एक सुन्दर सी पेन्टिंग मेंरे सामने थी, लेकिन मुझे उसमें कुछ कमी लग रही थी। तभी दूसरी पेन्टिंग पर दृष्टि पड़ी और मन प्रफुल्लित हो गया। एक छोटा सा अन्तर था लेकिन उस छोटे से बदलाव ने पेन्टिंग में जीवन्तता भर दी थी। खूबसूरत मंजर था, हवेली थी, पहाड़ था, बादल था, सभी कुछ था लेकिन किसी जीवित का चिह्न नहीं था। दूसरे चित्र में कलाकार ने पैर के निशान बना दिये थे बस मेरी नजर में वह चित्र बोल उठा था। अचल प्रकृति को हम कितना भी सुन्दर चित्रित कर दें लेकिन मुझे उसमें खालीपन ही दिखायी देता है लेकिन जब कभी भी उसमें एक नन्ही चिड़िया ही आकर बैठ जाए, मेरे लिये वह दृश्य जीवन्त हो उठता है। अभी 15 अगस्त को कुम्भलगढ़ जाना हुआ, इसके पूर्व भी कई बार देखा है उस भव्य किले को लेकिन कभी उसकी बोली सुनाई नहीं दी। उस दिन रात को 7.30 बजे जब ध्वनी और प्रकाश का शो शुरू हुआ और पहाड़ों से टकराती आवाज गूंज उठी की मैं कुम्भलगढ़ हूँ तब लगा कि आज पूर्णता के दर्शन हो गये हैं।
मौन तपस्वी सा खड़ा कुम्भलगढ़ उस दिन अचानक बोल उठा, 2000 वर्ष पूर्व का इतिहास अचानक ही जीवन्त हो गया। कल्पना में सारे पात्र आकार लेने लगे। सम्राट अशोक के पौत्र ने इस पहाड़ पर आकर किसी मानव के पैरों को प्रतिष्ठित किया था, मुझे अशोक के काल का स्मरण हो आया कि किस सोच के साथ उनका यहाँ पदार्पण हुआ होगा! समय बीत गया और राजा हमीर का जीवन सामने आ खड़ा हुआ। फिर किला बोल उठा, बधाई गीत सुनायी दिये। लेकिन महाराणा कुम्भा ने सन् 1458 में इसे साकार रूप देकर जीवन्तता का नाम दे दिया – कुम्भलगढ़। किले की प्राचीर से, किले के हर पत्थर से आवाज गूंज रही थी कि मैं कल भी जीवित था और आज भी जीवित हूँ। कल तक मैं जनता की रक्षा कर रहा था और आज जनता मेरा यशोगान कर रही है। मेरे कल के कृतित्व को अपने हाथ से छूकर अनुभव कर रही है और हर कोने में झांककर उस इतिहास को अनुभूत कर रही है, जो उसका वर्तमान नहीं था। हजारों सैलानी आ रहे हैं, हम भी उनमें से एक थे, बेटे ने कहा कि कैसे बनाया होगा उस काल में यह किला! पहाड़ की ऊंची चोटी पर खड़ा होकर यह किला अपनी कहानी खुद कहता है, अपने भी आये और पराये भी आये लेकिन किले ने प्रजा की सदैव रक्षा की।
बस किले के साथ एक दुखद प्रसंग भी जुड़ा हुआ है जो दिल में बने नासूर की तरह लगता है। हमारे इतिहास को कलंकित करता है। किले की जो हवाएं इठला रही थी वे अचानक से स्तब्ध हो जाती है, सन्नाटा छा जाता है, जिस महाराणा कुम्भा ने मुझे अस्तित्व दिया उसी कुम्भा को सत्ता के लालच में बेटे ने तलवार से काट दिया। बेटा कहता है कि कब तक धैर्य धरूं, मेरा यौवन बीत रहा है और आपका अन्त नहीं होता और मन्दिर में ही तलवार उठ जाती है। जिस कुम्भा ने संगीत दिया, नृत्य दिया, वीरता दी, उसी कुम्भा को पुत्र ने अन्त दिया। पुत्र भी नहीं रहा लेकिन दुनिया को इतना कुछ देने वाले का भी ऐसा अन्त भारत के लालच की सच्चाई को दिखाता है। सत्ता का लालच कभी समाप्त नहीं होता, हर मजबूत किला यही कहता है और कुम्भलगढ़ भी यही कह रहा था।
