Tuesday, October 23, 2018

मैं इसे पाप कहूंगी


अभी शनिवार को माउण्ट आबू जाना हुआ, जैसे ही पहाड़ पर चढ़ने लगे, वन विभाग के बोर्ड दिखायी देने लगे। "वन्य प्राणियों को खाद्य सामग्री डालने पर तीन साल की सजा", जंगल के जीव की आदत नहीं बिगड़नी चाहिये, यदि आदत बिगड़ गयी तो ये सभी के लिये हानिकारक सिद्ध होंगे। आश्चर्य तब होता है जब देखते हैं कि भूखे को रोटी खिलाना पुण्य कार्य है – का बोर्ड लगा होता है। पूरे देश में हर सम्प्रदाय ने भोजनशाला संचालित कर रखी है, जहाँ लाखों लोग प्रतिदिन मुफ्त की रोटी तोड़ते हैं। धार्मिक स्थानों पर तो मुफ्त की रोटी या रियायती दरों पर रोटी मिलना आम बात है। सरकारों को भी बाध्य किया जाता है कि वे भी रियायती दरों पर भोजन उपलब्ध कराए। एक तरफ भिक्षावृत्ती अपराध है लेकिन दूसरी तरफ धर्म के नाम पर जायज है। हमने मनुष्य जीवन प्राप्त किया है, लेकिन क्या हम खुद के लिये रोटी कमाने में भी असमर्थ हैं? सारे देश में मुफ्त रोटी की व्यवस्था करना क्या मनुष्य की आदत बिगाड़ने का काम नहीं है? एक बार अयोध्या जाना हुआ, वहाँ शंकर गढ़ी में प्रतिदिन 5000 लोगों को भोजन खिलाया जाता है। वे 5000 लोग संन्यासी कम और भिखारी ज्यादा हैं, उनकों जिस प्रकार का भोजन मिलता है और उससे वह भिखारी बने हुए हैं, देखकर तरस आता है कि क्या ये लोग मनुष्य कहलाने लायक हैं? किसी को किस का नशा होता है किसी को किसका लेकिन भारत में मुफ्त रोटी का नशा परोसा जा रहा है। लोग पुण्य कमा रहे हैं, भूखे को रोटी देकर। लोग पुण्य कमाना चाहते हैं वन्य प्राणियों को रोटी देकर, लेकिन एक पुण्य पाप बताया गया है और दूसरा पाप पुण्य बताया जा रहा है!
हम कहते हैं कि – अतिथि देवोभव:, लेकिन यह कब और किसके लिये कहा गया था? पूर्व काल में जब बाजार में भोजन नहीं मिलता था, राहगीर गाँव आते थे, रात  हो जाती थी तब कहा गया था कि अतिथि को देवता मानकर भोजन कराओ। यह कहीं नहीं कहा गया कि लोगों को मुफ्त की रोटी तोडने के लिये वातावरण बनाओ। देश में बहुत धन्ना सेठ हैं, उनका अकूत पैसा कोठियों में बन्द है, उसका वह सदुपयोग लोगों की आदते बिगाड़ने के लिये कर रहे हैं। हर महिने लोग पहुँच जाते हैं धार्मिक स्थानों पर, खाना मुफ्त मिल जाता है, फिर क्या परेशानी! सड़कों पर भीड़ बढ़ रही है, रेलें भरी पड़ी है, क्योंकि खाना मुफ्त और रहना भी तकरीबन मुफ्त। हर आदमी की आदत बिगाड़ दी गयी है। हम साल में एक  बार कहीं घूमने का कार्यक्रम बनाते हैं, बजट देखकर पैर सीमित दायरे में ही फैलाते हैं लेकिन धार्मिक यात्रा करने वाले रोज ही निकल पड़ते हैं। अब तो ये धन्ना सेठ यात्राएं भी मुफ्त कराने लगे हैं! देश की पूरी 125 करोड़ की जनसंख्या इस मुफ्तखोरी की समस्या से ग्रस्त हो गयी है।
हम अमेरिका गये, वहाँ भी इस बीमारी ने पैर पसार लिये हैं। मन्दिर गुरुद्वारे सभी जगह लंगर चल रहे हैं। कुछ युवा तो प्रतिदिन वहीं खाना खा रहे हैं। थोड़ा सेवा कर दी और खाना मुफ्त! कौन करे घर में खटराग! आप लोग मेरे विरोध में कितना ही खड़े हो जाना लेकिन मुझे तो यह कृत्य अमानवीय लगता है। यदि भोजनशाला चलानी ही है तो पैसा पूरा लीजिये, बिना परिश्रम के रोटी तोड़ने की इजाजत नहीं होनी चाहिये। हमने हर व्यक्ति को भिखारी बना दिया है, मैं जब भी ऐसे किसी स्थान पर खाना खाती हूँ तो खुद में भिखारी की गन्ध अनुभव करती हूँ। आप कहेंगे कि पैसा दान कर दो, अरे भाई पैसा तो दान कर दोगे लेकिन मनुष्य को निठल्ला बनाने की प्रक्रिया का क्या करोगे? आज हम शहरों में बन्दरों की समस्या से परेशान रहते हैं, क्यों रहते हैं परेशान? क्योंकि हमने रोटी खिलाकर ही उन्हें जंगलों से दूर कर दिया है, अब वे घरों में आक्रमण करने लगे हैं। एक दिन ऐसा आएगा जब मनुष्य भी घरों में आक्रमण करने लगेगा। आप इसे पुण्य कहते रहिये, लेकिन मैं तो इसे पाप ही कहूंगी।
www.sahityakar.com

7 comments:

Pammi singh'tripti' said...


आपकी लिखी रचना आज "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 24अक्टूबर 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!


अजित गुप्ता का कोना said...

आभार पम्मी जी

Anuradha chauhan said...

बहुत खूब लिखा 👌

विकास नैनवाल 'अंजान' said...

एक नया दृष्टिकोण।

मन की वीणा said...

सही कहा आपने, दान के नाम पर मुफ्त खोरी और अकर्मण्यता बढती ज रही है देश में, इधर सरकारी स्कूलों में कम साधन कम आय वाले लोगों के बच्चों की खाना व दुसरे साधन सहज मिल रहें हैं पर पढाई नही हो रही न जाने देश के आने वाले कर्ण धार कैसे होंगे परोपजीवी अकर्मण्य। और बडे शहरो विशेष तह मुम्बई में इतने ऐनजियो आभिजात्य वर्ग चला रहें हैं और गरीब बच्चों में ऐसी फेन्सी वस्तु ऐं बांटी जाती है मुफ्त में ऐश पढाई जीरो सौ में से दो पढने वाले बाकि सब गिफ्ट का लोभ आज रियल का जूस, कल टिफिन बाक्स, कभी केडबरी, कपडे
मिठाई जो आज मध्यम वर्ग अपने बच्चों को नही दे पाते और गरीब कहलाने वाले इतनी सुविधाओं को भोग कन निखट्टु वनता जा रहा है हर चीज मुफ्त की आदत और बिना काम किये। लिखने को बहुत है पर बहुत लम्बी प्रतिक्रिया हो रही है क्षमा करें ।
आपका आलेख चिंतन-मनन के योग्य है। साधुवाद।

How do we know said...

कितनी सटीक बात कही है आपने

अजित गुप्ता का कोना said...

आप सभी का आभार। सार्थक चिंतन करने पर ही कुछ सार्थक निकल पाएंगा, यह क्रम बनाए रखें।