एक सुन्दर राजकुमार था, उससे विवाह करने के लिए देश-विदेश की राजकुमारियां लालायित रहती थीं। एक दिन एक विदेशी राजकुमारी ने उस राजकुमार से विवाह कर लिया। राजकुमारी ने उसे लूटना शुरू किया और धीरे-धीरे वह राजकुमार जीर्ण-शीर्ण हो गया। राजकुमारी छोड़ कर चले गयी और राजकुमार अनेक रोगों से ग्रसित हो गया। अब उसे कोई प्यार नहीं करता, बस सब नफरत ही करते हैं और उससे दूर कैसे रहा जाए, बस इसी बारे में चिन्तन करते हैं। इस राजकुमार को हम भारत मान लें और राजकुमारी को इंग्लैण्ड। कल तक भारत एक राजकुमार था तो उसे लूटने कई राजवंश चले आए और आज जब लुटा-पिटा शेष रह गया है तब उसके अपने भी उससे नफरत कर रहे हैं?
अभी एक किताब पढ़ी थी, पढ़ी क्या थी बस कुछ पन्ने पलटे थे। Indian Summer: The Secret History of the End of an Empire - Alex Von Tunzelmann इस पुस्तक का प्रारम्भ जिन शब्दों में किया गया है उसका भावार्थ कुछ ऐसा है – 1577 में जब इंग्लेण्ड की गद्दी पर महारानी ऐलिजाबेथ बैठी उस समय दुनिया में दो ही देश थे, एक देश था एकदम असभ्य, अविकसित और धार्मिक उन्माद से ग्रस्त और वह देश था इंग्लैण्ड। दूसरा देश था पूर्ण समृद्ध, विकसित और धार्मिक सहिष्णुता से परिपूर्ण। यह देश था भारत। इस कारण महारानी एलिजाबेथ ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी बनायी और भारत के साथ व्यापार करने को कहा। तब तक वास्कोडिगामा 1498 में भारत की खोज कर चुका था और यहाँ के वैभव के बारे में यूरोप को बता चुका था।
भारत में अंग्रेजों के आने से पूर्व अति विकसित कुटी उद्योग थे, यहाँ की रेशम दुनिया में जाती थी। मेरे पास इसके भी ढेर सारे आँकड़े है कि उस समय हम कितना उत्पादन करते थे। लेकिन मैं केवल यह कहना चाह रही हूँ कि इस देश को 250 वर्षों तक अंग्रेजों ने बेदर्दी से लूटा और लूटा ही नहीं हमारे सारे उद्योग धंधों को चौपट किया, हमारी शिक्षा पद्धति, चिकित्सा पद्धति, न्याय व्यवस्था, पंचायती राज व्यस्था आदि को आमूल-चूल नष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इतना लूटने के बाद भी स्वतंत्रता के समय हमारे पास अपना कहने को बहुत कुछ था। लेकिन दुर्भाग्य से हमने उन सबको नजर अंदाज किया और शासन में अंग्रेजों के स्थान पर स्वयं को आसीन कर लिया। बस और कोई परिवर्तन नहीं। अपनी प्रत्येक पद्धति को गाली देना हमारा ध्येय बन गया और पश्चिम की प्रत्येक वस्तु को अपनाना फैशन बन गया।
आज कुछ पोस्ट पढ़ने को मिली, जैसे दिव्या की एक पोस्ट थी - श्रेष्ठ चिकित्सक कौन?": इस पोस्ट में एक भारतीय चिकित्सक का दर्द निकलकर आता है। एक अन्य पोस्ट थी - 'आई हेट पॉलिटिक्स' मगर क्यों...?": रवीश कुमार जी की एक पोस्ट थी - बारिश एक भयंकर इमेज संकट से गुज़र रही है": इन सारी ही पोस्टों में भारत के लिए चिन्ता हैं। दिव्या स्वयं एक चिकित्सक हैं और वे इस बात से दुखी हैं कि लोग मुझसे पूछ रहे हैं कि तुम ऐलोपेथी की चिकित्सक होने के बाद भी आयुर्वेद और होम्योपेथ की वकालात क्यों कर रही हो? रवीशजी स्वयं एक मीडियाकर्मी हैं लेकिन उनका दर्द है कि आज मीडिया बरसात को भी विलेन बनाने पर तुला है। ऐसे ही राजनीति को भ्रष्ट बताकर श्रेष्ठ युवा पीढ़ी को राजनीति से दूर किया जा रहा है।
ऐसा लगता है कि हमारे स्वाभिमान को सोच-समझकर नष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है। कोई राजनीति से घृणा करना सिखा रहा है तो कोई मीडिया से। कोई हमारी शिक्षा पद्धति को खराब बता रहा है तो कोई बारिश से ही बेहाल हो रहा है। हमारी चिकित्सा प्रणाली को तो कूड़े के ढेर में डालने की पूरी कोशिश है। इसलिए आप सभी के चिंतन का विषय है कि क्या भारत को हम उस राजकुमार की तरह त्याग दें या फिर उसे पुन: स्वस्थ और सुंदर बनाने में सहयोगी बने।
48 comments:
इस राजकुमार को देह त्यागने की जरुरत नहीं है, जरुरत है काया कल्प की।
