलते हैं कि वह आकर मुझे बड़े प्यार से ‘बाबा’ कहकर बुलाता है, मेरे पास आकर बैठता है।

आम

सुनीता के घर नौकर के रूप में एक गाँव का लड़का काम करता है। वह वहीं रहता भी है। गर्मियों का मौसम है, इस बार आम की फसल बहुत अच्छी हुई है। रोज ही फ्रिज आम से भरा रहता। कई बार कुछ आम खराब भी हो जाते। कई बार सुनीता का मन होता कि एक आम लड़के को भी दे दे। लेकिन उसकी सास उसका हाथ पकड़ लेती, बोलती कि कहीं नौकरों को आम खिलाए जाते हैं? लड़का आम की तरफ देखता भी नहीं। एक दिन उसे छुट्टी चाहिए थी, बोला कि गाँव जाना है, सुबह वापस आ जाऊँगा। सुनीता ने उसे छुट्टी दे दी। दूसरे दिन लड़का आ गया, हाथ में उसके एक छोटा थैला था। सुनीता ने पूछा कि इसमें क्या है? वह बोला कि मेरे खेत में एक आम का पेड़ है, उसमें केरियां पकने लगी थी, इसलिए मैं दीदी के लिए कुछ चूसने वाले आम लेकर आया हूँ। दीदी को चूसने वाले आम पसन्द है न?

Thursday, March 19, 2009

पुरुष विमर्श - आनन्द खोने का डर

पीहर से आते हुए मेरी माँ की मुट्ठी में मेरे मामा चंद रूपए रख देते थे। इसे अनमोल खजाना समझ वह फूली नहीं समाती थी। घर आते ही सहजता और गर्व मिश्रित भाव से पिताजी को बता देती कि भाई ने क्या दिया है। पिताजी कुछ क्षण चुप रहते लेकिन दूसरे ही क्षण फरमान जारी कर देते, जितना पैसा है, मुझको दे दो। माँ समझ नहीं पाती कि क्या मुट्ठी भर पैसा भी मुझे अपने पास रखने का अधिकार नहीं? जीत अंत में पिताजी की ही होती। घर में क्लेश न हो यही भाव माँ का बना रहता। तब की एक पीढ़ी गुजर गई, दूसरी पीढ़ी भी गुजरने की तैयारी में है लेकिन मुट्ठी में पैसा रखने की मानसिकता नहीं बदली। हाँ समर्पण की भावना बदल गई परन्तु एक बहस चालू हो गई। पुरुष और स्त्री के अधिकारों की बहस।
सत्ता, समर्पण और डर - आज सत्ता को अपने हाथ में रखने की जद्दो-जेहद परिवारों में नजर आ रही है। मेरे पिता की पीढ़ी में, पिता के हाथ में सत्ता थी और माँ के पास समर्पण भाव। लेकिन तब की ओर गहराई से देखे और सोचे कि क्या यह सहज प्रक्रिया थी? मेरी माँ की पीढ़ी चंद जमात पढ़ी हुई, पति को ही सर्वस्व मानने वाले सदियों के संस्कार, एक जन्म नहीं सात जन्मों का बंधन मानने वाली अर्थात पत्नी का सहज समर्पण। फिर भी चंद रूपए भी उसके हाथ में नहीं रह सकते, यह पिता की पीढ़ी का भाव क्या संकेत देता है? यदि मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो यह मानसिक कमजोरी की निशानी है। वह इस डर से डरा हुआ है कि जो कुछ भी मेरे पास है, वह कहीं खिसक नहीं जाए। यही डर उसे हिंसक बनाता है। आज तक यही डर, पीढ़ी दर पीढ़ी विरासत में सभी को मिलता रहा है। एक तरह नारी का सहज समर्पण फिर भी पुरुष के मन में बसा डर! हमें सोचने पर मजबूर करता है कि यह डर क्यों है?
