आज संगीताजी की एक पोस्ट कर्मकाण्डों को लेकर आयी। मुझे लगता है कि समाज में स्थापित कर्म-काण्ड और रीति-रिवाज पर चर्चा होनी चाहिए कि यह सामाजिकता और परिवार के लिए कितने आवश्यक हैं और कितने अनावश्यक। आज के युग में कई बार देखने में आता है कि हम ऐसे रिवाजों को त्याग देते हैं जिनसे परिवार और समाज का ढांचा सुदृढ़ होकर एकसूत्र में बंधता है लेकिन ऐसे रिवाजों को अपनाकर रखते हैं जो केवल व्यक्तिगत हित साधन के होते हैं।
कई वर्ष पूर्व की बात है, मेरी ननद के ससुरजी का देहावसान हुआ। चूंकि मेरी ननद को हमने पुत्री की तरह ही पाला था इसलिए सभी हमें ही उनका समधी मानते हैं। भारतीयों के एक आम रिवाज है कि मृत व्यक्ति की देह पर उसके समधियों के यहाँ से सम्मान सूचक एक शॉल उन्हें उढाया जाता है। जैसे हम पुष्प रखते हैं वैसे ही समधी शॉल उढाता है। लेकिन मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि फालतू के रीति-रिवाज कहकर शॉल पर पाबन्दी लगा दी गयी। मैंने वहाँ समझाने का प्रयास किया कि यह तो मृतक का सम्मान है इससे दोनों परिवारों के मध्य प्रेम बढ़ता है। क्योंकि जहाँ अधिकार होता है वहाँ प्रेम भी बढ़ता है। लेकिन मेरी नहीं सुनी गयी। उस समय कोई बखेड़ा खड़ा करने का मेरा भी मन नहीं था और यह बखेड़ा भी जिस महिला के द्वारा किया गया था उसका कारण भी दूसरा था क्योंकि उसके यहाँ से कोई शॉल लाने वाला नहीं था।
अभी दो दिन पूर्व मुझे बताया गया कि पूरे स्थानीय समाज ने निर्णय लिया कि शॉल नहीं उढाया जाएगा। मुझे तो तकलीफ हुई क्योंकि मैं इस रिवाज के कारण कोई आर्थिक बोझ नहीं देख पा रही हूँ केवल यह तो एक सम्मान का प्रतीक है। जैसे हम किसी बड़े राजाध्यक्ष की मृत्यु पर पुष्पचक्र चढ़ाते हुए सेनाध्यक्षों आदि को देखते हैं।
ऐसे ही एक कर्म-काण्ड के बारे में भी आप सभी का परामर्श चाहती हूँ, मृत्यु बाद हम मृत-देह की अस्थियों को चुनकर उनका विसर्जन करते हैं। यह एक कर्मकाण्ड है लेकिन यह कर्मकाण्ड क्या हमें मन की शान्ति प्रदान नहीं करता है? केवल यह कहकर कि यह कर्मकाण्ड है उसे छोड़ दिया जाए, मुझे उचित नहीं मालूम होता है। परिस्थितिवश आप कुछ नहीं कर सकते वह बात अलग हो सकती है लेकिन इस कर्मकाण्ड को अनुचित बताना मुझे असंवेदनशीलता लगती है। ऐसे ही कई कर्मकाण्ड और रिवाज है। जिनपर चर्चा की आवश्यकता है कि ये हमारे जीवन के लिए कितने उपयोगी हैं और कितने अनुपयोगी। आप सभी के विचार आमंत्रित हैं। अभी केवल विषय पर केन्द्रित रहेंगे तो चर्चा सार्थक होगी। हम अन्य रिवाजों पर अलग से चर्चा कर सकते हैं।
34 comments:
ये स्तिथि बड़ी रोचक है, आप कह रहे है, की शौल ओढ़ाना रीति रिवाज है, और फिर आप कहते हो की समाज ने सामूहिक रूप से निर्णय लिया की इसे बंद कर दिया जाए. अब जब रीति रिवाज समाज ने ही बनाए है तो उन्हें कायदे से तो पूरा अधिकार है उन्हें बदलने का.
रही बात मन की शान्ति की तो वो तो बड़ा मुश्किल काम है, खुदी को समझाना पड़ता है. जहाँ तक मेरा निजी मत है, वो ग़ालिब का शेर है न :
जिस्म जला है जहाँ, दिल भी जल गया होगा,
कुरेदते हो जो राख, जुस्तजू क्या है !
