इस ब्लाग जगत के जाने माने ब्लागर श्री अनुराग शर्मा ( स्मार्ट इंडियन) की अभी एक पोस्ट आयी थी – शिक्षा और ईमानदारी।
मेरी टिप्पणी निम्न थी -
ajit gupta said...
सच तो यह है कि कुछ बेइमानों ने सारे भारत को बदनाम कर रखा है। वे ही प्रचारित करते हैं कि बिना बेईमानी कुछ नहीं होता। यह सत्य भी है लेकिन इतना सत्य भी नहीं है। मुझे स्मरण नहीं कि मैंने अपने जीवन में कभी बेईमानी से समझौता किया हो। आज यदि ईमानदारी प्रदर्शित होने लग जाए तो तस्वीर का उजला पक्ष सामने आएगा।
श्री अनुराग शर्मा जी ने मुझे लिखा है कि मैं इसे उदाहरण सहित बताऊँ कि कैसे बेईमानी से लड़ा जा सकता है?
आज यह पोस्ट इसी विषय पर है। जीवन जीने के दो मार्ग है, एक मार्ग है जिस पर सभी लोग चलना चाहते हैं और वो है अभिजात्य वर्ग वाला मार्ग।
1 अर्थात् मेरा बच्चा नामी गिरामी स्कूल में पढ़े, जिस विषय से समाज में प्रतिष्ठा बढ़ती हो बच्चों को वही विषय में शिक्षा दिलायी जाए।
2 सरकारी नौकरी में मुझे इस शहर में ही नौकरी करनी है, ऐसी प्रतिबद्धता हो।
3 मुझे यथाशीघ्र प्रमोशन मिलें।
4 मेरे पास भौतिक संसाधन प्रचुर मात्रा में हो।
लगभग एक आम भारतीय इन्हीं विषयों पर चिन्ता करता है। लेकिन इसके विपरीत एक मार्ग और है, वो है कि -
1 मेरा बच्चा ऐसे स्कूल में पढ़े जहाँ ज्ञान मिलता हो। चाहे वह स्कूल सरकारी या छोटे स्कूलों में शामिल क्यों ना हो।
2 यदि सरकारी नौकरी करनी है तो कहीं भी नौकरी हो, उसे सहज स्वीकार करना।
3 प्रमोशन आपकी योग्यता के अनुसार होगा, उसके लिए छोटे मार्ग नहीं अपनाएंगे।
4 मेरे पास जितनी भी समृद्धि है वह भी प्रभु की कृपा से बहुत है।
अब जो पहले मार्ग को अपनाता है वह अपने बच्चों की शिक्षा के लिए ऐसे स्कूल का चयन करता है जहाँ उसे या तो सिफारिशी पत्र का सहारा चाहिए या फिर डोनेशन का। जब मेरा बेटा तीन वर्ष का हुआ तब उसके लिए स्कूल चयन की बात आयी। मेरी प्रतिबद्धता भारतीय शिक्षा प्रणाली के प्रति है और मैं चाहती रही हूँ कि बच्चों पर ऐसा कोई प्रभाव नहीं पड़े जिससे उसकी चिन्तनधारा किसी एक वर्ग के लिए प्रभावित होती हो। ऐसे स्कूल शहर में मिलने दुर्लभ थे। लेकिन मुझे झूठी प्रतिष्ठा का कोई लालच नहीं था। मैंने उन्हीं दिनों अपना घर भी बदला था तो सारे ही स्कूल कुछ दूरी पर हो गए थे। मेरा मानना है कि बच्चे का घर के पास वाले स्कूल में ही पढ़ाना चाहिए। मैंने देखा एक स्कूल का बोर्ड मेरी कॉलोनी में ही लगा है। अभी खुलने की तैयारी में है, बेहद छोटा सा। संचालक कौन है, मालूम पड़ा कि जाने माने शिक्षाविद इसे चलाएंगे। मैंने मेरे बेटे का तुरन्त प्रवेश करा दिया और मेरा बेटा उस स्कूल का प्रथम छात्र था। आज वह स्कूल उदयपुर के श्रेष्ठ स्कूलों में गिना जाता है।
