Saturday, September 17, 2011

आजकल लोग बिच्‍छू होते जा रहे हैं - अजित गुप्‍ता



चौंकिए मत। बिच्‍छू ऐसा प्राणी है जो अपने शरीर में डंक ही डंक लेकर चलता है। चलते-चलते बस डंक ही मारता है और अपना जहर सामने वाले के शरीर में उतार देता है। इतना सा जहर की ना आदमी मरे और ना ही दो-चार दिन जी पाए। कुछ लोग बिच्‍छू के जहर को स्‍याणों-भोपों से उतरवाते भी हैं। आदमी की तुलना बिच्‍छू से? लेकिन क्‍या आपको नहीं लगता कि यह सच है। यदि नहीं लगता तो शायद आपके ज्ञान के चक्षु अभी खुले नहीं है। हम तो अनुभव के उस मुकाम पर पहुंच गए हैं जहाँ चक्षु प्रतिदिन नित नया ज्ञान दिखाते हैं। मुझे तो कभी-कभी आशंका होने लगती है कि कहीं ऐसे ही तीव्र गति से ज्ञान की प्राप्ति होती रही तो केवलज्ञान के समीप ही नहीं पहुंच जाए हम!
बिच्‍छू के जहर से एक बात और ध्‍यान में आयी। किसी तत्‍वज्ञानी ने बताया था कि यदि महिला गर्भवती हो और उसे बिच्‍छू काट ले तो बिच्‍छू मर जाता है। एक बार साक्षात मैंने देखा भी है, लेकिन एक बार ऐसा होना संयोगमात्र भी हो सकता है। लेकिन एक सिद्धान्‍त तो बन ही जाता है कि यदि आपके मन में कोई अन्‍य का मन आत्‍मसात हो तो शायद बिच्‍छू का जहर असर ना करे उल्‍टा बिच्‍छू ही मर जाए! इसे यूं भी कह सकते हैं कि जो किसी के प्रेम में अंधे होकर घूमते हैं उन्‍हें शायद ऐसे बिच्‍छुओं के जहर का असर होता ही नहीं हो। अब यह प्रेम कई प्रकार का होता है, व्‍यक्ति का प्रेम, काम का प्रेम, देश का प्रेम आदि आदि। जो धुन का मतवाला है उसे कितने भी डंक मारो, नालायक को असर ही नहीं होता। बेचारे बिच्‍छू जैसे लोग बड़े आहत हो जाते हैं!
डंक मारने के प्रयोग देखिए, एक संत-फकीर टाइप इंसान अनशन करता है तो राजनेता डंक मारते हैं कि इसकी नियत में खोट है, यह स्‍वयं सत्ता पर काबिज होना चाहता है। लेकिन कोई राजनेता ही उपवास पर बैठ जाए तो डंक लगेगा कि नहीं इसे अधिकार नहीं है, ऐसे नाटक करने का अधिकार तो केवल मेरे पास ही है। और बानगी देखिए, आपने घर में जरा भी ऊँची आवाज में अपनी बात पुरजोर शब्‍दों में कह दी तो झट से एक डंक निकल आएगा कि नेतागिरी करते हो? अब आज के नेता की बदनामी का जहर आपके शरीर में इंजेक्‍शन की तरह घुसा दिया गया है और आप कई दिनों तक इस जहर से उबर नहीं पाते। कभी-कभी आपको स्‍याणों की शरण में भी जाना पड़ जाता है। आज शनिवार है, इस देश के करोड़ों लोग आज के दिन व्रत रखते हैं। लेकिन बस आज यही प्रश्‍न डंक की तरह फड़फड़ाता रहेगा अरे आज आपने भी उपवास रखा है
