आज अपनी बात कहती हूँ – जब मैं नौकरी कर रही थी
तब नौकरी का समय ऐसा था कि खाना बनाने के लिये नौकर की आवश्यकता रहती ही थी।
परिवार भी उन दिनों भरा-पूरा था, सास-ससुर, देवर-ननद सभी थे। अब यदि घर की बहु की
नौकरी ऐसी हो कि वह भोजन के समय घर पर ही ना रहे तब या तो घर के अन्य सदस्यों को भोजन
बनाना पड़े या फिर नौकर ही विकल्प था। सास बहुत सीधी थी तो वह नौकरानी के साथ बड़ा
अच्छा समय व्यतीत कर लेती थीं। कोई कठिनाई नहीं थी। लेकिन हमारी नौकरानी ऐसी नहीं
थी कि हम सब उस पर ही निर्भर हों। घर में
सारा काम सभी करते थे। इसलिये कोई यह नहीं कह सकता था कि यहाँ तो नौकरानी के हाथ
का भोजन खाना पड़ता है। विशिष्ट व्यंजन तो अक्सर मैं ही बनाती थी। नौकरानी होने से
बस मुझे सहूलियत हो गयी थी कि मेरी जगह वह काम को निपटा लेती थी और मैं निश्चिंत
हो जाती थी। उन दिनों रसोई तो सारा दिन ही
चलती थी, किसी को 10 बजे भोजन चाहिये किसी को 12 बजे और हमें 2 बजे। लेकिन कुल
मिलाकर सब ठीक ही चल रहा था।
लेकिन एक दिन अचानक ही हमारे एक आदरणीय सामाजिक
कार्यकर्ता ने मुझे कहा कि मैंने एक प्रतिज्ञा की है, कि मैं घर की गृहिणी के हाथ
का बना भोजन ही ग्रहण करूंगा, नौकरानी के हाथ का नहीं। मुझे इस बात से कोई कठिनाई
नहीं थी, क्योंकि हमारे यहाँ तो सब मिलजुल कर ही भोजन बनाते थे और जब किसी अतिथि
को आना होता था तब तो मैं ही बनाती थी लेकिन मुझे इस बात ने सोचने के लिये बाध्य
कर दिया। हम नौकरीपेशा महिला से यह उम्मीद रखते हैं कि वह नौकरी भी करे और सारे घर
की सेवा भी करे, क्योंकि वह महिला है। इतना ही नहीं एक प्रबुद्ध महिला से यह
उम्मीद भी की जाए कि वह सामाजिक कार्य में भी योगदान करे। मैंने इस मानसिकता के
बारे में कई वर्षों तक चिन्तन किया। मैंने कभी
भी किसी भी सामाजिक या धार्मिक कार्यकर्ता को यह प्रतिज्ञा करते नहीं देखा
कि वह कहे कि मैं ऐसे पुरुष से अर्थ या धन नहीं लूंगा जो उसकी खरी कमाई का ना हो। लेकिन
हम महिलाओं को लिये दायरे बनाने में सजग रहते
हैं।
कहीं न कहीं पुरुष के मन में कुण्ठा का भाव
रहता है, वह महिला को सेवा करते देख ही तृप्त होता है। यह तृप्ति यौन-तृप्ति से भी
अधिक मायने रखती है। महिला पुरुष की सेवा करती रहे, उसमें हमेशा सेवा भाव बना रहे
इसके लिये अनेक perception
याने धारणा बना ली गयी हैं। तरह-तरह के मुहावरे
घड़ लिये गये हैं। महिला जितनी शिक्षित या प्रबुद्ध होगी उसके प्रति सेवा कराने का
भाव उतना ही अधिक जागृत होगा। मानो उसे यह बताने का प्रयास किया जाता है कि तुम
महिला हो और तुम्हारा प्रथम कर्तव्य है हम पुरुषों की सेवा करना। अभी दो दिन पहले
जब न्यायालय के सामने #kapilsibbal
ने यह कहा कि महिलाएं निर्णय लेने में अक्षम
