‘सुख के सब साथी, दुख में ना कोय’ यह कहावत जिसने भी ईजाद की होगी तब शायद यह कहावत चरितार्थ होती होगी। लेकिन आज के युग में यह कहावत मेरी समझ से परे है। मुझे तो हर ओर दुख के सब साथी सुख में ना कोय ही नजर आता है। फिर सुख और दुख का अर्थ भी व्यापक है जो आपके लिए सुख है वही दूसरे के लिए दुख बन जाता है। बचपन में जब पिताजी की मार पड़ती थी तब हम दुखी होते थे और पिताजी सुखी। तब हमारे भाई लोग हमारे दुख के आँसू पोछने आते और जिस दिन हमें डाँट भी नहीं पड़ती तो वे आँसू नहीं पोछने के दुख से दुखी होकर हमारी डाँट का बंदोबस्त करते थे। जब हम सायकिल पर सवार होकर कॉलेज जाते और कोई मनचला हमें छेड़ता तो रास्ते वाले हमारे दुख से दुखी होकर हमारे पास सांत्वना के लिए आ जाते। जिस दिन हम उस मनचले के जूते मारकर सुखी होते तब कोई भी हमारे पास नहीं होता उल्टे वे सब उस मनचले के आँसू पोछ रहे होते।
नौकरी में जब अफसर ने हमको खेद पत्र पकड़ाया तो सारे मित्रगण अफसोस जताने को आए और जिस दिन पदोन्नति के कागज मिले उस दिन कोई भी बधाई देने नहीं आया और शर्म लिहाज के मारे आ भी गए तो वही दुख प्रगट करने वाले शब्दों का ही सहारा लिया गया। ‘अरे आपका प्रमोशन हुआ अब आपको घर से बाहर अधिक रहना पड़ेगा तो आपके पति और बच्चे तो बेचारे कैसे रह पाएंगे?’ एक दिन सोचा चलो नौकरी छोड़कर घर का सुख ही ले लिया जाए और जो बेचारे हमारे नौकरी करने से यह कहकर दुखी थे कि आपके घरवाले तो कैसे सुखी रहते होंगे, तो हमने उनका दुख हलका करने के लिए नौकरी छोड़ दी। जैसे उठावणे में लोग आते है दुख प्रगट करने वैसे ही लोग चले आए। अरे आपने नौकरी छोड़ दी, अच्छी भली नौकरी को भला कोई इस तरह छोड़ता है? फिर धीरे से कान के पास मुँह ले जाकर पूछा कि कोई परेशानी थी क्या और थी तो हमसे कहते। भई हमें तो बहुत दुख हुआ सुनकर जो चले आए। मैंने कहा कि आपको दुखी होने की कतई आवश्यकता नहीं मैंने नौकरी सुख लेने के लिए छोड़ी है। मैं बहुत सुखी अनुभव कर रही हूँ। मेरे सुख का नाम सुनना था कि वह उठकर चले गए जैसे मरे की खबर सुनकर आए हों और मुर्दा जिन्दा हो जाए तो कहना पड़े अरे बेकार ही समय बर्बाद हुआ।
हम लेखक ठहरे और उस पर तुर्रा सामाजिक कार्यकर्ता का। जैसे करेला और नीम चढ़ा। लेखक भी क्या है लिखता गम के फसाने है और सुनाता हँसके है। लेखक के फटे हाल को देखकर कोई दया करके उसकी रचना पर कुछ बख्शीश दे देते हैं। लेकिन यदि वह सुखी दिखता है तो उसे कोई लेखक ही मानने को तैयार नहीं होता। सामाजिक कार्यकर्ता की भी ऐसी ही नियति है। यदि झोला लटकाए टूटी सायकिल पे चप्पल घिसटते हुए आपको कोई मिल जाए तो तुरन्त आपकी सहानुभूति उसके साथ होगी। लेकिन यदि कोई