मुझे मेरे साथियों ने बहुत कहा कि आप केवल 20 छात्रों की संख्या वाली कक्षा में बच्चे को पढ़ा रहे हैं, इसका कैसे मूल्यांकन होगा? मेरा एक ही उत्तर होता था कि मुझे इसे केवल इंसान बनाना है कोई मशीन नहीं बनाना है। इसके बाद जब उच्च कक्षाओं में बच्चों को जाने का अवसर मिला तो मैंने केन्द्रीय विद्यालय को चुना। जहाँ के अध्यापक तक कहने लगे कि अरे आप इतने अच्छे स्कूल से निकालकर बच्चों को सरकारी स्कूल में क्यों पढ़ाना चाह रहे हैं? मैंने उनसे यही कहा कि अब ये उच्च कक्षा में आ गए हैं इन्हें श्रेष्ठ और योग्य अध्यापक चाहिए, क्या आपसे अधिक योग्य अध्यापक अन्य स्कूलों में हैं? आप सच मानिए मेरे बेटे ने बिना किसी ट्यूशन और कोचिंग के इंजीनियरिंग एन्ट्रेस टेस्ट पास किया था। मेरी बेटी भी मेरिट में थी। जहाँ हमारे साथियों ने अपनी बच्चों की पढ़ाई पर न जाने कितने पैसे फूंके थे, मैंने उनके सामने बहुत कम पैसा खर्च किया था।
बेटी ने इंजीनियर और डॉक्टर बनने से मना कर दिया, मैंने कभी प्रतिष्ठा का विषय नहीं बनाया। उसे कहा कि जो तुम्हें करना हो वह करो। उसने फिर एमबीए किया।
हम अक्सर सिफारिश और रिश्वत का सहारा अपनी नौकरी के लिए करते हैं। मनचाही जगह पोस्टिंग हो। मैंने इसे कभी स्वीकार नहीं किया। मैंने कहा कि यदि मुझे राजस्थान के सुदूर गाँव में भी नौकरी करनी पड़ी तो करूंगी लेकिन कभी भी सिफारिश का सहारा नहीं लूंगी। परिणाम निकला कि कुछ दिनों बाद ही मुझे उदयपुर महाविद्यालय में लेक्चरशिप मिल गयी, जो एक मात्र आयुर्वेद कॉलेज था इसकारण कहीं भी स्थानान्तरण का अवसर नहीं था।
प्रत्येक व्यक्ति प्रमोशन के लिए अनुचित मार्ग अपनाता है। मैंने कहा कि मेरी तो एक ही चाहत थी कि मुझे कॉलेज में प्राध्यापक की नौकरी मिले बस वो भगवान ने पूरी कर दी अब कुछ नहीं चाहिए। मुझे वैसे भी बीस वर्ष के बाद सामाजिक कार्य और लेखन के लिए नौकरी छोड़नी थी तो किसी प्रमोशन की वैसे भी इच्छा नहीं थी। इसलिए हमेशा बिंदास रहे और सभी लोग इज्जत की निगाह से देखते रहे। लेकिन जो अपना स्वाभिमान बनाकर चलता है उसका भगवान भी ध्यान रखता है। मैंने स्वैच्छिक सेवानिवृति ली और उसके बाद भी मुझे प्रोफेसर पद पर प्रमोशन मिला।
ऐसे ही मेरे पास भी गाडी हो बंगला हो कभी सोचा भी नहीं। बस एक ही बात का चिन्तन था कि मैं अपने परिवार की जिम्मेदारियों को सहर्ष पूरा करूं। मैंने ना केवल पारिवारिक जिम्मेदारियों को पूरा किया अपितु आज भगवान की दया से सभी कुछ है मेरे पास। बस मुझे इतना ही चाहिए, ज्यादा तो मुझे हिसाब करना भी नहीं आता।
