Tuesday, March 8, 2011

सपनों के बिना जीते हैं महानगरों में घरेलू नौकर – अजित गुप्‍ता




कई दिनों से पुणे में हूँ, कुछ दिनों तक नेट उपलब्‍ध्‍ा नहीं हुआ तो ब्‍लाग पर झांकने का भी अवसर नहीं मिला। अब एक दो दिन से नेट के दर्शन हुए हैं, आप लोगों की कुछ पोस्‍ट भी पढने का अवसर मिला है लेकिन अभी टिप्‍पणी नहीं कर पायी। आजकल में व्‍यवस्थित होने का प्रयास रहेगा फिर सबकुछ पहले जैसा।

उदयपुर और पुणे में बहुत बड़ा अन्‍तर है। कहॉं छोटा सा लगभग 5 लाख की जनसंख्‍या का शहर और कहॉं 50 लाख की जनसंख्‍या को पार करता शहर? उदयपुर में 10 से 15 किमी में पूरे शहर को नापा जा सकता है लेकिन पुणे में कहीं नजदीक भी जाना हो तो 10 किमी तो मामूली सी बात है। उदयपुर में आमतौर पर एक सी जनसंख्‍या है, यदि राजस्‍थान के बाहर के लोगों को ढूंढा जाए तो अन्‍य प्रान्‍तों के लोग छोटे-छोटे समूहों में मिलेंगे। मजदूर और घरेलू नौकर भी आमतौर पर आसपास के क्षेत्र के ही हैं। जहॉं कन्‍सट्रक्‍शन के बड़े काम हो रहे हैं वहॉं पर बिहार और यूपी की लेबर मिल जाएगी, इतना ही बस। लेकिन पुणे में एक बात आम दिखायी देती है। बड़ी-बड़ी सोसायटी में हजारों फ्‍लेट बने हैं, उन में सम्‍पूर्ण देश के लोग रह रहे हैं। एक फ्‍लेट में बंगाली है तो दूसरे में मलयाली और तीसरे में पंजाबी। सब की भाषाएं अलग हैं। लेकिन मुझे जिस बात ने सोच में डाला वो कुछ अलग है। सोचा कि आप सभी से अपनी सोच को सांझा कर लूं?

पुणे कभी सेवानिवृत्‍त लोगों का शहर हुआ करता था, बहुत ही सुन्‍दर और मनोनुकूल मौसम। ना ज्‍यादा सर्दी और ना ही ज्‍यादा गर्मी। घरों में पंखे भी नहीं। लेकिन जब से आईटी सेक्‍टर ने पुणे में प्रवेश किया है तब से ही यहॉं जनसंख्‍या का विस्‍फोट हुआ है। युवा दम्‍पत्‍ती नौकरी के लिए सम्‍पूर्ण देश से पुणे के लिए आना शुरू हुए तो घरेलू नौकरों की समस्‍या भी आन खड़ी हुई। आखिर पुणे शहर से तो लाखों लोगों के लिए घरेलू नौकर उपलब्‍ध कराए नहीं जा सकते। नौकरी पर सुबह 8 से 9 के बीच घर से निकलना ही पड़ेगा और पति-पत्‍नी दोनों ही जब नौकरी में हो तो घरेलू नौकर आवश्‍यक हो जाता है। लेकिन इतनी सुबह कैसे नौकर मिले? रात को घर आने के बाद भी कैसे नौकर मिले? यह यहॉं की आम समस्‍या बनी हुई है। बंगाल से नौकरी के लिए पुणे में हैं, छोटा बच्‍चा भी है, उसे बंगाली खाना और बंगला भाषा भी अनिवार्य है। तो क्‍या करें? बिहार का व्‍यक्ति भी स्‍थानिय नौकर के सहारे खुश नहीं रह सकता। ऐसे में बंगाल, बिहार, केरल, पंजाब, राजस्‍थान आदि सभी प्रान्‍तों से 15 से 25 वर्ष के युवा नौकर आपको घरों में सेवा देते मिल जाएंगे।

