Sunday, September 26, 2010

क्‍या आप विश्‍वसनीय हैं? बचपन के इस “प्रश्‍न” को आज मैंने अलविदा कह दिया है – अजित गुप्‍ता


क्‍या आप विश्‍वसनीय हैं? यह प्रश्‍न मेरे आसपास हमेशा खड़ा हुआ रहता है। कभी पीछा ही नहीं छोड़ता। बचपन से लेकर प्रस्‍थान के नजदीक भी हमारा पीछा नहीं छोड़ रहा है। कभी पिताजी पूछ लेते थे कि तुम विश्‍वसनीय संतान हो? उनके पूछने का तरीका भी नायाब था, ठोक बजाकर देखते थे और फिर पूछते थे कि जिन्‍दगी भर ऐसे ही ठुकते पिटते रहने की काबिलियत है ना तुम में? उस समय रोने की भी मनायी थी, बस यही कहते थे कि पूरा प्रयास करेंगे कि आप जैसे महान पिता की तुच्‍छ सी संतान बनकर दुनिया में रहें। कुछ और बड़े हुए तो पति  की जेब से भी यही प्रश्‍न निकल आया। मैंने कहा, लो यह साला यहाँ भी उपस्थित है। एकदम सीधा-सादा सा जीवन जीने वाले हम से यह होस्‍टल में रहने वाला भी आज प्रश्‍न पूछने वाला हो गया? कई बार तो मन करता कि इस प्रश्‍न को ही एक कोने में ले जाकर धो डाले। फिर सोचते कि बेचारा यह तो केवल दूत है, इसका क्‍या कसूर? इसको तो जैसे रटाया गया है वैसे ही यह हमारे सामने बोल रहा है। खैर हमने प्रोबेशन पीरियड भी सफलता पूर्वक पास कर लिया। आप गलत मत समझे, यह सरकारी नौकरी वाला दो साल का प्रोबेशन पीरियड नहीं था। कानून भी कहता है कि सात साल तक ढंग से रहो तो केस वेस नहीं लगेगा। खैर हमें भी कई साल लगे इस प्रश्‍न को भगाने में।
हमने यही पढ़ा था और यही सभी विद्वान लोगों के मुँह से सुना था कि दोस्‍ती के बीच में यह प्रश्‍न नहीं आता। तो हमने सोचा कि दुनिया में दोस्‍त ही बनाए जाएं। लोग हमारी पर्सनेलिटी देखकर शक करने लगते और यह पठ्ठा प्रश्‍न चुपके से उनके ऊपर वाली जेब में जा बैठता। लोग हमारे चारों तरफ देखते और पूछते कि तुम्‍हारे में ऐसा क्‍या है जो तुमसे दोस्‍ती करें? तुमसे हमें क्‍या मिलेगा? हमारे पास तो कुछ भी नहीं हैं, अब? हम कहते कि हम तुम्‍हारा हर घड़ी में साथ निभाएंगे। तो प्रश्‍न उछलकर बाहर आ जाता कि कैसे विश्‍वास करें? अब विश्‍वास तो कैसे दिलाएं? जमानत देनी हो तो मकान वगैरह गिरवी रख सकते थे लेकिन विश्‍वास की जमानत तो कोई देता भी नहीं। हमने सोचा कि नहीं हम तो अकेले ही भले। लेकिन अकेले रहो तो यह नामुराद सारे जगत में ढिंढोरा पीट आता कि इन पर कोई विश्‍वास ही नहीं करता। हम ने भगवान का सहारा लिया, हर आदमी यही करता है तो ह‍मने भी एकदम से फोकट के इस फार्मूले को आजमाया। करना तो कुछ पड़ता नहीं, बस हाथ ही तो जोड़ने होते हैं कि हे भगवान, हमें भी ऐसा बना कि लोग हम पर विश्‍वास करें। आप ताज्‍जुब करेंगे कि भगवान ने हमारी दूसरी तरह से सुन ली। अब हमें ऐसा पद दे दिया कि आपको भ्रम बना रहे कि आपके पास बहुत सारे लोग हैं। उन्‍हें