Saturday, January 28, 2017

वे जड़े ढूंढ रहे हैं

गणतंत्र दिवस अपनी उपादेयता बताकर चले गया, मेरे अंदर कई पात्र खलबली मचाने लगे हैं। देश के गण का तन्त्र और देश के मन की जड़े दोनों को खोद-खोदकर ढूंढने का ढोंग कर रही हूँ। जी हाँ हम ढोंग ही करते हैं। देश के प्रतीक के रूप में अपने ध्वज के समक्ष जब सल्यूट करने को  हाथ उठते हैं तब उसके तंत्र की ओर ध्यान  ही नहीं जाता। ना तो उस तंत्र को अंगीकार कर पाते हैं और ना ही अपने मन की जड़े कहाँ है, उन्हें ही देख पाते हैं। गाँव में कल गणतंत्र दिवस मनाते हुये एक व्यक्तित्व से परिचय हुआ, अमेरिका में रहकर भारत में अपनी जड़े ढूंढ रहे थे। मन में  भारत बसा था लेकिन खुद अमेरिका में बस गये थे, अब वे भारत को भी सम्पन्न बनाना चाह रहे हैं जिससे अपनी जड़ों को वापस लहलहा सके। वे जब से गये हैं भारत को भूल नहीं पाते और बार-बार यहाँ आकर जमीन खोदकर देखते रहते हैं कि मेरी जड़े सुरक्षित तो हैं ना। जिस देश की जड़ों में भौतिकता के अंश ही ना हो, जहाँ के गाँव आज भी प्रकृति के साथ ही जीना चाहते हों, भला वहाँ कैसे देश के तंत्र को विकसित किया जाये?
घर आकर बेटे और पोते से बात होती है, गणतंत्र की बधाई स्वीकार करती हूँ लेकिन साथ ही ढूंढ नहीं पाती अमेरिका के गणतंत्र दिवस को। तो स्वतंत्रता दिवस का ही स्मरण करा देती हूँ। बेटा कहता है कि हम लाख यहाँ के हो जाये लेकिन हमारा गणतंत्र तो भारत में ही है। सुनकर अच्छा भी लगा लेकिन तभी अमेरिका से आये सज्जन याद आ गये। तो क्या अपने देश की जड़े सभी तलाश रहे हैं? लेकिन क्यों तलाश रहे हैं? हम तो भूल बैठे हैं अपनी जड़ों को! हमारी जड़ों में कौन सा खाद पानी है, यह हमें पता ही नहीं। हमारी जड़े कितनी गहरी हैं, वे कहाँ-कहाँ तक अपनी पैठ बनाये हुए  हैं, उनका विस्तार कहाँ तक था, हम कुछ ढूंढ ही नहीं पा रहे हैं, बस हमारे तनों में सुन्दर फूल लगे और मीठे फल आयें बस यही प्रयत्न करते रहते हैं।

बचपन में पढ़ी एक कहानी याद आने लगी है – भारत के बँटवारे के बाद शरणार्थी बनकर  रह रहे एक व्यक्ति की कहानी – वतन। हर साल पागल का वेश धरकर जा पहुँचना अपनी जड़ों को ढूंढने। उसकी कठिनाई यह थी कि वह जबरन धकियाये गये थे और अभी की कठिनाई यह है कि सहूलते देखकर मन से गये हैं। लेकिन जड़ों की तलाश दोनों में ही है। इसलिये मुझे बैचेनी सी लगती है गणतंत्र की सामाओं से। नियमों से बंधकर हमारा जीवन हो यह तो अच्छा लगता है लेकिन देश की सीमाएं भी बाड़ बंदी में बंध जाये तो बस जड़ों की ही तलाश बनी रहती है। कुछ लोग तलवार लेकर निकले और उन्होंने रेखाये खींचना शुरू किया, यह तेरा और यह मेरा। बाड़बंदी बढ़ती गयी और सभी देश चाक-चौबन्द हो गये। इसलिये ही कहती हूँ कि तंत्र से लिपटकर हम अपनी जड़ों को ढूंढने का ढोंग करते हैं। जड़े  तो अपने मन से विस्तार लेती हैं, जहाँ खाद-पानी मिलता है, वहीं पहुँच जाती है। लेकिन जब पहरे लगा दिये जाएं कि अपनी जड़ों को वहीं छोड़ दो तब तलाश ऐसे ही जारी रहती  है। लोग जाते रहेंगे और यहाँ आकर जड़ों को ढूंढते रहेंगे और हमें  बताते रहेंगे कि हम तनों पर फूल खिलाने आयें हैं। सच तो यह है कि वे जड़े ढूंढ रहे  हैं और हम उनकी आँखों में इस देश को देख रहे हैं। लेकिन हम किसे ढूंढ रहे हैं? यह प्रश्न किसी के मन में आता ही नहीं! वे अपनी जड़ों से अलग हुए, विचलित हो रहे हैं। हम अपनी जड़ों से जुड़े रहकर भी जड़ों के बारे में जानना ही नहीं चाहते!