मुझे बड़ा अजीब सा अनुभव हुआ जब 25 वर्ष के लड़के को या इतनी ही आयु की लड़की को शाम के समय किसी बच्‍चे को गोद में लेकर पार्क में खिलाते हुए देखने पर। वे बरसों से यहॉं रह रहें हैं, बात करने के लिए उस घर के दो-तीन लोगों से ज्‍यादा नहीं है। वो भी कितना समय? मैं यहॉं एक माह के लिए यहॉं आई हूँ और अकेलेपन का संत्रास को अनुभूत कर रही हूँ तो ये बेचारे युवा? इनके भी तो सपने होंगे? इनकी भी तो शारीरिक ओर मान‍सिक जरूरते होंगी? ऐसा ही एक लड़का मेरे यहॉं भी शाम का खाना बनाने आता है, उसने बताया कि गॉंव में सब लोग हैं, बस वो ही बचपन से घर से दूर है। जिस परिवार के साथ यहॉं पुणे में रह रहा है बस उसे ही अपना परिवार मान रहा है। कभी-कभी छुट्टियों में गॉंव जा आता है। मुझे लगता है कि जैसे पूर्व में महिलाएं अपना शोषण अनुभूत नहीं करती थी और उसे ही अपना जीवन मानकर खुश रह लेती थी वैसे ही ये घरेलू नौकर खुश रह लेते हैं। लेकिन पर्दे के पीछे अनेक कहानियॉं तो जन्‍म लेती ही होंगी? मैंने इस समस्‍या का एक पहलू लिखा है लेकिन न जाने कितने पहलू नेपथ्‍य में हैं? आप जब अपनी प्रतिक्रिया देंगे तब न जाने इस समस्‍या को कितने आयाम मिलेंगे? इसलिए बस अब आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार है जिससे इस समस्‍या के विविध पहलू समाज के समक्ष आ सकें।

39 comments:

Atul Shrivastava said...

अजीत जी बहुत दिनों बाद आपको पढने का मौका मिला।
फिर एक अच्‍छे विषय को लेकर आप आईं।
पीडा जायज है, लेकिन क्‍या कर सकते हैं ये भी। आखिर पेट के लिए सब कुछ करना पडता है।
घर की सूखी रोटी में जब गुजारा नहीं होता तो बाहर निकल पडते हैं और सपने। सपनों का क्‍या ये तो शायद गरीबों के लिए बने ही नहीं। शायद गरीबों को सपने देखने का हक भी नहीं। यदि सपने उन्‍होंने देखे तो भी क्‍या वे पूरे होंगे।
बहरहाल, अच्‍छी पोस्‍ट।
महिला दिवस की शुभकामनाएं।
न जाने क्‍यों मुझे लग रहा था कि महिला दिवस पर जरूर आपकी पोस्‍ट से रूबरू होने का मौका मिलेगा।

Satish Saxena said...

आप बहुत संवेदनशील हैं सो इन्हें महसूस कर लिया ...लोगों के पास दूसरों के दर्द के लिए अक्सर समय नहीं होता ! शुभकामनायें आपको !

अन्तर सोहिल said...

यहां पुरानी दिल्ली में भी ऑफिसों में काम करने के लिये यूपी और बिहार से छोटी आयु में ही लडके आ जाते हैं। ऑफिस में ही रहते-सोते हैं। सुबह ऑफिस शुरु होने से पहले साफ-सफाई और अपना खाना बनाना। पूरा दिन चाय-पानी पिलाने और चपरासी का कार्य करते बीत जाता है।
शाम को फिर खाना बनाने में जुट जाते हैं। वेतन पाते ही राशन खर्च रखकर घर भेज देते हैं।
उन्हें भी बिना सपनों के ही जीते देखा है।

प्रणाम

डॉ. मोनिका शर्मा said...

सच में बात विचारणीय है... ऐसे बच्चे कई बार आपराधिक रास्ते भी पकड़ लेते है..... मनोवैज्ञानिक तौर पर तो उनका पूरा व्यक्तित्व ही प्रभावित होता है..... बहुत तकलीफदेह है....

Dr Xitija Singh said...

आदरणीय अजित जी ... बहुत संवेदनशील मुद्दा उठाया है आपने ... बिना सपनो के तो ये जीते ही हैं ... मगर न जाने कितने ही ऐसा हैं जो हर पल मानसिक तथा शारीरिक हिंसा का शिकार होते हैं .. और उनकी सुध लेने वाला भी कोई नहीं ....