पढ़ा लिखा मुझ जैसा व्यक्ति समाज का कार्य करे तो लोग मुँह फेर लेते हैं। आजकल समाज का दुख दूर करने का भी फैशन चल निकला है। एक दिन भरी सर्दी में हमारे एक मित्र बोले कि चलो ऐसे सर्दी में बेचारे जो बिना कम्बल के सो रहे हैं उनको कम्बल बांट आएं। थोड़ा पुण्य कमा आएं। मैंने कहा कि किसे कम्बल बाँटोंगे? उन्होंने कहा कि कैसे सामाजिक कार्यकर्ता हो, तुम्हे दिखायी नहीं देता रात को फुटपाथ के किनारे बेचारे भिखारी सर्द में ठिठुर रहे हैं उन्हें ही देंगे। मैंने कहा वे तो व्यापारी हैं उनका भीख मांगना धंधा है वह बेचारे कैसे हो गए? फिर भी दुख में शामिल होने का उनका जोश कम नहीं हुआ और भरी ठण्ड में मुझे ले जाकर ही दम लिया। पूरे शहर के चक्कर काटकर पचासों सोए हुए लोगों के ऊपर कम्बल डालकर हम आ गए। वे भी किसी के दुख मंे शरीक हो कर तृप्त होकर सो गए। मैंने दूसरे दिन उनसे कहा कि उनके दुख को तो देख आए अब क्या उनके सुख को देखने नहीं चलोंगे? सर्द रात को फुटपाथ पर तुम्हारे कम्बल के सहारे सुख से सोते हुए लोगों का सुख क्या नहीं देखोंगे? उन्हें लगा कि चलो यह भी देख लिया जाए। वे दूसरी रात को हमारे साथ चल दिए। देखने के बाद वे दुखी हो गए और हम उनके दुख में शरीक होकर सुखी हो गए। एक भी भिखारी के तन पर कम्बल नहीं था। गुस्से में आगबबूला होकर उन्होंने एक को झिंझोड़कर उठाया और कहा कि कम्बल कहाँ है? कौन से कम्बल, पहले तो वह अनजान बना फिर कहने लगा कि अच्छा आपने ही रात को हमारे ऊपर डाला था क्या? वह तो हमने बेच दिया। भाईसाहब क्यों हमें दुखी करते हो हमें तो ऐसे ही रात गुजारने की आदत हैं। भीख मांगना हमारा पेशा है दिन में हाथ पसारते हैं और रात को भरी ठण्ड में खुली छत के नीचे सोकर मजबूत बनते हैं। बेचारे हमारे मित्र उनके सुख को देखकर दुखी हो गए और चुपचाप आकर सो गए।
अब अपनी बात कहती हूँ कि जब मन का सुख लेने के लिए हम पति-पत्नी जोर शोर से लड़ते हैं और हमारी आवाजे खिड़कियों से पार हमारे पड़ोसी सुनते हैं तब झट से कोई ना कोई पड़ोसी आ जाता है। हमें समझाता है और हमारे दुख में दुखी होकर अपार सुख पाता है। लेकिन जब कभी भूले भटके से पतिदेव हमारी मान मनौवल कर रहे होते हैं और हमारे पड़ोसी की हम पर नजर पड़ जाती है, पड़ौसी की नजर तो हमारे हर काम पर ही रहती है इसलिए ऐसे मौके पर भी पड़ना लाजमी है, तब पड़ोसी गुस्से से अपनी खिड़की का पर्दा खींच लेते हैं और बुरा मुँह बनाकर कहते हैं कि अपने प्रेम का ढिंढोरा पीट रहे हैं कल ही तो लड़ रहे थे और देखो आज कैसे चोंचले कर रहे हैं।
