Wednesday, August 1, 2018

सौंठ-अजवाइन खाने का प्रबन्ध खुद करो


कभी कुछ प्रश्न ऐसे उठ खड़े होते हैं जिनसे मन छलनी-छलनी हो जाता है। कुछ दृश्य सजीव हो उठते हैं लेकिन समाधान कहीं नहीं मिलता। कल ऐसा ही एक प्रश्न मेरी सखी Rashmi Vyas ने कर दिया। प्रश्न ही प्रश्न चारों तरफ से निकल आए लेकिन समाधान तो कहीं नहीं था। मेरे पास भी नहीं, क्योंकि मैं खुद उस पीड़ा से गुजर रही हूँ। कहाँ से लाऊँ, ममता को बिसराने का समाधान! यह प्यार जैसा तो नहीं जिसकी महिमा शाश्वत होने की गायी जाती है लेकिन है क्षणभंगुर। यह तो ममता है, सृष्टि का शाश्वत सत्य। ममता भी कैसी! भारतीय माँ की ममता। कोई मुझसे पूछे कि भारतीय माँ और विदेशी माँ में क्या अन्तर होता है? माँ तो माँ होती है! मेरा उत्तर होगा नहीं, भारतीय माँ स्वयं से प्रेम नहीं करती जबकि विदेशी माँ स्वयं से प्रेम करती है और जो स्वयं से प्रेम करता है उसकी ममता स्व: प्रेम के नीचे दब जाती है। हम केवल अपनी संतान से प्रेम करते हैं, इस  प्रेम के आगे हम खुद कहीं नहीं टिकते। संतान कितना ही सता ले, दुख दे दे लेकिन माँ की ममता वैसी ही बनी रहती है। हमारी माँ की पीढ़ी में और कहीं-कहीं हमारी पीढ़ी में भी 50 वर्ष की आयु होने पर एक माँ को विश्राम मिल जाता था, उसके सामने भोजन की थाली ससम्मान परोसी जाती थी। लेकिन आज 60 क्या 70 साल होने पर भी माँ को विश्राम नहीं है, वह खुद के लिये भी काम कर रही है और संतान के लिये भी काम कर रही है। दोनो घुटने काम नहीं करते, कमर टूटी पड़ी है लेकिन संतान के लिये विदेश जाना जरूरी है! विदेश में नौकर नहीं तो जो काम कभी देश में नहीं किये वे भी इस आयु में करने पड़ते हैं। माँ ने ममता लुटा दी लेकिन संतान सम्मान भी नहीं दे पाए! यदि सम्मान याने खुद के बराबर मान होता तो स्वतंत्र ही क्यों होती संतान!
विदेशी माँ ने ममता को कैसे पैरों के तले रौंद दिया? यह उसने अकेले नहीं किया अपितु उसके समाज ने ऐसा कराया। विदेश में समाज का कानून है कि खुद से प्रेम करो, तुम्हें अकेले ही जीवन में खुश रहना है। विवाह करना है तो करो नहीं तो अकेले रहो, कोई टोका-टोकी नहीं। 16 साल के बाद माता-पिता के साथ रहना जरूरी नहीं, अपितु स्वतंत्र रहने को बाध्य करता है समाज। संतान से कहा जाता है कि तुम कब बड़े होंगे, तुम कब तक माँ का पल्लू पकड़कर रहोगे? छोड़ो घर और अकेले रहना सीखो। माँ से कहा जाता है कि क्या तुम्हारी कोई जिन्दगी नहीं जो अभी तक संतान को पाल रही हो, उसे मुक्त करो। संतान पैदा होने पर, उसे प्रथम दिन से ही अलग सोना सिखाया जाता है, ममता पनपनी नहीं चाहिये। विवाहित संतान माँ के साथ नहीं रहती। इतने सारे जतन करने पर ममता बेचारी कैसे मन में डेरा डाले रहेगी! जब एक लड़की को पैदा होने के साथ ही तैयार किया जाता है कि इसे पराये घर जाना है तो लड़की और माँ दोनों तैयार हो जाती है ऐसे ही विदेश में माँ को तैयार किया जाता है। लेकिन भारत में उल्टा है, ममता जरूरी है। विवाह होने पर भी संतान माँ के साथ ही रहेगी यदि नहीं रहती है तो ताने सुनने पड़ते हैं।
अब यह समस्या भारत में आयी कैसे? जब दो विपरीत संस्कृति का साथ हुआ तो यह समस्या पैदा हुई। संतान विदेश में रहना पसन्द करे तो वहाँ की संस्कृति को मानना ही होगा। वे खुद से प्रेम करने लगे और माँ का प्रेम पीछे धकेल दिया गया। विदेश में माँ गौण है और पत्नी प्रमुख है तो पत्नी के प्रति पूर्ण समर्पण कानूनन जरूरी हो गया। आज अमेरिका में भारतीय जीवन पद्धति के प्रति जिज्ञासा उमड़ रही है और भारतीयों के अतिरिक्त सभी मानने लगे हैं कि प्रसव के समय अजवायन-सौंठ आदि अवश्य खाने चाहियें। अब पुत्रवधु के प्रसव होने वाला है तो उसे सौंठ-अजवायन कौन खिलाएगा? एक माँ ही खिलाएंगी ना! अब उसकी उम्र क्या है, उसके शरीर का क्या हाल है, यह देखा नहीं जाता क्योंकि पत्नी को खुश रखना उनकी कानूनन मजबूरी है। उन्हें यह भी पता है कि हमारी माँ ममता की मारी है इसलिये भावानात्मक शोषण करते हुए उनका उपयोग ले लिया जाएगा। ममता की मारी भारतीय माँ जब विदेश की धरती पर खड़ी होती है तब उसके हाथ से तोते उड़ जाते हैं। भारत में तो एक  प्रसव के समय तीन महिलाएं रहती हैं और नौकर-चाकर तो जितने मन में आए रख लो। वहाँ बेचारी अकेली! तब ममता को धता बताकर पीड़ा मुखर होने लगती है और प्रश्न बनकर फूट पड़ती है। लेकिन समाधान तो उसके पास नहीं है! समाधान बस यही है कि हमें भी विदेशी जीवन-शैली अपनानी होगी, ममता को पहले दिन से ही दूर रखना होगा। संतान को बता देना होगा कि तुम्हारे जीवन में हमारा हस्तक्षेप नहीं होगा तो हमारे जीवन में भी तुम्हारा हस्तक्षेप नहीं होगा। तुम्हें प्रसव के समय सौंठ-अजवायन खानी है तो उसका स्वयं से प्रबन्ध करो, यह एक माँ का कर्तव्य नहीं। हमारी पीढ़ी को तो निजात नहीं मिल सकती है लेकिन आने वाली पीढ़ी दर पीढ़ी अवश्य ही इस समस्या से निजात पा लेगी।

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