पोस्ट लम्बी हो जाएगी इसलिए इसे यहीं विराम देती हूँ। अभी जीवन के ऐसे बहुत से प्रकरण हैं जिन्हें हमने सादगी के साथ ही जीया। अगली कड़ी में उन्हें भी लिखने का प्रयास करूंगी। हाँ अन्त में एक बात और कि मैंने अपनी इस पोस्ट में जगह जगह लिखा है कि मैंने यह किया, असल में बच्चों की सारी चिन्ताएं मेरी ही हैं, मेरे पति हमेशा से ही मुझसे सहमत रहते हैं।
46 comments:
सरल सुबोध चलन!! बस आपका लक्षय सुस्पष्ठ होना चाहिए।
यह भी है कि लोग पग पग पर ग्लानी भी महसुस करवाएंगे, वे नहीं चाहते कोई इस मार्ग से भी सफलता पा सकता है।
कभी कभी लोग सोचते है, घुमा फिरा कर चालाकी से काम निकलवाएंगे। वही बात अगर सीधे सहज तरीके से प्रस्तुत की जाय तो तो सामने वाला आवाक रहकर काम कर देता है। इमानदारी इस तरह भी सफल होती है।
अजित जी
चाहे बच्चो को अच्छे से स्कुल में दाखिला दिलवाना हो या नौकरी में प्रमोशन या फिर दुनिया की ज्यादातर सुख सुविधा का संग्रहण करना हो एक आम आदमी ये सब कर सकता है बिना किसी बेईमानी के बिना किसी सिफारिस के | मुझे ये सब करना गलत नहीं लगता है इनके लिए बेईमानी करना गलत लगता है आप बड़े आराम से ईमानदारी से भी ये सब पा सकते है सरकारी नौकरी का तो नहीं पता पर प्राइवेट नौकरी में तो पा ही सकते है | और यदि घर में ईमानदारी का माहौल रहे तो बह्चे भी उसी तरफ झुके होते है भले बहार का माहौल बेईमानी वाला हो |
काफी अच्छा लगा आपका यह पक्ष जानकार.
बिल्कुल ठीक कह रही हैं आप। अपने साथ भी ऐसा ही हुआ था। घरवालों ने प्राइमरी सरकारी स्कूल में दाखिला करवा दिया तो सभी ने कहा कि तुम कुछ पैसों की खातिर अपने बच्चों का भविष्य खराब कर रहे हो। साथ ही ये भी सीख मिलती थी कि दुनिया चांद पर पहुंच गई है, तुम्हारे बच्चे प्राइमरी में ही पढते हैं। लेकिन घरवालों ने वही किया जो उन्हें अच्छा लगा। आज वे सफल हैं।
मैकेनिकल से डिप्लोमा कर लिया तो मेरी इच्छा थी कि रेलवे में ही नौकरी करूंगा, तब तक प्राइवेट नौकरी करता रहा। मेरी रेलवे की इच्छा को देखते हुए सभी मित्र कहते थे कि छोड रेलवे को, दो-चार भर्तियां निकलती हैं, सभी रिश्वत वाले होते हैं, तू तो कहीं भी नहीं मिलेगा उनके बीच में। आखिरकार मेट्रो में लग गया। मेट्रो का फार्म भरते समय भी सभी कहते थे कि तू पढने में ज्यादा तेज नहीं है, तुझसे भी बहुत बडे-बडे पढाकू बन्दे आवेदन और परीक्षा देंगे, तेरा नम्बर नहीं आयेगा। आराम से प्राइवेट करता रह। आज वो इच्छा भी पूरी हो गई।
कुल मिलाकर अगर इंसान की महत्वाकांक्षा नियन्त्रण में हो तो सब कुछ आसान हो जाता है। दिक्कत तब होती है जब इंसान अति महत्त्वाकांक्षी बन जाता है।