(1)अंग्रेजों को भारत पर राज करना था। इसलिए सबसे पहले उन्होने यहां की शिक्षा पद्धति पर हमला किया। हमारी प्राचीन शिक्षा पद्धति स्वालम्बी बनाती है और स्वालम्बी ही स्वामी हो सकता है। लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति ने क्लर्क बनाए, दास बनाए। स्वामी या मालिक तो वे स्वयं थे।
(2) अंग्रेजो ने यहां के कुटीर उद्योंगों का विनाश किया। इसलिए की उनकी मशीनों के बनाए उत्पाद भारत में बिक सके,उन्हे बाजार मिल सके। फ़लस्वरुप करोड़ों हाथ खाली हो गये। लोग बेरोजगार हो गये।
(3) अंग्रेजों ने चाटुकारों का सम्मान करना प्रारंभ किया, उन्हे सर, राय बहादूर,ऑनरेरी मिजिस्ट्रेट, इत्यादि खिताब दिए। जिससे चाटुकारों की एक पौध विकसित की।
इन कार्यों को अंग्रेजो से सत्ता हस्तान्तरण के बाद भी आने वाली भारतीय सरकारों ने जारी रखा। आज भारत में 14 वर्ष से लेकर 40वर्ष तक के लगभग 60 करोड़ लोग बेरोजगार हैं। अभी एक सर्वे रिपोर्ट पढी थी कि 20करोड़ लोग तो 12रुपये से लेकर 20 रुपए तक की प्रतिदिन की आय से गुजारा करते हैं।
जब तक पुन: कुटीर उद्योगों की स्थापना नहीं तब तक बेरोजगारी दूर नहीं हो सकती। रोजगार मूलक पाठ्यक्रम होने चाहिए। चाहे कोई आठवीं पढने के बाद ही अपना रोजगार प्रारंभ कर ले। कोई आवश्यक्ता नहीं है उच्च शिक्षा की। जो सक्षम है वे उच्च शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं। लेकिन जो आर्थिक दृष्टि से सक्षम नहीं है,उनके लिए रो्जगार मूलक शिक्षा की व्यवस्था हो।
रोजगार के अधिकार को संविधान प्रदत्त मूल अधिकारों में सम्मिलित किया जाए।
तभी भारत का पुनर्निमाण हो सकता है।
आपको एक अच्छी पोस्ट के बधाई
बहुत सही कहा.. समस्या ये है की हम सफाई के घर से शुरू करना चाहते है...
आपका आलेख, भारत की दशा दिखाने के लिये उदाहरण व भारत की जीर्ण शीर्ण दशा के लिये निहित कारक, बड़े ही सारगर्भित ढंग से प्रस्तुत किये गये। पढ़कर गर्व हुआ। आपकी विचारधारा से प्रभावित हूँ और शतशः सहमत हूँ।
ापने आज सही विषय उठाया है। किसी मे गलती निकालना या उस की निन्दा करना बहुत आसान होता है मगर उसे सुधारना कि तरह है इसकी तरफ ध्यान कोई नही देता। और ये काम हम अपने आप से शुरू कर सकते हैं। बहुत जरूरत है कि हम ये सोचें कि हम देश के लिये क्या कर रहे हैं इस व्यवस्था को सुधारने के लिये क्या कर रहे हैं? जब सभी ये सोचने लगेंगे तो भारत का नक्शा ही बदल जायेगा। बहुत अच्छा आलेख है। शुभकामनायें
Har koi yadi desh ke baare mein soche ki hum kya kar rahe hain to nishchit hi desh mein faili vamansyta aur nafrat dheere dheere khatm ho sakti hai..
Saarthak aalekh ke liye shubh kamnayne
संजीदा पोस्ट ...
ललितजी ने सही ही लिखा है कि देश को नफरत नहीं काया- कल्प की जरुरत है ...!
है प्रीत जहां की रीत सदा,
मैं गीत वहां के गाता हूं,
भारत का रहने वाला हूं,
भारत की बात सुनाता हूं...
आज विदेशियों से ज़्यादा विदेश जाकर बस गए भारतीय ही भारत की खामियों को लेकर सबसे ज़्यादा नाक-भौं सिकोड़ते हैं...यहां की गंदगी-गरीबी को स्लमडॉग्स मिलियनेयर्स में देखकर तालियां पीटते हैं...भ्रष्टाचार का हवाला देकर यहां निवेश से कतराते हैं...हर बात में पश्चिम की तुलना भारत से करते हैं...लेकिन ये भूल जाते हैं कि भारत में लिटरेसी का रेट क्या है...जिस हम भी सौ फीसदी लिटरेट होंगे, फिर देखिएगा किस देश की मज़ाल जो हमें छू भी सकेगा...हम भारतीय भी विदेश जाते हैं तो साफ-सफाई, ट्रैफिक, सब नियम कायदे हमें आ जाते हैं...लेकिन अपने भारत में सब चलता है वाला नज़रिया अपना लेते हैं...जब तक हम खुद अपने देश की इज़्ज़त करना नहीं सीखेंगे, दूसरा ऐसा क्यों करेगा...लेकिन इसका ये मतलब भी नहीं कि हम अपने घर की बुराइयों को दूर करने की कोशिश ही न करें....लेकिन ये घर की बात है घर वालों को ही इसका हल ढूंढना चाहिए...कोई विदेशी आकर हमें न समझाए कि हमें क्या करना है और क्या नहीं...
जय हिंद...
राजकुमार राजकुमार ही रहता है. यह अस्थाई ग्रहण की दशा भले ही हो. देखने वालों को क्या कहें यह उनका अपना दोष है.