तो भाईसाहब आप ही बताइए कि लोग आपके दुख में कितने दुखी है और कितने आपके सुख को देखकर आपके साथ होते हैं? आप किस भ्रम में जीते हैं? आप यदि दुखी हैं तो चाहे कोई मित्र हो या शत्रु आपके आँसू पोछने चला आएगा और यदि आप सुखी हैं तो फिर चिड़ी का बच्चा भी पंख नहीं मारेगा। एक हमारी मित्र हैं, मित्र इसलिए कह रही हूँ कि हमारे दुख में वे सदैव दुख प्रकट करने आ ही जाती हैं और जब आ नहीं पाती तो फोन अवश्य कर देती हैं। उनमें इतना दुखों के प्रति संवेदना का भाव है कि वे केवल दुख के समय ही उपस्थित होती हैं। यदि आप भूले से सुखी हो जाए तो वे प्राणपण से दुख के स्रोत ढूंढने में लग जाती हैं। आपका सुख उन्हें फूटी आँख नहीं सुहाता और आपके सुख में वे बराबर की दूरी बनाकर रखती हैं। बस उनका मन हमेशा सहारा देने के लिए ही लालायित रहता है। एक दिन हमारे चोट लग गयी, कहीं से उनको भी खबर लगी। उन्होंने सांत्वना का कोई मौका नहीं छोड़ा था तो आज कैसे छोड़ती, तुरन्त फोन किया और हालचाल पूछा। मैंने कहा कि आपका इतने दिनों बाद फोन आने का कारण? उन्होंने कहा कि बहुत दिनों बाद मौका मिला, इसलिए फोन किया वरना आप तो मौका ही नहीं देतीं।
मेरे जैसे उदाहरण आपके जीवन में भी बिखरे पड़े होंगे। मेरी बात पर यदि गौर कर सको तो करना वैसे मेरा क्या है एक लेखक हूँ, जिसका कोई वजूद नहीं होता। बेचारा लेखक तो वह प्राणी है जिसके पास ना कोई दुख देखकर आता है और ना कोई सुख देखकर। क्योंकि वह बेवकूफ किस्म का व्यक्ति दुख में भी सुख ढूंढ लेता है। रुदन में भी हास्य ढूंढ लेता है तो फिर ऐसे सिरफिरों के पास भला कोई सांत्वना देने भी क्यों आए। आप तो बस दुख में शरीक होकर कहावत को झूठा सिद्ध करते रहिए और देश के संवेदना वाले नागरिक बनने का सौभाग्य पाइए। किसी को भी सुखी देखें तो उसे दुखी करने का मौका जरूर तलाशे। तभी आप इस देश के महान नागरिक बन पाएंगे।
व्यंग्य संग्रह - हम गुलेलची - लेखक- अजित गुप्ता
46 comments:
बहुत बढ़िया जोरदार व्यंग्य.... आभार
अर्थपूर्ण व्यंग्य ...शुक्रिया
चलते - चलते पर आपका स्वागत है
अजित जी,
बेसिकली हम सैडिस्टिक (परपीड़ा में आनंद लेने वाले) प्रवृत्ति के हैं...अगर हम रोटी खा रहे हैं और साथ वाले पड़ोसी भी खा रहे हैं तो फिर हमारी रोटी का क्या मज़ा...मज़ा तो तभी है जब पड़ोसी भूखा रहे या रूखी सूखी पर ही गुज़ारा करे और हमें पकवान और तर माल मिलता रहे...
जय हिंद...
आदमी दुखी ही इसलिये है कि उसे अपने सुख की चिंता नहिं, दूसरा सुखी क्यों है इसी दुख से दुखी है।
एक लेखक हूँ, जिसका कोई वजूद नहीं होता। बेचारा लेखक तो वह प्राणी है जिसके पास ना कोई दुख देखकर आता है और ना कोई सुख देखकर। क्योंकि वह बेवकूफ किस्म का व्यक्ति दुख में भी सुख ढूंढ लेता है। रुदन में भी हास्य ढूंढ लेता है
sabka khusi ka tarika alag alag hota hai.