Sunday, January 22, 2017

ना नौलखा हार और ना ही बगीचा!

ना नौलखा हार और ना ही बगीचा!

नौलखा हार की कहानी तो सभी को पता है, कैसे एक माँ ने नकली हार के सहारे अपना बुढ़ापा काटा और उसकी  संतान इसी आशा में सेवा करती रही कि माँ के पास नौलखा हार है। यह कहानी संतान की मानसिकता को दर्शाती है लेकिन एक और कहानी है जो समाज की मानसिकता को बताती है। सुनो – एक गरीब किसान था, उसके पास एक बगीचा था। किसान  के कोई संतान नहीं थी और वह बीमार रहने लगा था। किसान के बगीचे पर जमींदार की नजर थी। एक दिन जमींदार ने किसान से कहा कि तुम अपना बगीचा मेरे नाम कर दो, मैं तुम्हें इसके बदले में आजीवन एकमुश्त पैसे दूंगा। तुम जब तक जीवित हो, तुम्हारा खर्चा मैं उठाऊंगा और मरने के बाद यह बगीचा मेरा हो जाएगा। किसान ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। जब किसान को जमींदार से मासिक पैसे की बात पता लगी तो उसके दूर के रिश्तेदार का बेटा-बहु उसकी सेवा के लिये आ गये। जमींदार तो पल-पल किसान के मरने की बाँट जोहे और बेटा-बहु उसकी खूब सेवा करे। जमींदार हर महिने पैसा देने के बहाने देखने आए कि किसान के कितने दिन बाकी हैं? महिने दर महिने गुजर गये, साल गुजरने लगे, किसान स्वस्थ होने लगा और एक दिन धोती-कुर्ता पहनकर, ऊपर से शॉल डालकर, छड़ी घुमाता हुआ जमींदार के पास पहुंच गया।
हमारे समाज में पुत्र-मोह क्यों है, यह बात लोग अलग-अलग दृष्टिकोण से बताते हैं, मुझे भी सच्चा ज्ञान अभी ही प्राप्त हुआ है। तो सोचा कि आप को भी बताती चलूं कि पुत्र क्यों जरूरी  है? पुत्र हमारे जीवन में नौलखा हार के समान है या किसान के बगीचे के समान। हमारे पास नौलखा हार है फिर वह नकली ही क्यों ना हो लेकिन बैंक में रखा हुआ या संदूक में रखा हुआ संतानों को भ्रमित करता है कि माता-पिता के पास धन है और इसी कारण वे उनकी सेवा करते हैं। रिश्तेदार भी बगीचे के कारण रिश्तेदार की सेवा करते हैं। हमेशा से ही यह चलन  रहा है कि बेटा ना हो तो गोद ले लो लेकिन बेटा होना जरूर चाहिये। मैं इस ज्ञान को समझ नहीं पाती थी और ना  ही किसी ने सत्य के दर्शन कराये थे लेकिन सत्य तो होता ही प्रगट होने के लिये है तो मेरे सम्मुख भी प्रगट हो गया। सत्य ने कहा कि बेटा वंश बढ़ाने से अधिक आपकी सेवा में सहयोग कराता है। किसान को जैसे ही जमींदार से पैसे मिलने लगे रिश्तेदार आ गये, ऐसे ही बेटा है तो लोग कहते हैं कि सेवा करने वाला है। गोद लिया है तो भी बेटा है, गाली देता है तो भी बेटा है, क्योंकि रिश्तेदारों को पता है कि यह हुण्डी है। जब हमारे काम पड़ेगा तो भी खड़ा होगा और खुद के लिये भी खड़ा रहेगा ही। लेकिन बेटा है ही नहीं, असली या नौलखा हार जैसा नकली या गोद लिया हुआ तो रिश्तेदार कहते हैं कि हम क्यों सेवा करें इन बूढ़ों की।