आपको महिला दिवस ही हार्दिक शुभकामनाएं ...

संजय कुमार चौरसिया said...

सर्वप्रथम महिला - दिवस पर आपको शत - शत नमन

aapse poori tarah sahmat , bahut buri sthti hai , chhote logon ki

naresh singh said...

इन पर तरस के शिवाय क्या किया जा सकता है |

Sushil Bakliwal said...

मुझे लगता है सपने तो ये भी देखते ही हैं । बस अपने आपसे उनके पूरे होने का आग्रह नहीं रख पाते हैं ।
शताब्दी वर्ष के इस विशेष महिला दिवस पर हार्दिक शुभकामनाएँ...

प्रतुल वशिष्ठ said...

मुझे 'यात्रा-संस्मरण' पढ़ने जैसा सुख मिला.
"मुझे लगता है कि जैसे पूर्व में महिलाएं अपना शोषण अनुभूत नहीं करती थी और उसे ही अपना जीवन मानकर खुश रह लेती थी वैसे ही ये घरेलू नौकर खुश रह लेते हैं।"

पूरे संस्मरण में आप अपने वैचारिक अनुभव बाँटते हुए इस समस्या पर मंथन करवाने को खींचे ले रहे हैं.

दिगम्बर नासवा said...

सही मुद्दा उठाया है आपने ... आज जरूरत है की समाज में चेतना जागृत हो और ऐसे लोगों को सही दिशा मिल सके और वो सम्मान से जीने के हकदार बन सकें ...

rashmi ravija said...

ये तो है...कि उनके सपने का हमें पता नहीं चलता....कुछ सपने पलते तो जरूर होंगे उनके मन में...भविष्य को लेकर कोई सोच भी होगी...पर वर्तमान उनका बहुत ही नीरस होता है. हर घर के लोग,अच्छा व्यवहार भी नहीं करते.

Sawai Singh Rajpurohit said...

आज मंगलवार 8 मार्च 2011 के
महत्वपूर्ण दिन "अन्त रार्ष्ट्रीय महिला दिवस" के मोके पर देश व दुनिया की समस्त महिला ब्लोगर्स को "सुगना फाऊंडेशन जोधपुर "और "आज का आगरा" की ओर हार्दिक शुभकामनाएँ.. आपका आपना

रेखा श्रीवास्तव said...

अजित जी

आपका कहना सही है, पुणे में ही क्यों ? ये तो दिल्ली और कानपुर में भी है. लेकिन इसका एक उदाहरण मुझे बहुत ही अच्छा मिला. मेरे बॉस के दोनों बेटे बाहर बसे हैं और वे और उनकी पत्नी. आई आई टी में, बड़ा सा घर और पीछे बढ़िया सा सर्वेंट क्वार्टर. उन्होंने एक लड़के को अपने घर में रखा . उसको घर का काम सिखाया और जब बड़ा हुआ तो उसके लिए लड़की देख कर उसकी शादी कर दी. वह अनपढ़ लड़का उनके घर में रहता है पत्नी घर के काम देख लेती है . उसके दो बच्चे हैं. वे बॉस को बाबा और उनकी पत्नी को दादी कहते हैं और बिल्कुल घर की तरह से उनके साथ व्यवहार होता है. हाँ रहते सर्वेंट क्वार्टर में हैं. लेकिन बॉस को गाड़ी से कहीं ले जाना है तो वह ड्राइवर भी है. ऑफिस में मीटिंग है तो उसमें जो उसके काबिल काम होगा कर देता है. वह अपना घर भूल गया और यही सब कुछ हो गया.

vandana gupta said...

विचारणीय आलेख है ………
सपने तो हर नज़र मे पलते हैं
मगर सच किसी नज़र के ही होते हैं

सिर्फ़ इतना ही कह सकती हूँ।
महिला दिवस की हार्दिक बधाई ।

डॉ टी एस दराल said...

