कहां गयी वो गरमा-गरम बहसें?
कभी नारीवाद के नाम पर, कभी राष्ट्रवाद के नाम पर, कभी सत्ता की नजदीकियों के कारण, कभी अन्ना हजारे और रामदेव आन्दोलन के कारण ऐसे ही न जाने कितनी बहसें हम ब्लाग पर करते आए थे। लेकिन आज सभी खामोश हैं। क्या बहस चुक गयी या फिर उसे निरर्थक मान लिया गया?
कभी नारीवाद के नाम पर, कभी राष्ट्रवाद के नाम पर, कभी सत्ता की नजदीकियों के कारण, कभी अन्ना हजारे और रामदेव आन्दोलन के कारण ऐसे ही न जाने कितनी बहसें हम ब्लाग पर करते आए थे। लेकिन आज सभी खामोश हैं। क्या बहस चुक गयी या फिर उसे निरर्थक मान लिया गया?
2 comments:
गरमा गरम बहसें ,कहीं खो गई है ।आजकल तो घर हो या बाहर बहुत सोच समझ कर बोलना पड़ता है ,बहुत फौरमल हो गई है बातें ,सामने वाले को क्या
पंसद आयेगा वही बोलना पड़ता है ,नहीं तौ संमबंध ख़राब होने का डर ,बिल्कुल अपनों से भी पहले सोच कर हिम्मत करके कुछ बोला जाता है ,वो ज़माने गये बिन्दास जो मनमे आया बोला कोइ चिंता नहीं ,शाम को फिर साथ बैठे है एक दूसरे के बिना चैन नहीं ।थोड़ा बोलते ही उपदेश लगता है
आजकल ।सबसे मज़ेदार बात सब बहस और बतियाने के लिय तरस रहे है ।
एकदम सत्य बात है।
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