अजित जी ,
आपकी यह पोस्ट आँख खोलने वाली है...आपने सच कहा कि भारत इतना संम्पन देश था कि इतना लुटने के बाद भी बहुत कुछ अपना बचा हुआ था ...पर हमारे देश का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि हमने इसके विकास की सही दिशा नहीं चुनी ...बस लोग बदल गए...ललित जी के सुझाव एक दिशा देते हैं....काश ऐसा हो सके...शिक्षा को रोज़गार से ज़रूर जोड़ना चाहिए...बहुत ही सारगर्भित लेख....आभार
अंग्रेजों ने जो घाव दिए उनकी भरपाई तो की जा सकती थी पर ये काले सेकुलर अंग्रेज जातिवाद,सम्प्रदायवाद,भ्रष्टाचार आदि के जो घाव दे रहे उन्हें भरना बहुत मुश्किलहै
.अजित जी,
बहुत सार्थक लेख लिखा है आपने। विश्वास हो चला है लोगों की सोच बदलेगी अब ।
.
पहले किसी ने क्या किया अब उसको सोच कर क्या फायदा , अब किया क्या जाये की स्थिति थोड़ी सुधार जाये यह सोचा जाये अब यहाँ भी दूसरो से उम्मीद न करे कुछ चीजो के लिए हमें दूसरो को सुधारने की जरुरत ही नहीं है हम सभी एक एक व्यक्ति खुद को सुधार ले तो कई चीजे अपने आप ही सही हो जाएगी जैसे ट्रैफिक नियम मानना घर के बाहर कही गन्दगी न करना सभी कानूनों का पालन करना घुस न देना सार्वजनिक संम्पति का सही उपयोग करना उसको नुकसान न पहचान.............. इत्यादी |
एक सार्थक दिशा देता आलेख्……………बहुत सोच समझकर सही बात की ओर ध्यान आकर्षित किया है………………हर नये काम की शुरुआत अपने घर से ही करनी पडती है………………बस यही पहल दिशा बदल देगी।
आपकी पीडा वाजिब है। सचमुच हमें सकारात्मकता की ओर ध्यान देना चाहिए।
………….
संसार की सबसे सुंदर आँखें।
बड़े-बड़े ब्लॉगर छक गये इस बार।
यही तो विडम्बना है!
जिस तरह कोई भी व्यक्ति सर्व गुण संपन्न नहीं हो सकता । उसी तरह कोई भी संस्कृति या देश सम्पूर्ण नहीं हो सकता । हम अपनी अच्छाइयों को कायम रखते हुए पश्चिम की अच्छाइयों को भी अपनाएं , तो यह देश स्वर्ग बन सकता है। अब यह मत सोचियेगा कि पश्चिम में कोई अच्छाई नहीं है ।
कृपया मेरी कल की पोस्ट देखना /पढना मत भूलियेगा , इसी विषय पर , एक दूसरे रूप में ।
इसलिए आप सभी के चिंतन का विषय है कि क्या भारत को हम उस राजकुमार की तरह त्याग दें या फिर उसे पुन: स्वस्थ और सुंदर बनाने में सहयोगी बने।
संत कबीर की कालजयी सलाह "सार सार को गहि रहै, थोथा देय उडाय" की मानें तो राजकुमार पूर्ण स्वस्थ तभी हो सकता है जब वह अपनी बीमारी का दोषारोपण अंग्रेजों, पड़ोसी देशों, प्राकृतिक परिवर्तनों, मनुवादियों... आदि पर डालकर कन्नी काटना/हाथ झाडना छोड़कर समस्या को समझकर उसके उन्मूलन की दिशा में सोचेगा.
* हममें से कितनों ने घर में झाडू-पोंछा लगाने वाली के बच्चे को हाई-स्कूल करने तक पूरा सहारा दिया है, कृपया दायाँ हाथ उठायें
* वे लोग अपना बायाँ हाथ उठायें जिन्होंने आज तक अपने किसी भी काम के लिए अपने संबंधों का इस्तेमाल नहीं किया और रिश्वत/अनुग्रह न लिया न दिया.
* तनख्वाह के अतिरिक्त आमदनी (इसमें लेखन से आय भी शामिल है) पर ईमानदारी से पूरा कर देने वाले अपने दोनों हाथ उठा सकए हैं.
* किसी रिक्शेवाले को तमाचा मारते पुलिसवाले का हाथ रोककर उसे सज़ा दिलाने वाले दोनों पाँव उठाकर हवा में उड़ सकते हैं.
Fixing responsibility only fixes responsibility - to fix a problem, we need to fix the problem.
आलोचना नफरत में अंतर है.
बहुत ही अच्छी व सार्थक पोस्ट ,सबसे बरी समस्या है की टीवी और बीबी के पास बैठकर हर कोई देश की कमिया निकालता है लेकिन उन कमियों को सुधारने के प्रयास के लिए न तो कोई समय खर्च करना चाहता है और न ही एकजुट होना चाहता है तो बदलाव कैसे आएगा ..? आज जरूरत है इस दिशा में एकजुट होकर आगे बढ़ने की ...
आपके ज्यादातर प्रेक्षण सच एवं वस्तुनिष्ठ लगते हैं !
आपने बहुत ही सही विषय का चुनाव किया है...
सच पूछिए तो... क्योंकि हम विदेश में रहते हैं इसलिए भारत की चिंता हमें ज्यादा रहती है....हमारे पास दिन भर में हज़ारों पल ऐसे आते हैं जब हम सोचते हैं काश वहाँ भी ऐसा होता...
@ खुशदीप जी ने ये कहा है कि विदेशों में रहने वाले भारतीय ही ज्यादा नाक भौं सिकोड़ते हैं...लेकिन यह भी सोचना चाहिए कि वही सही मायने में तुलना भी कर पाते हैं...दोनों परिवेशों में...