बिल्कुल ठीक कह रही हैं आप।
बिल्कुल सही कहा आपने मैं आपकी बात से पूरी तरह से सहमत हूँ मेरे पापा और मैं इस बात का उदहारण हैं, बहुत ही छोटे स्कूल (दूसरों की नजर में, मेरी नजर में तो उससे अच्छा स्कूल ही नहीं है) से पढाई की, कोलेज में भी जहाँ पहली बार में एडमिशन मिला ले लिया, ना घर वालों ने कुछ कहा ना किसी और ने |
एक पड़ोसी ने पापा से कहा था कि बेटे से कहो कि अच्छे कोलेज से इंजीनियरिंग करो क्या कहीं भी एडमिशन दिला रहे हो - पापा का जबाब था - आप अपने बच्चे पर ध्यान दो मुझे मेरे बेटे पर देने दो :)
आज मैं आई.आई.टी. मुम्बई में हूँ शिक्षा का तो कहूँ ही क्या मेरे १२००० से अधिक विद्यार्थी देश-विदेश में हैं और अभी उम्र कुल 26 हुई है|
मेरा सभी अभिभावकों से अनुरोध है बच्चों को सिर्फ अच्छा इंसान बनाने पर ध्यान दें और दिखावा छोड़ें
वास्तविक आवश्यकता भी आज ऐसी ही साफ-सुथरी सोच की ही है ।
इसीलिए कहा गया है कि हाथ कंगन को आरसी क्या।
नैतिकता का पाठ आज के बच्चों को न तो घर में मिल रहा है न स्कूल में। तो किस चरित्र के नागरिकों को हम तैयार कर रहे हैं:(
मार्ग तो सम्यक और संतुलित ही बेहतर.
सच कह रही हैं आप. रास्ते बहुत हैं बस जरुरत होती है थोड़ी सख्त इच्छा शक्ति की.कई बार इच्छा वश नहीं पर मजबूरीवश हमें दूसरा रास्ता इख्तियार करना पढ़ जाता है.परन्तु यदि खुद पर विश्वास हो तो कुछ भी नामुमकिन नहीं.
बहुत ही सार्थक और गहन विश्लेषण.अगर व्यक्ति में दृढ संकल्प हो तो कितनी ही विपरीत परिस्थितियों में ईमानदारी से रह सकता है.मेरे कार्यकाल का अधिकाँश भाग भ्रष्टाचार निरोध से सम्बंधित विभागों में विभिन् पदों पर गुज़रा और मैंने अधिकाँशतः पाया कि जब व्यक्ति अपनी सफलता के लिये खुद की योग्यता पर विश्वास नहीं करता और और सब कुछ शीघ्र और short cut तरीके से प्राप्त करना चाहता है तो वह गलत तरीके अपनाता है.धीरे धीरे यह उसकी स्वभाव और चरित्र का हिस्सा बन जाता है. ईमानदारी का रास्ता कठिन अवश्य है लेकिन उसका सुखद परिणाम जीवन में निश्चय ही सफलता और आतंरिक शान्ति लाता है. बेईमानी से प्राप्त सफलता और सम्रद्धि हमेशा जीवन भर एक डर मन के अंदर पैदा करती रहती है जिसकी वजह से कभी मानसिक शान्ति नहीं मिल सकती.
लेक्चररशिप
या लेक्चरशिप ?
आज आदरणीय अजित गुप्ता जी कहूँगा.....
प्रणाम..
वाकई ही अपने बहुत ही अनुकरणीय गाइड लाइन प्रस्तुत की..
बहुत बढ़िया आलेख!
सभी कुछ तो लिख दिया आपने इसमें!
इस पोस्ट के बहाने, आपके बारे में जानने का मौका मिला ! आपको और अनुराग शर्मा का आभार !
आपके जीवन का यह पक्ष अनुकरणीय है..... साझा करने का आभार......