विश्‍वास का सर्टिफिकेट नहीं चाहिए था बस उन्‍हें तो अपना काम चाहिए था। हमें लगा कि ईमानदारी से इनका काम करना चाहिए जिससे यह नालायक प्रश्‍न मुझसे हमेशा के लिए दूर चला जाए। लेकिन भगवान भी तो केवल हाथ जोड़ने से इतना ही देता है। उसने एक और मुसीबत खड़ी कर दी। हमें लगने लगा कि हमें भी पूजा अर्चना करके प्रसाद वगैरह चढ़ाना चाहिए था। लेकिन यह तो अपनी फितरत में ही नहीं तो क्‍या करते? अब तो केवल भुगतना ही था। कुछ लोगों ने देखा कि यह तो विश्‍वास कायम करने का काम कर रही है, तो जितने भी अस्‍त्र-शस्‍त्र उनके पास थे सारे ही आजमा लिये। उस प्रश्‍न नामके जीव को भी अखबार में ला बिठाया। बोले कि अब बताओ, हम तुम्‍हारी विश्‍वसनीयता की तो ऐसी होली जलाएंगे कि तुम क्‍या तुम्‍हारी सात पुश्‍तें भी दुबारा कभी यहाँ नहीं दिखायी दे। हमने कहा कि यह तो लफड़ा फँस गया, इस प्रश्‍न नामक जीव को सबक सिखाने हम यहाँ आए थे उल्‍टे हमारे अस्तित्‍व पर ही संकट पैदा हो गया। मन ने कहा कि डरना नहीं, डटे रहो, जंती में से निकलकर ही सोने को गढ़ा जाता है। खैर भगवान ने हमारी सुनी और हमें वापस अपने जीवन में लौटा दिया। लेकिन लोगों में डर बैठ गया कि यह वापस ना आ जाए। तो दे दनादन, दे दनादन, गोलियों की बरसात अभी तक चालू है। और यह हमारा हितैषी प्रश्‍न दूर खड़ा हुआ मुस्‍करा रहा है  और पूछ रहा है कि बोलो तुम कितने विश्‍वसनीय हो?
अब हम क्‍या करते? हमने ब्‍लागिंग का सहारा लिया और सोचा कि यहाँ तो विश्‍वास नाम की कोई चीज की आवश्‍यकता ही नहीं तो बचपन से पीछा कर रहा यह प्रश्‍न हमारे कम्‍प्‍यूटर में नहीं घुसेगा। हमें भी आनन्‍द आने लगा, कि कहीं भी जाकर कुछ भी लिख आओ ना कोई विश्‍वास की आवश्‍यकता और ना कोई ईर्ष्‍या की गुंजाइश। हम बहुत खुश रहने लगे कि इस प्रश्‍न से तो पीछा छूटा। लेकिन नहीं जी यह साला वापस निकल आया है, हम से तो फिर लोग पूछने लगे हैं कि क्‍या तुम विश्‍वसनीय हो? किसी अन्‍य गुट के सदस्‍य तो नहीं हो? जासूसी करने तो हमारे गुट में नहीं आ बैठे हो? आदि आदि। इसलिए आज सोचा कि ऐसे तो यह प्रश्‍न पीछा नहीं छोड़गा तो अब हम यह कह दें और सार्वजनिक रूप से हम बता दें कि भाई हम तो विश्‍वसनीय नहीं हैं। अब बेटा प्रश्‍न बता कि तू मेरे पास रहेगा या किसी और को तलाशेगा? जब अमिताभ बच्‍चन तक हीरो से विलेन बन गए तो तुम भी क्‍यों नहीं बन जाते विलेन? अब हम भी विलेन का ही रोल करेंगे। अब देख रही हूँ इस पोस्‍ट को लिखने के बाद यह मेरा बचपन का साथी प्रश्‍न मुझ से बिछड़कर कह रहा है कि तुम्‍हारे साथ अच्‍छे से रहता था अब देखो कौन मिलता है साथी? अलविदा मेरे दोस्‍त, तुमने खूब साथ निभाया। अब तुम सब के पास जाओ और बारी-बारी से सभी से पूछो यही प्रश्‍न कि क्‍या आप विश्‍वसनीय हैं?  