सबसे खराब स्थिति तो अब पैदा हुई है, हमने असली नौलखा हार बनाया, उसमें हीरे जड़ा दिये और उसे करोड़ों का बना दिया। करोड़ों का बनते  ही वह हीरा रानी विक्टेरिया के मुकुट का श्रृंगार बन गया या अमेरिका की शोभा बढ़ाने लगा। रिश्तेदारों के पुत्र ताने खाने लगे कि देखो उसे और तुम? लेकिन बारी अब उनकी थी, वह विदेशी बने इस हीरे के माता-पिता की तरफ झांकने से भी कटने लगे। जब उनका बेटा हमारे काम का नहीं तो हम क्यों सेवा-टहल करें? जो कान हरदम आवाजें सुनते थे अब वहाँ सन्नाटा पसर गया। ना कोई आवाज आती है कि चाची कैसी हो, ना ताई कैसी हो, मामी-बुआ सारे ही सम्बोधन दुर्लभ हो गये। होली-दीवाली भी दुआ-सलाम नहीं होती। आस-पड़ोस वाले ही हैं जो तरस खाते हैं और अपने बेटे से कहते हैं कि बेचारे अकेले हैं, वार-त्योंहार कभी जा आया कर। पुत्र क्या होता है, आज हमारी समझ में आने लगा  है. यह ऐसा बगीचा है जिसके लालच में कोई भी जमींदार आपको मासिक धन दे देता है और कोई भी दूर का रिश्तेदार आपकी सेवा-टहल कर देता  है। पुत्र हो और वह भी कीमती लेकिन आपके रिश्तेदारों के किसी काम का नहीं तो वह बगीचे में खड़े बिजूका जैसा भी आश्वस्त नहीं करता, उल्टा आपके लिये मखौल का वातावरण बनाने में सहायक हो जाता है। हर घर में सन्नाटा पसरा है, माता-पिता ने अपने लाल को करोड़ों का  बना दिया है और वह विदेश में बैठकर माता-पिता के सारे रिश्तों को दूर करने में तुले हैं। उन्हें इतना असहाय बना दिया है कि हार कर बेचारे माता-पिता बिना पतवार की नाव के समान नदी में गोते खाने को मजबूर हो गये हैं। ना नौलखा हार अपने पास रहा और ना ही बगीचा! 

Friday, January 20, 2017

तेरे बिना मेरा नहीं सरता रे


हमेशा कहानी से अपनी बात कहना सुगम रहता है। एक धनवान व्यक्ति था, वह अपने रिश्तेदारों और जरूरतमंदों की हमेशा मदद करता था। लेकिन वह अनुभव करता था कि कोई भी उसका अहसान नहीं मानता है, इस बात से वह दुखी रहता था। एक बार उसके नगर में एक संन्यासी आए, उसने अपनी समस्या संन्यासी को बतायी। संन्यासी ने पूछा – क्या तुमने भी कभी उनकी मदद ली है? व्यक्ति ने कहा कि नहीं मैंने कभी मदद नहीं ली। तब संन्यासी ने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति दूसरे के लिये उपयोगी बनना चाहता है, किसी के लिये उपयोगी बनने पर ही उसे गौरव की अनुभूति होती है। एकतरफा सहयोग, एक व्यक्ति को बड़ा और दूसरे को छोटा सिद्ध करता है, इसलिये तुम्हारी सहायता पाकर भी कोई खुश नहीं होता। तुम जब तक दूसरों को उपयोगी नहीं मानोंगे तब तक कोई भी तुम्हारी इज्जत नहीं करेगा।

मन की भी यही दशा है, मन चाहता है कि दूसरों पर अपना नियंत्रण बनाकर रखूं। अपनी सत्ता और सम्मान सभी के मन में स्थापित कर दूं। लेकिन जब हम अपने मन को दूसरे के नियंत्रण में जाने देते हैं तब हमें सुख मिलता है। हमारी सत्ता हमारा मन  भी नहीं मानता तो हम दूसरों पर अपनी सत्ता कैसे स्थापित कर सकते हैं! हम यदि स्वयं को ही कर्ता मानते रहेंगे तो कभी सुखी नहीं हो सकते। माता-पिता कहते हैं कि हमारे अस्तित्व को मानो, संतान कहती है कि हमारा भी अस्तित्व है। अन्य रिश्तों में भी यही है। जब तक हम एक-दूसरे की जरूरत नहीं बनते तब तक खुशी हमारे पास नहीं आती। स्वयं को स्वयंभू बनाने के चक्कर में हम भाग रहे हैं, एक-दूसरे से भाग  रहे हैं। किसी के अधीन रहना हमें पसन्द नहीं, इसलिये हम अपनी सत्ता के लिये भाग रहे  हैं। जिस दिन हम दूसरों को अपनी जरूरत समझेंगे उस दिन शायद हम एक-दूसरे के साथ के लिये भागेंगे। दूसरों की जरूरतों को पूरा करने का हम दम्भ रखते हैं लेकिन अपने मन की जरूरतों को ही पूरा नहीं कर पाते, मन तो हमारा दूसरों के लिये तड़पता है लेकिन हम ही दाता है, यह भावना हमें सुखी नहीं रहने देती। मेरे लिये मेरे नजदीकी बहुत उपयोगी हैं, बस यही भावना  हमें पूरक बनाती है। जिस दिन हम किसी पराये को भी यह कह देते हैं कि – तेरे बिना मेरा नहीं सरता रे, तो वह पराया भी अपनों से अधिक हो जाता है। फिर अपनों से ऐसा बोलने में हमारी जुबान अटक क्यों जाती है!