जिन अध्यायों
को मन बिसरा बैठा था, वे एक-एक कर निकल आए। कहीं गर्द थी और कही सीलन थी। कहीं
प्रकाश था तो कहीं उल्लास भी था। लेकिन अब रेत हाथ से फिसलने लगी है, संचय का
अर्थ दिखायी नहीं देता।
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2 comments:
आभार रविकर जी।
बहुत बढिया प्रस्तुति
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