Sunday, January 22, 2017

ना नौलखा हार और ना ही बगीचा!

ना नौलखा हार और ना ही बगीचा!

नौलखा हार की कहानी तो सभी को पता है, कैसे एक माँ ने नकली हार के सहारे अपना बुढ़ापा काटा और उसकी  संतान इसी आशा में सेवा करती रही कि माँ के पास नौलखा हार है। यह कहानी संतान की मानसिकता को दर्शाती है लेकिन एक और कहानी है जो समाज की मानसिकता को बताती है। सुनो – एक गरीब किसान था, उसके पास एक बगीचा था। किसान  के कोई संतान नहीं थी और वह बीमार रहने लगा था। किसान के बगीचे पर जमींदार की नजर थी। एक दिन जमींदार ने किसान से कहा कि तुम अपना बगीचा मेरे नाम कर दो, मैं तुम्हें इसके बदले में आजीवन एकमुश्त पैसे दूंगा। तुम जब तक जीवित हो, तुम्हारा खर्चा मैं उठाऊंगा और मरने के बाद यह बगीचा मेरा हो जाएगा। किसान ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। जब किसान को जमींदार से मासिक पैसे की बात पता लगी तो उसके दूर के रिश्तेदार का बेटा-बहु उसकी सेवा के लिये आ गये। जमींदार तो पल-पल किसान के मरने की बाँट जोहे और बेटा-बहु उसकी खूब सेवा करे। जमींदार हर महिने पैसा देने के बहाने देखने आए कि किसान के कितने दिन बाकी हैं? महिने दर महिने गुजर गये, साल गुजरने लगे, किसान स्वस्थ होने लगा और एक दिन धोती-कुर्ता पहनकर, ऊपर से शॉल डालकर, छड़ी घुमाता हुआ जमींदार के पास पहुंच गया।
हमारे समाज में पुत्र-मोह क्यों है, यह बात लोग अलग-अलग दृष्टिकोण से बताते हैं, मुझे भी सच्चा ज्ञान अभी ही प्राप्त हुआ है। तो सोचा कि आप को भी बताती चलूं कि पुत्र क्यों जरूरी  है? पुत्र हमारे जीवन में नौलखा हार के समान है या किसान के बगीचे के समान। हमारे पास नौलखा हार है फिर वह नकली ही क्यों ना हो लेकिन बैंक में रखा हुआ या संदूक में रखा हुआ संतानों को भ्रमित करता है कि माता-पिता के पास धन है और इसी कारण वे उनकी सेवा करते हैं। रिश्तेदार भी बगीचे के कारण रिश्तेदार की सेवा करते हैं। हमेशा से ही यह चलन  रहा है कि बेटा ना हो तो गोद ले लो लेकिन बेटा होना जरूर चाहिये। मैं इस ज्ञान को समझ नहीं पाती थी और ना  ही किसी ने सत्य के दर्शन कराये थे लेकिन सत्य तो होता ही प्रगट होने के लिये है तो मेरे सम्मुख भी प्रगट हो गया। सत्य ने कहा कि बेटा वंश बढ़ाने से अधिक आपकी सेवा में सहयोग कराता है। किसान को जैसे ही जमींदार से पैसे मिलने लगे रिश्तेदार आ गये, ऐसे ही बेटा है तो लोग कहते हैं कि सेवा करने वाला है। गोद लिया है तो भी बेटा है, गाली देता है तो भी बेटा है, क्योंकि रिश्तेदारों को पता है कि यह हुण्डी है। जब हमारे काम पड़ेगा तो भी खड़ा होगा और खुद के लिये भी खड़ा रहेगा ही। लेकिन बेटा है ही नहीं, असली या नौलखा हार जैसा नकली या गोद लिया हुआ तो रिश्तेदार कहते हैं कि हम क्यों सेवा करें इन बूढ़ों की।

सबसे खराब स्थिति तो अब पैदा हुई है, हमने असली नौलखा हार बनाया, उसमें हीरे जड़ा दिये और उसे करोड़ों का बना दिया। करोड़ों का बनते  ही वह हीरा रानी विक्टेरिया के मुकुट का श्रृंगार बन गया या अमेरिका की शोभा बढ़ाने लगा। रिश्तेदारों के पुत्र ताने खाने लगे कि देखो उसे और तुम? लेकिन बारी अब उनकी थी, वह विदेशी बने इस हीरे के माता-पिता की तरफ झांकने से भी कटने लगे। जब उनका बेटा हमारे काम का नहीं तो हम क्यों सेवा-टहल करें? जो कान हरदम आवाजें सुनते थे अब वहाँ सन्नाटा पसर गया। ना कोई आवाज आती है कि चाची कैसी हो, ना ताई कैसी हो, मामी-बुआ सारे ही सम्बोधन दुर्लभ हो गये। होली-दीवाली भी दुआ-सलाम नहीं होती। आस-पड़ोस वाले ही हैं जो तरस खाते हैं और अपने बेटे से कहते हैं कि बेचारे अकेले हैं, वार-त्योंहार कभी जा आया कर। पुत्र क्या होता है, आज हमारी समझ में आने लगा  है. यह ऐसा बगीचा है जिसके लालच में कोई भी जमींदार आपको मासिक धन दे देता है और कोई भी दूर का रिश्तेदार आपकी सेवा-टहल कर देता  है। पुत्र हो और वह भी कीमती लेकिन आपके रिश्तेदारों के किसी काम का नहीं तो वह बगीचे में खड़े बिजूका जैसा भी आश्वस्त नहीं करता, उल्टा आपके लिये मखौल का वातावरण बनाने में सहायक हो जाता है। हर घर में सन्नाटा पसरा है, माता-पिता ने अपने लाल को करोड़ों का  बना दिया है और वह विदेश में बैठकर माता-पिता के सारे रिश्तों को दूर करने में तुले हैं। उन्हें इतना असहाय बना दिया है कि हार कर बेचारे माता-पिता बिना पतवार की नाव के समान नदी में गोते खाने को मजबूर हो गये हैं। ना नौलखा हार अपने पास रहा और ना ही बगीचा! 

2 comments:

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर said...

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’दलबदल ज़िन्दाबाद - ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

अजित गुप्ता का कोना said...

आभार।