रथ के पहिये थम गये हैं। मुनादी फिरा दी गयी है
कि जो जहाँ हैं वही रुक जाएं। एक भयंकर जीव मानवता को निगलने निकल पड़ा है, उसके
रास्ते में जो कोई आएगा, उसका काल बन जाएगा! सारे रास्ते सुनसान हो चले हैं। जिसे
जीवन का जितना मोह है, वे सारे लोग घरों में दुबक चुके हैं, जो जीवन को खेल समझते
हैं वे अभी भी वृन्दावन में होली खेल रहे हैं।
विचार आया है मन में! यह वायरस अकेले मनुष्य पर
ही आक्रमण क्यों करता है? लाखों पशु हैं, पक्षी हैं लेकिन सभी तो बिना वीजा और
पासपोर्ट के स्वतंत्र घूम रहे हैं। ना साइबेरिया से आने वाले पक्षी रुके हैं और ना
ही पड़ोस के पशु रुके हैं! मनुष्य के अलावा कहीं कोई भय व्याप्त नहीं है। अकेला
मनुष्य ही क्यों इन सूक्ष्मजीवियों के गुस्से का शिकार होता है?
मनुष्य कभी भी किसी भी प्राणी को हाथ में पकड़ लेता
है और अट्टहास करता है – तुझे निगल जाऊँगा..... हा हा हा। निरीह प्राणी कुछ नहीं
बोल पाता लेकिन उसका आक्रोश जन्म लेता है, छोटे से सूक्ष्मजीवी के रूप में! मनुष्य
ने किसी भी प्राणी को नहीं छोड़ा, सभी के साथ दुर्व्यहार किया, सूक्ष्मजीवी बढ़ते
गये और मनुष्य का जीवन संकट में घिरता गया। हर घर के भोजन की टेबल पर सज गये हैं
जीव! आक्रोश बढ़ता चले गया और सूक्ष्मजीवी पनपते गये! आज एक तरफ मनुष्य खड़ा है और
दूसरी तरफ सारे ही प्राणी। मानो संग्राम छिड़ गया हो! मनुष्य के पास न जाने कितने
हथियार हैं लेकिन सूक्ष्मजीवियों के पास केवल स्वयं की ताकत है।
सुबह हुई हैं, मुंडेर पर बैठकर चिड़िया गान गा
रही है, कोयल भी कुहकने को तैयार है, गाय रम्भा रही है लेकिन मनुष्य खामोश बैठा घर
में कैद है। केवल चारों तरफ से सायं-सायं की आवाजें आ रही हैं। मानो हर शहर कुलधरा
गाँव जैसे सन्नाटे में तब्दील होना चाहता है। मनुष्य ने कहीं युद्ध छेड़ रखा है,
वह कह रहा है कि मेरे रंग में रंग जाओ नहीं तो बंदूक से भून डालूंगा और दूसरी तरफ
सूक्ष्मजीवी आ खड़ा हुआ है। बंदूकें भी बैरक में लौट गयी हैं, मानवता को अपने ही
रंग में रंगने वाले भी दुबक गये हैं बस सूक्ष्मजीवी घूम रहा है, निर्द्वन्द्व!
चेतावनी दे रहे हैं कोरोना जैसे हजारों सूक्ष्मजीवी, मनुष्य होश में आ जा, हिंसा
छोड़ दे, नहीं तो तू सबसे पहले काल का ग्रास बनेगा। कोई नहीं बच पाएगा! अट्टहास
बदल गया है, सूक्ष्मजीवी का अट्टहास सुनायी नहीं पड़ता लेकिन जब मनुष्य का रुदन
सुनाई देने लगे तब समझ लेना की कोई जीव अट्टहास कर रहा है। रथ के पहिये थम रहे हैं
लेकिन सूक्षमजीवी दौड़ रहा है, भयंकर गर्जना के साथ दौड़ लगा रहा है। मनुष्य अभी
भी सम्भल जा। कहीं ऐसा ना हो कि डायनोसार की तरह तू भी कल की बात हो जाए? सुन रहा
है ना तू?
2 comments:
सामयिक और सटीक लेख
आभार ओंकार जी
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