मैं अपनी बात बताती हूँ....मेरे पति के कंपनी shails communication ने भारत में शिक्षा सम्बंधित एक प्रोजेक्ट की शुरुआत की ...जिसके लिए पैसा भी हम ही लगाना चाहते थे...लेकिन रिसर्व बैंक ऑफ़ इंडिया के नियम ऐसे ऐसे थे की...आखिर में हार मान कर हमने उस प्रोजेक्ट को छोड़ ही दिया...
दूसरा उदहारण देती हूँ...एलेक्ट्रोनिस डाटा सिस्टम कंपनी ..जिसमें मैं पहले प्रोजेक्ट मेनेजर थी...उस कंपनी ने आसाम में पावर ग्रिड लगाया था ...आज से १० साल पहले...इस पावर ग्रिड से बिजली का उत्पादन शुरू भी हुआ...स्थानीय लोगों ने तार डाल-डाल कर अपने घरों में बिजलियाँ भी ले लीं...लेकिन इलेक्ट्रोनिक डाटा सिस्टम्स एक पैसा नहीं कमा पाया...जब उसने देखा की कोई फायदा नहीं है , उसने वहां से अपने equipment उठाना चाहा तो स्थानीय लोगों ने वो भी नहीं करने दिया....इस कंपनी ने बहुत नुक्सान उठाया है....ऐसे में कौन भारत में निवेश करना चाहेगा....
तीसरी घटना बताती हूँ... हमारी कंपनी, shails communication ने सर्व शिक्षा अभियान के अंतर्गत निकाले गए एक निविदा के प्रतिउत्तर में अपना बिड किया...हम जीत भी गए ...प्रोजेक्ट ३ करोड़ का था ...हमसे सीधे ७५ ०००० लाख की डिमांड की गयी....हमने मना कर दिया तो उसी प्रोजेक्ट को ७ -८ कंपनियों में बाँट दिया गया ..कम काम कम पैसे में संभव नहीं था हमने छोड़ दिया....
ऐसे कई उदाहरण आपको दे सकती हूँ मैं...
भारत से हमें बहुत प्यार है ...लेकिन इस बात में दो राय नहीं है कि . हमारे घर में सुधार की बहुत आवश्यकता है....हम हिन्दुस्तानी विदेश की ज़मीन पर भारत का नाम की ऊँचा कर रहे हैं....इसी दिशा में प्रयत्नशील हैं....आज अगर भारत का नाम अंतर्राष्ट्रीय माहौल में चमक रहा है तो निःसंदेह प्रवासियों का बहुत बड़ा हाथ है....इस हाथ को मज़बूत करने के लिए घरवालों को साथ देना ही होगा....तभी बात बनेगी...अत्न्मुग्ध न होकर ..अपनी कमियों को स्वीकार कर उन्हें सुधारना ज्यादा बुद्धिमत्ता है ....
बहुत अच्छा लिखा है आपने...
आभार...
@ ललित जी ने बहुत अच्छी बात कही है...
कुटीर उद्योगों का ह्रास तो भारतीय खुद अपने हाथों से कर रहे हैं...जब वो चाइना की बनी चीज़ें खरीद रहे हैं...
आप खुद देखिये ...होली के रंग, दीवाली के दीप, पटाखे, यहाँ तक की हमारे भगवान् भी चाइना से आ रहे हैं...ऐसे में वो छोटे-छोटे रोजगार तो मार खा ही रहे हैं और बंद हो रहे हैं ...छोटे-छोटे सब्जी बेचने वाले ...बदु कंपनी रिलायंस फ्रेश के हाथों मर रहे हैं....इनको कौन मार रहा है...भारत में रहने वाले भारतीय.....क्या पूरे भारत में एक रिलायंस ही रह गयी है जो सारे बिजिनेस कर सकती है,...सरकार की नीति यहाँ क्या कर रही है ?
अगर भारत को समृद्ध बनाना है तो इसका खुल कर बहिष्कार होना चाहिए...
चाइनीज वस्तुओं को अपने घरों में घुसने मत दीजिये....जब तक भारत में बैठे हुए लोग भारत से प्रेम नहीं करेंगे ...अपने भारतीय होने पर गर्व नहीं करेंगे ...यह काम नहीं हो सकता ....हम तो हर पल अपने साथ छोटा सा भारत लिए घूमते ही रहते हैं....विश्वास कीजिये ...यहाँ हमने ..दिल्ली, चांदनी चौक, आगरा , लखनऊ जैसे नाम देकर इलाके बना लिया है....पार्लियामेंट तक में दीवाली दशहरा मनाने को मजबूर कर दिया है...हम प्रवासी बहुत प्यार करते हैं अपने देश से...दुःख तब होता है जब हिन्दुस्तान जाकर, हमें हिन्दुस्तान ढूंढना पड़ता है....
अजित जी आप ने बिलकुल सही बात कही आप से सहमत हुं... ओर हां एक बात मै यह भी कहना चाहुंगा कि पुरे युरोप मै से आज भी ब्रिटेन के लोग हद से ज्यादा असभ्य ओर नक चढे है
इस पोस्ट को पढ़ लगा कि हमें वास्तव में पुनर्विचार की आवश्यकता है..
इसलिए आप सभी के चिंतन का विषय है कि क्या भारत को हम उस राजकुमार की तरह त्याग दें या फिर उसे पुन: स्वस्थ और सुंदर बनाने में सहयोगी बने।
बहुत ही अच्छी पोस्ट .. हम भारतीयों को ही भारत की वास्तविक सभ्यता , भारत की वास्तविक संस्कृति , भारत की वास्तविक भाषा और भारत के वास्तविक जीवनशैली को महत्व देते हुए आगे बढने के कार्यक्रम बनाने चाहिए .. बिना प्रकृति को नुकसान पहुंचाए , बिना नैतिकता को नुकसान पहुंचाए हजारो , लाखों वर्ष तक सतत् विकास का क्रम देने में हमारी पद्धति ही सक्षम है .. पाश्चात्य सभ्यता तो अपने तात्कालिक सुख के लिए हर प्रकार का विनाश कर सकता है .. इस बात को हम जितनी जल्द समझ जाएं .. हमारे लिए अच्छा होगा !!