@अजित गुप्ता जी
सादर प्रणाम
आपने कहा की मृत्युपर्यंत मृतक की अस्थियों को विसर्जित करने का कर्म-कांड हमें मन की शान्ति प्रदान करता है ,लेकिन अपने मन की शान्ति की खातिर नदी के जल को प्रदूषित करना किस प्रकार से उचित है ??
इसी प्रकार मृतक की देह को स्त्री के द्वारा मुखाग्नि दिए जाने को कई धर्मों में मान्यता प्राप्त नहीं है ,छोटे शहरों ,कस्बों और गाँवों में तो शव यात्रा में स्त्रियों का जाना सर्वथा निषिद्ध है भले मृतक स्त्री हो या पुरुष या मृतक के अपने घर का कोई पुरुष संबंधी हो या न हो
क्या ये रिवाज और कर्मकांड उचित हैं ??
जन्माष्टमी पर दही-हांडी नाम के उत्सव पर हर साल हज़ारों लोग या फिर कहें की गोविंदा अपंगता को प्राप्त हो जाते हैं और उनमे से कई की तो मृत्यु भी हो जाती है
मुझे तो ये सभी तथा अन्य बहुत से रीति-रिवाज बिलकुल उचित नहीं प्रतीत होते और खासकर कर्म-कांड तो बिलकुल ही नही
महक
शॉल ओढ़ाकर अगर सम्मान होता है तो मैं यह कहता हूँ कि किसी मृत इंसान का सम्मान करना उतना सार्थक नहीं होता जितना एक जीवित आदमी का होता है..
कई किस्से ऐसे भी हैं जब बच्चे अपने माँ-बाप का अंतिम संस्कार खूब सम्मान और पैसे लगाकर करते हैं और उससे पहले उन्हें वृद्ध-आश्रम में रखते हैं.. यह कहाँ तक उचित है?
यह मसला ऐसा है जिसपर काफी विचार किया जा सकता है..
ाजित जी इस संदर्भ मे एक बात बताती हूँ कि नेहरू जी ने कहा था कि मेरी अस्थियों को सतलुज मे प्रवाहित किया जाये यहाँ यहां जिन खेतों मे इनका पानी जाये वहाँ कि लहलहाती फसल मेरी आत्मा को शान्ती देगी ाउर इस तरह मै पूरे देश मे फैल जाऊँगा।। ये बात अपने पिता जी से4 सुनी थी \और कभी नही भूली अपने शहर मे रोज़ इस नहर को देखती हूँ तो जरूर नेहरू जी की तस्वीर आँखों मे घूम जाती है जब भी जाती हूँ सत्लुज नदी को देखती हूँ तो मुझे उसमे नेहरू जी का अक्स दिखाई देता है। अस्थियाँ विसर्जित करना जरूरी कर्मकाँड है। बहुत से कर्म काँड जरूरी हैं मगर हम अपनी स्थिती समर्था अनुसार उन्हें खुद ही बदल लेते हैं। आज आदमी कितना स्वार्थी हो गया है। ये चर्चा भी बहुत जरूरी है। धन्यवाद। आपके पोते के लिये भगवान से दुआ करती हूँ कि जल्दी ठीक हो जाये। मेरी बेटी ने बताया है कि उसे कुछ फर्क पडा है। धन्यवाद।
mae yae maantee hun ki koi bhee reeti riwaaj us vyakti sae badaa nahin hota jis kae yahaan gami hotee haen . agar ham wo sab karey jo wo chahtaa haen to usko maansik shanti milaegi aur yae us vakt bahut jaruri haen
ham kyaa chahtey haen
kyaa hota rahaa haen
in sab sae upar haen us vyakti ki ichcha jo vyathit haen
मेरे ख्याल से तो जीते जी अगर किसी को सम्मान दे दिया जाये वो ही काफ़ी है …………………सिर्फ़ रिवाज़ के नाम पर कुछ करना कोई औचित्य नही रखता……………क्योंकि रिवाज़ हमारे ही बनाये हैं और उन मे समय के साथ बदलाव आते रहते हैं………………और सम्मान दिल मे होता है वैसे भी जो मर गया वो पंचतत्व मे मिल गया फिर शरीर ही रह जाता है अब उसे जलाया जाये या दफ़नाया या कोई भी तरीका अख्तियार किया जाये जो जीव था वो तो गया ये तो सिर्फ़ समाज को दिखाने के नाम पर किया गया ढोंग ही प्रतीत होता है