Monday, September 20, 2010

बिटिया क्या है? मन की धड़कन? मन की खुशबू या फिर हमारा नवीन रूप?


 बहुत दिनों से कोई कविता पोस्‍ट नहीं की थी, बस गद्य ही लिखती रही। संगीता स्‍वरूपजी ने कहा कि कोई कविता पोस्‍ट करें तो सोचने लगी कि कौन सी कविता पोस्‍ट करी जाए? पेज-मेकर खोला गया और सबसे पहले ही एक कविता पर नजर पड़ी और मैं उसमें खो गयी। मुझे लगा कि मैंने इसे शायद पहले पोस्‍ट भी नहीं किया है और यदि किया भी हो तो कौन सा आपको स्‍मरण ही होगा? आप दोबारा पढ़ लेना।
खुशदीपजी की आज पोस्‍ट पढ़ी, बेटियों को लेकर चिन्‍ता व्‍य‍क्‍त की गयी है। लेकिन मुझे तो लगता है कि बेटियां चिन्‍ता का विषय है हीं नहीं। वे तो हमारे मन की सारी ही चिन्‍ताओं को हम से दूर कर देती हैं। जब बेटी पहली बार गोद में आयी थी तब लगा था कि यह कैसा अहसास है? जैसे-जैसे वह बड़ी होती गयी, मुझे अपने बचपन में लेती गयी और मेरा बचपन साकार हो गया। जब बहु घर में आयी तब ऐसा लगा कि अरे यह तो अपना यौवन ही लौटकर आ गया है।
आज अदाजी की पोस्‍ट में तीन पीढ़ियों का चित्र है, तो बस यही कविता मुझे याद आयी और इसे आप सभी से बाँट रही हूँ। अच्‍छी लगे तो तालियां, नहीं, नहीं दाद जरूर दीजिएगा।

