जब भी प्रश्न सामने खड़े हो जाते हैं हम अक्सर
भूतकाल में चले जाते हैं, सोचने लगते हैं कि हमने पहले क्या किया था! हमारे बचपन
में ना टीवी था, ना बाहर घूमने की इतनी आजादी! बस था केवल स्कूल और घर या फिर मौहल्ला।
स्कूल में सांस्कृतिक कार्यक्रम होते ही रहते थे लेकिन उनमें हिस्सा लेने की कूवत
हम में नहीं थी। स्कूल में लड़कियाँ नाच रही होती और झूम-झूम कर गा रही होती कि
म्हारी हथेलियाँ रे बीच छाला पड़ गया म्हारा मारूजी...... । हमारे मन में बस जाता
वह गीत, कभी लड़कियाँ पेरोड़ी बनाकर कव्वाली करती तो कभी नाटक भी होता। हम सब
देखते और हमारा मन भी कुलांचे मारने लगता। हम घर आते, मौहल्ले की सखी-सहेलियों से
लेकर लडकों तक को एकत्र करते और फिर शुरू होता नृत्य, परोड़ी बनाना और नाटक खेलना।
कभी सारे ही मौहल्ले को एकत्र कर लेते और फिर मंचन होता सारी ही कलाओं का।
हम देखते थे कि घर-घर में कहानियाँ सुनायी जाती
थी, कहीं राजा-रानी थे, कहीं राम-सीता थे, कहीं श्रवण कुमार थे, कहीं चोर-सिपाही
थे। ऐसे ही पौराणिक कथानकों से भरे होते थे सारे ही घर। महिलाएं भी हर बात में गीत
गाती, मंगोड़ी बनानी हो तो सारा मौहल्ला एकत्र होता, पापड़ बनाने हो तो भी एकत्र
होता और फिर गीत गाएं जाते। कभी भी घर से बाहर जाने का मन ही नहीं करता था, समय ही
नहीं था कुछ और सोचने का। हमने कभी नहीं कहा कि हम बोर हो रहे हैं, शायद तब तक यह
शब्द चलन में ही नहीं आया था!
दुनिया संकट के दौर में है, बच्चे घर में धमाचौकड़ी
कर रहे हैं लेकिन उन्हें रास्ता कोई नहीं दिखा रहा है। मैं नातिन को कई बार सिखाने की कोशिश करती हूँ कि तुम्हारी
कहानी से नाटक तैयार करते हैं और तुम सब मिलकर नाटक खेलो, लेकिन लड़कियाँ रुचि
नहीं लेती, पोता तो फिर कहाँ से रुचि लेगा। लेकिन अभी समय पर्याप्त है, हम उनमें
रुचि जागृत कर सकते हैं। बच्चों की ऑनलाइन क्लासेस चालू हो चुकी है, मैंने कहने की
कोशिश की कि दोनों माता-पिता अलग-अलग विषय के टीचर बन जाओ, अलग-अलग क्लासरूम लो और
अलग-अलग ड्रेस पहनकर फन तैयार करो, बच्चों का मन लगेगा। उनकी ही किताब से कहानी लेकर
नाटक तैयार कराओ, फिर मंचन करो।
कभी बागवानी का पाठ पढ़ाओ तो कभी रसोई में जा
पहुँचों। जीवन से जुड़ी हर छोटी-बड़ी बात से बच्चों को रूबरू कराओ। हर बात कौतुक
जैसी होनी चाहिये, तभी बच्चे आनन्द लेंगे। जीवन का नया रूप या पुराना रूप वापस
लाने की जरूरत है क्योंकि मोबाइल और टीवी की दुनिया से बाहर निकलकर बिना बोर हुए
नया कुछ करने का समय है। अपने अन्दर के कलाकार को बाहर निकलने की जरूरत है फिर
लगेगा कि घर ही सबसे प्यारा है। बचपन का यह पाठ और ये दिन हमेशा यादों में रहेंगे
और फिर कभी उनके जमाने में कोई विपत्ति आयी तो वे अपने बच्चों से कहेंगे कि आओ हम
बताते हैं कि कैसे दिन को आनन्ददायक बनाएं। तब बोर होने जैसे शब्द सुनायी नहीं
देंगे।
4 comments:
सही कहा
आभार ओंकार जी।
आपने सही कहा मैम। इन दिनों को मोबाइल पर बिताने के अलावा कई सृजनात्मक तरीको से बिताया जा सकता है। उम्मीद है आपकी कोशिशें रंग लायेंगीं।
आभार विकास जी
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