ममा....लेख बहुत सार्थक है.... मुझे बहुत कुछ लिखना है कमेन्ट के रूप में.... अच्छे से...इस पर.... मैं फिर से आता हूँ...
बहुत सार्थक लेख । अब लोग सिर्फ ’मैं’से प्यार करते हैं तो देश और समाज से कौन प्यार करेगा ??
त्याग देना यानी जिम्मेदारी से बचना बहुत आसान है पर चिकित्सा करना जरा कठिन है क्योकि योग्य चिकत्सक और तीमारदार जरा मुश्किल से मिलेगा।
@'अदा'जी
मारक्कस में हुए WTO समझौते से पता चल गया था कि इसका सबसे ज्यादा फ़ायदा,चीन को होगा। आज स्थिति यह है कि अमेरिका राष्ट्रीय ध्वज भी चीन से बनकर आ रहा है।
कूटीर उद्योगों का नाश अंग्रेजों के बाद भारत सरकार की गलत नीतियों के कारण हुआ है। भारत में कभी ग्रामीण इंजिनियर के नाम से प्रतिष्ठित एक वर्ग आज दो जून की रोटी के लिए तरस रहा है। आजादी के 23वर्षों के बाद भी इन तक विकास के उजास की कोइ किरण नहीं पहुंची है। कृषि हमेशा घाटे का सौदा रहा है। इसलिए चीन ने उद्योंगो का विकास किया,जिसकी बिक्री से नगद पैसा प्राप्त हो सके और उसकी नीति सफ़ल रही है।
पाकिस्तान और हिन्दुस्तान के बाजारों में सब चाईना,सब चाईना चल रहा है। जबकि उसके उत्पाद गुणवत्ता विहीन हैं। फ़िर भी उसका माल इन देशों के बाजारों खपाया जा रहा है। बिंदी से लेकर लहसुन तक चीन से आ रहा है।
इसका एक ही उपाय है कि घरेलु स्तर पर छोटे उद्योगों को बढावा देकार,गुणवत्ता युक्त उत्पादन करना और विश्व के बाजारों पर अपना उत्पाद बेचना।
मैं फ़िर कहता हूँ भारत की द्रुत गति से बढती हुई जनसंख्या को देखते हूए। कुटीर उद्योग ही हर हाथ को काम दे सकते हैं। जिससे बे्रोजगारी भी दूर होगी और विदेशी मुद्रा का अर्जन भी होगा।
इसके लिए सरकार की भी दृढ इच्छा शक्ति आवश्यक है।
ललितजी सहित आप सभी लोगों के सार्थक विचार इस पोस्ट पर आए। मेरा केवल यह प्रयास था कि हम विगत से कुछ सीखे और अपने स्वाभिमान को जागृत करें। हमारी पूर्ण व्यवस्थाएं जो अंग्रेजों ने बदली है उन्हें पुन: लागू करें जिससे हमारा विकास ग्राम से शहर की ओर हो। अनुराग जी ने भी कुछ प्रश्न उठाए हैं तो हम तो यही कह सकते हैं कि हम दावा तो नहीं कर सकते लेकिन अपने दोनों हाथ और पैर उठा जरूर सकते हैं। अदाजी ने भ्रष्टाचार की बात की है तो जिस दिन हमारा सिस्टम बदेलगा यह तो कपूर की तरह उड़ जाएगा। इस देश का दुर्भाग्य है कि हमने 1860 में बनाए अंग्रेजों के कानून को ज्यों का त्यों स्वीकार किया है इसकारण ही भ्रष्टाचार फैला हुआ है। कल तक वे राजा थे और हम प्रजा इसलिए दो अलग कानून इस देश में थे और आज हमारे राजनेताओं ने इसीलिए इन कानूनों में फेर बदल नहीं किया क्योंकि अब वे राजा बन गए हैं। इसलिए आज जनता को जाग्रत करना है कि वे सच्चाई को देखे और अपनी व्यवस्थाओं पर अभिमान करे, विश्वास करे। आज तो हम हमारी विरासत को नफरत की नजर से देख रहे हैं तब हम केवल अंधानुकरण करने के अलावा और कुछ नहीं कर सकते। आप सभी ने अपने अमूल्य विचार दिए इसके लिए आभारी हूँ। विचारों के आदान-प्रदान से ही जागृति आएगी।
एक बढ़िया पोस्ट और विचारों के लिए धन्यवाद !
