पहली बार अमेरिका 2007 में जाना हुआ
था। केलिफोर्निया में रेड-वुड नामक पेड़ का घना जंगल है। हम मीलों-मील चलते रहे
लेकिन जंगल का ओर-छोर नहीं मिला। इस जंगल में सैकड़ों साल पुराने रेड-वुड के पेड़
थे, इतना घना जंगल देखकर आनन्द आ रहा था। लेकिन एक बात मुझे हैरान कर रही थी और वो
थी कि जंगल में कितने ही पेड़ गिरे पड़े थे लेकिन जो जहाँ गिर गया था, वहीं था,
उन्हें वहाँ से हटाया नहीं गया था। पता लगा कि ये अपने जंगलों की लकड़ी काम नहीं
लेते, दुनिया की लकड़ी का उपयोग करते हैं और अपनी बचाकर रखते हैं। जब दुनिया में
कमी होगी तब खुद की काम लेंगे। बिल्कुल ऐसे ही जैसे बच्चे करते हैं, पहले माँ की
चीज खाने के फेर में रहते हैं और जब वह समाप्त हो जाए तो अपनी निकालते हैं।
आज केलिफोर्निया के जंगलों में आग लगी
है, हर साल ही लगती है लेकिन इस बार विकराल रूप है। अत्यधिक संचय स्वत: ही विनाश
का कारण बनता है। प्रकृति हमेशा उथल-पुथल करती है, मेरा संचय स्थायी नहीं है।
लबालब भरा कटोरा कभी भी छलक पड़ता है। सुन रहे हैं कि स्विटजरलेण्ड में हजारों
किलो सोना गटर में बह रहा है। हमारे देश में अथाह सम्पत्ति खजाने के रूप में कहीं
गड़ी है। या जिसके पास भी है वह स्वत: ही
नष्ट हो जाती है। जंगल प्रकृति का धन है लेकिन इसे भी संचित रखने पर नष्ट हो ही
जाता है। प्रकृति सम्यक रूप में ही रहती है, ना ज्यादा और ना ही कम। वह अपने आप
संतुलन बनाकर चलती है। इसलिये किसी कंजूस की तरह वस्तुओं का उपभोग करने पर वह बिना
उपभोग के भी नष्ट हो ही जाती हैं तो संतुलन बनाते हुए उनका उपभोग अवश्य कर लेना
चाहिये। पहले दुनिया की खत्म कर लूँ फिर मेरी का नम्बर लूंगा, यह प्रवृत्ति सफल
नहीं है। संग्रह किसी भी चीज का उचित नहीं है।
अपनी बचाकर रख लूं और दूसरे की रीत
दूँ, बस यही सोच घातक है। आज एशिया के जंगल तेजी से कट रहे हैं और अमेरिका के
पड़े-पड़े जल रहे हैं। कितने लोग बेघर-बार हो रहे हैं और कितने ही मर रहे हैं,
मेरा सोचना है कि यदि वहाँ के जंगलों में संतुलन बनाया जाए तो ऐसी आपदाएं कम
होंगी। दुनिया के जंगल भी बचेंगे और
अमेरिका के जंगल भी आग की लपटों से शायद बच जाएं। अमेरिका की संचय की प्रवृत्ति
घातक भी हो सकती है, इस पर विचार जरूर
करना चाहिये। वे सारी दुनिया के बुद्धिजीवियों को एकत्र करने में लगा है, शेष
दुनिया में कमी और उनके यहाँ भरमार! कहीं ऐसा ना हो कि ये बुद्धिजीवि चाय के
प्याले में तूफान ला दे। खैर, वे संचय करें, उनकी सोच लेकिन हमारे देश की सोच तो
संचय के उलट अपरिग्रह है। हमारे देश में भी जो संचय करता है, वह कहीं ना कहीं लपेटे
में आ ही जाता है और उसका खजाना कहीं ना कहीं डूब ही जाता है। लेकिन मुझे चिन्ता
है केलिफोर्निया की, वहाँ के घने जंगलों की, वे इस तरह नष्ट नहीं होने चाहियें। 15
दिन बाद मुझे भी जाना है, तब तक यह आपदा समाप्त हो चुकी होगी। प्रकृति संतुलन
बनाने में कामयाब रहेगी ही।
2 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (15-10-2017) को
"मिट्टी के ही दिये जलाना" (चर्चा अंक 2758)
पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार शास्त्रीजी।
Post a Comment