अजित जी , समय के साथ सोच में बदलाव आ जाता है । आजकल बच्चे भी कहाँ जोइंट फैमिली में रहना पसंद करते हैं । फिर नौकरी भी तो अक्सर घर से बाहर ही मिलती है ।
वैसे पुणे की कॉर्पोरेट वर्ल्ड में बड़ी डिमांड है ।

प्रवीण पाण्डेय said...

बड़ा ही नया विषय उठाया है, पर मैंने बहुत से घरेलू नौकरों को अच्छी शिक्षा पाते देखा है।

ताऊ रामपुरिया said...

बहुत सटीक और सोचने को बाध्य करता है आपका लेखन. शुभकामनाएं.
रामराम.

Rahul Singh said...

नेपथ्‍य की बातें, परदे में रहने दो परदा ना उठाओ...

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

गांव हो या शहर.... सपने कब हुए अपने :(

राज भाटिय़ा said...

भारत मे जिन्हे हम नोकर कहते हे, असल मे यह नोकर नही एक तरह से गुलाम हे, जो सुबह मालिक के ऊठने से पहले ऊठ जाते हे, ओर मालिक के सोने के बाद ही सोते हे, इस को कोई इज्जत तो क्या इन के नाम से भी नही बुलाता, बात बात पर गाली गलोच,मार पिटाई ओर वेतन इतना कम कि हम सोच भी नही सकते, सोने के लिये घर का कोई कोना, खाने के लिये घर का बचा खुचा.... यह सब मैने अपनी आंखो से देखा, ओर बहुत दुख हुआ, यह गरीब लोग मजबूर हे, यह सब सहने के लिये, लेकिन हम लोगो को सोचना चाहिये कि यह भी इंसान हे हमारी तरह से.... कोई जानवर नही

रचना दीक्षित said...

यह विषय अच्छा लिया अजित जी. राज भाटिया जी का कथन से भी मैं पूरी तरह से इत्तेफ़ाक रखती हूँ. काम करने वाले और वालियां पहले भी होते थे लेकिन उनसे घरके सदस्यों कि तरह ही सम्बन्ध होते थे. ज़माना बदल रहा है. असंगठित क्षेत्र कि मजबूरियां भी हैं.

Patali-The-Village said...

सही मुद्दा उठाया है आपने| धन्यवाद|
महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं|

-सर्जना शर्मा- said...

अच्छा अब पता चला कि इतने दिनों से मेरी किसी भी पोस्ट पर आप ने कोई राय क्यों नहीं दी । आपकी राय का हमेशा इंतज़ार रहता है । ठीक लिखा आपने नौकरों की सख्त ज़रूरत है ,लेकिन आजकल की सोसायटी में सर्वेंट क्वार्टर तो दूर बूढ़े माता पिता के लिए जगह नहीं है । बड़े बड़े बिल्ड़रों के विज्ञापन देखिए पति पत्नी विज्ञापनों में अपने नए घरों में इठला रहे हैं । सम्रग समाज की सोच नहीं होगी तो ऐसा होगा ही जैसा आपने देखा और महसूस किया

Smart Indian said...

घरेलू नौकरों की स्थिति वाकई काफी खराब है, खासकर वे जो बचपन में ही गांव से लाये गये होते हैं।

सुनील गज्जाणी said...

अजित जी ,
प्रणाम !
समय के साथ सोच में बदलाव आ जाता है । आजकल बच्चे भी कहाँ जोइंट फैमिली में रहना पसंद करते हैं । फिर नौकरी भी तो अक्सर घर से बाहर ही मिलती है ।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

जिनकी बात आप कर रही हैं वो गाँव से आने से पहले सपने ले कर आते हैं ...लेकिन बन जाते हैं मात्र नौकर ...ज्यादातर इनका शोषण ही होता है ...लेकिन कुछ ऐसे परिवारों में पहुँच जाते हैं जहाँ उनको एक सदस्य की हैसियत भी मिल जाती है ..आज कल महानगरों में नौकर सप्लाई की एजेंसियां भी चल रही हैं ..और वहीं से हो जाता है इन बच्चों का शोषण ..

निर्मला कपिला said...