आज के परिपेक्ष्य में नारी के हाथ में पैसा और सत्ता दोनों ही हैं तो समर्पण का भाव तिरोहित होता जा रहा है। पुरुष को अपनी सत्ता खिसकती दिखाई दे रही है। ऐसे में हिंसा की अभिवृद्धि भी लाजमी है। जब पूर्ण समर्पण था, पति परमेश्वर था तब भी पुरुष अनजाने भय के कारण हिंसक हो उठता था तो आज साक्षात परिवर्तन को देखते हुए वह कैसे हिंसक नहीं बने? आज स्त्री और पुरुष के अधिकारों की बहस में परिवार कहीं छूट गया है। जब सम्पूर्ण सत्ता हाथ में थी तब भी डर था और आज सत्ता छिनती जा रही है तो यह डर कम होगा या बढ़ेगा? आज का प्रश्न यह है। समाज को देखें तो महिलाओं के प्रति सम्मान का भाव कम हुआ है, प्रतिद्वंद्विता बढ़ी है, हिंसा बढ़ी है अर्थात पुरुष का डर बढ़ा है। इस बढ़ते डर के साथ क्या हम स्वस्थ परिवार और स्वस्थ समाज की कल्पना कर सकते है? तो क्या हो? क्या महिला पूर्व की भांति समर्पण कर दे? क्या तब यह डर कम हो जाएगा? नहीं! इसका उत्तर सम्पूर्ण समाज को खोजना होगा। पुरुष के इस डर को निकालना होगा। जब तक यह डर उसके मन में घर कर के बैठा रहेगा समाज से हिंसा नहीं थमेंगी। नारी यदि पहले से भी अधिक समर्पण कर दे तो भी पुरुष की हिंसा नहीं थमेगी। हिंसा थमेगी केवल डर के भाव के मन से निकलने पर।
एक प्रश्न यह डर क्यों? दूसरा प्रश्न डर कैसे छूटे?
किसी विद्वान ने कहा था कि व्यक्ति मृत्यु से नहीं जीवन के समाप्त होने से डरता है। अर्थात हमारा सुख छूट जाएगा यह डर व्यक्ति को मृत्यु से डराता है। इसी प्रकार पुरुष अपना आनन्द महिला के साहचर्य में ढूंढता है, बस यही डर का कारण है। मेरा आनन्द समाप्त ना हो जाए उसकी सोच का प्रमुख विषय यही है। इसलिए ही विवाह पद्धति में पत्नी छोटी हो, कम आयु वाली हो तथा कम पढ़ी-लिखी हो आदि बातें प्रमुख रहती हैं। येन-केन-प्रकारेण अपनी मुट्ठी में अपने आनन्द को रखने का जतन। अब प्रश्न है डर कैसे छूटे? क्या पुरुष के चाहने मात्र से उसका डर कम होगा? क्या महिला के अधिकार सम्पन्न होने से पुरुष का डर कम होगा? क्या महिला के समर्पण से डर कम होगा? ये सारे ही समाधान समाज खोज चुका है। लेकिन पुरुष का डर समाप्त नहीं हुआ। तो फिर कैसे दूर होगा डर? शायद इस डर को एक माँ निकाल सकती है। क्योंकि माँ ने ही बच्चे का सृजन किया है उसका संवर्द्धन किया है। पिता की भूमिका भी शिक्षक की रह सकती है। अतः आज अधिकारों की बात ना करते हुए इस डर को निकालने में सहयोग करना चाहिए। विवाह पद्धति इस डर को बहुत कम करती थी लेकिन आज टूटती विवाह पद्धति इस डर को फिर बढ़ा रही है और हिंसा को जन्म दे रही है। इसलिए मेरी माँ की पीढ़ी को देखें तो उस पीढ़ी में कितना डर था या हिंसा थी और आज की पीढ़ी को देखे तो कितना डर है या हिंसा है? निःसंदेह पहले की पीढ़ी में कम हिंसा थी तथा कम डर था। आज यह डर पुरुष से