बहुत बढ़िया व्यंग ....वैसे लोंग अपने दुःख से कम दुखी होते हैं ,दूसरे के सुख से ज्यादा दुखी होते हैं
अच्छा लगा ये तरीका भी व्यंग करने का
क्योंकि वह बेवकूफ किस्म का व्यक्ति दुख में भी सुख ढूंढ लेता है। रुदन में भी हास्य ढूंढ लेता है
क्या बात कही है...
बेचारा लेखक तो वह प्राणी है जिसके पास ना कोई दुख देखकर आता है और ना कोई सुख देखकर। क्योंकि वह बेवकूफ किस्म का व्यक्ति दुख में भी सुख ढूंढ लेता है। रुदन में भी हास्य ढूंढ लेता है तो फिर ऐसे सिरफिरों के पास भला कोई सांत्वना देने भी क्यों आए।
आपकी बात से सहमत हूं बहुत सटीकता से आप बात को कह गई हैं. शुभकामनाए.
रामराम.
व्यंग्य और इस गंभीरता से कि किसी वैचारिक लेख का भ्रम हो. (वेसे पढ़ते हुए टिप्पणी बनी थी- 'ये क्या हो गया आपको.)
... bahut sundar !!!
हमारे अनुभव भी आप जैसे ही रहे हैं. दुःख भोगने वाले के पास सुख मिलने की लालसा लिए ही जाते हैं. सुन्दर आलेख.
मैं बंटी चोर जूठन चाटने वाला कुत्ता हूं। यह कुत्ता आप सबसे माफ़ी मंगता है कि मैने आप सबको परेशान किया। जाट पहेली बंद करवा के मुझे बहुत ग्लानि हुई है। मेरी योजना सब पहेलियों को बंद करवा कर अपनी पहेली चाल्लू करना था।
मैं कुछ घंटे में ही अपना अगला पोस्ट लिख रहा हू कि मेरे कितने ब्लाग हैं? और कौन कौन से हैं? मैं अपने सब ब्लागों का नाम यू.आर.एल. सहित आप लोगों के सामने बता दूंगा कि मैं किस किस नाम से टिप्पणी करता हूं।
मैं अपने किये के लिये शर्मिंदा हूं और आईंदा के लिये कसम खाता हूं कि चोरी नही करूंगा और इस ब्लाग पर अपनी सब करतूतों का सिलसिलेवार खुद ही पर्दाफ़ास करूंगा। मुझे जो भी सजा आप देंगे वो मंजूर है।
आप सबका अपराधी
बंटी चोर (जूठन चाटने वाला कुत्ता)
मैं बंटी चोर जूठन चाटने वाला कुत्ता हूं। यह कुत्ता आप सबसे माफ़ी मंगता है कि मैने आप सबको परेशान किया। जाट पहेली बंद करवा के मुझे बहुत ग्लानि हुई है। मेरी योजना सब पहेलियों को बंद करवा कर अपनी पहेली चाल्लू करना था।
मैं कुछ घंटे में ही अपना अगला पोस्ट लिख रहा हू कि मेरे कितने ब्लाग हैं? और कौन कौन से हैं? मैं अपने सब ब्लागों का नाम यू.आर.एल. सहित आप लोगों के सामने बता दूंगा कि मैं किस किस नाम से टिप्पणी करता हूं।
मैं अपने किये के लिये शर्मिंदा हूं और आईंदा के लिये कसम खाता हूं कि चोरी नही करूंगा और इस ब्लाग पर अपनी सब करतूतों का सिलसिलेवार खुद ही पर्दाफ़ास करूंगा। मुझे जो भी सजा आप देंगे वो मंजूर है।
आप सबका अपराधी
बंटी चोर (जूठन चाटने वाला कुत्ता)
मैं बंटी चोर जूठन चाटने वाला कुत्ता हूं। यह कुत्ता आप सबसे माफ़ी मंगता है कि मैने आप सबको परेशान किया। जाट पहेली बंद करवा के मुझे बहुत ग्लानि हुई है। मेरी योजना सब पहेलियों को बंद करवा कर अपनी पहेली चाल्लू करना था।
मैं कुछ घंटे में ही अपना अगला पोस्ट लिख रहा हू कि मेरे कितने ब्लाग हैं? और कौन कौन से हैं? मैं अपने सब ब्लागों का नाम यू.आर.एल. सहित आप लोगों के सामने बता दूंगा कि मैं किस किस नाम से टिप्पणी करता हूं।
मैं अपने किये के लिये शर्मिंदा हूं और आईंदा के लिये कसम खाता हूं कि चोरी नही करूंगा और इस ब्लाग पर अपनी सब करतूतों का सिलसिलेवार खुद ही पर्दाफ़ास करूंगा। मुझे जो भी सजा आप देंगे वो मंजूर है।
आप सबका अपराधी
बंटी चोर (जूठन चाटने वाला कुत्ता)
सच्चाई है कि यही जीवन है ...यही जीना है ! शुभकामनायें
shandar aalekh .dikhava karne valon logon ke muhh par karara tamacha swaroop yah aalekh hai
ये एक सच्चाई भी है...लेकिन ये भी कितनी बड़ी सच्चाई है की फिर भी तो इंसान हर खुशी में दूसरे इंसान का साथ चाहता है.