चलिये आप वापिस आयी बहुत अच्छा लगा। हम लोग इन बच्चों के बारे मे केवल सोच सकते हैं मगर कर कुछ नही सकते। फिर भी संवेदनायें व्यक्त कर आपस मे इस समस्या के बारे मे कुछ सोच सकते हैं। विषय बहुत अच्छा है। शुभकामनायें।

ZEAL said...

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जो नौकर अपने परिवार से दूर , किसी के घर रहकर काम करते हैं , उनकी स्थिति बहुत ही दयनीय है। निसंदेह उनकी आँखों में सपने नहीं होते । बहुत सी बातों पर डांट और हिंसा का भी शिकार होते हैं । लेकिन मजबूर हैं वे , गरीबी का कोई विकल्प नहीं । निर्धनता एक अभिशाप है ।

जो लोग नौकर रखते हैं वो कुछ बातों का ध्यान रख सकते हैं । जैसे --

* हमेशा नरमी से पेश आयें ।
* सहानुभूति का रवैया रखें ।
* जब वो मांगें तो उन्हें अवकाश अवश्य दें ।
* कभी भी उनकी तनख्वाह से पैसा न काटें।
* किसी भी हालत में १४ वर्ष से कम के लड़के अथवा लड़की से काम न कराएं ।
* इन्हें भी घर के सदस्य की तरह रखें ।
* कभी-कभी इनके लिए भी विशेष अवसरों पर तोहफे लायें ।

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mridula pradhan said...

ghar-pariwar aur apna pet bharne ka sapna lekar hi ye jeete chale jate hain.yahi inki majboori hai.ek nirupaye vyawastha.

हरीश सिंह said...

आदरणीय गुप्ता जी , सादर प्रणाम

आपके बारे में हमें "भारतीय ब्लॉग लेखक मंच" पर शिखा कौशिक व शालिनी कौशिक जी द्वारा लिखे गए पोस्ट के माध्यम से जानकारी मिली, जिसका लिंक है...... http://www.upkhabar.in/2011/03/jay-ho-part-2.html

इस ब्लॉग की परिकल्पना हमने एक भारतीय ब्लॉग परिवार के रूप में की है. हम चाहते है की इस परिवार से प्रत्येक वह भारतीय जुड़े जिसे अपने देश के प्रति प्रेम, समाज को एक नजरिये से देखने की चाहत, हिन्दू-मुस्लिम न होकर पहले वह भारतीय हो, जिसे खुद को हिन्दुस्तानी कहने पर गर्व हो, जो इंसानियत धर्म को मानता हो. और जो अन्याय, जुल्म की खिलाफत करना जानता हो, जो विवादित बातों से परे हो, जो दूसरी की भावनाओ का सम्मान करना जानता हो.

और इस परिवार में दोस्त, भाई,बहन, माँ, बेटी जैसे मर्यादित रिश्तो का मान रख सके.

धार्मिक विवादों से परे एक ऐसा परिवार जिसमे आत्मिक लगाव हो..........

मैं इस बृहद परिवार का एक छोटा सा सदस्य आपको निमंत्रण देने आया हूँ. आपसे अनुरोध है कि इस परिवार को अपना आशीर्वाद व सहयोग देने के लिए follower व लेखक बन कर हमारा मान बढ़ाएं...साथ ही मार्गदर्शन करें.


आपकी प्रतीक्षा में...........

हरीश सिंह


संस्थापक/संयोजक -- "भारतीय ब्लॉग लेखक मंच" www.upkhabar.in/

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

आदरणीय गुप्ताजी ,

आपकी दर्दयुत चिंता वास्तव में विचारणीय है | पापी पेट क्या-क्या नहीं कराता ? गरीब परिवार के ये बच्चे अपने माँ-बाप की जिंदगी की दुश्वारियां दूर करने की कोशिश में पैसे कमाने शहर जाते हैं |

हाँ , इनमे कुछ बिगडैल भी होते हैं |

इनके साथ मानवीय व्यवहार किया जाये , इनकी मनोभावनाओं को भी समझा जाये , यथासंभव इनकी सहायता की जाये |

रही बात सपनों की तो गरीबों के सपने बस दो जून की रोटी तक ही सीमित होते हैं | हाँ , ये बच्चे जो अच्छे परिवार में नौकरी करते हैं यदि सहयोग और अपनापन पायें तो कुछ अच्छा कर सकते हैं |

Rakesh Kumar said...