निकलकर महिला तक में समा गया है। पहले कोई तलाक का डर नहीं था आज तो सम्बंध विच्छेद आम बात है। इसलिए विवाह पद्धति के सुदृढी़करण की आवश्यकता है। आप कह सकते है कि पहले महिलाओं पर अत्याचार अधिक थे लेकिन केवल कह देने से मान्यता नहीं मिलती। साक्षात अपने परिवारों में झांकना होगा कि सच क्या था? जहाँ डर अधिक हावी था वहीं अत्याचार था। जहाँ आनन्द के अतिरेक की चाहत थी वहीं अत्याचार था, जहाँ आनन्द को घर के बाहर भी खोजा जा रहा था वहीं अत्याचार था। सात्विक पुरुष ने कभी अत्याचार नहीं किया। अतः सभी को एक तराजू में तौल देने से समाज सुदृढ़ नहीं होता। अतः विवाह पद्धति को सुदृढ़ करना पहली और व्यभिचार को कम करना दूसरी आवश्यकता है।
व्यभिचार का भाव जन्मजात ही होता है अतः संस्कार ही इस अवगुण को कम कर सकते हैं। ऐसी पीढ़ी को मानसिक रोगी की तरह देखना चाहिए और सम्पूर्ण परिवार व समाज को उत्तरदायित्व लेना चाहिए कि वे ऐसे नवयुवकों को संस्कारित करे। उनका उपाय खोजें। दूरदर्शन पर घर बैठे ही सुलभ हो रहे नारी देह प्रदर्शन, व्यभिचारी पुरुष का व्यभिचार बढ़ाने में योगदान कर रहे हैं। परिणाम बलात्कार के रूप में सामने हैं। अतः संयमित आनन्द की ओर पुरुष को ले जाना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। आज आनन्द को बढ़ावा देना हमारी प्राथमिकता बनती जा रही है। सिनेमा, दूरदर्शन, फैशन शो आदि अनेक उपक्रम केवल आनन्द के लिए ही हैं। अतः आनन्द की खोज की जगह कार्य की खोज होनी चाहिए। व्यक्ति श्रम में आनन्द ढूंढे, पठन-पाठन में आनन्द ढूंढे, खेल में आनन्द ढूंढे, अपने परिवार में आनन्द ढूंढे। अतः अकेले होते जा रहे व्यक्ति को परिवार की आवश्यकता है। जब वह विभिन्न रिश्तों की महक जानेगा तभी दैहिक आनन्द को प्राप्त करने की भूख कम होगी। अतः तीसरी आवयकता है परिवार। यदि परिवार और विवाह पद्धति को हमने सुदृढ़ कर लिया तो पुरुष का डर निकलेगा उसका व्यभिचारी मन संस्कारित होगा और वह निर्माण की और प्रवृत्त होगा।

Saturday, March 14, 2009

नारी विमर्श

क्या है नारी विमर्श? नारी पर चिंतन कभी थमता क्यों नहीं? समाज का वह कौन सा सत्य है जो नारी को सदैव सुर्खियों में रखता है? कल भी और आज भी, नारी एक ओर जगतजननी के रूप में दिखायी देती है तो दूसरी तरफ रति-स्वरूपा। जगतजननी और रति का संघर्ष आज का नहीं है, यह सदियों पुराना है। लेकिन कल और आज में एक वृहत अन्तर दिखायी देता है। कल तक पुरुष चरित्र को संस्कारित करने के लिए प्रयत्न किए जाते थे, उसे सतत इन्द्रिय-निग्रह का पाठ पढ़ाया जाता था, लेकिन आज पुरुष संस्कार की बात बिसरा दी गयी है अपितु नारी को ही पुरुष के समकक्ष खड़ा होने का उपदेश दिया जा रहा है। इतना ही नहीं कुछ तो नारियों को भी पुरुष के समान स्वच्छंदता के हक की बात करने लगे हैं। अर्थात् पुरुष