इस पोस्ट पर यहां बहुत गहन विचार विमर्श हुआ है। बधाई। अंग्रेज चले गए हैं। पर आज भी एक इंग्लैंड भारत में बसा है। जिसे हम इंडिया कहते हैं। सच माने में भारत के राजकुमार की लड़ाई इंडिया के प्रिंस से है। यह इंडिया भले ही 20 प्रतिशत है पर यही है जो अभी भी कुंडली मारकर बैठा है।
"1577 में जब इंग्लेण्ड की गद्दी पर महारानी ऐलिजाबेथ बैठी उस समय दुनिया में दो ही देश थे, एक देश था एकदम असभ्य, अविकसित और धार्मिक उन्माद से ग्रस्त और वह देश था इंग्लैण्ड।"
प्रसिद्ध इतिहासज्ञ उपन्यासकार आचार्य चतुर सेन के भी उद्गार यही है कि "सत्रहवीं शताब्दी में ब्रिट्रेन अर्धसभ्य किसानों का उजाड़ देश था"।
विदेशियों ने हमारे देश को लूटा सो लूटा पर सबसे अधिक दुःख की बात तो यह है कि आज भी हमारे बीच के ही भ्रष्ट लोग हमारे देश को लूट रहे हैं।
इस लूट को जारी रखने के लिये ही विदेश आधारित शिक्षा पद्धति को आज भी इस देश में जारी रखा गया है।
आदरणीया गुप्ता जी ,
तीसरी दुनिया को देखने वाले पश्चिम के उस 'व्यू-पोलिटिक्स' की निंदा करता हूँ जो यह मानती है कि सभ्यता फैलाना 'व्हाईट मैन्स बर्डन' है ! भारतीय सभ्यता व संस्कृति से स्नेह है , अलग से क्या कहूँ , करनी से कभी साबित करने का मौक़ा आयेगा तो जरूर साबित करूंगा ! पर ज्ञान - जागृत होना आवश्यक है , तार्किक होना आवश्यक है , और कवि-कुल-गुरु कालिदास ने भी तो कहा है ---
'' पुराणमित्येव न साधु सर्वं न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम् ।
सन्तः परीक्ष्यान्यतरद्भजन्ते मूढः परप्रत्ययनेयबुद्धिः ॥ ''
[ मालविकाग्निमित्रम् ]
--- एतदर्थ कालिदास द्वारा प्रोक्त '' परिक्षा '' पर जोर देता हूँ चाहे पुराना हो या नया , चाहे पूर्व का हो या पश्चिम का , चाहे अपना हो या पराया ! इस 'व्यू-प्वाइंट' को ठेठ भारतीय मानता हूँ और गर्व करता हूँ कालिदास प्रभृति विद्वानों पर !
अच्छी है पोस्ट , ललित जी प्रभृति टीपकारों की बातें कि कम से कम संवाद तो चल रहा है , अच्छा लग रहा है , आभार !
अदाजी ने भ्रष्टाचार की बात की है तो जिस दिन हमारा सिस्टम बदेलगा यह तो कपूर की तरह उड़ जाएगा। इस देश का दुर्भाग्य है कि हमने 1860 में बनाए अंग्रेजों के कानून को ज्यों का त्यों स्वीकार किया है इसकारण ही भ्रष्टाचार फैला हुआ है।
हमारी विफलताओं का एक सबसे बड़ा कारन तो यही है की हम अपनी गलती मानाने तैयार नहीं होते. अपनी गलतियों का ज़िम्मेदार झट से दूसरों को ठहरा देते हैं. अगर अंग्रेजों की नीतियाँ इतनी ही बुरी थीं तो इंग्लैण्ड में भी भारत जितना ही भ्रष्टाचार होना था. अंग्रेजों के आने से पहले भी भारत दो हज़ार साल से गुलाम था. क्योंकि आज की तरह हम हमेशा से बँटे हुए थे. दरअसल हम खुद ही स्वार्थी हैं, अपनों को धोखा देने और उनका शोषण करने से नहीं हिचकते.
वोट जात और चेहरा देखकर देते हैं. पढने लिखने और लोकतंत्र आने के बाद भी राजा रानी राजकुमार बाहुबलियों के प्रति श्रद्धा रखते हैं. भ्रष्टाचार को सार्वजानिक जीवन में पूरी स्वीकार्यता है. जो नेता खुले आम देश बेचते हैं उन्ही को फिर वोट देते हैं और वापस ले आते हैं . दुनिया में इतनी मिलावट कहीं नहीं होती जितनी भारत में होती है, और यह कोई अमेरिका या यूरोप के लोग नहीं करते, बल्कि भारतीय ही अपने देशवासियों को यह सब खिला रहे हैं. सत्तर करोड़ लोग बीस रुपये दिन से भी कम में गुज़ारा करते हैं, अधिकतर आबादी कुपोषित है. जिनके पास थोडा पैसा और शिक्षा है, उन्हें मीडिया और उपभोक्तावाद के ज़रिये सच से दूर रखा गया है. हजारों समस्याएं है, लिकने बैठें तो हजारों पेज भर जाएँ.
बूढों की तरह अतीत में मत खोए रहो, कुछ भविष्य की तरफ भी देखना चाहिए. हम ऐसे थे हम वैसे थे, हम सोने की चिड़िया थे, हम वीर महान थे, हम विश्व गुरु थे, हम देवभूमि थे, हम ऋषियों की संतान हैं, हमारे वेदों में हवाई जहाज से अंतरिक्षयान तक के फोर्मुले हैं वगैरह वगैरह.
(जो थे वो थे, अब क्या हो? अफीम खाकर भूखों मर रहा चीन, और बर्बाद हुआ जापान आज हजारों मील आगे निकल चुके हैं. और विदेशों में जो प्रवासी 'भारतीय मेधा का 'झंडा लहरा' रहे हैं, वे ऐसे लोग हैं जिन्हें भारत ने मौका देने से इंकार कर दिया था, तब उन्हें बाहर नौकरी करनी पड़ी, वे हैं तो नौकर ही, क्योंकि जिन कंपनियों के लिए वे काम करते हैं वे सभी यूरोपियन मूल के लोगों की हैं. मालिक नहीं हैं भारतीय.)
भारत को आज आइना देखने की ज़रूरत है. न की अतीत के नशे में गाफिल रहने की.
