मेरे सपने में मेरे बचपन का घर ही आता है, क्यों
आता है? क्योंकि मैंने उस घर से बातें की थी, उसे अपना हमराज बनाया था, अपने दिल
में बसाया था। जब पिता की डाँट खायी थी और जब भाई का उलाहना सुना था तब उसी घर की
दीवारों से लिपटकर न जाने कितनी बार रो लेती थी। लगता था इन दीवारों में अपनापन
है, ये मेरी अपनी है। कभी किसी कोने में बैठकर बड़े होने का सपना देखा था और कभी
चोर-सिपाही तो कभी रसोई बनाने का खेल खेला था! अपने घर के ठण्डे से फर्श पर न जाने
कितनी गर्मियों की तपन से मुक्ति पायी थी! जब बरसात सभी ओर से भिगो देती थी तब इसी
की तो छाँव मिलती थी। ठण्ड में कुड़कते हुए किसी कोने में सिगड़ी की गर्माहट से
यही घर तो सुखी करता था! क्यों ना सपनों में बचपन का घर आएगा!
मेरा अपना घर जो मैंने अपने सारे प्रयासों में
बनाया था, कभी सपनों में नहीं आता! मैं रोज आश्चर्य करती हूँ कि कभी तो आ जाए यह
भी, आखिर इसे भी तो मैंने प्यार किया है! लेकिन नहीं आता! वह किराये का मकान जो
वास्तव में घर था, हमारे सपनों में आता है और जो हमारा खुद का मकान है वह हमसे सपनों
में भी रूठ जाता है! शायद इसे हमने घर नहीं बनाया! हमने यहाँ बैठकर बातें नहीं की,
हमने यहाँ सपने नहीं संजोएं। बस भागते रहे अपने आप से, अपनों से और अपने घर से।
सुबह उठो, जैसे-तैसे तैयार हो जाओ और निकल पड़ो नौकरी के लिये! वापस आकर कहो कि चल
कहीं और चलते हैं, किसी बगीचे में या किसी रेस्ट्रा में! घर तो मानो रूठ जाता था,
अरे तुम्हारे पास मेरे लिये दो पल का वक्त नहीं है! मैं भी तो सारा दिन तुम्हारी
बाट जोहता हूँ और तुम मेरे पास आकर बैठते तक नहीं!
बच्चे आते हैं उनके पास घूमने जाने की लिस्ट होती है, घर फिर रूठ जाता है, कहता है कि इतने
दिन बाद बच्चे आए और ये भी मेरे साथ नहीं बैठे! घर तो निर्जीव सा हो चला है, हमारी
आत्माएं इसमें प्रवेश ही नहीं कर पाती हैं। घर के कान भी बहरे हो चले हैं और जुबान
भी गूंगी हो गयी है। आखिर बात करे भी तो
किस से करे! घर में दो लोग रह रहे हैं अबोला सा पसरा रहता है। आखिर एक जन ही कब तक
बोले, घर में सन्नाटा पसर जाता है। घर भी हमारे साथ बूढ़ा हो रहा है, थक गया है
बेचारा। यह कहानी मेरे घर की नहीं है, हम सबके घर
ही कमोबेश यही कहानी है। बड़े-बड़े घर हैं लेकिन रहता कोई नहीं है, जो भी
रहता है वह बातें नहीं करता, बच्चों की खिलखिल नहीं आती। दरवाजे बन्द है तो
चिड़िया का गान भी नहीं आता। बस चारों तरफ खामोशी है।
आखिर कल मोदीजी ने कहा कि 60 साल वाले घर के
अन्दर रहो, घर से बातें करो इसे अपना बना लो। बहुत छटपटाहट हो रही है, कैसे रहेंगे
घर के अन्दर! मुझे अच्छा लग रहा है, मैं बातें करने से खुश हूँ। मैं घर की बातें
लिख रही हूँ, घर को महसूस कर रही हूँ, घर को आत्मसात कर रही हूँ। सोच रही हूँ कि
घर नहीं होता तो क्या होता! क्या हम बातें
कर पाएंगे? इस मकान को क्या अपना प्यारा सा घर बना पाएंगे? क्या यह घर भी हमारे
सपनों में आएंगा? इस महामारी के समय प्रयास कर लो, इसे ही अपना बना लो, जो बातें
कभी नहीं की थी, अब कर लो, न जाने कब किसका साथ छूट जाए! जब हम ना होंगे तो यह घर
ही तो है जो हमारी कहानी कहेगा, इसलिये बातें कर लो।
2 comments:
जान है जहान है
बहुत अच्छी चिंतन प्रस्तुति
कविता जी आभार
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