जैसे सब श्राद्ध करते हैं मगर जीते जी अपने माँ बाप को पूछते भी नही तो ऐसे कर्म करने से क्या फ़ायदा अगर सच्ची श्रद्धा है तो उस पैसे को किसी नेक काम मे लगाया जाये किसी गरीब को भोजन कराया जाये तो शायद ज्यादा आत्मसंतुष्टि मिले बजाय पंडितों को देने के क्योंकि रिवाज़ के मुताबिक तो पंडित को एक ही घर मे खाना चाहिये मगर आज देखिये एक ही दिन मे ना जाने कितने घरों मे जाते हैं और कहीँ भी भरपेट नही खाते जबकि ऐसा नही होना चाहिये रिवाज़ के मुताबिक्…………………आजकल सब रिवाज़ अपनी सहूलियतों के हिसाब से तय किये जाते हैं इसलिये उनका कोई औचित्य नही रह गया बस वो कार्य करना चाहिये जिससे आत्मसतुष्टि मिले।
अगर कुछ अनुचित लगा हो तो माफ़ी चाह्ती हूँ ये मेरे निजी विचार हैं।
वन्दनाजी, मैंने यहाँ एक चर्चा आरम्भ की है, जिसमें सभी के विचार आमंत्रित हैं। इसमें बुरा लगना या अच्छा लगने वाली कोई बात ही नहीं है। मैं केवल इन दो बिन्दुओं पर ही चर्चा करना चाह रही हूँ, सम्पूर्ण समाज की रीतियों को सम्मिलित करेंगे तो सारी ही खराब हो जाएंगी या सारी ही अच्छी। क्या बचना चाहिए और क्या समाप्त बस इसी पर चर्चा है।
अजीत जी ,
अओने रीति रिवाज़ और कर्म कांडों की बात की है ..तो रीति तिवाज़ समाज के द्वारा ही निर्धारित होते हैं ...जहाँ तक मृतक पर शॉल डालने का रिवाज़ है ... आर्थिक बोझ न होते हुए भी बस एक दिखावा ही है ...क्यों कि वो सारे शॉल शव को जलाने से पहले उतार दिए जाते हैं और शवदाह के स्थान पर जो लोग होते हैं वो ले जाते हैं ..हाँ उस वक्त यह सब करना शायद मानसिक संतुष्टि दे जाता हो ..इससे बेहतर तो यह है कि जिसको शॉल चढाया जाना हो उनके नाम पर ही गरीबों में बाँट दिया जाये ..लेकिन यहाँ तो गिना जाता है कि कितनी शॉल चढ़ीं ? अर्थात कितना भरा पूरा परिवार था ..इसका अंदाजा भी शॉल की गिनती से लगाया जाता है .. खैर ..कहने का अर्थ यही है कि मरने वाला तो चला गया बाकी जो कुछ भी किया जाता है वो या तो अपने मन की शान्ति के लिए किया जाता है या समाज में दिखावे के लिए ..तो दिखावा बंद कर दिया जाये तो बेहतर ही होगा ...
रही अस्थियों के विसर्जन की बात ...तो हर धर्म में अलग अलग तरीके से अंतिम संस्कार होते हैं ..असल में तो मृत शरीर को ठिकाने लगाना होता है .. बाकी वंदना की बात से सहमत हूँ ..
समय के साथ , रीती-रिवाजों में भी परिवर्तन की संभावना रहती है...
अजित गुप्ता जी,
मरने के बाद मृतक की देह से क्या सुलूक किया जाए यह अलग-अलग धार्मिक प्रथाओ के हिसाब से अलग-अलग है ! लेकिन तात्कालिक उद्देश्य सब में यही छुपा है कि देह को इसलिए ठिकाने लगाया जाए ताकि वातावरण दूषित न हो ! अगर मरने के बाद स्वर्ग नरक है ( जो किसी ने नहीं देखे ) तो जिसे जलाया जता है वह भी जाता होगा जिसे दफनाया जाता है वह भी जाता होगा, जिसे डुबोया जाता है वह भी जाता होगा ! तो ये सब इंसानी मान्यताये है जब चाहो इन मान्यताओं में सुधार-बिगाड़ कर लो, यह समाज के ऊपर है ! अभी चंद रोज पहले आपने अखबारों में दिल्ली का किस्सा पढ़ा होगा चार महीने से मानसिक रूप से विक्षिप्त लडकी अपनी मां की मृत देह के साथ रह रही थी ! उसके लिए क्या रीती, क्या रिवाज और क्या मान्यताये !!