रहती हैं इसलिये उन्हें अधिकार नहीं दिये जा सकते। तब मुझे लगा कि यदि मैं वकील
होती तो यह कहती कि तीन तलाक के निर्णय हमेशा क्रोध में लिये जाते हैं जिसे हम
जल्दबाजी का निर्णय कहते हैं और पुरुष हमेशा अपने अहम् की संतुष्टि नहीं होने पर महिला को अपमानित करते हैं और तलाक तक की
नौबत आ जाती है इसलिये पुरुष जो केवल अपनी सत्ता बनाये रखने के लिये महिला को अपनी
सेवा के लिये मजबूर करता है उसे तो किसी
भी पारिवारिक निर्णय लेने का अधिकार होना
ही नहीं चाहिये। महिलाओं को न्याय दिलाने के लिये जब तक पुरुष न्यायाधीश और पुरुष
वकील होंगे, न्याय की उम्मीद क्षीण ही
रहेगी। लेकिन समानता के लिए न्याय का एक कदम भी उठता है तो हम उसका स्वागत करेंगे,
क्योंकि जिस असमानता के कारण महिला हजारों वर्षों से अपमानित हो रही है, जिस
दुनिया को पुरुषों ने कब्जा कर रखा है, ऐसी परिस्थिति को सामान्य होने में समय लगेगा। मुस्लिम महिला को न्याय तो
मिलकर रहेगा, बस कतरों-कतरों में मिलने की सम्भावनाएं अधिक है।
5 comments:
शताब्दियों से यही चला आ रहा है,यही उपदेश दिये जा रहे हैं -सेवा करना स्त्री-धर्म (सेवा पाना पुरुष-धर्म).
आभार प्रतिभाजी।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (21-05-2017) को
"मुद्दा तीन तलाक का, बना नाक का बाल" (चर्चा अंक-2634)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
आभाप शास्त्रीजी।
अजित गुप्ता जी ---मुझे लगता है की आपका यह आलेख भी क्रोध में लिया गया निर्णय है | हमारे समाज, धर्म में तो सारे निर्णय स्त्री-पुरुष मिलकर लेते हैं, लेते रहे हैं | स्त्री मूलतः समस्त परिवार की स्वामिनी की भांति
मानी जाती है, आज भी | तो घर -समाज के आधे भाग, पुरुष को निर्णय लेने से रोकने पर क्या आधी आबादी के साथ अन्याय नहीं होगा | भारत में अभी भी ऐसे कबीले हैं जहाँ पारिवारिक निर्णय घर की स्त्रियाँ लेती हैं |वस्तुतः तो भारत में प्राचीन काल में स्त्री-वर्चस्व समाज था, समाज विक्सित होने पर बड़े बड़े पारिवारिक निर्णय हेतु , उस तंत्र खामियां मिलने पर परिवार के शीर्ष-पुरुष के हाथ में अधिकार आये और पुरुष वर्चस्व समाज बना |
किसी महानुभाव कार्यकर्ता का नौकरानी के हाथ का खाना खाने को मना करना उचित ही है, निश्चय ही नौकरों द्वारा मन से खाना नहीं बनाया जाता, आज प्रत्येक घर में यह प्रॉब्लम है, हर युगल कभी आधा खाना खाता है कभी बेमन से कभी बाज़ार में यह खाना खाने की बजाय निपटाना है |
आपके अनुसार दुनिया को पुरुषों ने कब्जा कर रखा है, तो यह अवश्य पुरुष की श्रेष्ठता व योग्यता ही होगी अन्यथा महिलायें भी दुनिया पर कब्ज़ा कर सकती हैं अपनी श्रेष्ठता व योग्यता से, उन्हें क्यों पुरुषों की या शासन की मेहरबानी चाहिए |
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