तुम ही मेरा रूप हो, तुम ही शेष गीत हो
बंसी में संगीत जैसे, मन की शेष प्रीत हो।

तुम में ही गुथी हूँ मैं, तुम ही आकार शेष
मैं तो जैसे हारती,, तुम ही नेक जीत हो।

पुष्प में पराग जैसे, गंध का संसार तुम
मैं तो पात पीत बनी, तुम ही शेष चिह्न हो।

अब तो शेष रंग गंध, बंसियों सी गूंज तुम
मैं तो रीती धड़कनें, तुम ही नेह रीत हो।

अब हवा संग घुल रही, घुल के भी समा रही
मैं तो जाता प्राण हूँ, तुम ही तो शरीर हो।

अब तो केवल शब्द हैं, पुस्तिका बनोगी तुम
मैं तो पृष्ठ-पृष्ठ हूँ, तुम ही मेरी जिल्द हो।

Friday, September 17, 2010

हम अपनी पुस्‍तकें किसे भेंट करते हैं? कद्रदान को या नामचीन को?

इस पोस्‍ट को लिखने की प्रेरणा आज सुबह हुई, जब हमारे घर की विद्युत व्‍वस्‍था को देखने वाला मेकेनिक अहमद सुबह हमारे घर की घण्‍टी को दुरस्‍त करने के लिए आया। टेबल पर मेरी कल ही प्रकाशित होकर आयी नयी पुस्‍तक लघु-कथा संग्रह पड़ी थी। उसने पुस्‍तक को देखा और बोला कि एक किताब मुझे भी चाहिए। मैंने अभी तक किसी को भी यह पुस्‍तक नहीं दी थी  लेकिन उसे कहा कि अवश्‍य ले जाना।
तभी मुझे एक और वाकये का स्‍मरण आ गया, जब मैं एक टेक्‍सी लेकर कहीं गयी थी और मेरी एक पुस्‍तक जो काव्‍य-संग्रह थी, टेक्‍सी में रखी हुई थी। मैं जब कार्यक्रम में गयी तब पीछे से उसे ड्राइवर ने पढना शुरू किया और मेरे वापस आने पर उसने कहा कि आपकी यह पुस्‍तक मुझे चाहिए। मैंने उसे दी। तब भी मेरे दिमाग ने यह प्रश्‍न किया था कि एक ड्राइवर को किताब देना कितना उचित है और आज भी यही हुआ लेकिन उसका उत्तर तब भी दिल ने दिया था और आज भी दिल ने ही दिया। और मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया कि आखिर हम अपनी पुस्‍तकें किस को भेंट करें और किसे नहीं? मेरे पास भेंट स्‍वरूप आयी हुई इतनी पुस्‍तकें हैं कि मेरे घर की समस्‍त अल्‍मारियां उनसे अटी पड़ी हैं, रखने को जगह नहीं हैं। मैं उन सबको पढ़ भी नहीं सकती, जैसे हम सारी ही पोस्‍टों को नहीं पढ़ सकते। लेकिन जो निम्‍न आय वर्ग का तबका है जिसे पढने के प्रति रुचि है हम उसे अपनी पुस्‍तकें नहीं देते। यदि हम ऐसे व्‍यक्तियों को अपनी पुस्‍तकें पढ़ने को दें जो वास्‍तव में उनके पाठक बन सकते हैं तो हमारी पुस्‍तकों का मूल्‍यांकन भली-भांति होगा। समाज हमारे बारे में जानेगा।
मैं अभी ग्‍वालियर एक मीटिंग में गयी थी, मैं अपने साथ चार पुस्‍तकें भी ले गयी थी। उस मीटिंग में लगभग 100 से अधिक राष्‍ट्रीय स्‍तर की महिलाएं थी, मैं अपनी पुस्‍तक सभी को नहीं दे सकती थी क्‍योंकि मेरे पास कुल चार थीं। मैं अनुमान लगाने लगी कि इनमें से ऐसा कौन है जो वास्‍तव में मेरी पुस्‍तक को पढ़ेगा और उसका मूल्‍यांकन करेगा? मैंने एक पुस्‍तक हम सबमें वरिष्‍ठ और विचारवान विदुषी को दी, वो भी इसलिए कि मुझे मालूम था कि मेरी पहली पुस्‍तक को भी इन्‍होंने बड़े मनोयोग से पढ़ा था। वहाँ पास में ही एक राजनैतिक विदुषी महिला भी बैठी थीं, मैंने उन्‍हें पुस्‍तक नहीं दी। उन्‍हें कुछ अजीब सा लगा, क्‍योंकि लोग तो राजनीतिज्ञों को अपनी पुस्‍तक भेंट करने में अपनी शान समझते हैं। उन्‍होंने प्रकरान्‍तर में यह बता भी दिया कि मैं साहित्यिक रुचि की हूँ। मैं उन्‍हें पुस्‍तक दे भी सकती थी लेकिन मुझे पता था कि ये अपनी राजनैतिक व्‍यस्‍तताओं में पुस्‍तक को नहीं पढ़ेगी। खैर मेरा यह लिखने का अर्थ केवल इतना है कि हम अपनी पुस्‍तकों को उन्‍हीं हाथों में सौंपे जहाँ उनका सम्‍मान हो। बहुत बड़े व्‍यक्तित्‍वों के पास इतना समय नहीं होता है कि वे आपकी पुस्‍तक को पढ़े। लेकिन आज निम्‍न मध्‍य वर्ग ऐसा वर्ग है जिसे साहित्‍य में गहरी रुचि है लेकिन वे पुस्‍तके खरीद नहीं सकते और ना ही पुस्‍तकालय में जाकर पढ़ सकते हैं। यदि हमने अपनी पुस्‍तके उन्‍हें भेंट की तो निश्‍चय मानिए कि वे उसे ना केवल पढ़ेंगे अपितु आपके विचारों को जीवन में उतारने का भी प्रयास करेंगे। क्‍योंकि जब-जब मैंने अपनी पुस्‍तक ऐसी जगह दी है तो उन्‍होंने बेहद खुशी व्‍यक्‍त की है और जब भी ऐसी जगह दी हैं जहाँ मेरे विचार या मेरी पुस्‍तक की आवश्‍यकता ही नहीं है वहाँ वो ना जाने कौन सी गुमनाम अल्‍मारी में रखी गयी है? इसलिए मैं तो इस तथ्‍य को भली-भांति समझ गयी हूँ। मेरा अनुभव यदि आपके भी काम आए और आप भी ऐसे ही किसी अनुभव से मुझे परिचित करा सकें तो इस पोस्‍ट की सार्थकता होगी। 