गावों में घटती खेती,शिक्षा की कमी रोजगार के अवसर न होना और बढते परिवारों की वजह से बाहर निकलना ही पड़ता है नौकरी के लिए.ऐसे में घरेलु नौकरों के साथ जैसा डॉ.दिव्या जी ने सुझाया उचित व्यवहार करना आवश्यक है .

आप काफी समय से मेरे ब्लॉग 'मनसा वाचा कर्मणा'पर भी नहीं आ पायें है.आपका बेसब्री से
इंतजार है'

अनामिका की सदायें ...... said...

bahut samvedensheel vishay hai. kayi baar main bhi aise naukron ko dekh kar isi soch par aa kar atak jati hun. lekin vo kahte hain na jiska jitna aakash hota hai vo utne hi sapne bunta hai...to inki pahuch ke hisab se inke sapne bhi apne khol me hi rahte honge...aur jo apne sapno ka mukhota khol dete hain vo galat raasto par bhi chal dete hain. man to sab ka hai so sapne bhi sabke hain. bas me to khud ko yahi jawab de kar santusht kar leti hun ki inke sapne bas itne hi hote honge ki 2 waqt ka bhar pait khana, sone ko sir pe chhat aur ghar bhaijne ko thode paise ho jis se ye bhi khush inka pariwar bhi khush. jb jb ye apne gaanv jate honge unke chehro par apne paise se laayi gayi khushi dekar bichare sukoon paa lete honge aur fir apne man ko naye safar ke liye taiyaar kar lete honge.

अजित गुप्ता का कोना said...

आप सभी ने अपने विचार रखे, आभारी हूं। सच है कि सभी लोग अपनी स्थिति के अनुसार ही सपने देखते हैं।

Khushdeep Sehgal said...

अजित जी,
ये पलायन का दर्द है...एक देश में दो देश की विषमता का दर्द है...घर पर ही सब कुछ मिले तो कौन घर छोड़ना पसंद करें...

रही नौकर की बात...कौन नहीं होगा जो देश में आरुषि के नाम को न जानता हो...लेकिन हेमराज या उसके परिवार की बात कौन करता है...सच्चाई जो भी हो लेकिन कत्ल तो हेमराज का भी हुआ...उसकी बूढ़ी मां, पत्नी और बच्चों का क्या कसूर जो नेपाल में रहते हैं...लेकिन उनका नाम सेलेबल नहीं हैं न...इसलिए कोई उनकी सुध लेने वाला भी नहीं...

जय हिंद..

कविता रावत said...

eksam sahi mudda uthaya hai aapne..
is disha mein har ek ko sochne kee jarurat hai, akhir we bhi hamari tarah hi insaan hai...samaj mein jan gagrti ke liye har kisi ko apne apne star se har sambhav pryas jarur karne chahiye.. mere khyal se iske liye kisi banner ke raah nahi dekhnee chahiye... har koi apne apne star se pryas karen to nishchit hi ek bada saarthak parivartan anne mein der nahi lagegi..
saarthak prastuti ke liye aapka bahut bahut aabhar

आचार्य परशुराम राय said...

समस्याओं में महत्वाकांक्षाएँ पनपती जरूर हैं। किन्तु जब समस्याएँ डम्प हो जायँ, सपने अंकुरित नहीं हो पाते। आपकी यह पोस्ट वैचारिक आलोड़न पैदा करती है। डॉ दिव्या के सुझाव अनुकरणीय हैं। आभार।

dr kiran mala jain said...

sapno ke bina jeeti hei jindigiyan
apne desh mei.Leave behind servants
tell me how many women have dreams
and how many fulfill them?In childhood parents decide what to do?
after marriage husband &his family
decide what to do ,and in old age i think children lead the role.

शोभना चौरे said...

यहाँ बेंगलोर में तो नेपाली , गोरखपुरी ,तेलुगु , तमिल ,बिहारी लोग घरेलू काम के लिए मिल जाते है और अधिकतर माल्स में तिब्बती लडकियों को ही देखना होता है |
जरुर इनकी भी कहानियां रहती है \