अभी दो दिन पूर्व मेरे मोबाइल पर एक मेसेज आया don’t get upset with people or situation … they are powerless without your reaction. इस वाक्‍य को मैंने अपनी एक टिप्‍पणी में भी उद्धृत किया था। मेरे अनुभव से मुझे यह ज्ञान भी प्राप्‍त हुआ कि जो जितना शिक्षित उसके डंक में उतना ही तीव्र जहर। पत्रकारों को देखा नहीं कैसे-कैसे प्रश्‍न करते हैं! लोग तो कहते हैं कि इनका काटा पानी नहीं मांगता। लेकिन राजनेता इनको झेल जाते हैं। मैं आप लोगों से इतना ही ज्ञान बांट रही हूँ कि लोग कितने ही बिच्‍छू बन जाएं लेकिन आप उन पर ध्‍यान मत दीजिए। मेरा यह अचूक फार्मूला है और मैंने इसी फार्मूले से कई लड़ाइयां जीती हैं। मुझे लोग कहते रहते हैं कि आप प्रतिक्रिया क्‍यों नहीं करती? मैं हमेशा कहती हूँ कि मेरा कार्य है क्रिया करना, प्रतिक्रिया दूसरों के लिए छोड़ रखी है।
एक छोटा सा उदाहरण देती हूँ, मेरे द्वारा आयोज्‍य एक कार्यक्रम में कुछ लोग उपद्रव करने की मंशा से आए थे। मंच से एक विद्वान ने कह दिया कि हमारे जमाने में विश्‍वविद्यालय में रौनक रहती थी। बस फिर क्‍या था, उपद्रव प्रारम्‍भ। प्रश्‍नों के बाण आने लगे कि क्‍या वर्तमान में ताले लगे हैं? कुछ देर तक मैं तमाशे का आनन्‍द लेती रही और अन्‍त में मैंने कहा कि आज आप लोगों की प्रतिक्रिया देखकर मन प्रसन्‍न हो गया क्‍योंकि न जाने कितने बरसों तक एक वर्ग बेचारा प्रतिक्रिया करता था और आप लोग प्रसन्‍न होते थे आज पहली बार हमें अवसर मिला है कि आप हमारी बात पर प्रतिक्रिया कर रहे हैं तो यह प्रसन्‍नता की बात है। शान्ति छा गयी। आज ऐसी ही प्रसन्‍नता फिर हो रही है कि अब तो प्रतिक्रिया में उपवास भी होने लगे हैं। कहीं ऐसा नहीं हो कि गांधी जी की तरह कोई व्‍यक्ति लंगोटी धारण कर ले और ये सरकारी नेता भी कहे कि हम भी अब केवल लंगोटी ही पहनेंगे। जनता तय करे कि असली फकीर कौन? लेकिन ऐसा होता नहीं दिखता। यहाँ तो होड़ लगी है कि खाई कितनी चौड़ी हो। जनता के पास से खाने के दाने भी छीन लो और इन सरकारी नेताओं का धन हजारों में नहीं और ना ही लाखों में बस करोड़ों में प्रतिवर्ष बढ़ता रहे और जनता और नेताओं के बीच की खाई का विस्‍तार होता रहे।
जनता तो बेचारी हो गयी है, कभी किसी के डंक से आहत होती है और कभी किसी के। अब राजनेताओं के डंकों से आहत हो रही है। कभी पेट्रोल के दाम के माध्‍यम से तो कभी मंहगाई के डंक से। ये सारे डंक भी बिच्‍छू के जहर जैसे ही हैं, दो-तीन दिन रोना-पीटना रहता है फिर आदत सी हो जाती है। जनता निकल पड़ती है अपने काम को फिर नए डंक की तलाश में। हमने तो सरकारी मंहगाई को भी प्राकृतिक आपदा मान लिया है की कभी सूखा और कभी अतिवृष्टि। बस प्रतिक्रिया मत करो और अपना काम करते रहो। पेट्रोल के लिए जेब आज्ञा नहीं देती तो सार्वजनिक वाहन का उपयोग करो और मंहगाई की मार से प्‍याज का तड़का नहीं लगा स‍कते तो केवल जीरा ही बहुत है, पेट भरने को। स्‍वाद में वैसे भी क्‍या धरा है?
विशेष नोट कई दिनों से बाहर प्रवास पर रहने के कारण कोई पोस्‍ट नहीं लिखी गयी थी तो सारी भंडास एक साथ ही निकाल दी गयी है। आप चाहें तो प्रतिक्रिया कर स‍कते हैं।  