आज भी तो हम भारतीय जरा सी खुशी को ढोल पीट पीट कर मनाते है जहाँ अँगरेज़ हलकी सी मुस्कराहट से ही इतने बड़े त्यौहार को निकाल देते हैं.
कुछ भी हो है तो अपना भारत महान.
चाहे लोग सुख में दुखी हो या दुख में..फिर भी हर बात पुरे जोर शोर से मनाई जाती है...किस लिए? आफ्टर आल सब को इकठ्ठा करने के लिए. हा.हा.हा.
दूसरों की पीड़ा में दुखी होने वाले बिरले ही होते हैं।
व्यंगात्मक आलेख पढकर अच्छा लगा।
अब सुख दुख, दूर के ढोल हो गए हैं
अब जमाना नया आया है
टिप्पणी तोकू जादा मिलै
तो दुखी मन मेरा होय
जो तोकू टिप्पणी न मिले
तो मन मुदित होय होय
वरना हाय हाय हाय
।।।
छिपकलियां छिनाल नहीं होतीं, छिपती नहीं हैं, छिड़ती नहीं हैं छिपकलियां
क्या खूब परिभाषा दी है आपने सुख और दुःख की.. बिल्कुल सटीक.. मज़ा आ गया..
मनोज खत्री
---
यूनिवर्सिटी का टीचर'स हॉस्टल - अंतिम भाग
आपका दर्द समझ सकती हूँ ...:):)
विशेषकर महिलाओं के साथ ऐसा ही होता है ...कही टिप्पणी में पहले भी लिखा था कि ...
महिलाओं की रोती आँखों को कंधे आसानी से मिल जाते हैं ...मगर हँसते हुए देख बहुत से माथे पर त्योरियां नजर आ जाती है
सार्थक लेखन ...
आभार !
अजित जी अच्छा व्यंग है , जिसमें दर्द भी छुपा है
मानवीय कमजोरियां हर इंसान में होती है......इससे छुटकारा पाना सहज नहीं लेकिन लगातार आत्मनिरीक्षण के जरिये कोशिस जारी रहनी चाहिए ...........दूसरों की कमियों को देखना फिर उसके तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर ईमानदारी से अपने बारे में सोचने से मानवीय कमजोरियों से कुछ हद तक छुटकारा पाया जा सकता है............ये बात भी सही है की भ्रष्टाचार,कुव्यवस्था ,लोभ-लालच ने किसी इंसान के जिन्दा रहने के लिए सबसे जरूरी चीज "सामाजिक परिवेश" को पूरी तरह दूषित कर दिया है.........
अर्थपूर्ण व्यंग्य ....आप से सहमत हूँ..... और यह बात आज के दौर में कुछ ज्यादा ही प्रासंगिक लगती है.....
kaafi satik baat kahi hai
बहुत ही सटीक व्यंग्य...आभार
व्यंग की आपकी अदा भी खूब है ... लाजवाब लिखा है ...