की काम-वासना नारी को असुरक्षित और अपमानित करती रही है और अब नारी स्वयं उसका भोग्य बनेगी। पूर्व में सारे ही वेद-पुराणों में वर्णित कथानक पुरुष को संस्कारित करते हुए और नारी को देवी-रूप में स्थापित करते हुए दिखायी देते हैं। पुरातन काल में जब-जब पुरुष ने अपनी मर्यादा तोड़ी तब-तब साहित्यकारों ने, चिंतकों ने नारी के सम्मान में अपनी कलम को उठाया। उन्होंने समय-समय पर कहा कि ‘यत्र नारयस्तु पूजयन्ते रमन्ते तत्र देवता’। इतना ही नहीं उसके मातृस्वरूप को लक्ष्मी, दुर्गा और सरस्वती के रूप में भी प्रतिष्ठापित किया। इतना ही नहीं जब कुन्ती, सूर्य के कारण कर्ण को जन्म देती है तब भी उसने कुन्ती को और दुष्यन्त के कारण जब शकुन्तला भरत को जन्म देती है तब शकुन्तला को सम्मानपूर्वक जीवन का अधिकार दिया और पाषाण-शिला बनी अहिल्या को भी पुनःजन्म दिया। पुरातन काल में नारी विमर्श के स्थान पर पुरुष-विमर्श, पुरुष को संस्कारित करने के लिए स्थापित किया गया। हमारे चिंतकों ने समाज की मर्यादा को सर्वोपरि माना और उसके स्वच्छ, धवल स्वरूप की स्थापना के लिए सतत प्रयास किए। सुधार कहाँ किया जाना चाहिए, इस पर चिंतन किया और इस चिंतन से सुधार हुआ भी। अतः कल तक का पुरुष विमर्श आज नारी विमर्श में तब्दील हो गया है और नारी की पीड़ा कम होने के स्थान पर बढ़ती ही जा रही है। हमारे मनीषी चिंतन दे सकते थे, उसे संस्कृति के रूप में अबाध प्रवाहित कर सकते थे, लेकिन मनुष्य के अंदर छिपे शैतान को पूर्ण रूप से शान्त नहीं कर सकते थे। पुरातन काल में सर्वाधिक चिंतन मनुष्य की काम-वासना पर ही किया गया, उसे संस्कारित करने के अनेक उपाय किए गए। बाल्यकाल से लेकर वृद्धावस्था तक, इन्द्रिय-निग्रह का सतत पाठ पढ़ाया जाता रहा, लेकिन फिर भी मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति कब दावानल में परिवर्तित हो जाती, इसका अनुमान स्वयं मनुष्य को भी नहीं होता और फिर नारी अहिल्या बनकर पत्थरवत् जड़ मौन हो जाती। पुरातन काल में माना गया कि ‘काम’ केवल गृहस्थ का धर्म है और इसकी अति दोष है। इसी दोषनिवारण के लिए गृहस्थों से लेकर संयासियों तक ने तपस्या की। लेकिन आज नारी के काम को ही उत्तेजित किया जा रहा है।
युग बदलते गए लेकिन मनुष्य की प्रवृत्ति टस से मस नहीं हुई, वह कल भी शिव-राम-कृष्ण का रूप था और आज भी है, लेकिन उसके शिवत्व में कब इन्द्र प्रवेश कर गया, उसके रामत्व में कब रावण समा गया और कब कृष्णत्व में दुर्योधन प्रवेश कर गया, यह उसे भी नहीं मालूम। पृथ्वी अपनी धुरी पर घूम रही है, चन्द्रमा भी और सूर्य भी। अकस्मात चन्द्रमा भटक जाता है और पृथ्वी अंधकार रूपी त्रस्त को भोगती है। यही अंधकार कलुषित है, तभी ग्रहण में शुद्धि का विधान है। भारत में मनीषियों ने इस दुरूह रोग के निवारण के लिए संस्कारों की