निश्चित ही एक सार्थक चिन्तन....आप बधाई एवं साधुवाद की पात्र हैं.
मेरे अनुरोध का मान रखने का आभार। निष्कर्ष यह निकला कि महत्वाकान्क्षा भी ईमानदारी की राह में बाधक हो सकती है।
आपके बताये चारों प्वाईंट्स को देखते हुये तो हम सौ प्रतिशत विपरीतमार्गी हैं:)
अपने शिक्षकों पर मान रहा है तो अपने बच्चों को भी उसी स्कूल में एडमिशन दिलवाया शुरू में ही। अपने परिवार के अलावा किसी रिश्तेदार मित्र ने सही नहीं ठहराया, वजह वही कि ये स्कूल और ये प्रणाली अब आऊटडेटेड है लेकिन हम नहीं माने। अब आगे बच्चों का जो होगा, दो देखेंगे। ऐसा ही कुछ नौकरी के साथ हुआ। बहुत ऊंचे ख्वाब हमने नहीं देखे थे, बिना सिफ़ारिश और बिना रिश्वत के पांच चांस मिले सरकारी नौकरी के। प्रोमोशन और भौतिक संसाधनों वाले मुद्दों पर भी आज तो हम ’पास विद डिस्टिंक्शन’ हैं, जो मिला पर्याप्त है। इतना सब होने के बाद भी अगर बेईमानी के रास्ते पर चलें तो ..।
सच तो ये है कि अनुराग जी ने आपसे जो अनुरोध किया है और आपने माना भी, उससे बहुत से लोगों को प्रेरणा ही मिलेगी।
"IT'S VERY SIMPLE TO BE HAPPY, BUT IT'S VERY DIFFICULT TO BE SIMPLE"
जय हिंद...
बिल्कुल ठीक कह रही हैं आप।
mujhe bhi apne 3 barshiy bete ka admision karaana hai, ab main uska admision kara sakta hoon,
bahut bahut dhnyvaad
जब लोगों को भान हो जाता है कि जीवन का वास्तविक सुख कहाँ पर है, बेईमानी अपने आप बन्द हो जाती है।
जब अनुराग जी ने कहा कि आप इस विषय पर लिखें तब मैंने उन्हें हाँ तो कर दी थी लेकिन जब लिखने लगी तब मुझे बड़ा अजीब सा लग रहा था अपने बारे में लिखने में। क्योंकि मैं इस बारे में बहुत अन्तर्मुखी हूँ। लेकिन आप सब लोगों के अनुभव भी इस बहाने से जानने का अवसर मिला और यह बहुत ही सुखद रहा।
नीरज ने लिखा कि - "कुल मिलाकर अगर इंसान की महत्वाकांक्षा नियन्त्रण में हो तो सब कुछ आसान हो जाता है। दिक्कत तब होती है जब इंसान अति महत्त्वाकांक्षी बन जाता है।"
बहुत ही सटीक बात है।
अरविन्द मिश्र जी ने एक प्रश्न पूछा है कि लेक्चररशिप या लेक्चरशिप? मुझे समझ नहीं आ रहा कि सही क्या है? क्योंकि मैं तो लेक्चररशिप ही सही मानती आयी हूँ, यदि लेक्चरशिप सही हो तो उसे सुधारा जा सकता है।
इसी प्रकार यौगेन्द्र पाल से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी।
अभी देखते हैं लोगों के अनुभव कितने और आते हैं? बड़ा अच्छा लग रहा है, सभी के अनुभव जानना और खासतौर से नवयुवा पीढ़ी के।
डॉ अजित जी ,
मेरे गुरु जी कहा करते थे कि डिक्शनरी हमेशा पहुँच के भीतर रखनी चाहिए ..
और बहस के बजाय उसे देखना चाहिए ..वही सबसे बढियां गाईड है ..
