यह जो श्रद्धा होती है ना वह सबकी अपनी-अपनी होती है, जैसे सत्य सबके अपने-अपने होते हैं। अब आप कहेंगे कि सत्य कैसे अलग-अलग हो सकते हैं? जिसे मैंने देखा और जिसे मैंने अनुभूत किया वह मेरा सत्य होता है और जिसे आपने देखा और आपने अनुभूत किया वह आपका सत्य होता है उसी प्रकार श्रद्धा भी अपनी अनुभूति का विषय है। इसपर विवाद करना ऐसा ही है जैसे भारत में बैठकर मैं कहूँ कि अभी दिन है और अमेरिका में बैठकर आप कहें कि अभी रात है और दोनों ही विवाद में उलझे रहेंगे, परिणाम कुछ नहीं निकलने वाला। न्यायालय के फैसले इसी सत्य पर आने चाहिये। पटाखे चलाना पर्यावरण को हानि पहुंचाता है, यह सच है, जैसे परमाणु बम्म विनाश करता है, यह भी सच है। इसलिये पटाखे ऐसे बनाए जाएं जो पर्यावरण को हानि नहीं पहुंचाएं। बहुसंख्यक आबादी को समझाना कठिन है लेकिन पटाखे बनाने वाले कम संख्या की कम्पनी को समझाना आसान है। पटाखे उल्लास का प्रतीक हैं तो जरूरी नहीं कि तेज आवाज करने वाले और ज्यादा धुआँ छोड़ने वाले पटाखे ही चलाए जाएं। न्याय का काम है कि वह जनता का दृष्टिकोण पर्यावरण की ओर मोड़े ना कि धार्मिकता की ओर। किसी त्योहार विशेष पर जब आप कानून लागू करते हैं तब वह श्रद्धा पर केन्द्रित हो जाता है। और फिर व्यक्ति प्रतिक्रिया में कानून अधिक तोड़ता है।
पुणे और बैंगलोर ऐसे शहर रहे हैं जो पर्यावरण की दृष्टि से उत्तम थे लेकिन आज वहाँ के क्या हाल हैं? कभी जिन शहरों में घरों में सीलिंग फैन तक नहीं हुआ करते थे आज एसी लग रहे हैं। बड़ी-बड़ी कम्पनियां इन दोनों शहरों में आगयी हैं और इनके ऑफिस पूर्णतया वातावुकूलित हैं। इन शहरों में कम्पनी लाने का कारण ही यह था कि यहाँ का तापमान कम रहता है लेकिन हमने एसी लगाकर तापमान की ऐसी की तैसी कर दी। शहर में परमाणु बम्म डाल दिया और पटाखे चलाने से मना करते हो! यदि कम्पनियाँ आयी थी तो उनकी बिल्डिंग बिना एसी की होनी चाहिये थी, खुली-खुली। लेकिन जब माननीय न्यायालय जाग नहीं रहे थे और ना ही सरकारें जाग रही थीं, अब जब हम आकण्ठ प्रदूषण से डूब रहे हैं तब तिनका उठाने की बात करते हैं! यह उपाय पर्यावरण की रक्षा तो नहीं कर पाएंगे उल्टा सामाजिक प्रदूषण को बढ़ा जरूर देंगे। आज भी समय है यदि हम इन बड़ी कम्पनियों से कहें कि कम करिये एसी के प्रदूषण को तो शायद आने वाले खतरों से बच पाएंगे।
हम सारे काम उल्टे करते हैं, सीधे नाक पकड़ने की जगह घुमाकर नाक पकड़ते हैं। तकनीकी का उपयोग कितना और कहाँ जरूरी है, इसपर मंथन नहीं करते बस छोटे टोटके करते हैं। दिल्ली में पेट्रोल की समस्या से निजात सीएनजी ने दिलायी थी तो ऐसे ही जागृति से काम होंगे। न्यायालय का सभी श्रद्धा के स्थानों पर धकल देना देशहित में नहीं है। जैसे पहले ज्यूरी की व्यवस्था होती थी वैसे ही श्रद्धा के मामलों पर ज्यूरी को निर्णय देना चाहिये जो समग्रता से न्याय दें। अकेले कानून थोपने से व्यवस्थाएं सुधरने वाली नहीं हैं। सामाजिक मुद्दों पर समाज द्वारा ही निर्णय आने चाहिये। न्यायालय का कार्य केवल कानून की अवलेहना में न्याय देना होना चाहिये। शेष सारे ही