अजित जी रीति रिवाज तो सभी अच्छॆ ही है, लेकिन समय के हिसाब से बदलते भी है, अब समुहिक भोज , या उस समय घर आई बेटियो को( बुआ, मोसी ओर अन्य रिशते मै लडकियो को) हमारे यहां कपडे देते है फ़िर कुछ धन भी देते है, पगडी रस्म पर मरने वाले के बच्चो को भी नगद देते है, यह रस्मे खराब नही, इस से हम सब एक दुसरे के पास आते है, सहानुभुति मिलती है, क्योकि आज रिश्ते दार दुख या सुख के मोको पर ही मिल पाते है, ओर फ़िर सभी मिल कर अपनी अपनी जिम्मेदारी निभाते है, जिस के कारण उस परिवार के लोगो को भी हिम्मत मिलती है, मेरे पिता जी ओर मां की मोत के समय मैने अपने खान दान की सभी लडकियो को सुट का कपडा ओर नगद दिया, पगडी रस्म पर मुझे भी रस्म के हिसाब सेओर लोगो ने अपनी जेब के हिसाब से मुझे नगद दिया, जो मेरे लिये वेसे तो तुच्छ् था, यानि बहुत कम, लेकिन उस मै जो लोगो की भावना जुडी थी, जो प्यार ओर अपना पन था, वो बहुत कीमती था, ओर मुझे लगता है ऎसे मोको पर जिन के पास पेसा नही होता उन्हे भी लोग मदद दे तो अ्च्छा है, यही मोके है जब हमे अपने बच्चो को बताने का मोका मिलता है कि हमारे कितने रिशते दार है, ओर कहां कहां रहते है,
लेकिन कई कर्म-कांड गलत भी है, जो सिर्फ़ पंडितो ने लुटने के लिये बनये है, बस उन से बचा जाये तो बाकी सब ठीक है, ओर यह कर्म-कांड सभी देशॊ मै सभी धर्मो मै होते है, मरने वाले पर इन कर्म-कांडओ का क्या असर होता है पता नही, इस लिये हम इन्हे मना भी नही कर सकते, करे लेकिन ध्यान से लुटे नही, ओर ज्यादा दिखावा ना करे,साधारण रुप मै यह ठीक लगते है
कृपया पाठक यह गलतफहमी न पालें कि कर्मकांड मृत व्यक्तियों के लिए किए जाते .. ये उनके नाम पर जीवित लोगों और समाज के लिए किए जाते हैं .. ठंड से ठिठुरते गरीबों को शॉल दान किए जाने के लिए यदि ऐसी प्रथा बनी हो .. जैसा कि अजीत गुप्ता जी ने बताया .. और संगीता स्वरूप जी ने पुष्टि की .. तो इसमें गलत क्या है .. मरे हुए व्यक्ति को स्वर्ग पहुंचाने के झूठे अंधविश्वास से समाज का भला ही तो हुआ .. यदि पाप का भय और पुण्य का लालच न होता .. तो मेरा दावा है कि आज तक समाज के कल्याण के नाम पर जो भी चंदे मिल रहे हैं .. सारे के सारे बंद हो गए होते .. सामाजिक व्यवहार में कर्मकांड से बचना मुश्किल है .. यह अवश्य हो सकता है कि इसका स्वरूप परिवर्तित हो जाए .. यह आज की परिस्थितियों के सापेक्ष बन जाए .. नदी में अस्थियों का प्रवाह लाभदायक है या हानिकारक .. यह आज के पर्यावरणविद ही बता सकते हैं .. उसके अनुसार कर्मकांड को बदला जा सकता है .. लेकिन इसकी प्रथा जब शुरू की गयी होगी उस वक्त लाभदायक रही होगी .. ऐसा मेरा विश्वास है !!
shawl ityadi garibo mae nahin abntey haen marghat par jamaadar inko laetey haen aur aaj kal yae puneh bajaar mae aakr biktey haen
yahii naariyal kaa hotaa haen
dilli mae jagaj aesa hi naariyal sadko par biktaa haen jo marghat sae aataa haen
मूलत: दो बातें हैं
आप आत्मा को मानते हैं या नहीं?
यदि नहीं,तो फिर सब कर्म-कांड़ फज़ूल की बातें हैं. परंतु फिर भी,जिससे शोक सतृप्त परिवार का दुख कुछ कम हो सके कर लेने में बुराई ही क्या है?
यदि हाँ तो फिर इन कर्म-कांड़ॉं का मतलब स्वत: ही हो जाता है. माना जाता है कि स्थूल शरीर के पीछे एक सूक्ष्म शरीर भी होता है, जो आगे यात्रा करता है. इसी शरीर में मृतक की वासानायें सूक्ष्म रूप में होती हैं.
मृत्यु के समय के हिन्दू रीति-रिवाज़ों के पक्ष में दिया जाने वाला एक तथ्य मुझे बहुत प्रियकर है जिसके अनुसार इतने सारे कर्म-कांड़ों में उलझने के कारण शोक सतृप्त परिवार क्रियाशील रहता है वरना दुख की पीड़ा असहनीय हो सकती है और डीप डिप्रेशन की सी स्थिति हो सकती है.