Tuesday, September 14, 2010

आप विशेष हैं लेकिन पारिवारिक प्रेम आपको अतिविशेष बनाता है – अजित गुप्‍ता


मेरी भान्‍जी का ढाई वर्षीय पुत्र है सम्‍यक। वह अभी कुछ दिन पहले ही अमेरिका से आया है, उसका जन्‍म भी वहीं हुआ था तो अधिकांश परिवार के सदस्‍यों ने उसे पहली बार देखा था। उसका नाम आने पर सभी लोग गदगद सा महसूस कर रहे थे। खैर अभी 2 सितम्‍बर को ही मैं भी उससे जयपुर में मिली तो वह एकदम से गोद में आ गया और कसकर चिपक गया। तब मालूम पड़ा कि वह सभी से ऐसे ही गले मिलता है या कहें तो प्‍यार की झप्‍पी देता है। जैसे केरल की अम्‍मा (hugging saint) सभी के गले लगती हैं। यही कारण था कि रूक्ष से रूक्ष व्‍यक्ति भी उससे मिलकर बेहद खुश था कि इसने हमें गले लगाया। वे अपने अन्‍दर के प्रेम को पाकर बेहद प्रसन्‍न थे। लेकिन मेरी पोस्‍ट के लिखने का तात्‍पर्य सम्‍यक के बारे में लिखना नहीं है, मैं इस पोस्‍ट के माध्‍यम से यह कहना चाहती हूँ कि किसी भी व्‍यक्ति का व्‍यक्तित्‍व कितना भी बड़ा क्‍यों ना हो उसे प्रेम की चाहत हमेशा रहती है। ऐसे बच्‍चे या ऐसे कोई भी व्‍यक्ति उनके प्रेमांकुरों को विकसित करते हैं और उन्‍हें जीवन को जीने की कला बताते हैं। 
इस ब्‍लाग जगत में ऐसे कितने ही नाम होंगे जो स्‍वनाम धन्‍य हैं या बहुत ही उच्‍च पदों पर आसीन हैं लेकिन उनकी हमें खबर नहीं। हम सभी को अपना बंधु समझकर टिप्‍पणी करते हैं। कभी प्रसन्‍नता में, कभी सहजता से तो कभी आक्रोश से भी। आपस में लड़-भिड़ भी लेते हैं और फिर एक हो जाते हैं। ऐसे व्‍यक्तित्‍वों से कभी आप पूछ देखिए कि वे ब्‍लाग पर क्‍यों एक सामान्‍य व्‍यक्ति बनकर पोस्‍ट लिख रहे हैं? क्‍योंकि कई बार कटु टिप्‍पणियों से भी गुजरना पड़ता है। उनकी बात तो वे ही बताएंगे लेकिन इस बारे में चिंतन करने पर  मुझे एक बात समझ आयी कि हमारे अन्‍दर दो व्‍यक्तित्‍व छिपे होते हैं। वैसे तो किसी मानसिक चिकित्‍सक से पूछेंगे तो वह दोहरे व्‍यक्तित्‍व वाली बीमारी बता देगा जिसे हम देसी भाषा में कहते हैं कि इसके डील में भूत या भूतनी आ गयी है। लेकिन मैं अभी उस दोहरे व्‍यक्तित्‍व की बात नहीं कर रही, वैसे यह बीमारी उन्‍हीं को होती है जो स्‍वयं को नहीं पहचान पाते हैं।
खैर मूल विषय पर आते हैं। मेरा मानना है कि हमारे अन्‍दर दो व्‍यक्तित्‍व हैं एक बाहरी और एक पारिवारिक। बाहरी जगत के सम्‍मुख हमारा व्‍यक्तित्‍व अक्‍सर अलग होता है क्‍यों‍कि वहाँ हमें अपने सम्‍मान की रक्षा करनी होती है इसलिए कुछ गम्‍भीर, कुछ संजीदा, कुछ अनुशासनप्रिय, कुछ सादगी भरा आदि आदि रूप धारण करने होते हैं। तभी हमारी बात में वजन आता है। लेकिन परिवार के मध्‍य हमें सम्‍मान की नहीं प्रेम की आवश्‍यकता होती है इसलिए अपने कृत्रिम आवरण को हटाकर सहजता और सरलता से व्‍यवहार करते हैं। देश के प्रधानमंत्री से लेकर किसी भी अधिकारी या सेलेब्रिटी के व्‍यवहार का अध्‍ययन करेंगे तो यही व्‍यवहार आम तौर पर मिलेगा। जो बाहर के जगत में हमारा रूप था उसका एकदम विपरीत। यह व्‍यक्ति की आवश्‍यकता है। यदि वह ऐसा नहीं करेगा तो जीवन का वास्‍तविक आनन्‍द उसे प्राप्‍त नहीं होगा और वह अवसाद का शिकार हो जाएगा।
कई लोग परिवार में भी अधिकारी ही बने रहते हैं इस कारण अपने बच्‍चों से और परिवार के अन्‍य सदस्‍यों से दूर हो जाते हैं। परिवार में दादा-दादी, माता-पिता, भाई-बहन आदि अनेक रिश्‍ते होते है, आप उनके समक्ष अभी भी मुन्‍ना, पप्‍पू, गुडिया आदि ही हो। वे आपको इसी नाम से पुकारेंगे और यदि नहीं पुकारते तो मानिए कि कहीं दूरी का निर्माण हो गया है। हमारे प्रेम के ऊपर सम्‍मान हावी हो गया है। दुनिया में ऐसा कोई व्‍यक्ति नहीं है जिसे प्रेम नहीं चाहिए। यदि वह अपने परिवार में प्रेम के स्‍थान पर सम्‍मान को महत्‍व देता है तब वह प्‍यासे हिरण की तरह रेगिस्‍तान में भटकने को अभिशप्‍त ही रहेगा। परिणाम अवसाद के रूप में आएगा और आप एक मनोरोगी के रूप में व्‍यवहार करेंगे। इसलिए अपने बाहरी और पारिवारिक व्‍यक्तित्‍व को अलग-अलग बनाइए। सम्‍मान की जगह सम्‍मान है लेकिन प्रेम की जगह तो प्रेम ही होना चाहिए। मुझे अच्‍छा लगता है यह ब्‍लाग जगत जहाँ हम एक परिवार की तरह ही प्रेम बांटते हैं। यहाँ महफूज और दीपक जैसे नवयुवा भी हैं तो बहुत उम्रदराज भी, लेकिन हम सभी से एकसा व्‍यवहार करते हैं। इसलिए ही यह परिवार है। उम्रदराज लोगों का नाम नहीं लिखा है कहीं वे एक सूची पोस्‍ट कर दें कि देखो मुझसे ज्‍यादा तो ये उम्रदराज हैं। इसलिए मेरा अनुभव है कि हम अलग-अलग व्‍यक्तित्‍व लेकर बाहर और परिवार में अलग-अलग व्‍यवहार करते हैं या करना चाहिए। आप क्‍या मुझसे सहमत हैं? नहीं तो कभी हमारे सम्‍यक से मिल लीजिए वह आपको प्रेम का आनन्‍द समझा देगा।  