पाठशाला अनवरत संचालित की। प्रकृति ने दानव और मानव दोनों ही श्रेणियों को अभयदान दिया। दानव किसी संस्कार को नहीं मानते, संस्कृति में नहीं बंधते, उन्हें केवल अपनी शक्ति से इन्द्रियों के सुख बटोरने की आदत है, वे केवल भोग को ही सुख मानते हैं। उन्हें अपना दानव-स्वरूप ही सुख के साधनों के लिए उपयुक्त लगता है, वे सोचते है कि यदि दानवता का चोला हट गया तब फिर हमारे इन्द्रिय जनित सुख सरलता से प्राप्त नहीं होंगे। वर्तमान में भी यही स्थिति है, कमजोर पुरुष ने भी ताकतवर बनने का चोला पहन लिया है, कभी दाढ़ी बढ़ाकर, कभी केश बढ़ाकर, या फिर विचित्र और डरावनी वेशभूषा के द्वारा। रावण की राक्षसी प्रवृत्ति और साधु के मुखौटे ने सीता का हरण किया, तब लक्ष्मी, दुर्गा, सरस्वती स्वरूपा नारी के अस्तित्व पर भी प्रश्नचिन्ह लगा। साहित्यकारों ने बार-बार नारी की अवधारणा को रेखांकित किया इसी कारण मुगलकाल के पूर्व तक नारी स्वाभिमान से जीती रही।
मानव को मानव बने रहने का यह संघर्ष चल ही रहा था कि एक नवीन सिद्धान्त ने मानवता के राह में कांटे बो दिए और मनुष्य को दानव बनाने की छूट दे दी। सिद्धान्त में कहा गया कि नारी भोग्या है, उसमें आत्मा भी नहीं होती अतः हे पुरुष तू उसका जैसे चाहे वैसे भोग कर। सिद्धान्त सुनामी की तरह आया और सारे ही तटबन्ध टूट गए। समुद्र सम्पूर्ण मर्यादाओं को तोड़ता हुआ प्रकृति को नेस्तनाबूद करने पर उतारू हो गया। त्राहि-त्राहि मच गयी, सभ्यताएं असुरक्षित हो उठी और सुरक्षित ठिकानों की ओर मानव दौड़ पड़े और नारियों को सात तालों में अमूल्य निधि के रूप में बंद कर दिया गया। कैसा भी वेग हो, एक दिन मन्द पड़ता ही है और यह दावानल भी भोग की चरम सीमा को पारकर शान्त होने की ओर बढ़ने लगा, तब मानवों ने फिर से नारी के ताले खोलने प्रारम्भ किए। कहीं सति-प्रथा का ताला तो कहीं बाल-विवाह का, कहीं अशिक्षा का तो कहीं पर्दा-प्रथा का। इसे नवीन सामाजिक चेतना का नाम दिया गया। कहीं-कहीं नारी-मुक्ति का नाम भी उछाला गया।
शिक्षा का प्रभाव सर्वत्र व्यापक हुआ, नारी ने भी कलम को पकड़ा और अपनी दास्तान लिखना प्रारम्भ किया। इसे नया नाम मिला नारी-विमर्श। नारी की समस्या समाज की समस्या से पृथक हो गयीं समाज कहने लगा या समाज के प्रतिनिधि के रूप में पुरुष ने भी कहा कि यह नारी की समस्या है। कहीं-कहीं पुरुष ने अपना दम्भ दिखाना प्रारम्भ किया, वे कहने लगे कि नारी पर अत्याचार हो रहा है, लेकिन यह नहीं कहा कि नारी पर हम अत्याचार कर रहे हैं। बस केवल नारी को अबला बताने और सिद्ध करने में ही उनका पुरुषत्व लग गया। मनीषी, समाज-चिंतक, ऋषि-मुनि भी जहाँ पूर्व में सनातन काल से ही पुरुष को संस्कारित करने में लगा था, उसे अनवरत इन्द्रिय-निग्रह का पाठ पढ़ाया करता था, अब वह केवल नारी-विमर्श की बात करने लगा। संस्कार परे हटे और पुरुष उच्छृंखल होता चला गया। जब तक नवीन सभ्यता ने भी पैर पसारने प्रारम्भ किए, पूर्व में दानवता परिभाषित थी लेकिन अब उसने भी नया सम्भ्रान्त चोला ओढ़ लिया। अब मानव और दानव का बाह्य स्वरूप का अन्तर समाप्त हो गया। दोनों में भेद करना कठिन हो गया। इसी कारण नारी छली जाती है।