अजितजी
रीती रिवाज तो बदलते रहते है समय के साथ |आप कल्पना कीजिये कई सालो पहले गाँव में किसी की म्रत्यु होती थी आवागमन के साधन नहीं होते थे कई बार रिश्तेदारों को १० -१२ दिन बाद ही खबर मिलती थी तब कैसी मायके की शाल और सगे सबंधियो के द्वारा ओढाई गई शाल ?कहने का मतलब है की जैसे जैसे आर्थिक समर्धि हुई आना जाना सुगम हुआ रीती रिवाजो ने भी रूप बदल लिया |और दिखावा ज्यादा हो गया हमने कभी कभी शाल देखि है? जो उनपर ओढाई जाती है और उनका क्या होता है ?इन सब चीजो में न पड़कर इतना ही कहूँगी समय पर जो उपलब्ध हो जाय
जिससे शव का सम्मान हो फूल न हो फूल की पंखुरी ही काफी है | और आने वाला हर व्यक्ति केवल श्रद्धा के फूल अर्पित करे ये न बुदबुदाये की उसने तो शाल चड़ाई ही नहीं ?और ऐसी नकारात्मक बाते ही वैमनस्य और दिखावे को बढ़ावा देते है |कल ही एक मेसेज आया है
जिन्दगी में २पल कोई मेरे पास न बैठा ,आज सब मेरे पास बैठे जा रहे थे कोई तोहफा न मिला अज तक मुझे और आज फूल ही फूल दिए जा रहे थे ,तरस गया मई किसी के हाथ से दिए वो एक छोटे से रुमाल को और आज नए नए ओधाये जा रहे थे ,दो कदम चलने को साथ नथा कोई और आज काफिला बनकर चले जा रहे थे ...
आज पता चला की "मौत "इतनी हसीं होती है कम्बखत" हम "तो यु ही जिए जा रहे थे ....
और नदी में अस्थि विसर्जन की बात से मै तो पूर्णत सहमत हूँ कुछ कर्मकांड हमे जाने वाले व्यक्ति से जुड़े रहने का अहसास दिलाते है किन्तु समयानुसार परिस्थितियों को देखकर ही बिना कोई अन्धविश्वास के श्रद्धा के साथ कोई भी पवित्र नदी में विसर्जन हो |
टिप्पणी शायद बड़ी हो गई है फिर भी विषय से सबंधित है |अभी ६ महीने पहले मेरे बहनों इ का निधन भुज(कच्छ ) में हुआ उन्होंने कह दिया था मेरी अस्थिया पास ही मांडवी के समुद्र में विसर्जित कर देना क्योकि वे जानते थे उनका बेटा छोटा है और उसे परेशानी न हो किन्तु जब अस्थि विसर्जन की बात आई तो उनके परिवार वालो ने कहा -अस्थिया तो गंगाजी या नर्मदा में ही विसर्जन करना है |किन्तु कुटुंब का कोई व्यक्ति वहां से इतनी दूर अस्थिया लाने को और विसर्जन करने को तैयार नहीं और सब चुप रहे तब मेरे पति और मेरे एक बहनोई ने निर्णय लिया मांडवी जाने का और विधि के अनुसार वहां इसके लिए एक जगह भी है वहां विसर्जन किया तब सबने आत्मिक शांति की अनुभूति का anuvhav किया |
अजीत जी
आपने अच्छे विषय का चयन किया है चर्चा हेतु।
प्रथा कोई भी प्रारंभ होती है उसका प्रारंभिक स्वरुप अच्छा ही होता है। लेकिन जब इसका प्रसार और विस्तार हो जाता है तो कुप्रथा में बदलने में भी समय नहीं लगता।
सभी धर्मों में समाजों में अंतिम संस्कार की प्रक्रिया भिन्न है। हमारे धर्म और समाज में देहावसान के पश्चात देह का अग्नि संस्कार करने की परम्परा है। जिसे अंतिम संस्कार कहते हैं। अंतिम संस्कार के पश्चात और किसी संस्कार की आवश्यकता नहीं है।
लेकिन कालांतर में इसके साथ लोकाचार को भी जोड़ दिया गया। क्योंकि जिस घर में घटना होती है, उसे सामान्य होने में कुछ समय लगता है। परिवार में सभी वीतरागी नहीं होते है। मृतक के साथ कइयों का नेह होता है।
इन परम्पराओं के प्रारंभ में यही रहा होगा कि परिवार के सभी रिश्तेदार और इष्ट मित्र जन 10-12 दिन एक साथ रहें जिससे प्रभावित परिवार को संबंल मिले। उबरने की शक्ति मिले, जो सामुहिकता से ही प्रकट होती है।