और उन्होंने हमेशा आक्सफोर्ड अड़वांसड लर्नर डिक्शनरी की सिफारिश की ..
अब तो खैर यह नेट पर भी है .....आप खुद देखिये और फैसला कीजिये !
अरविन्द जी, मैं आप पर भी भरोसा करती हूँ, मैंने डिक्शनरी में भी देखा वहाँ लेक्चरर शब्द तो था लेकिन लेक्चरशिप नहीं था। यदि लेक्चरशिप शब्द सही है तो मुझे क्या एतराज हो सकता है? इसे बहस की तो कोई गुंजाइश ही नहीं है, गलती सुधारना तो हमेशा अच्छा कार्य ही है।
For kind perusal-
http://www.yourdictionary.com/lectureship
अजित जी ,आपने वो सारी बाते कह दी-जिनकी गुंजाइश है कहने को कुछ खास नही बचा --पर यह बात एकदम ठीक है की योग्य छात्र को किसी भी क्लासेस की जरूरत नही है --मेरा बेटा शायद दुनिया का आखरी बेटा नही है जो आज्ञाकारी.और सहनशील है इस दुनिया में कई हेजार ऐसे बेटे मिल जाएगे जीन्होने अपनी प्रारम्भिक पड़ाई एक साधारण से स्कुल से शुरू की और आज एक खास मुकाम हासिल किया है !
हमने भी कभी अपने बच्चो पर अनावश्क बोझ नही डाला
उनको जो अच्छा लगा उन्होंने किया और आज वो खुश है
उनकी ख़ुशी में ही हमारी ख़ुशी है !
इस सार्थक पोस्ट के लिए धन्यवाद
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अजित जी ,
लेख की मूल भावना से पूरी तरह सहमत हूँ । आपने उदाहण समेत उसे बहुत अच्छी तरह से समझाया । जो जिस राह पर चलना चाहते हैं , उनकी राहें स्वतः ही बनती चली जाती हैं । चोरों के लिए चोरी की और इमानदारों के लिए इमानदारी की राहें बनती जाती हैं । बहुत कम लोग हैं जो निज पर गर्व करते हैं और जो चाहते हैं , उसे हासिल करके भी दिखा देते हैं । खुश रहना भी एक अनमोल गुण है। जो स्वयं पर भरोसा रखते हैं और प्रोग्रेससिवे विचारों के होते हैं , वो निरंतर तरक्की करते हैं , उन्हें कोई भी बढ़ा रोक नहीं सकती । वे स्वयं अपना मार्ग प्रशस्त करते चलते हैं और दूसरों के लिए भी अनुकरणीय होते हैं।
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progressive **
बाधा *
[correction]
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गंभीर विष्ाय पर अच्छा चिंतन।
जहाँ चाह वहाँ राह अपने आप बन जाती है।
बिल्कुल सच लिखा है आपने । ये रास्ता शुरू में कठिन लगता है पर बाद में बेहद सुकून देता है ।आभार ...
अजित जी बहुत सुंदर सरल मार्ग दर्शन है आपका ।
बात तो बिलकुल सही कही...आपने...पर कितने लोग इसपर अमल करते हैं??
एक दौड़ लगी हुई है....ऐसे लोग उँगलियों पर गिने जाने वाले हैं...जो संतोष में ही सुख ढूंढते हैं...
अरविन्द मिश्र जी का संकेत सही है।
अनुराग जी, मैंने तो उस शब्द को तत्काल ही सुधार दिया था। आप देख लें।
आज कल हर आदमी एक आसान जिंदगी जीना चाहता है बस उसी का परिणाम है ऐसी सोच और ऐसी चाहत..बहुत ही गहराई से वर्णन किया है आपने आज के परिवेश का.....बढ़िया चर्चा...धन्यवाद
"जीवन जीने के दो मार्ग है..."
