Tuesday, September 10, 2013

कुछ गर्द उड़ी कुछ सीलन थी

 जिन अध्‍यायों को मन बिसरा बैठा था, वे एक-एक कर निकल आए। कहीं गर्द थी और कही सीलन थी। कहीं प्रकाश था तो कहीं उल्‍लास भी था। लेकिन अब रेत हाथ से फिसलने लगी है, संचय का अर्थ दिखायी नहीं देता।
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2 comments:

अजित गुप्ता का कोना said...

आभार रविकर जी।

Anonymous said...

बहुत बढिया प्रस्तुति

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