समाज में परम्परा का चलन सम्पन्न व्यक्ति के द्वारा ही होता है और होड़ स्वरुप बाकी लोग भी उसका पालन करने लगते हैं।
देह पर शाल डालने जैसी परम्परा की शुरुवात तब हुई होगी,जब शाल जैसा मंहगा वस्त्र खरीदना अन्य परिजनों के बस का नहीं होगा। इसलिए समधी(बेटे का ससुर)को इसकी जिम्मेदारी दी गयी होगी तब से यह परम्परा चली आ रही है।
हमारे यहाँ हिन्दुओं एक जाति है जिसमें अंतिम संस्कार दफ़ना कर किया जाता है। दफ़नाने से पुर्व उस पर जितने भी चादर(पीताम्बरी)इत्यादि चढाए जाते हैं,उसे वहीं पर उसके परिवार के करीबी परिजन जैसे, बेटे, भांजे, भतीजे आपस में बांट लेते हैं और उसका दैनिक उपयोग करते हैं। वे पर चढाए हुए नए वस्त्रों को बर्बाद नहीं करते। इससे जाहिर होता है कि ये सब परम्पराएं और लोकाचार आवश्यकता के आधार पर निर्धारित होते हैं।
जैसे पगड़ी रस्म की परम्परा है। इसे सभी लोग मानते हैं यहाँ तक आदिवासियों में इसे पगबंधी की रस्म कहा जाता है। इसका अर्थ यही कि परिवार के मुखिया के अवसान के पश्चात परिवार के मुखिया का चयन करना। जो उस परिवार की तरफ़ से समाज का जवाबदेह होगा। उसे लोग पगड़ी रस्म के अवसर पर पग़ड़ी पहनाते हैं इससे यह जाहिर हो जाता है कि वे भी उसे परिवार के मुखिया के रुप में समर्थन देते हैं। अंत में ग्राम पंचायत की तरफ़ से पगड़ी पहनाई जाती है जो कि समस्त ग्राम के समर्थन का द्योतक है। साथ में रुपए पैसे देने की परम्परा इसलिए पड़ी होगी कि इस रुप में परिवार की कुछ आर्थिक सहायता हो जाए।
अंत में यही है कि जिन प्रथाओं और लोकाचारों से आपको हानि होती है रुढियों को तोड़ते हुए उसे त्याग दें और किसी का अनुशरण करने की अपेक्षा स्वविवेक से निर्णय लें।
आज की चर्चा के लिए आभार
मुझे लगता है आडंबर ख़त्म होना चाहिए .... जहाँ तक हो पैसा खर्च नही होना चाहिए ... प्रतीकात्मक रिवाज़ों को दूसरे तरीके से भी पूरा किया जा सकता है ....
कोई भी कर्मकांड की अगर सूक्ष्म विवेचना करें तो उससे यही महसूस होता है की कर्मकांड बनाने वाले ने इसे बनाते वक्त दान यानि परोपकार के साथ-साथ इंसानी संवेदना को समाज में संतुलित कर उसे जिन्दा और प्रभावी बनाने का ईमानदारी भरा प्रयास किया था | ये अलग बात है की लोभ-लालच के दौर में कुछ लोगों ने इसे अपने फायदे के अनुसार ढाल लिया उसी की परिणति है की समाज इन रीती रिवाजों से अब तंग आने लगे हैं |
मृत व्यक्ति के शरीर की अस्थियों को भी सम्मान जनक तरीके से जल प्रवाह के पीछे शायद यह कारण रहा होगा की मनुष्य और मनुष्य जीवन अनमोल है इसलिए इंसानी संवेदना के नाते जले हुए शरीर की अस्थियों को भी सम्मान जनक स्थान देकर एक तरह से इंसानी संवेदना और मानवता को जीवित रखने तथा हर मनुष्य को सम्मान देने का सन्देश समाज को देने का प्रयास किया गया है | इसलिए मेरे ख्याल से रीतिरिवाजों को बंद करने के वजाय उसे आज के सामाजिक हालात के अनुसार ढालने तथा संतुलित करने की आवश्यकता है | समाज में आज असंतुलन की भयावहता है तथा असामाजिक लोगों का वर्चस्व है ,इसलिए समाज के बुद्धिजीवियों को रीतिरिवाजों के जरिये समाज में असंतुलन को दूर करने तथा असामाजिक तत्त्वों से लड़ने के लिए भी रीतिरिवाजों का प्रयोग करने को, दिशा देने की जरूरत है ....