सार्थक व्यंग्य !
वर्तमान समय की कडवी वास्तविकता यही है कि आप सुखी क्यों हैं ?
ब्लाग पर मेरा शायद यह पहला व्यंग्य था। अक्सर सम सामयिक ही लिखा करती हूँ लेकिन इस बार लगा कि अपनी पुस्तक से एक व्यंग्य यहाँ दूं तो मैंने यहाँ पोस्ट किया था। जीवन में हमेशा गम्भीर बात ही करने से कभी अरुचि सी हो जाती है इसलिए सोचा कि व्यंग्य ही लिखा जाए। आप सभी ने अपनी-अपनी बात कही, इसके लिए आभारी हूँ। इसी प्रकार स्नेह बनाए रखें।
‘तो भाईसाहब आप ही बताइए कि लोग आपके दुख में कितने दुखी है और कितने आपके सुख को देखकर आपके साथ होते हैं? ’
तभी तो कहते हैं दुख में सुमिरन सब करें.... :)
अच्छा कटाक्ष है।
"किसी को भी सुखी देखें तो उसे दुखी करने का मौका जरूर तलाशे। तभी आप इस देश के महान नागरिक बन पाएंगे।"
बिलकुल सटीक बात :)...लोगों की फितरत यही है...कहीं से भी कमियाँ ढूंढ ही निकालते हैं...
बहुत ही जोरदार व्यंग्य
अजित जी ... सबसे पहले तो मैं माफ़ी चाहूंगी आपको मेरे ब्लॉग पर वो चित्र बुरा लगा ... मैंने वो हटा दिया है .... मैंने पहले भी ये पोस्ट डाली थी और ये ही चित्र है वहाँ अभी भी ... मुझे वो बहुत खूबसूरत लगा था बहुत गहराई लगी उस पेंटिंग में .. अगर मैंने किसी भी तरह आपकी भाव्व्नाओं को ठेस पहुंचाई है तो अपनी बेटी समझ कर माफ़ कर दीजियेगा ..
आप मेरे ब्लॉग पर पहली बार आयीं ..अगर आप दोबारा दर्शन देंगीं तो मैं समझूंगी आपने मुझे माफ़ कर दिया ...
आपका बहुत बहुत धन्यवाद ...
sundar vyngy rachna badhai ajit guptaji
व्यंग्य में ही आपने यथार्थ का चित्रण कर दिया.अडौसी-पडौसी ,मित्र सब की कलई बहुत अच्छी खोली है.
अजित जी,
नमस्ते!
लीजिये हम भी आ गए आपका दुःख बांटने!
हा हा हा....
स्वाद आया माते!
आशीष
---
नौकरी इज़ नौकरी!
" व्यंग्य " प्रस्तुत करने का बहुत बढ़िया " ढंग "
सटीक व्यंग्य! हमारे शुभाकान्क्षी यह जानते हैं कि सुख को अकेले आराम से निभाया जा सकता है इसलिये केवल दुख में सहायता करने के लिये तत्पर रहते हैं। परहित सरिस धर्म नहिं ....
यही तो संसार की रित है अजितजी
हम सब ही तो कलाकार है |
बहुत सटीक व्यंग्य |
ekdam teek.
आपका ये लेख मेरे वर्तमान जीवन से बिल्कुल सटीक है . मैंने भी अपने सुख के लिए नौकरी छोड़ दी . अब दिन में तीन चार फ़ोन लोगो के आ ही जाते है . दोस्ती और नजदीक नजर आ रही है... पर वो मुझे दुखी ना होने की सलाह जरुर देते है पर मुझे तो कोई दुःख नहीं है ऐसा सुनने पर आगे की चिंता का इजहार करते है .... पर अच्छा है उन्हें शायद इसी बहाने उनके अहम को सुख मिलता हो .../
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