Saturday, September 11, 2010

क्‍या आपको भी आपके दिमागी कीड़े (neurons) उकसाते हैं टिप्‍पणी करने पर


मुझे जब से आप लोगों की संगत मिली है और जैसे-जैसे दुनियादारी की समझ बढ़ी है तभी से अपने दिमाग के न्‍यूरोन्‍स से बहुत सचेत रहती हूँ। कमबख्‍त कब बगावत कर दें? अच्‍छी खासी किसी की पोस्‍ट पढ़ रही होती हूँ कि यह न्‍यूरोन्‍स रूपी कीड़ा दिमाग में कुलबुलाने लगता है और मुझे उकसाना शुरू करता है। कभी तो मैं इसके झांसे में नहीं आती हूँ लेकिन कभी यह मुझपर हावी हो ही जाता है और फिर उस पोस्‍ट पर अपनी मर्जी से टिप्‍पणी करा लेता है। अभी खुशदीपजी की पोस्‍ट पढ रही थी, मुन्‍नी बाई के गीत पर लिखी थी, उन्‍होंने कुछ पुराने गीत भी लगाए थे, जिनकी नकल से नया गीत बना है, तो मैंने अपने दिमाग के न्‍यूरोन्‍स को टटोला और पूछा कि क्‍या सुने जाएं ये बेहूदे गीत या छोड़ दिये जाएं? दिमाग बोला कि छोड़ दिए जाएं नहीं तो हमें पता नहीं कि ये अफलातून आपके न्‍यूरोन्‍स आपसे कैसी टिप्‍पणी लिखा लें? मैंने नहीं सुने और सीधी-सादी टिप्‍पणी करके उनके ब्‍लाग से लौट आयी। लेकिन आप देखिए इसका कीड़ा, यह नहीं माना और मुझे उकसाता रहा कि कुछ लिखो, और मैं सब कुछ बन्‍द करके पहले यह लिखने बैठ गयी।
मैं मुन्‍नी बाई पर नहीं लिखना चाह रही हूँ बस मैं तो दिमाग के इन कीड़ों के बारे में लिखना चाह रही हूँ जिन्‍हें विज्ञान ने नाम दिया है न्‍यूरोन्‍स का। वैज्ञानिक कहते हैं कि हमारे दिमाग में अरबों न्‍यूरोन्‍स हैं लेकिन शायद सात या आठ ही उनमें से सक्रिय रहते हैं। अब आप ही बताइए कि भगवान ने या प्रकृति ने (क्‍योंकि आजकल तो भगवान का नाम लेना कि उसने बनायी है दुनिया, पर प्रश्‍न चिन्‍ह लग गया है) जिसने भी आदमी के दिमाग को बनाया होगा वह क्‍या मूर्ख था? सक्रिय है केवल सात या आठ ( हो सकते हैं ज्‍यादा होते हों, लेकिन मुझे ऐसा ही विदित है) और बना दिए अरबों? क्‍या दिमाग और शरीर का संतुलन बनाए रखने के लिए ही इतना बड़ा दिमाग या ब्रेन बनाया गया या और कोई मामला है? मुझे तो लगता है कि आदमी नामक जीव में जितने गुण-अवगुण होते हैं सभी के परिचायक ये न्‍यूरोन्‍स हैं अब किसी के कौन सा सक्रिय तो किसी के कौन सा? किसी के झूठ का सक्रिय तो किसी के सच का। आप सत्‍यवादी से झूठ बुलवा लीजिए, कभी नहीं बोलेगा, चाहे मर जाए और झूठे से सच बुलाकर देख लीजिए।
कल ही एक पोस्‍ट पढ़ी थी, गीता के ऊपर थी, लिखा था कि व्‍यक्ति के गुणों के आधार पर भी मनुष्‍य कर्म करता है। तब मेरी न्‍यूरोन्‍स थ्‍योरी और पक्‍की हो गयी। अब मैं अपने आस-पास देखती हूँ तो मुझे इस सिद्धान्‍त की सत्‍यता पर यकीन होता है। इसके ढेर सारे मेरे पास उदाहरण भी हैं लेकिन यहाँ उदाहरण देकर पोस्‍ट को लम्‍बी नहीं करूंगी। बस आप मंथन करें और मुझे बताएं कि क्‍या आपके साथ भी ऐसा ही होता है कि आप किसी की पोस्‍ट पढें या दुनिया में कुछ देखें तो ना चाहते हुए भी प्रतिक्रिया होती है और वह भी कुछ खास विषयों पर। चाहे दुनिया में आग लग जाए हमारा दिमाग चुप बैठा रहता है लेकिन आपके न्‍यूरोन्‍स के विपरीत कोई बात आयी नहीं कि आप दुनिया को आग लगाने पर तुल जाते हैं। अब क्‍या करें? जैसे मेरे साथ होता है कोई महिलाओं को बु‍द्धिहीन बोले या अनावश्‍यक उन्‍हीं को सदुपदेश दें, अपने देश के बारे में बुराई करें या समाज में वर्ग संघर्ष को बढ़ाने वाली कोई बात करें, ऐसे कितने ही विषय हैं जिनपर मेरे न्‍यूरोन्‍स मुझे चुप नहीं रहने देते। वैसे मैं उम्र के साथ बहुत कुछ बर्दास्‍त करना सीख गयी हूँ लेकिन फिर भी ये दिमागी कीड़े मुझे उकसाते ही रहते हैं और आज मुन्‍नी बाई को बचाते हुए इस पोस्‍ट को लिखवाकर ही दम लिया है इन कमबख्‍तों ने। इसलिए इस पोस्‍ट में आपको कुछ भी बुरा लगा हो या पसन्‍द नहीं आया हो तो इसमें मेरा दोष इतना भर ही है कि मैं मेरे न्‍यूरोन्‍स के कारण मजबूर हूँ और आप अपने। गणेश चतुर्थी और ईद पर आपको शुभकामनाएं। इस पोस्‍ट के बारे में अपने विचार जरूर बताएं। 