अभी तक मैंने जितनी शवयात्राएं देखी हैं,उनमें यह देखा है कि मृतक के शरीर पर कफन के अलावा नया कपड़ा तो डाला ही जाता है। मृतक अगर महिला हो तो नई साड़ी डाली जाती है। इतने से शायद किसी को कोई आपत्ति नहीं होगी। पर हां शवयात्रा में आने वाला हर व्यक्ति या हर रिश्तेदार नया कपड़ा या शाल डाले यह तो फिजूलखर्ची ही लगती है।
मैंने यह भी देखा है कि शमशान में उन नए कपड़ों को फाड़कर अलग किया जाता है। यानी वे किसी के काम भी नहीं आते।
जहां तक अस्थियों के विर्सजन की बात है तो जहां नदी नहीं होती,या जो लोग इसके लिए सक्षम नहीं होते वे भी अस्थियां चुनते जरूर हैं। नदी में डालें या न डालें अलग बात है।
बहरहाल यह सब रिवाज समय के साथ अपने आप बदलते जाते हैं।
बिना परम्परा को अधिक ठेस पहुँचाये, थोड़े बहुत सुपरिवर्तन हमको करते रहना चाहिये।
मूलतः भावनाओं और संस्कारों की बात है. सुझाव देने और अमल लाने में फर्क हो जाता है. जब खुद पर आन पड़ती है तो भावनाओं में बह इन्सान सारे कर्मकाण्ड और रीति रिवाज, भले ही सामाजिक मान्यताओं के चलते, करने लग जाता है.
आवश्यक्ता तो निश्चित ही है सार्थक परिवर्तन की.
कर्मकांड अगर सम्मान और मन की शांति के लिए हैं तो समझा जा सकता है ..पर कौन करता है इसके लिए? ये होते हैं सिर्फ दिखावा ..और कई तो इसे होते हैं जिनसे सिर्फ दुःख बढता है ..ये कर्म कांड और रीती रिवाज़ इंसानों द्वारा ही बनाये गए हैं और वक्त के साथ इनमे परिवर्तन बेहद जरुरी है.
सही और सटीक विषय हैं.....
इस पर बात होनी ही चाहिए....
इस पोस्ट और टिप्पणियों के बहाने काफी कुछ समझने को मिला।
.प्रवीण शाह ने अभी लिखा था की जीवन पर्यंत तो पति पत्नी ने माँ को रुलाकर रखा ..मरने के बाद भव्य त्रयोदश संस्कार आयोजित किया -इतनी तेज आंधी आयी कि सब कुछ उड़ गया -मानों मान को वह दिखावा स्वीकार न था ..
कर्मकांड बिना बुद्धि के प्रयोग के होते हैं -जो कुछ सहजता से निभ जाय -मृतक का निरादर न हो -वही ठीक है !
अजित जी,
कर्मकांड का प्रश्न वही तक सही है जहां आप अफोर्ड करने की स्थिति में है...मैंने ऐसे लोग भी देखे हैं जो आर्थिक तौर पर विषम हालात में होने के बावजूद दिवंगत का कर्मकांड पूरे विधि-विधान से कराते हैं...कर्ज तक लेकर सारी रस्में पूरी करते हैं...वरना समाज क्या कहेगा...सरकार ने विद्युत शवदाहगृह बनाए हुए हैं लेकिन वहां कोई झांकता तक नहीं...यहां अंतिम संस्कार पर नाममात्र का खर्च आता है, फिर भी इनकी कोई पूछ नहीं...बेशक प्रदूषण रोकने के लिए विद्युत शवदाहगृह उपयोगी हों लेकिन परंपरा के आगे कहीं नहीं टिकते...मैंने खुद गढ़ गंगा में देखा है कि किस तरह गंगा में बहाए जाने वाले शवों की बेकद्री होती है...गंगा और दूसरी नदियो को हम इन्हीं कर्मकांडों के नाम पर किस तरह प्रदूषित करते हैं...समाज वहीं बढ़ता है जो अतीत से सीख लेते हुए, ज़माने के साथ खुद को ढालना जानता है...
जय हिंद...
ajit ji .. aapki post padhi bahut achhi lagi.. karmkaand kaa apni jagah apnaa mehetav hai ..kisis bhi cheej ke mehetv ko mehej uski paaristhik upyogita ke aadhaar par nahi aankaaa jana chahiye...manav jeevan koi vyaaparik maslaa nahi hai ..ye bahut vistrit hai.. aur karmkaand bhi isi kaa aik avasyak ang hai..jaha tak kuch kooprathaayo ki baat hai vo aik vikriti samay ke saath paida huvi hai .. jo ki swaabhaavik bhi hai ..keval isi aadhaar par karmkaand ko galat kehnaa sarvthaa anuchit hai..Karmkaando ki samay samay par samiksha bhi aavasyak hai taki jo vikritiya paida ho gayi ho uneh door kiya jaa sakey..