44 comments:

Smart Indian said...

:)

आपकी वापसी का स्वागत है।

दीपक बाबा said...

हमने तो सरकारी मंहगाई को भी प्राकृतिक आपदा मान लिया है

सत्य यही है .

डॉ टी एस दराल said...

don’t get upset with people or situation … they are powerless without your reaction--

जिस किसी ने भी यह बात कही है , अचूक बात कही है .
सार्थक सन्देश .

S.M.Masoom said...

इंसान आज कल जानवर होता जा रहा है. माखी का काम होता है गन्दी जगहों पे बैठना और उसे फैलाना. हम भी जब किसी इंसान से मिलते हैं तो उसकी खूबियों के अच्छाई को नहीं तलाशते बल्कि माखी कि तरह उसकी बुरायीओं को तलाशते हैं और फिर उसे समाज में फैलाते हैं.
ना जाने क्या क्या इंसान बनेगा कुत्ता, बिच्छू,सांप, मख्खी लेकिन इंसान कब बनेगा? अपने जायज़ रिश्तों के प्रति वफादार रहिये

रविकर said...

कि लोग कितने ही बिच्‍छू बन जाएं लेकिन आप उन पर ध्‍यान मत दीजिए। मेरा यह अचूक फार्मूला है और मैंने इसी फार्मूले से कई लड़ाइयां जीती हैं। मुझे लोग कहते रहते हैं कि आप प्रतिक्रिया क्‍यों नहीं करती? मैं हमेशा कहती हूँ कि मेरा कार्य है क्रिया करना, प्रतिक्रिया दूसरों के लिए छोड़ रखी है।

संघ-नाव पर बैठकर, मोदी और बघेल |
सालों शाखा में गए, खेले संघी खेल |

खेले संघी खेल, 'कुरसिया' लगे खेलने |
कांगरेस - पापड़ा , बघेला बड़े बेलने |

करत नजर-अंदाज, 'माम' नाराज दाँव-पर |
सी एम् पद की दाल, गले न संघ नाव पर ||

समय चक्र said...

बहुत बढ़िया विचार हैं . कुछ लोग जो बिच्छू होते हैं वगैर डंक के जहर उतार देते हैं ... इन आदमियों को डंक की जरुरत नहीं होती है ..

प्रवीण पाण्डेय said...

अब तो डंक खा खा कर हम भी विषजन हो गये हैं।

Maheshwari kaneri said...

वापसी का स्वागत है। आप का कथन बिल्कुल सही है..

संजय कुमार चौरसिया said...

सत्य यही है .

निशांत मिश्र - Nishant Mishra said...

सार्थक विचार हैं. पोस्ट स्मरणीय रहेगी.

vandana gupta said...

सही कह रही है आप आजकल लोग बिच्छू होते जा रहे हैं ।

Shah Nawaz said...

बात तो आपकी एकदम दुरुस्त है...

प्रतिभा सक्सेना said...

स्वागत !
बहुत दिन सन्नाटा पड़ा रहा ब्लाग पर.
आदमियों की जमात में खोजने पर सभी जानवरों की खासूसियतें मिल जायेंगी ,लेकिन किसी जानवर में आदमी जैसी नहीं!

Sunil Kumar said...

विच्छू के माध्यम से समाज पर कटाक्ष अच्छा लगा

DR. ANWER JAMAL said...

लेख अच्छा है डंकीला सा ।

rashmi ravija said...

बड़ी दमदार पोस्ट के साथ वापसी की है...

इस दुनिया में जीना है तो डंक-प्रूफ बन जाओ..वर्ना बिच्छू तो आस-पास ही भरे पड़े हैं....

वाणी गीत said...

गर्भवती स्त्री की छाया से सांप अंधे हो जाते हैं , सुना था , आज जाना कि बिच्छू भी!!
विष इतना भर चुका है वातावरण में कि लोंग इसके आदि होते जा रहे हैं , कभी कुछ हलचल दिखती है , फिर ढ़ाक के वही तीन पात!

संजय @ मो सम कौन... said...

पता नहीं संयोग है या कुछ और कि एकाएक ब्लॉग जगत विशुद्ध पशु आधारित पोस्ट्स से लहलहा उठा है:)
जिस कवच की बात आपने की है, वह अभेद्य तो है लेकिन उसे धारण करना हम जैसों के लिये हमेशा आसान नहीं होता। वैसे भी आपको मिले SMS को counter करने के लिये हमारे पास भी एक जुमला है - Not countering an allegation is admission of the crime alleged. हाँ, डंक मारने वाला और डंक का प्रकार, प्रवृत्ति आदि बहुत से कारक हैं जो प्रतिक्रिया को प्रभावित करते हैं।
संक्षेप में, ’कभी भी प्रतिक्रिया न करना कोई थम्बरूल नहीं हो सकता’ ऐसा मेरा मानना है।

प्रवासोपरांत वापिसी पर स्वागत है एवम आपकी सोदाहरण भड़ास ने एक और आयाम दिखाया, हमें अच्छी लगी।

P.N. Subramanian said...