जब नारी सात तालों में बन्द की गयी और उसके बाद जब से उसके ताले खुलने शुरू हुए तभी से नारी को भी पुरुष की तरह शोहरत पाने की ललक लग गयी। शोहरत के मार्ग में तो कांटे ही कांटे हैं। पुरुष भी इन कांटों से होकर ही गुजरता है और जब नारी ने यह मार्ग चुना तब उसके लिए भी कांटे बिछाए गए। शोहरत के मार्ग दो होते हैं, एक मार्ग बहुत लम्बा है और दूसरा मार्ग बहुत सरल। इस दूसरे मार्ग पर पुरुष ने नारी के लिए कांटे बिछाएं हैं और जब भी कोई नारी इस सरल मार्ग को अपनाती है तब मार्ग में बिछी नागफणिया उसके आँचल को तार-तार कर देती हैं। सूक्ष्म कांटे ओढ़नी में ऐसे धंस जाते हैं कि ओढ़नी शरीर से त्यागनी ही पड़ती है। तब नारी को लगता है कि मैं छली गयी। उसे नियति तभी लम्बा मार्ग दिखाती है और कहती है कि यदि तुमने यह लम्बा कर्म का मार्ग चुना होता तो पाँव में बिवाई तो फट सकती थी लेकिन दामन सही-सलामत रहता। शोहरत और सफलता तो कर्मों की दासी है, कर्म करते रहिए, शोहरत और सफलता स्वतः ही दबे पाँव आपके दाएं-बांए खड़ी दिखायी देंगी। इस शोहरत के छोटे मार्ग ने भी नारी-विमर्श को जन्म दिया।
आज नारी की पीड़ा इतनी बढ़ गयी है कि मानवता लज्जित होने लगी है। जहाँ पूर्व में मनीषियों ने नारी को देवी रूप में स्थापित कर उसे पूज्य बनाया वहीं वर्तमान में नारी की स्थिति पतंगे के समान हो गयी है। वह स्वयं ही आग के साथ खेलने लगी है और इसका उदाहरण भारतीय चल-चित्र है। न्यूयार्क में आयोजित विश्व हिन्दी सम्मेलन में एक अप्रवासी भारतीय शिक्षिका ने प्रश्न किया कि हम भारतीय चल-चित्र को बॉलीवुड क्यों कहते हैं? उनका मकसद शायद हिन्दी प्रेम ही था, लेकिन मैं यहाँ कहती हूँ कि बॉलीवुड कहने से हम हॉलीवुड की नकल करते हैं और वैसी ही अश्लीलता एवं नारी का रूप हम सिनेमा के पर्दे पर दिखाते हैं लेकिन जब हम भारतीय चल-चित्र कहते हैं तब हम हमारे सिनेमा को भारतीयता का मार्ग दिखाते हैं। दुनिया हमारी तरफ देख रही है और हम दुनियाभर की अश्लीलता अपने यहाँ परोस रहे हैं। नारी शोहरत के नाम पर स्वयं ही अपने छिलके उतार रही है। पुरुष भी मजे ले रहा है, वह भी उसे नग्नता के लिए उकसा रहा है। एक तरफ, एक वर्ग, समाज और परिवार को परम्परा के नाम पर नेस्तनाबूद कर देना चाहते हैं तो दूसरी तरफ वही वर्ग नारी को स्वच्छंदता का पाठ पढ़ा रहा है। परिणाम होता है कि कल तब पुरुष को नारी को पाने के लिए प्रयास करना पड़ता था, कहीं-कहीं छल करना पड़ता था, अब तो वह स्वयं कटी पतंग की तरह उसकी बाहों में आकर गिर जाती है। पूर्व में समाज, नारी की रक्षा करता था और अब समाज का वजूद ही समाप्ति की ओर है।