Wednesday, September 8, 2010

मृत्‍यु के समय रीति-रिवाज और कर्मकाण्‍ड कितने जरूरी और कितने गैर जरूरी – अजित गुप्‍ता


आज संगीताजी की एक पोस्‍ट कर्मकाण्‍डों को लेकर आयी। मुझे लगता है कि समाज में स्‍थापित कर्म-काण्‍ड और रीति-रिवाज पर चर्चा होनी चाहिए कि यह सामाजिकता और परिवार के लिए कितने आवश्‍यक हैं और कितने अनावश्‍यक। आज के युग में कई बार देखने में आता है कि हम ऐसे रिवाजों को त्‍याग देते हैं जिनसे परिवार और समाज का ढांचा सुदृढ़ होकर एकसूत्र में बंधता है लेकिन ऐसे रिवाजों को अपनाकर रखते हैं जो केवल व्‍यक्तिगत हित साधन के होते हैं।
कई वर्ष पूर्व की बात है, मेरी ननद के ससुरजी का देहावसान हुआ। चूंकि मेरी ननद को हमने पुत्री की तरह ही पाला था इसलिए सभी हमें ही उनका समधी मानते हैं। भारतीयों के एक आम रिवाज है कि मृत व्‍यक्ति की देह पर उसके समधियों के यहाँ से सम्‍मान सूचक एक शॉल उन्‍हें उढाया जाता है। जैसे हम पुष्‍प रखते हैं वैसे ही समधी शॉल उढाता है। लेकिन मुझे बड़ा आश्‍चर्य हुआ कि फालतू के रीति-रिवाज कहकर शॉल पर पाबन्‍दी लगा दी गयी। मैंने वहाँ समझाने का प्रयास किया कि यह तो मृतक का सम्‍मान है इससे दोनों परिवारों के मध्‍य प्रेम बढ़ता है। क्‍योंकि जहाँ अधिकार होता है वहाँ प्रेम भी बढ़ता है। लेकिन मेरी नहीं सुनी गयी। उस समय कोई बखेड़ा खड़ा करने का मेरा भी मन नहीं था और यह बखेड़ा भी जिस महिला के द्वारा किया गया था उसका कारण भी दूसरा था क्‍योंकि उसके यहाँ से कोई शॉल लाने वाला नहीं था।
अभी दो दिन पूर्व मुझे बताया गया कि पूरे स्‍थानीय समाज ने निर्णय लिया कि शॉल नहीं उढाया जाएगा। मुझे तो तकलीफ हुई क्‍योंकि मैं इस रिवाज के कारण कोई आर्थिक बोझ नहीं देख पा रही हूँ केवल यह तो एक सम्‍मान का प्रतीक है। जैसे हम किसी बड़े राजाध्‍यक्ष की मृत्‍यु पर पुष्‍पचक्र चढ़ाते हुए सेनाध्‍यक्षों आदि को देखते हैं।
ऐसे ही एक कर्म-काण्‍ड के बारे में भी आप सभी का परामर्श चाहती हूँ, मृत्‍यु बाद हम मृत-देह की अस्थियों को चुनकर उनका विसर्जन करते हैं। यह एक कर्मकाण्‍ड है लेकिन यह‍ कर्मकाण्‍ड क्‍या हमें मन की शान्ति प्रदान नहीं करता है? केवल यह कहकर कि यह कर्मकाण्‍ड है उसे छोड़ दिया जाए, मुझे उचित नहीं मालूम होता है। परिस्थितिवश आप कुछ नहीं कर सकते वह बात अलग हो सकती है लेकिन इस कर्मकाण्‍ड को अनुचित बताना मुझे असंवेदनशीलता लगती है। ऐसे ही कई कर्मकाण्‍ड और रिवाज है। जिनपर चर्चा की आवश्‍यकता है कि ये हमारे जीवन के लिए कितने उपयोगी हैं और कितने अनुपयोगी। आप सभी के विचार आमं‍त्रित हैं। अभी केवल विषय पर केन्द्रित रहेंगे तो चर्चा सार्थक होगी। हम अन्‍य रिवाजों पर अलग से चर्चा कर सकते हैं। 