हम मान गए. प्रतिक्रिया न करना अचूक रामबाण है. सुन्दर ज्ञानवर्धक विश्लेषण.

Kailash Sharma said...

हमने तो सरकारी मंहगाई को भी प्राकृतिक आपदा मान लिया है....

बहुत ही सुन्दर और सटीक कटाक्ष..आभार

प्रतुल वशिष्ठ said...

जुर्म साबित होने पर भी प्रतिक्रियाहीनता से ही तो वर्तमान सरकार अब तक जीत का जश्न मनाती रही है.... चुप्पी साधे बैठे हैं सभी दुष्ट .... कराह करती जनता का स्वर उन्हें सुनायी नहीं देता... शोषितों की शिकायतें प्रतिक्रियाहीन रह जाती हैं.
हाँ यह सत्य है कि हमारी चुप्प ... हमें जीत का अनुभव कराती है... किन्तु यह भ्रम है..
लेकिन बकवादियों और निर्लज्जों के मामले में ......... प्रतिक्रियाहीनता और चुप्प....... अच्छे हथियार हैं.

अनामिका की सदायें ...... said...

main to kal hi aayi thi koi pratikriya dikhau lekin kal tak kuchh mila nahi aapke blog par. aaj apki post dekhi aur ant me pata chala ki aap to pravasi ho gayi thi. khair aaj hame b avsar mil gaya pratikriya karne ka.

bas yahi kahna hai ki aap kam se kam kriya to karte rahiye...ham dank jhailte rahenge.

डॉ. मोनिका शर्मा said...

लोग कितने ही बिच्‍छू बन जाएं लेकिन आप उन पर ध्‍यान मत दीजिए। मेरा यह अचूक फार्मूला है और मैंने इसी फार्मूले से कई लड़ाइयां जीती हैं। मुझे लोग कहते रहते हैं कि आप प्रतिक्रिया क्‍यों नहीं करती? मैं हमेशा कहती हूँ कि मेरा कार्य है क्रिया करना, प्रतिक्रिया दूसरों के लिए छोड़ रखी है।

आपकी पोस्ट में सुंदर जीवन मंत्र मिल गया ...आभार

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

बहुत दिनों बाद आपको सक्रीय देखकर अच्छा लगा। इन नेताओं को डंक मारना ही आता है। दूसरों पर कीचड उछाल कर ही तो वे अपने कुर्ते को साफ़ बता सकते हैं॥

मनोज कुमार said...

अजित जी लगता नहीं आपको कि अब हमें डंक का भी असर नहीं होता\ क्या हुआ अगर ७५ रुपए पेट्रोल हो गया?
एक शे’र है

ख़िज़ां से छीन के अब नक़्दे-गुल शुमार करे,
कहो सबा से बहारों का कारोबार करे।

और

जिसमें हिस्सा हो न सबके नाम का
ऐसा जीवन भी भला किस काम का?
जानवर मंहगे हुए इस देश में
आदमी मिलता है सस्ते दाम का!

Atul Shrivastava said...

बिच्‍छू के डंक से बात शुरू कर आपने इसे जिस अंदाज में आगे बढाया वह काबिले तारीफ है।
आम नागरिकों की व्‍यथा और राजनेताओं पर कटाक्ष लाजवाब।

BS Pabla said...

ये तो डिग्रेडेशन हो गया लोगों का :-)

ZEAL said...

.

प्रतिक्रिया न देकर अपने मन की शान्ति तो पायी जा सकती है लेकिन समाज में फैली गन्दगी के खिलाफ , आवाज़ अवश्य उठानी चाहिए ताकि अभद्रताओं की पुनरावृत्ति न हो सके। रही बात 'बिच्छू' की तो यह सर्वविदित है कि मनुष्य में देवत्व और पशुत्व दोनों ही वद्यमान होते हैं। ये हमारे ऊपर है की हम अपने अन्दर के किस भाव को पुष्ट करना चाहते हैं।

.

रचना दीक्षित said...