लेकिन फिर कहानी आगे बढ़ती है, इसी किले ने बालक उदयसिंह को शरण दी, यहीं पर प्रताप और उनके पुत्र अमर सिंह का जन्म हुआ, यहीं से हल्दीघाटी का युद्ध लड़ा गया, यहीं से दिवेर का युद्ध लड़ा गया। आखिर प्रताप ने विजय पायी और फिर कुम्भलगढ़ छूट गया। उदयसिंह ने उदयपुर बसा लिया और प्रताप ने चावण्ड को राजधानी बना लिया। अमर सिंह भी उदयपुर आ गये। चारों तरफ पहाड़ और एक पहाड़ पर किला, दुश्मन का पहुंचना नामुमकिन। आज भी वहाँ जाकर हमारा मोबाइल खामोश हो गया, नेटवर्क नहीं। लेकिन लोग आ रहे थे, शो के लिये कुछ बैंचें लगी थीं, हमने सोचा कि शायद दर्शक कम ही आते होंगे लेकिन जैसे ही 7.00 बजे, हलचल शुरू हो गयी, पंक्तियों पर कार्पेट बिछने लगे और देखते ही देखते पूरा मैदान भर गया। हम जो पसरकर बैठे थे अब सिकुड़ने लगे थे। चारों तरफ उत्सुकता थी, सभी इतिहास में जाने को उत्सुक थे। चारों तरफ सन्नाटा था और तभी पहाड़ों को चीरती हुई आवाज गूंज उठी कि मैं कुम्भलगढ़ हूँ। कथा आगे बढ़ती गयी और किले पर रोशनी होती गयी। अन्त में पूरा किला जगमगा उठा, आज विद्युत का प्रकाश है कल मशाले जलती होगी, आज मोटर गाड़ी की पीं-पीं है कल घोड़ों की टापे गूंजती होगी। किले और पूरे क्षेत्र को घेरती हुई 34 किलोमीटर की लम्बी दीवार पर जब घोड़े चलते होंगे और दीवार पर बने मोखों में बन्दूक लगाये सैनिक तैनात रहते होंगे तब कैसा मंजर होगा, बस यही कल्पना करते रहे और शौ समाप्त हो गया।
बस किले के साथ एक दुखद प्रसंग भी जुड़ा हुआ है जो दिल में बने नासूर की तरह लगता है। हमारे इतिहास को कलंकित करता है। किले की जो हवाएं इठला रही थी वे अचानक से स्तब्ध हो जाती है, सन्नाटा छा जाता है, जिस महाराणा कुम्भा ने मुझे अस्तित्व दिया उसी कुम्भा को सत्ता के लालच में बेटे ने तलवार से काट दिया। बेटा कहता है कि कब तक धैर्य धरूं, मेरा यौवन बीत रहा है और आपका अन्त नहीं होता और मन्दिर में ही तलवार उठ जाती है। जिस कुम्भा ने संगीत दिया, नृत्य दिया, वीरता दी, उसी कुम्भा को पुत्र ने अन्त दिया। पुत्र भी नहीं रहा लेकिन दुनिया को इतना कुछ देने वाले का भी ऐसा अन्त भारत के लालच की सच्चाई को दिखाता है। सत्ता का लालच कभी समाप्त नहीं होता, हर मजबूत किला यही कहता है और कुम्भलगढ़ भी यही कह रहा था।
लेकिन फिर कहानी आगे बढ़ती है, इसी किले ने बालक उदयसिंह को शरण दी, यहीं पर प्रताप और उनके पुत्र अमर सिंह का जन्म हुआ, यहीं से हल्दीघाटी का युद्ध लड़ा गया, यहीं से दिवेर का युद्ध लड़ा गया। आखिर प्रताप ने विजय पायी और फिर कुम्भलगढ़ छूट गया। उदयसिंह ने उदयपुर बसा लिया और प्रताप ने चावण्ड को राजधानी बना लिया। अमर सिंह भी उदयपुर आ गये। चारों तरफ पहाड़ और एक पहाड़ पर किला, दुश्मन का पहुंचना नामुमकिन। आज भी वहाँ जाकर हमारा मोबाइल खामोश हो गया, नेटवर्क नहीं। लेकिन लोग आ रहे थे, शो के लिये कुछ बैंचें लगी थीं, हमने सोचा कि शायद दर्शक कम ही आते होंगे लेकिन जैसे ही 7.00 बजे, हलचल शुरू हो गयी, पंक्तियों पर कार्पेट बिछने लगे और देखते ही देखते पूरा मैदान भर गया। हम जो पसरकर बैठे थे अब सिकुड़ने लगे थे। चारों तरफ उत्सुकता थी, सभी इतिहास में जाने को उत्सुक थे। चारों तरफ सन्नाटा था और तभी पहाड़ों को चीरती हुई आवाज गूंज उठी कि मैं कुम्भलगढ़ हूँ। कथा आगे बढ़ती गयी और किले पर रोशनी होती गयी। अन्त में पूरा किला जगमगा उठा, आज विद्युत का प्रकाश है कल मशाले जलती होगी, आज मोटर गाड़ी की पीं-पीं है कल घोड़ों की टापे गूंजती होगी। किले और पूरे क्षेत्र को घेरती हुई 34 किलोमीटर की लम्बी दीवार पर जब घोड़े चलते होंगे और दीवार पर बने मोखों में बन्दूक लगाये सैनिक तैनात रहते होंगे तब कैसा मंजर होगा, बस यही कल्पना करते रहे और शौ समाप्त हो गया।
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