आज नारी-विमर्श के द्वारा नारी पर हुए अत्याचार और उसकी स्वतंत्रता के लिए उसकी स्थिति को दर्शाया गया है। लेकिन एक प्रश्न मेरे मन में बेताल के प्रश्न की तरह निकल आता है कि नारी की पीड़ा, जो उसने स्वयं ने भोगी है, उस पीड़ा को पुरुष कैसे लिख सकता है? जिसने जो अनुभव किया ही नहीं वह क्या जाने पीर पराई। आप जितने भी नारे देखेंगे वह पुरुष की सत्ता को दर्शाते हैं, जैसे पुरुष प्रधान समाज, नारी अबला है, आदि-आदि। जबकि पुरातन काल में पितृ-सत्तात्मक या मातृ-सत्तात्मक परिवार होते थे और नारी महिषासुर-मर्दिनी के रूप में प्रतिष्ठित थी। आज नारी भी स्वयं को अबला मानने पर उतारू है। वह इस बात से भी अनभिज्ञ है कि उसने पुरुष को जन्म दिया है और उसके अंदर बुद्धि और बल का संधारण उसने ही किया है। फिर भी पश्चिम के प्रभाव से नारी पर सातवीं शताब्दी से ही अत्याचार होने प्रारम्भ हुए तो उसे लिखने दीजिए अपने दर्दो का लेखा-जोखा। नारी पर किसने अत्याचार किए, कौन कर रहा है, कैसे अत्याचार हैं, इन सबका उत्तर नारी ही दे सकती है। उसे ही लिखने दीजिए अपने दर्दो का हिसाब, उसे ही ढूंढने दीजिए अपने मार्ग। जैसे पूर्व में समाज उसके साथ खड़ा था, वैसे ही सभी को उसके साथ खड़ा होना चाहिए। समाज को पुनः यह सिद्ध करना चाहिए कि नारी अबला नहीं अपितु दुर्गा है। साथ ही पुरुष के पतन के प्रति भी उसकी दृष्टि जानी चाहिए क्योंकि आज जितना पतन पुरुष का हुआ है, उतना पतन किसी भी काल में नहीं हुआ था, अतः उसे पुनः संस्कारित करने की आवश्यकता है। लेकिन यह भी निर्विवादित सत्य है कि पूर्व में केवल पुरुष को संस्कारित किया जाता था, लेकिन आज दोनों को ही संस्कारित करने की आवश्यकता आन पड़ी है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हमारा चल-चित्र है, जिसमें पुरुष से भी अधिक नारी असंस्कारित दृष्टिगोचर हो रही है।
डॉ. श्रीमती अजित गुप्ता

Saturday, February 28, 2009

बिटिया ने उपहार दिया, मैं नानी बन गयी

अभी 28 फरवरी का प्रारम्‍भ होने जा ही रहा था कि मेरी बिटिया ने मुझे बहुत ही सुन्‍दर उपहार दिया, एक नाजुक सी बिटिया और मैं यकायक माँ से नानी बन गयी। उसके आगमन के साथ ही डॉक्‍टर ने मुझे उसे दिखाया, उस नन्‍हीं परी ने मुस्‍करा कर, पूरी आँखों को खोल कर मेरा स्‍वागत किया। मानो कह रही हो कि नानी मैं आपके जीवन में एक नया सवेरा लेकर आ रही हूँ। बिटियाएं कितनी प्‍यारी होती हैं, उसे छूते ही मुझे लगा की मेरे अन्‍दर भी एक नव अंकुर फूट गया है। अपनी खुशियाँ, अपनों में ही वितरित की जाती हैं, अत: आप सबसे अपनी खुशियाँ बाँट रही हूँ। क्‍योंकि नानी बनना बहुत ही प्‍यारा सा अहसास होता है।