इमानदारी से व्यक्त किये गए विचार. इस भड़ास कहाँ उपयुक्त नहीं. आपके विचार सराहनीय है.

Khushdeep Sehgal said...

देश में तीस करोड़ से ज़्यादा लोग रोज़ भूखे पेट सोने को मजबूर हैं...ये ख़बर नहीं है...ख़बर तो वो है जब खाए-पिए नेता जी उपवास का शगल अपना कद बढ़ाने के लिए करते हैं...और हर कोई ऐसा बिछा जाता है कि नेताजी से बड़ा परोपकारी कोई है ही नहीं...बिच्छू का काटा शायद बच जाए लेकिन इन बगुला भगतों का काटा पानी भी नहीं मांगता...

जय हिंद...

देवेन्द्र पाण्डेय said...

जोरदार वापसी। सही बात कहती बढ़िया पोस्ट।

अजित गुप्ता का कोना said...

@ रविकर जी, आपकी कविता बहुत पसन्‍द आयी। आभार।

सतीश पंचम said...

बिच्छू ??????????

ओफ्फ....अपन यहां से खिसक लेते हैं :)

एक बिच्छू ने डंक मारा था गाँव में तब से बिच्छू नाम सुनते ही सिहरन होती है :)

यह रही मेरी आपबीती -

http://safedghar.blogspot.com/2010/06/blog-post_22.html

dr kiran mala jain said...

Some body said Life is aFootball game,and we are the Footballs .Never mind the kicks of people because without kicks we may not not reach the goal.So my dear bhadte chalo .

राजन said...

संजय जी और प्रतुल वशिष्ठ जी से सहमत हूँ कई बार प्रतिक्रिया करनी जरूरी हो जाती है वर्ना यदि आप पर कोई आरोप लगाया जा रहा है तो उसे भी सही मान लिया जाता है.अच्छी वापसी की है.बढिया पोस्ट.

Rohit Singh said...

बड़ी लकीर खींचना ही सबसे बड़ी समझदारी है। परंतु कभी-कभी किसी खास समय पर प्रतिक्रिया करना अत्यंत उचित होता है। वरना पानी सिर से गुजरने लगता है और बिना लड़े हथियार डालना कायरता है।

shikha varshney said...

बिच्छू ....अब कोई भी डंक असर करता है क्या?
जोरदार वापसी के लिए बधाई.स्वागत है आपका.

त्रिवेणी said...

सत्य यही है.. कुछ लोग जो बिच्छू होते हैं वगैर डंक के जहर उतार देते हैं ...

Rahul Singh said...

प्रतिक्रिया और टिप्‍पणियों का समुचित प्रयोग आवश्‍यक है, वैसे नान वर्बल भी होती है प्रतिक्रियाएं, जिनमें मुस्‍कुराना कभी सहलाता है तो कभी डंक की तरह होता है.

Sapna Nigam ( mitanigoth.blogspot.com ) said...

बिच्छू के माध्यम से बहुत ही अच्छे संदेश गर्भित हैं.

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

जहाँ क्रिया होगी वहाँ प्रतिक्रिया भी होगी ... डंक सहते सहते यही प्रतिक्रिया है कि इसके हम आदी हो चुके हैं ..आम जनता कितना ही कुलबुलाए मँहगाई से पर फिर ढल जाती है और चलती रहती है यूँ ही ज़िंदगी ...जब माँ से सुनते थे कि एक रूपये का चालीस सेर गेहूँ आता था तो ताज्जुब होता था ... आज जब सोचती हूँ कि हमने आठ आने का एक लीटर दूध खरीदा हुआ है और यह बात आज की तारीख में खुद को ही ताज्जुब में डालने वाली है ...
बद डंक खाते जा रहे हैं और सह रहे हैं ...आखिर इसी को तो विकास कहते हैं

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

और हाँ डंक सहते सहते इंसान बिच्छु ही तो हो जायेगा न ...

संजय भास्‍कर said...

सही कह रही है आप

G.N.SHAW said...

" मेरा कार्य है क्रिया करना, प्रतिक्रिया दूसरों के लिए छोड़ रखी है।" - ऐसा ही कल नरेंद्र भाई मोदी जी के भाषण में देखा ! केवल क्रिया , कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली ! बेचारे पत्रकार टोपी पर हाथ मारते रह गए ! फिर भी बे-नतीज ! सुन्दर लेख !