देश का दुर्भाग्य है कि हमने 1860 में बनाए अंग्रेजों के कानून को ज्यों का त्यों किया है इसकारण ही भ्रष्टाचार फैला हुआ है। स्वीकार
हमारी विफलताओं का एक सबसे बड़ा कारन तो यही है की हम अपनी गलती मानाने तैयार नहीं होते. अपनी गलतियों का ज़िम्मेदार झट से दूसरों को ठहरा देते हैं. अगर अंग्रेजों की नीतियाँ इतनी ही बुरी थीं तो इंग्लैण्ड में भी भारत जितना ही भ्रष्टाचार होना था. अंग्रेजों के आने से पहले भी भारत दो हज़ार साल से गुलाम था. क्योंकि आज की तरह हम हमेशा से बँटे हुए थे. दरअसल हम खुद ही स्वार्थी हैं, अपनों को धोखा देने और उनका शोषण करने से नहीं हिचकते.
वोट जात और चेहरा देखकर देते हैं. पढने लिखने और लोकतंत्र आने के बाद भी राजा रानी राजकुमार बाहुबलियों के प्रति श्रद्धा रखते हैं. भ्रष्टाचार को सार्वजानिक जीवन में पूरी स्वीकार्यता है. जो नेता खुले आम देश बेचते हैं उन्ही को फिर वोट देते हैं और वापस ले आते हैं . दुनिया में इतनी मिलावट कहीं नहीं होती जितनी भारत में होती है, और यह कोई अमेरिका या यूरोप के लोग नहीं करते, बल्कि भारतीय ही अपने देशवासियों को यह सब खिला रहे हैं. सत्तर करोड़ लोग बीस रुपये दिन से भी कम में गुज़ारा करते हैं, अधिकतर आबादी कुपोषित है. जिनके पास थोडा पैसा और शिक्षा है, उन्हें मीडिया और उपभोक्तावाद के ज़रिये सच से दूर रखा गया है. हजारों समस्याएं है, लिकने बैठें तो हजारों पेज भर जाएँ.
बूढों की तरह अतीत में मत खोए रहो, कुछ भविष्य की तरफ भी देखना चाहिए. हम ऐसे थे हम वैसे थे, हम सोने की चिड़िया थे, हम वीर महान थे, हम विश्व गुरु थे, हम देवभूमि थे, हम ऋषियों की संतान हैं, हमारे वेदों में हवाई जहाज से अंतरिक्षयान तक के फोर्मुले हैं वगैरह वगैरह.
(जो थे वो थे, अब क्या हो? अफीम खाकर भूखों मर रहा चीन, और बर्बाद हुआ जापान आज हजारों मील आगे निकल चुके हैं. और विदेशों में जो प्रवासी 'भारतीय मेधा का 'झंडा लहरा' रहे हैं, वे ऐसे लोग हैं जिन्हें भारत ने मौका देने से इंकार कर दिया था, तब उन्हें बाहर नौकरी करनी पड़ी, वे हैं तो नौकर ही, क्योंकि जिन कंपनियों के लिए वे काम करते हैं वे सभी यूरोपियन मूल के लोगों की हैं. मालिक नहीं हैं भारतीय.)
भारत को आज आइना देखने की ज़रूरत है. न की अतीत के नशे में गाफिल रहने की.
देश का दुर्भाग्य है कि हमने 1860 में बनाए अंग्रेजों के कानून को ज्यों का त्यों किया है इसकारण ही भ्रष्टाचार फैला हुआ है। स्वीकार
हमारी विफलताओं का एक सबसे बड़ा कारन तो यही है की हम अपनी गलती मानाने तैयार नहीं होते. अपनी गलतियों का ज़िम्मेदार झट से दूसरों को ठहरा देते हैं. अगर अंग्रेजों की नीतियाँ इतनी ही बुरी थीं तो इंग्लैण्ड में भी भारत जितना ही भ्रष्टाचार होना था. अंग्रेजों के आने से पहले भी भारत दो हज़ार साल से गुलाम था. क्योंकि आज की तरह हम हमेशा से बँटे हुए थे. दरअसल हम खुद ही स्वार्थी हैं, अपनों को धोखा देने और उनका शोषण करने से नहीं हिचकते.
वोट जात और चेहरा देखकर देते हैं. पढने लिखने और लोकतंत्र आने के बाद भी राजा रानी राजकुमार बाहुबलियों के प्रति श्रद्धा रखते हैं. भ्रष्टाचार को सार्वजानिक जीवन में पूरी स्वीकार्यता है. जो नेता खुले आम देश बेचते हैं उन्ही को फिर वोट देते हैं और वापस ले आते हैं . दुनिया में इतनी मिलावट कहीं नहीं होती जितनी भारत में होती है, और यह कोई अमेरिका या यूरोप के लोग नहीं करते, बल्कि भारतीय ही अपने देशवासियों को यह सब खिला रहे हैं. सत्तर करोड़ लोग बीस रुपये दिन से भी कम में गुज़ारा करते हैं, अधिकतर आबादी कुपोषित है. जिनके पास थोडा पैसा और शिक्षा है, उन्हें मीडिया और उपभोक्तावाद के ज़रिये सच से दूर रखा गया है. हजारों समस्याएं है, लिकने बैठें तो हजारों पेज भर जाएँ.
बूढों की तरह अतीत में मत खोए रहो, कुछ भविष्य की तरफ भी देखना चाहिए. हम ऐसे थे हम वैसे थे, हम सोने की चिड़िया थे, हम वीर महान थे, हम विश्व गुरु थे, हम देवभूमि थे, हम ऋषियों की संतान हैं, हमारे वेदों में हवाई जहाज से अंतरिक्षयान तक के फोर्मुले हैं वगैरह वगैरह.