सामाजिक और श्रद्धा से जुड़ी समस्याओं को ज्यूरी बनाकर हल करना चाहिये। देखना इस दीवाली पर पटाखे सारी रात चलेंगे, कोई नहीं रोक पाएगा। एक गरीब बालक एक बम्म की लड़ी फोड़कर खुश हो लेता है और सारे साल के अभाव को भूल जाता है। उसे नहीं समझ आता कि मेरे एक पटाखे से कैसे खतरा पैदा हो जाता है जबकि सड़क पर चलती लाखों गाड़ियों से खतरा दूर से ही विदा हो लेता है! वह समझ नहीं पाता कि उसकी एक पतंग से कैसे जीव-हत्या हो जाती है जबकि शहर में रोज ही लाखों पशुओं को मारकर खाया जाता है। वह समझ नहीं पाता कि रंगों से कैसे नुक्सान होता है जबकि रंगों से क्या कपड़ें और क्या घर रोज ही रंगे जाते हैं! ऐसे कितने ही प्रश्न हैं जो हर व्यक्ति के मन में आते हैं, जब समझ नहीं आते तो पटाखे को फोड़कर विरोध दर्ज कराता है। यही विरोध पर्यावरण का दुश्मन है, इस ओर ध्यान दीजिए माननीय।
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हम सारे काम उल्टे करते हैं, सीधे नाक पकड़ने की जगह घुमाकर नाक पकड़ते हैं। तकनीकी का उपयोग कितना और कहाँ जरूरी है, इसपर मंथन नहीं करते बस छोटे टोटके करते हैं। दिल्ली में पेट्रोल की समस्या से निजात सीएनजी ने दिलायी थी तो ऐसे ही जागृति से काम होंगे। न्यायालय का सभी श्रद्धा के स्थानों पर धकल देना देशहित में नहीं है। जैसे पहले ज्यूरी की व्यवस्था होती थी वैसे ही श्रद्धा के मामलों पर ज्यूरी को निर्णय देना चाहिये जो समग्रता से न्याय दें। अकेले कानून थोपने से व्यवस्थाएं सुधरने वाली नहीं हैं। सामाजिक मुद्दों पर समाज द्वारा ही निर्णय आने चाहिये। न्यायालय का कार्य केवल कानून की अवलेहना में न्याय देना होना चाहिये। शेष सारे ही सामाजिक और श्रद्धा से जुड़ी समस्याओं को ज्यूरी बनाकर हल करना चाहिये। देखना इस दीवाली पर पटाखे सारी रात चलेंगे, कोई नहीं रोक पाएगा। एक गरीब बालक एक बम्म की लड़ी फोड़कर खुश हो लेता है और सारे साल के अभाव को भूल जाता है। उसे नहीं समझ आता कि मेरे एक पटाखे से कैसे खतरा पैदा हो जाता है जबकि सड़क पर चलती लाखों गाड़ियों से खतरा दूर से ही विदा हो लेता है! वह समझ नहीं पाता कि उसकी एक पतंग से कैसे जीव-हत्या हो जाती है जबकि शहर में रोज ही लाखों पशुओं को मारकर खाया जाता है। वह समझ नहीं पाता कि रंगों से कैसे नुक्सान होता है जबकि रंगों से क्या कपड़ें और क्या घर रोज ही रंगे जाते हैं! ऐसे कितने ही प्रश्न हैं जो हर व्यक्ति के मन में आते हैं, जब समझ नहीं आते तो पटाखे को फोड़कर विरोध दर्ज कराता है। यही विरोध पर्यावरण का दुश्मन है, इस ओर ध्यान दीजिए माननीय।
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2 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (27-10-2018) को "पावन करवाचौथ" (चर्चा अंक-3137) (चर्चा अंक-3123) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 25/10/2018 की बुलेटिन, " विसंगतियों के फ्लॉप शो को उल्टा-पुल्टा करके चले गए जसपाल भट्टी “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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