महिला दिवस के पूर्व ही एक बात लिखना चाह रही हूँ
कि आखिर एक महिला को क्या चाहिए? महिला लड़ना भी चाहती है, हारना भी चाहती है,
जीतना भी चाहती है लेकिन बस यह नहीं सुनना चाहती कि चुप रहो – तुम महिला हो! हर
आदमी बस एक ही बात से सारे तर्क समाप्त कर देता है कि तुम महिला हो! मैंने एक
पुस्तक लिखी – अपने पिता पर। मेरे सामने एक प्रश्न चिह्न खड़ा कर दिया गया कि
पुस्तक क्यों लिखी गयी? मुझे भी लगा कि यह प्रश्न मुझे भी स्वयं से पूछना ही
चाहिये कि आखिर क्यों लिखी गयी पुस्तक? मेरी पुस्तक में एक बात और थी कि मेरी माँ
कहती है कि मेरे श्रीराम चले गये? जबकि मेरे पिता परशुराम की प्रतिकृति अधिक थे
लेकिन मेरी माँ ने उन्हें विदाई देते समय कहा कि मेरे श्रीराम चले गये! महिला दिवस
पर इन बातों की चर्चा करना चाहती हूँ। क्यों एक परशुराम जैसा व्यक्ति पत्नी के मन
में श्रीराम की छवि लेकर बैठा है और क्यों एक पुत्री ऐसे पिता पर पुस्तक लिख देती
है! मेरा जन्म आजादी के बाद हुआ, महिला शिक्षा का असर सीमित था, हमारे परिवार जैसे
साधारण परिवार महिलाओं के लिये उच्च शिक्षा की कल्पना तक नहीं करते थे। यदि शिक्षा
भी मिल गयी तो भी उनमें पुरुषोचित स्वाभिमान भरना नहीं जानते थे। मेरे पिता ने
घोषणा की कि मैं संतानों को डॉक्टर-इंजीनियर बनाऊंगा। वे बेटा और बेटी में भेद
नहीं कर सके और कहते कि मेरे सारे बेटे ही हैं। उन्होंने हमारे अन्दर स्वाभिमान
कूट-कूटकर भर दिया। बस यही बात किसी भी बेटी को प्रभावित करती है। पिता फिर
चाहे परशुराम हो या फिर श्रीराम, लेकिन
यदि वह अपनी बेटी में स्वाभिमान भरता है तब बेटी
हमेशा ऋणि रहती है। बेटों को इस ऋण का पता नहीं होता, क्योंकि वे इस
परिस्थिति से कभी गुजरे ही नहीं! वे कभी दूसरे दर्जे के नागरिक रहे ही नहीं!
उन्हें पता ही नहीं कि जब कोई धारा के विपरीत कार्य करता है, किसी में स्वाभिमान
भरता है तब उसकी जगह क्या होती है? कोई भी व्यक्ति जब परिवार में महिला को सम्मान
देता है तब उसका कृतित्व कितना बड़ा बन जाता है!
हमारे परिवार में पिता ने महिला को उसके अधिकार
दिये। माँ से झगड़ा भी किया, घर में भूचाल भी लाया गया लेकिन माँ को दोयम दर्जा
नहीं दिया गया। अपनी पुत्रवधुओं को कभी भी घूंघट में नहीं रहने दिया। उन्होंने हर
महिला को वे सारे ही अधिकार दिये जो एक पुरुष को प्राप्त थे। हाँ वे झगड़ा करते थे
लेकिन हमें भी झगड़े का अधिकार देते थे!
उन्होंने कभी नहीं कहा कि चुप रहो, तुम महिला हो! यही बात सब से अनोखी है। आज
बात-बात पर सुनने को मिलता है कि चुप रहो तुम महिला हो! मैंने कई संगठनों में काम
किया लेकिन सुनने को मिल ही जाता था कि चुप रहो तुम महिला हो! इसलिये महिला
दिवस पर मेरा एक ही प्रश्न है कि क्या अभी
तक हम इसी वाक्य पर अटके हैं या हम आगे बढ़ चुके हैं? मेरे पिता ने कभी यह वाक्य नहीं कहा, इसलिये मैंने उन पर
पुस्तक लिखी, आज मैंने फिर मोदी को देखा जो महिला को कभी नहीं कहते कि चुप रहो,
तुम महिला हो। आज यदि कोई भी पुरुष कितना भी बड़ा बन जाए लेकिन यदि वह महिला से
कहे कि चुप रहो – तुम महिला हो, तब मुझे उस पर कोई सम्मान नहीं होता। मुझे जब-जब
भी ऐसा सुनने और समझने को मिला, मैंने तत्काल वहाँ से पलायन कर लिया। आप हम से
झगड़िये, हमें हराने की कोशिश भी कीजिए लेकिन हारने के डर से यह मत बोलिये कि चुप
रहिये – क्योंकि तुम महिला हो! मैंने बचपन में ये शब्द नहीं सुने थे, मेरे पिता ने
मुझे स्वाभिमान सिखाया था। उन्होंने सिखाया था कि सब बराबर हैं। यदि किसी के पास
ज्ञान है तो वह ज्ञान महिला और पुरुष में विभाजित नहीं किया जा सकता है और ना ही
भाषा में। ज्ञान किसी भाषा से भी बंधा नहीं होता कि यह भाषा नहीं आती तो आपका
ज्ञान, ज्ञान नहीं है। इसलिये आज महिला दिवस पर मैं अपने पिता को नमन करती हूँ
जिन्होंने मुझे स्वाभिमान सिखाया। महिला को कभी मत कहिये कि "चुप रहो –
क्योंकि तुम महिला हो"।
मेरे पिता इसलिये ही मेरी नजर में महान थे और
मेरी माँ की नजर में इसीलिये राम थे कि उन्होंने पत्नी को कभी नहीं कहा कि चुप रहो
– तुम महिला हो। मेरे लिये मोदी भी इसीलिये महान है कि वे कभी नहीं कहते कि चुप
रहो क्योंकि तुम महिला हो। महिला दिवस पर मेरे लिये हर वह व्यक्ति महान है जो कभी
नहीं कहता कि चुप रहो, तुम महिला हो।
4 comments:
बिल्कुल सटीक ...आधी समस्या और स्त्री पुरूष का भेद तो बस यहीं खत्म हो जाये जब औरतो को कम से कम बोलने का अधिकार ही मिल जायबहुत लाजवाब लेख...।
सटीक और सोद्देश्य लेखन।
सुधा जी आभारी हूँ।
शास्त्रीजी आभार।
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