(जो थे वो थे, अब क्या हो? अफीम खाकर भूखों मर रहा चीन, और बर्बाद हुआ जापान आज हजारों मील आगे निकल चुके हैं. और विदेशों में जो प्रवासी 'भारतीय मेधा का 'झंडा लहरा' रहे हैं, वे ऐसे लोग हैं जिन्हें भारत ने मौका देने से इंकार कर दिया था, तब उन्हें बाहर नौकरी करनी पड़ी, वे हैं तो नौकर ही, क्योंकि जिन कंपनियों के लिए वे काम करते हैं वे सभी यूरोपियन मूल के लोगों की हैं. मालिक नहीं हैं भारतीय.)
भारत को आज आइना देखने की ज़रूरत है. न की अतीत के नशे में गाफिल रहने की.
अति विचारणीय आलेख..करना तो हर देशवासी को ही होगा इसकी हालत में सुधार के प्रयास..अवश्य स्वस्थ और सुन्दर होगा एक दिन.
उम्दा आलेख.
अजीतजी
बहुत ही महत्वपूर्ण बाते उठाई है आपने|बहुत ही सार्थक चर्चा रही है विचारो के आदान प्रदान से मानसिकता तो बदलेगी |हम सबको अपने अपने सुखो(भोतिक वस्तुओ के उपयोग ) से उठकर कुछ साथक फल करनी होगी क्योकि अब बाते तो
बहुत हो चुकी है |और ये भी उतना ही सत्य है की हम अपनी असफलताओ का दोष दूसरो को कब तक देते रहेंगे ?
अपने देश में प्रतिभा की पहचान भी तो नहीं है..ऐसे में लोग विदेशों का रूख करने को मजबूर हैं...देश की हालत को सुधारना किसी एके के बस की बात नहीं...सामूहिक रूप से प्रयास जरूरी है...लेकिन कहते हैं 'देश को भगवान भगत सिंह देना लेकिन हमारे घर नहीं पड़ोसी के घर'...ऐसे में आखिर सुधार की पहल कौन करे?
बहुत सुन्दर लेख!
ये बात सही ही लगती है।
दरअसल हम खुद ही स्वार्थी हैं, अपनों को धोखा देने और उनका शोषण करने से नहीं हिचकते.
सावन कि शुरुवात में ही अपने एक ऐसा लेख लिखा कि विचारों कि झड़ी लग गयी. बेहतरीन विचारोत्तेजक लेख लिखा धन्यवाद.
har koi desh ki avnati ke bare me sochta hai, kuchh karna chahta hai par karne ki aur aage badhne ki himmat nahi juta pata.
har koi chahta hai Bhagat singh paida ho patr apne ghar nahi padosi ke ghar.
cricket film industry aur glamour ki chakachondh me uljhe yuvao ko kaha hai fursat desh ke bare me sochne ki
hum apne rashtra, bhasha aur sanskriti ke prati saundaryabhav kho chuke hai.
hum yog ki hansi udaate hai aur yoga ko apnaane ke liye tadapte dhanya ho
Mayur
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देरी से पहुचने के लिए क्षमा चाहती हूँ.
आज आपने बहुत ही चुनिन्दा विषय उठाया है. बात रोजगार की करते हैं ...सभी जानते हैं हमारा देश विकासशील देश है और विकसित देश का बाजार मध्यम वर्ग पर टिका होता है..और हमारा भारतीय माध्यम वर्ग खरीदारी में सबसे आगे है...तो सोचिये हर उत्पाद चाहे वो कोरियन हो या चाईनीज़ सब जोरो से बिकता है तो उसी सामान के लिए कुटीर उद्योग मजे से फल-फूल सकता है. और इसके लिए अधिक शिक्षित होने की जरुरत भी नहीं. मतलब ये की विकास शील देश में रोज़गार की दिक्कत नहीं हो सकती बशर्ते की मन और लगन हो.
अब बात आती हें शिक्षा की तो हमारा देश किसी से शिक्षा में पीछे नहीं...अगर पीछे होता तो हमारे यहाँ के होनहार विदेशो में अच्छी जोब्स ना पा रहे होते. बस कमी है हमारे नौजवानों में जज्बे की जो अपने देश में रह कर देश की सेवा न कर के विदेशो को अपनी सेवाए सिर्फ इसलिए दे रहे हैं की वहाँ पैसा है..अरे पैसा पा कर बाकी तो वो सब खो रहे हैं न...रिश्तों को, कल्चर को, देश की मिटटी को.
यहाँ के लोग ज्यादा मेहनती पाए जाते हैं तभी उन्हें विदेशो में हर तरह के काम मिल जाते हैं.
बस हम और हमारे युवा पीढ़ी आज पैसो की चकाचोंध में भागी जा रही है विदेशो में...एक बार तो साडी युवा पीढ़ी खडी हो जाये यह बहिष्कार करने के लिए की हम विदेश नहीं जायेंगे अपनी उच्च शिक्षा का लाभ अपने देश को ही देंगे. तो क्या मजाल जो विदेशी हम से आगे हों ?
बस जज्बा हो न अपने देश के लिए यहीं रह कर कुछ करने का.
एक बढ़िया पोस्ट और विचारों के लिए धन्यवाद !
Ajitji, mere blog me tippani karne ke liye aur lekhan sarahane ke liye shukriya.
Vishaya aapne sahi uthaya hai, Rajkumar ko to abhi bhi loota ja reha hai, fark itna hai is baar lootere apne hi hain. Mere khayal se Nochna-Khonchna jyada upyukt rahega kyonki asali maal to bahari lootere le ude.
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