आप की रचना 10 सितम्बर, शुक्रवार के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपनी टिप्पणियाँ और सुझाव देकर हमें अनुगृहीत करें.
http://charchamanch.blogspot.com
आभार
अनामिका
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ऐसे दुखद मौकों पर सभी लोग जो कर रहे होते हैं, वही फोलो किया है। कभी सोचा ही नहीं की इसके घर का रिवाज क्या है, क्यूंकि सब जगह
अलग-अलग विचार एवं संस्कार वाले होते हैं। ऐसे मौके पर अपनी उपस्थिति से उसका दुःख कम सकूँ , इतना ही जरूरी लगता है।
शाल डालना निसंदेह , मरने वाले के प्रति सम्मान दर्शाता है, इसमें किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
आभार।
..
अजित मेम
प्रणाम !
बस मैं इतना ही मैं अपनी कविता के माद्यम से कहना चाहुगा ,
'' मार्ग
जीवन के भीतर
मार्ग
जीवन के बाहर भी ''
शायद और कहने किओ आवश्यकता नहीं होगी ,
सादर !
एक नया ब्लोगर पैदा होता है,
उसको शिष्टाचार वश या ब्लोगर-धर्म के नाते,
कुछ पुराने ब्लोगर उसे शुभकामनाएँ प्रेषित करते हैं,
मदद के निर्धारित वाक्य-सन्देश टिप्पणी-पात्र में डालते हैं.
वे चाहें तो ऐसा नहीं भी करें,
ब्लोगर दौड़ने वाला होगा तो दौड़ेगा ही,
टिप्पणियों की अपेक्षा नहीं करेगा.
लेकिन हम सभी ने सामाजिक-धर्म विचार-विमर्श करके तय कर लिए हैं.
एक-दूसरे से संपर्क करना, सुख-दुःख को अपने तरीकों से निरंतर व्यक्त करते रहना - हमारा स्वभाव हो गया है.
हाँ, कुछ लोग ये धर्म देखा-देखी निभाते हैं. महत्व-निभाने का है - चाहे जैसे हो.
बाद में ब्लोगर विदा लेता है,
उसका बिछोह कुछों को अखरता है,
कुछों की संवेदनाओं का कारण बनता है.
कुछ ब्लोगर उससे मिलने वाली निःशुल्क जानकारियों का मूल्य चुकाकर उऋण हो जाना चाहते हैं.
>>>>>>>>> इस रूपक को वृहत रूप में भी समझा जा सकता है.
मैंने आजतक यही अनुभव किया है कि परम्पराओं में जो भी संस्कार /कर्म विधान निहित किये गए हैं,व्यापक रूप में उसमे परिवार समाज को एकजुट रखने और वृहत्तर रूप में सबके कल्याण की भावना अवश्य निहित है...यह अलग बात है कि कई विधियों का रूप बहुत विकृत हो चुका है, जिन्हें चुनकर ठीक ऐसे ही निकाल देना चाहिए जैसे चावल में से कंकड़ निकालते हैं...यदि चावल में कंकड़ हो तो पूरे चावल को तो नहीं फेंकते न...ऐसे ही परम्पराओं के भी निहितार्थ समझने चाहिए...
आपने जो यहाँ दृष्टांत दिया..शाल ओढाने की परंपरा का...तो ध्यान रहे कि हमारे समाज में अंतिम संस्कार करने वाला एक समूह भी है,जिसकी जीविका यही है...हम मृतक को यदि शाल ओढ़ाते हैं तो वह श्मशान में कार्यरत कर्मचारियों( एक जाति विशेष के लोगों) द्वारा इस्तेमाल कर लिया जाता है..एक प्रकार से यह सदुपयोग ही तो हुआ न..तो एक साथ मृतक का सम्मान करना और किसीके हित दान करना दोनों काम हो गया..
हाँ ,पहले मुझे भी लगता था नदी(गंगाजी) में अस्थि विसर्जन कितना गलत है..पर अब लगता है कोई न कोई रहस्य इसमें भी होगा ही, जो अभीतक मुझे ज्ञात नहीं हुआ है...हो सकता है नदी में कतिपय जीव ऐसे होंगे जिनका आहार ये अस्थियाँ ही होती होंगी...
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