मैं आपसे सहमत हूँ और आपने जिस मार्ग का अनुसरण किया उसके लिए आपकी सराहना भी करता हूँ। किन्तु जिस मार्ग पर आप चलीं उसी मार्ग पर चलने वाले आज के जमाने में कितने हैं? उस मार्ग पर चलने के लिए आत्मबल की आवश्यकता होती है और यही आज के अधिकांश लोगों में नहीं है क्योंकि उनके पास अच्छे संस्कार की कमी है। देश के स्वतन्त्र होने के पहले से बाद आज तक हमारे देश में ऐसी शिक्षा मिलती रही है जिसमें संस्कार प्रदान करने की क्षमता ही नहीं है, उल्टे उस शिक्षा ने लोगों को स्वार्थी ही बनाया है। यही कारण है कि आज के अधिकांश लोगों की सोच वैसी बन गई है जैसा कि आपने अपने इस पोस्ट में लिखा है, अर्थात् वे यही सोचते हैं किः
1 मेरा बच्चा नामी गिरामी स्कूल में पढ़े, जिस विषय से समाज में प्रतिष्ठा बढ़ती हो बच्चों को वही विषय में शिक्षा दिलायी जाए।
2 सरकारी नौकरी में मुझे इस शहर में ही नौकरी करनी है, ऐसी प्रतिबद्धता हो।
3 मुझे यथाशीघ्र प्रमोशन मिलें।
4 मेरे पास भौतिक संसाधन प्रचुर मात्रा में हो।
आदरणीय बहना,
जन्म के साथ ही,इन्सान,ले-देकर एक ही संपत्ति साथ लेकर आता है और वह है,स्वाभिमान..!! बाकी सारी संपत्ति उसे बाद में स्वाभिमान को सँभालते हुए,सँवारते हुए,खुद अर्चित करनी पडती है ।
आपकी लिखाई में नितांत ईमानदारी है। आपको बहुत-बहुत बधाई।
मार्कण्ड दवे।
बिल्कुल ठीक कह रही हैं आप।
नवसंवत्सर की हार्दिक शुभकामनाएँ| धन्यवाद|
आपका विचारपरक आलेख पढ़कर बहुत अच्छा लगा..
आज तरक्की के नाम पर ऑफिस, स्कूल, कॉलेज में सरे आम क्या क्या नहीं चल रहा है, लेकिन उनके बीच ही ऐसे दृढ संकल्पित व्यक्तियों की भी कोई कोई कमी नहीं जो आज भी अपनी इमानदारी और कर्तव्य पथ से विमुख नहीं होते हैं, भले ही वे अपनी पहचान से मरहूम होते है, लेकिन सच्ची आत्मिक शांति तो तभी मिलती है जब हम स्वयं अपने बलबूते पर करते हैं ऐसा मैं भी मानती हूँ..
सादर
bahot achchi aur prernadayak hai yah post.
शत-प्रतिशत सच लिखा आपने ,बिल्कुल सही ,सहमत ।
सौ बात की एक बात - सब्र.
आपकी यह पोस्ट मुझसे छूट गई थी \पता नहीं ?क्या बात है ?की ज्यादातर हमारी उम्र के बच्चो ने ऐसे ही ही शिक्षा हासिल की बिलकुल इसी तरह मेरे बच्चो ने भी जिस स्कूल में एडमिशन लिया था वहां ५ ही बच्चे थे फिर केन्द्रीय विद्यालय में पढ़े और मेरी बहुए भी इसी वातावरण में पलकर आई और इश्वर की दया से जहम नौकरी मिली उसी को अपनी मंजिल बनाया निजी संस्थानों के ही कर्मचारी मेरे पति भी रहे और आज सारे बच्चे भी वाही काम करते है ईमानदारी से सब सुख साधन भी है हाँ चादर से ज्यादा पैर पसारने में तो दूसरी चीजो का सहारा लेना पड़ सकता है |लोग लेते है और इसे अपनी शान समझते है यही से शुरू होती है महत्वाकांक्षा |
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