Sunday, September 5, 2010

मृत्‍यु के पार, असंवेदनाओं का उपजा संसार, लेकिन जुबान पर ताले हैं


कभी आपके साथ भी ऐसा होता होगा कि किसी मानवीय असंवेदनाओं के कारण या अव्‍यवस्‍थाओं के कारण आपका मन दुखी हो उठा हो लेकिन प्रतिक्रिया करने में अपने आपको अक्षम पा रहे हों। मन करता है कि तुम चीखो और कहो कि यह असंवेदना है, लेकिन जुबान पर ताले पड़ जाते हैं। क्‍यों? क्‍योंकि ये असंवेदनाएं हमारे आसपास से उगी हैं, हम हमारे ही व्‍यक्तियों पर आरोप मढ़ने से बचना चाहते हैं। ऐसे ही अव्‍यवस्‍थाएं कभी ऐसे विकसित देशों की उजागर हो जाती हैं जिनका जिक्र करने से न जाने कितनी नागफणियां खंजर बनकर आप पर आक्रमण कर देती हैं। तब मौन के सिवाय कुछ करने को नहीं होता है। बस चित्त रोता है।
बहुत दिनों से कोई पोस्‍ट नहीं लिखी, अपने विचारों को लेकर आपके मध्‍य नहीं आ पायी। पहले ग्‍वालियर चले गयी थी और फिर पारिवारिक शोक और बीमारी से पीडित रही। आज भी हूँ। लेकिन मन में जो घुट रहा है, उसे शब्‍द देने का सामर्थ्‍य नहीं जुटा पा रही हूँ। परिवार में मृत्‍यु हुई है, लेकिन वहाँ भी हम अहम् को तलाशते हैं। सबके अपने अपने स्‍वर हैं, कोई धर्म से प्रेरित है और अर्थ से। हम जैसे लोग रास्‍ता खोजते हैं और समाधान भी निकाल देते हैं लेकिन मन प्रतिपल प्रश्‍न करता है कि मनुष्‍य इतना असंवेदनशील क्‍यों होता जा रहा है? दुख में भी वह कैसे अहम् को ही पुष्‍ट करने में लगा रहता है? मेरी इस पोस्‍ट के कोई मायने नहीं हैं, ना ही कोई उत्तर। बस मन को हल्‍का करने के लिए कुछ लिख दिया है। कभी मृत्‍यु से अधिक इन्‍हीं असंवेदनाओं से मन व्‍यथित हो उठता है, तब कुछ शब्‍द कलम से निकल ही जाते हैं। क्‍योंकि मृत्‍यु तो शाश्‍वत है लेकिन हम मनुष्‍यों में संवेदनाएं भी शाश्‍वत बनी रहनी चाहिए।
जय शंकर प्रसाद  की पंक्तियां है
मृत्‍यु, अरी चिर निद्रा तेरा रूप हिमानी सा शीतल,
तू अनंत में लहर बनाती काल जलधि की सी हलचल।
मृत्‍यु का रूप तो बर्फ की तरह शीतल होता है लेकिन मनुष्‍य क्‍यों शीतल हो जाता है? आज बस इतना ही, अभी आप लोगों के ब्‍लाग पर भी टिप्‍पणियां नहीं कर पा रही हूँ, लेकिन शीघ्र ही मन स्‍वस्‍थ होगा।